रविवार, 15 अगस्त 2021

BHAGAVAD GITA 3:43

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एवं बुद्धेः परं बुद्ध्वा संस्तभ्यात्मानमात्मना। 

जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरसादम।। 

एवम-इस प्रकार;  बुद्धेः -बुद्धि से; परम -श्रेष्ठ ; बुद्ध्वा -जानकार ; संस्तभ्य -स्थिर करके ; आत्मानम -मन को ;आत्मना -सुविचारित बुद्धि द्वारा ; जहि -जीतो ; शत्रुम -शत्रु को ; महा-बाहो -हे महाबाहु ; काम-रूपम -काम के रूप में ; दुरसादम -दुर्जेय। 

इस प्रकार हे महाबाहु अर्जुन ! अपने आपको भौतिक इन्द्रियों, मन तथा बुद्धि से परे जान कर और मन को सावधान आद्यात्मिक बुद्धि (कृष्णभावनामृत ) से स्थिर करके आद्यात्मिक शक्ति द्वारा  इस काम -रुपी शत्रु को जीतो। 

तात्पर्य :-भगवद्गीता का यह तृतीय अध्याय निष्कर्षतः मनुष्य को निर्देश देता है कि वह निर्विशेष शुन्यवाद को चरम मानकर अपने आपको भगवान् का शाश्वत सेवक समझते हुए( कृष्णभावनामृत) में प्रवृत हो। भौतिक जीवन में मनुष्य काम तथा प्रकृति पर प्रभुत्व पाने की इच्छा से प्रभावित होता है। प्रभुत्व तथा इन्द्रियतृप्ति की इच्छाएं बद्धजीव की परम शत्रु हैं , किन्तु कृष्णभावनामृत की शक्ति से मनुष्य इन्द्रियों,मन तथा बुद्धि पर नियंत्रण रख सकता है। इसके लिए मनुष्य को सहसा अपने नियत कर्मो को बंद करने की आवश्यकता नहीं है ,अपितु धीरे-धीरे कृष्णभावनामृत विकसित करके भौतिक इन्द्रियों तथा मन से प्रभावित हुए बिना  स्वरूप के प्रति लक्षित स्थिर बुद्धि से दिव्य स्थिति को प्राप्त हुआ जा सकता है। यही इस अध्याय का सारांश है। सांसारिक जीवन की अपरिपक्व अवस्था में दार्शनिक चिंतन तथा योगिक साधनों के अभ्यास से इन्द्रियों को वश में करने के कृत्रिम प्रयासों से आध्यात्मिक जीवन प्राप्त करने में सहायता नहीं मिलती। उसे श्रेष्ठ बुद्धि द्वारा कृष्णभावनामृत में प्रशिक्षित होना चाहिए। 

 इस प्रकार श्रीमदभगवदगीता के तृतीय अध्याय  "कर्मयोग" का भक्तिवेदांत तात्पर्य पूर्ण हुआ। 

क्रमशः!!!🙏🙏