रविवार, 28 फ़रवरी 2021

BHAGAVAD GITA 2:27

🙏

जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च। 

        तस्मादपरिहार्येर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि।।२७।।🙏 

 जातस्य - वाले की; हि-निश्चय ही; ध्रुव:-तथ्य है; मृत्यु:-मृत्यु; जन्म -जन्म;मृतस्य -मृत प्राणी का; च -भी; तस्मात्-अतः; अपरिहार्ये -जिससे बचा न सके,उसका; अर्थे -के विषय में; न -नहीं; त्वम् -तुम; शोचितुम -शोक करने लिए; अर्हसि-योग्य हो। 

जिसने जन्म लिया है उसकी मृत्यु निश्चित है और मृत्यु के पश्चात पुनर्जन्म भी निश्चित है। अतः अपने अपरिहार्य कर्तव्यपालन में तुम्हें शोक नहीं  चाहिए।

तत्पर्य :- मनुष्य को  कर्मों के अनुसार जन्म ग्रहण करना होता है और एक कर्म -अवधि समाप्त होने पर उसे मरना होता है,जिससे वह दूसरा जन्म ले सके। इस प्रकार मुक्ति प्राप्त किये बिना मृत्यु का यह चक्र चलता रहता है। जन्म मरण के इस चक्र से वृथा हत्या,वध  युद्ध का समर्थन नहीं होता किन्तु मानव समाज में शांति तथा व्यवस्था बनाये रखने के लिए हिंसा तथा युद्ध अपरिहार्य है। 

कुरुक्षेत्र का युद्ध भगवान् की इच्छा होने कारण अपरिहार्य था और सत्य के लिए युद्ध करना क्षत्रिय का धर्म है। अतः  कर्तव्य का पालन करते हुए वह स्वजनों की मृत्यु भयभीत या शोकाकुल क्यों था ?यह विधि (कानून )को भंग नहीं करना चाहता था क्योंकि ऐसा करने पर  उसे उन पापकर्मों के फल भोगने पड़ेंगे जिनसे वह अत्यंत भयभीत था। अपने कर्तव्य का पालन करते हुए वह स्वजनों की मृत्यु को रोक नहीं सकता था और यदि वह  कर्तव्य -पथ  चुनाव करे,तो उसे नीचे गिरना होगा।

क्रमशः !!!   

 


 

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शनिवार, 27 फ़रवरी 2021

BHAGAVAD GITA 2:26

अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम। 

तथापि त्वं महाबाहो नैनं शोचितुमर्हसि।।२६।।  

अथ:-यदि,फिर भी, च-भी; एनम -इस आत्मा को; नित्य -जातम-उत्पन्न होने वाला; नित्यम-सदैव के लिए; वा-अथवा; मन्यसे-तुम ऐसा सोचते हो; मृतम-मृत;तथा अपि-फिर भी; त्वम्- तुम भी;महा -बाहो-हे शूरवीर; न -कभी नहीं; एनम-आत्मा के विषय में; शोचितुम -शोक करने के लिए; अर्हसि-योग्य हो। 

किन्तु यदि तुम यह सोचते हो कि आत्मा (अथवा जीवन का लक्षण )सदा जन्म लेता तथा सदा मरता है तो भी हे महाबाहु !तुम्हारे शोक करने का कोई कारण नहीं है। 

तत्पर्य :- सदा से दार्शनिकों का एक ऐसा वर्ग चला आ रहा है,जो बौद्धों के ही समान यह नहीं मानता कि शरीर के परे भी आत्मा का स्वतंत्र अस्तित्व है। ऐसा प्रतीत होता है कि जब भगवान् कृष्ण ने भगवदगीता का उपदेश दिया तो ऐसे दार्शनिक विद्दमान थे और लोकायतिक तथा वैभाषिक नाम से जाने जाते थे। ऐसे दार्शनिकों का मत है कि जीवन के लक्षण भौतिक संयोग की एक परिपक्वावस्था में ही घटित होते हैं। आधुनिक भौतिक विज्ञानी तथा भौतिक वादी दार्शनिक भी ऐसा ही सोचते हैं। उनके अनुसार शरीर भौतिक तत्वों का संयोग है और एक अवस्था ऐसी आती है जब भौतिक तथा रासायनिक तत्वों के संयोग से जीवन के लक्षण विकसित हो उठते हैं। नृतत्व विज्ञान इसी दर्शन पर आधारित है। सम्प्रति अनेक छद्म धर्म-जिनका अमेरिका में प्रचार हो रहा है -इसी दर्शन का पालन करते हैं और साथ ही शून्यवादी अभक्त बौद्धों का अनुसरण करते हैं। 

