रविवार, 24 जनवरी 2021

BHAGVAD GITA 1:37

 यद्द्प्येते न पश्यन्ति लोभोपहचेतसः।

कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोही च पातकम।।३७।।

कथं न ज्ञेयमस्माभिः पापादस्मान्निवर्तितुं। 

कुलक्षयकृत दोषं प्रपश्यद्भिर्जनार्दन।।३८।। 

यदि :-यदि; अपि:-भी; एते:-ये; न:-नहीं; पश्यन्ति:-देखते हैं; लोभ :-लोभ से; अपहत :-अभिभूत; चेतसः :-चित वाले; कुल-क्षय:-कुल -नाश; कृतम:-किया हुआ; दोषम :-दोष को; मित्र द्रोहे:-मित्रों से विरोध करने में; च :-भी; पातकम:-पाप को;कथम:- क्यों; न:-नहीं; ज्ञेयम:-जानना चाहिए; अस्माभिः :- हमारे द्वारा; पापत :- पापों से; अस्मात:- इन; निवर्तितुम:-बंद करने के लिए; कुल-क्षय:-वंश का नाश; कृतम:-हो जाने पर; दोषम:- अपराध; प्रपश्यद्भि :-देखने वालों के द्वारा; जनार्दन :- हे कृष्ण !

हे जनार्दन ! यद्द्पि लोभ से अभिभूत चित्त वाले लोग अपने परिवार को मारने या अपने मित्रों से द्रोह करने में कोई दोष नहीं देखते,किन्तु हम लोग,जो परिवार के विनष्ट करने में अपराध देख सकते हैं,ऐसे पापकर्मो में क्यों प्रवृत्त हों ?

अर्थात:- क्षत्रिय से यह आशा नहीं की जाती कि वह अपने विपक्षी दल द्वारा युद्ध करने या जुआ खेलने का आमंत्रण दिए जाने पर मना  करे। ऐसी अनिवार्यता में अर्जुन लड़ने से नकार नहीं सकता क्योंकि उसको दुर्योधन के दल ने ललकारा था। इस प्रसंग में अर्जुन ने विचार किया कि हो सकता है कि दूसरा पक्ष इस ललकार के परिणामो के प्रति अनभिज्ञ हों। किन्तु अर्जुन को दुष्परिणाम दिखाई पड़ रहे थे अतः वह इस ललकार को स्वीकार नहीं कर सकता। यदि परिणाम अच्छा हो तो कर्तव्य वस्तुतः पालनीय है, किन्तु यदि परिणाम विपरीत हो तो हम उसके लिए बाध्य नहीं होते। इन पक्ष- विपक्षों पर विचार करके अर्जुन ने युद्ध न करने का निश्चय किया। 

क्रमशः !!!

  


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