यदि अर्जुन को आत्मा के अस्तित्व में विश्वास नहीं था, जैसा कि वैभाषिक दर्शन में होता है तो भी उसके शोक करने का कोई कारण न था। कोई भी मानव थोड़े से रसायनो की क्षति के लिए शोक नहीं करता तथा अपना कर्तब्यपालन नहीं त्याग देता है। दूसरीओर, आधुनिक विज्ञान तथा वैज्ञानिक युद्ध में शत्रु पर विजय प्राप्त करने के लिए न जाने कितने टन रसायन फूँक देते हैं। वैभाषिक दर्शन के अनुसार आत्मा शरीर के क्षय होते ही लुप्त हो जाता है।

 अतः प्रत्येक दशा अर्जुन इस वैदिक मान्यता को स्वीकार करता कि अणु आत्मा का अस्तित्व को स्वीकार करता,उसके लिए शोक करने का कोई कारण नहीं था इस सिद्धांत के अनुसार चूँकि पदार्थ से प्रत्येक क्षण असंख्य जीव उत्पन्न होते हैं और नष्ट होते रहते हैं,अतः ऐसी घटनाओं के लिए शोक करने की कोई आवश्यकता नहीं है। यदि आत्मा का पुनर्जन्म नहीं होता तो अर्जुन को अपने पितामह तथा गुरु के वध करने के पापफलों से डरने का कोई कारण न था। किन्तु साथ ही कृष्ण ने अर्जुन को व्यंग्यपूर्वक महाबाहु कहकर सम्बोधित  किया क्योंकि उसे वैभाषिक सिद्धांत स्वीकार नहीं था,जो वैदिक ज्ञान के प्रतिकूल है। क्षत्रिय होने के नाते अर्जुन का सम्बन्ध वैदिक संस्कृति से था और वैदिक सिद्धांतों का पालन करते रहना ही उसके लिए शोभनीय था। 

क्रमशः !!!   

शुक्रवार, 26 फ़रवरी 2021

BHAGAVAD GITA 2:25

🙏🙏अव्यक्तो यमचिन्त्यो यमविकार्यो यमुच्यते। 

तस्मादेवं विदित्वैन नानुशोचितुमर्हसि।।२५।।🙏🙏


  अव्यक्त -अदृश्य; अयम-यह आत्मा; अचिन्त्य:-अकल्पनीय; अयम-यह आत्मा; अविकार्य-अपरिवर्तित; अयम-यह आत्मा; उच्यते-कहलाता है;तस्मात्-अतः;एवम -इस प्रकार; विदित्वा-अच्छी तरह जानकर; एनम-इस आत्मा के विषय में;न-नहीं; अनुशोचितम-शोक करने के लिए; अर्हसि-योग्य हो। 

यह आत्मा अव्यक्त,अकल्पनीय तथा अपरिवर्तनीय कहा जाता है। यह जानकार तुम्हें शरीर के लिए शोक नहीं करना चाहिए। 

तात्पर्य :- जैसा कि पहले कहा जा चुका है,आत्मा इतना सूक्ष्म है कि इसे सर्वाधिक शक्तिशाली सूक्ष्मदर्शी यंत्र से भी नहीं देखा जा सकता,अतः यह अदृश्य है। जहाँ तक आत्मा के अस्तित्व का सम्बन्ध है,श्रुति के प्रमाण के अतिरिक्त अन्य किसी प्रयोग द्वारा इसके अस्तित्व को सिद्ध नहीं किया जा सकता। हमें इस सत्य को स्वीकार करना पड़ता है क्योंकि अनुभवगम्य सत्य होते हुए भी आत्मा के अस्तित्व को समझने के लिए कोई अन्य साधन नहीं है। हमें अनेक बातें केवल उच्च प्रमाणों के आधार पर माननी पड़ती है। कोई भी अपनी माता के आधार पर अपने पिता के अस्तित्व को अस्वीकार नहीं कर सकता। पिता के स्वरूप को जानने का साधन एकमात्र प्रमाण माता है। इसी प्रकार वेदाध्ययन के अतिरिक्त आत्मा को समझने का अन्य उपाय नहीं है। दूसरे शब्दों में,आत्मा मानवीय व्यावहारिक ज्ञान द्वारा अकल्पनीय है। आत्मा चेतना और चेतन है -वेदों के इस कथन को हमें स्वीकार करना होगा। आत्मा में शरीर जैसे परिवर्तन नहीं होते। मूलतः अविकारी रहते हुए आत्मा अनन्त परमात्मा की तुलना में अणु -रूप है। परमात्मा अनन्त है और अणु -आत्मा अति सूक्ष्म है। अतः अति सूक्ष्म आत्मा अविकारी होने के कारण अनन्त आत्मा भगवान् के तुल्य नहीं हो सकता। यही भाव वेदों में भिन्न -भिन्न प्रकार से आत्मा के स्थायित्व की पुष्टि करने के लिए दुहराया गया है। किसी बात का दुहराना उस तथ्य को बिना किसी त्रुटि के समझने के लिए आवश्यक है। 

क्रमशः !!!   🙏🙏

गुरुवार, 25 फ़रवरी 2021

BHAGAVAD GITA 2:24

 अच्छेद्योयमदहोयमक्लेद्यो शोष्य एव च। 

नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोयं सनातनः।।२४।।

अच्छेद्य:-न टूटने वाला; अयम-यह आत्मा; अदाह्यः -न जलाया जा सकने वाला; अयम -यह आत्मा; अक्लेद्य:-अघुलनशील; अशोष्य-न सुखाया  सकने वाला; एव-निश्चय ही; च -तथा; नित्य:-शाश्वत; सर्व-गत:-सर्वव्यापी; स्थाणु -अपरिवर्तनीय,अविकारी; अचल:-जड़; अयम-यह आत्मा; सनातनः सदैव एक सा। 

यह आत्मा अखंडित तथा अघुलनशील है। इसे न तो जलाया जा सकता है,न ही सुखाया जा सकता है। यह शाश्वत,सर्वव्यापी,अविकारी,स्थिर तथा सदैव एक सा रहने वाला है। 

तात्पर्य :- अणु -आत्मा के इतने सारे गुण यही सिद्ध करते हैं कि आत्मा पूर्ण आत्मा का अणु -अंश है और बिना किसी परिवर्तन के निरन्तर उसी तरह बना रहता है। इस प्रसंग में अद्वैतवाद को व्यवहृत करना कठिन है क्योंकि अणु आत्मा कभी भी परम -आत्मा के साथ मिलकर एक नहीं हो सकता। भौतिक कल्मष से  होकर अणु -आत्मा भगवान् के तेज की किरणों की आध्यात्मिक स्फुलिंग बनकर रहना चाह सकता है,किन्तु बुद्धिमान जीव तो भगवान् की संगति के लिए वैकुण्ठलोक में प्रवेश करता है। 

सर्वगत शब्द महत्वपूर्ण है क्योंकि इसमें कोई संशय नहीं है जीव भगवान् की समग्र सृष्टि में फैले हुए हैं। वे जल,थल,वायु,पृथ्वी के भीतर तथा अग्नि के भीतर भी रहते हैं। जो यह मानते हैं कि वे अग्नि में स्वाहा हो जाते हैं.वह ठीक नहीं है क्योंकि यहाँ कहा गया है कि आत्मा को अग्नि द्वारा जलाया नहीं जा सकता। अतः इसमें संदेह नहीं कि सूर्यलोक में भी उपयुक्त प्राणी निवास करते हैं। यदि सूर्यलोक निर्जन हो तो सर्वगत शब्द निरर्थक हो जाता है। 

क्रमशः !!! 🙏🙏

बुधवार, 24 फ़रवरी 2021

BHAGAVAD GITA 2:23

  नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः। 

न चैनं क्लेदयन्त्यापो  शोषयति मारुतः।। 

न -कभी नहीं; एनम -इस आत्मा को; छिन्दन्ति -खंड -खंड कर सकते हैं; शस्त्राणि -हथियार; न-कभी नहीं;एनम -इस आत्मा को; दहति-जला सकता है; पावकः -अग्नि; न -कभी नहीं; च-भी; एनम -इस आत्मा को; क्लेदयन्ती -भिगो सकता है; आप:-जल; न -कभी नहीं; शोषयति -सूखा  सकता है;मारुतः -वायु। 

यह आत्मा न तो कभी किसी शस्त्र द्वारा खण्ड-खण्ड किया जा सकता है,न अग्नि द्वारा जलाया जा सकता है,न जल द्वारा भिगोया या वायु द्वारा सुखाया जा सकता है। 

तात्पर्य :- सारे हथियार -तलवार,आग्नेयास्त्र,वर्षा के अस्त्र,चक्रवात आदि आत्मा को मारने में असमर्थ हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि आधुनिक आग्नेयास्त्रों के अतिरिक्त मिट्टी,जल,वायु,आकाश आदि के भी अनेक प्रकार के हथियार होते थे। यहाँ कि आधुनिक युग के नाभिकीय हथियारों की गणना भी आग्नेयास्त्रों में की जाती है,किन्तु  पूर्वकाल में विभिन्न पार्थिव तत्वों से बने हुए हथियार होते थे। आग्नेयास्त्रों का सामना जल के (वरुण) हथियारों से किया जाता था,जो आधुनिक विज्ञान के लिए अज्ञात है। आधुनिक विज्ञान को चक्रवात हथियारों का भी पता नहीं है। जो भी हो,आत्मा न तो कभी खण्ड -खण्ड किया  सकता है ,न किन्ही वैज्ञानिक हथियारों से उसका संहार किया सकता है, चाहे उनकी संख्या कितनी ही क्यों न हो। 

मायावादी इसकी व्याख्या नहीं कर सकते कि जीव किस प्रकार अपने अज्ञान के कारण उत्पन्न हुआ है और तत्पश्चात माया की शक्ति से आवृत हो गया। न ही आदि परमात्मा से जीवों को विलग कर पाना सम्भव था,प्रत्युत सारे जीव परमात्मा से विलग हुए अंश हैं। चूँकि  सनातन अणु -आत्मा हैं,अतः माया द्वारा आवृत होने की उनकी प्रवृति स्वाभाविक है और  तरह वे भगवान् की संगति से पृथक हो जाते हैं, जिस प्रकार अग्नि के स्फुलिंग अग्नि से विलग होते ही बुझ जाते हैं,यद्दपि इन दोनों गुण समान होते हैं। वाराह पुराण में जीवों को परमात्मा का भिन्न अंश कहा गया है। भगदगीता के अनुसार भी वे शाश्वत रूप से ऐसे ही हैं। अतः मोह से मुक्त होकर भी जीव पृथक अस्तित्व रखता है, जैसा कि कृष्ण द्वारा अर्जुन को  दिये  गये  उपदेशों से स्पष्ट है  अर्जुन कृष्ण के उपदेश के कारण मुक्त तो हो गया,किन्तु कभी भी कृष्ण  से एकाकार  नहीं हुआ। 

क्रमशः 🙏🙏                                         

BHAGAVAD GITA 2:22

 वासांसि जीर्णानि यथा विहाय

             नवानी गृह्णति नरोपराणि। 

तथा शरीराणि विहाय जीर्णा 

               न्यन्यानि संयाति नवानि देहि।।२२।।

वासांसि -वस्त्रों को;जीर्णानि -पुराने तथा फटे; यथा -जिस प्रकार; विहाय -त्याग कर; नवानि-नए वस्त्र; गृह्णति-ग्रहण करता है;नरः -मनुष्य; अपराणि -अन्य; तथा -उसी प्रकार;शरीराणि-शरीरों को; विहाय-त्याग कर; जीर्णानि -वृद्ध तथा व्यर्थ; अन्यानि-भिन्न; संयाति-स्वीकार करता है; नवानि-नये; देही-देहधारी आत्मा। 

जिस प्रकार मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्याग कर नये वस्त्र धारण करता है,उसी प्रकार आत्मा पुराने तथा व्यर्थ के शरीर को त्याग कर नवीन भौतिक शरीर धारण करता है 

तात्पर्य :- अणु -आत्मा द्वारा शरीर का परिवर्तन एक स्वीकृत तथ्य है। आधुनिक विज्ञानीजन तक,जो आत्मा के अस्तित्व पर विश्वास नहीं करते,पर साथ ही ह्रदय से शक्ति-साधन की व्याख्या भी नहीं कर पात,अतः उन परिवर्तनों को स्वीकार  बाध्य हैं, जो बाल्यकाल से कौमार्यावस्था और फिर तरुणावस्था तथा वृद्धावस्था में होते रहते हैं। वृद्धावस्था से यही परिवर्तन दूसरे शरीर में स्थानान्तरित हो जाता है। इसकी  व्याख्या एक पिछले श्लोक में २.१ ३ की जा चुकी है। 

अणु -आत्मा का दूसरे शरीर में स्थानांतरण परमात्मा की कृपा से सम्भव हो पाता  है। परमात्मा अणु -आत्मा की इच्छाओं की पूर्ति उसी तरह करते हैं,जिस प्रकार एक मित्र दूसरे की इच्छापूर्ति करता है मुण्डक तथा श्वेताश्वतर उपनिषदों में आत्मा तथा परमात्मा की उपमा दो मित्र पक्षियों से दी गयी है,जो एक ही वृक्ष पर वैठे हैं। इनमे से एक पक्षी (अणु -आत्मा)वृक्ष के फल को खा रहा है और दूसरा पक्षी (कृष्ण )अपने मित्र को देख रहा है। यद्दपि दोनों पक्षी सामान गुण वाले हैं किन्तु इनमे से एक भौतिक वृक्ष के फलों पर मोहित है,किन्तु दूसरा अपने मित्र  कार्यकलापों का साक्षी मात्र है। कृष्ण साक्षी पक्षी है,और अर्जुन फल भोक्ता पक्षी। यद्दपि दोनों मित्र (सखा ) हैं, किन्तु फिर भी एक स्वामी है और दूसरा सेवक है। अणु -आत्मा द्वारा इस सम्बन्ध की विस्मृति ही उसके एक वृक्ष से दूसरे पर जाने या एक शरीर से दूसरे में जाने का कारण है। जीव आत्मा प्रकृत शरीर रुपी वृक्ष पर अत्यधिक संघर्षशील है,किन्तु ज्योंही वह दूसरे पक्षी को परम गुरु के रूप में स्वीकार करता है -जिस प्रकार अर्जुन कृष्ण का उपदेश ग्रहण करने के लिए स्वेच्छा से उनकी शरण में जाता है -त्योंही परतंत्र पक्षी तुरंत सारे शोकों से विमुक्त हो जाता है। मुण्डक उपनिषद के (३.१.२ )तथा श्वेताश्वतर -उपनिषद (४.७ )समान रूप से इसकी पुष्टि करते हैं -

समाने वृक्षे पुरुषों निमग्नोनीशया शोचति मुह्यमानः। 

जुष्टं यदा पश्यत्यन्यमीशमस्य महिमानमिति वीतशोकः।।  

"यद्दपि दोनों पक्षी एक ही वृक्ष पर बैठे हैं, किन्तु फल खाने वाला पक्षी वृक्ष के फल के भोक्ता रूप में चिंता तथा विषाद में निमग्न है। यदि किसी तरह वह अपने मित्र भगवान् की ओर उन्मुख होता है और उनकी महिमा को जान लेता है तो वह कष्ट भोगने वाला पक्षी तुरंत समस्त चिंताओं से मुक्त हो जाता है। "अब अर्जुन ने अपना मुख अपने शाश्वत मित्र कृष्ण कीओर फेरा है और उनसे भगवतगीता समझ रहा है। इस प्रकार वह कृष्ण से श्रवण करके भगवान् की परम महिमा को समझ कर शोक से मुक्त हो सकता है। 

यहाँ भगवान् ने अर्जुन को उपदेश दिया है कि वह अपने पितामह तथा गुरु के देहान्तरण पर शोक प्रकट न करें अपितु उसे इस धर्मयुद्ध में उनके शरीरों का वध करने में प्रसन्न होना चाहिए,जिससे वे सब विभिन्न शारीरिक कर्म -फलों से तुरंत मुक्त हो जाँय। बलिबेदी पर या धर्मयुद्ध में प्राणों को अर्पित करने वाला व्यक्ति तुरंत शारीरिक पापों से मुक्त हो जाता है और उच्च लोक को प्राप्त होता है। अतः अर्जुन का शोक करना युक्तिसंगत नहीं है। 

क्रमशः !!!


                                                                     

सोमवार, 22 फ़रवरी 2021

BHAGAVAD GITA 2:21

 🙏🙏

वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम। 

कथं स पुरुषः पार्थ कं घातयति हन्ति कम।।२१।।

🙏🙏 

वेद -जानता है;अविनाशिनं -अविनाशी को;नित्यं -शाश्वत; यः -जो; एनम -इस (आत्मा );अजम -अजन्मा; अव्ययं -निर्विकार; कथम -कैसे; सः -वह; पुरुषः -पुरुष; पार्थ -हे पार्थ(अर्जुन ); कम -किसको; घातयति -मरवाता है; हन्ति -मारता है; कम -किसको। 

हे पार्थ ! जो व्यक्ति यह जानता है की आत्मा अविनाशी,अजन्मा,शाश्वत तथा अव्यय है ,वह भला किसी को कैसे मार सकता है या मरवा सकता है ? 

तात्पर्य :- प्रत्येक वस्तु की समुचित उपयोगिता होती है और जो ज्ञानी होता है वह जानता है कि किसी वस्तु का कहाँ और कैसे प्रयोग किया जाय। इसी प्रकार हिंसा की भी अपनी उपयोगिता है और इसका उपयोग इसे जानने वाले पर निर्भर करता है। यद्दपि हत्या करने वाले व्यक्ति को न्यायसंहिता के अनुसार प्राणदण्ड दिया जाता है,किन्तु न्यायाधीश को दोषी नहीं ठहराया जा सकता,क्योंकि वह न्यायसंहिता के अनुसार ही दूसरे व्यक्ति पर हिंसा किये जाने का आदेश देता है। मनुष्यों के विधि-ग्रन्थ मनुसंहिता में इसका समर्थन किया गया है कि हत्यारे को प्राणदंड देना चाहिए जिससे उसे अगले जीवन में अपना पापकर्म भोगना न पड़े। अतः राजा द्वारा हत्यारे को फाँसी का दंड एक प्रकार से लाभप्रद है। 

 इसी प्रकार जब कृष्ण युद्ध करने का आदेश देते हैं तो यह समझना चाहिए कि यह हिंसा परम न्याय के लिए है और इस तरह अर्जुन को इस आदेश का पालन यह समझ कर करना चाहिए कि कृष्ण के लिए किया गया युद्ध हिंसा नहीं है क्योंकि मनुष्य या दूसरे शब्दों में आत्मा को मारा नहीं जा सकता। अतः न्याय के हेतु तथाकथित हिंसा की अनुमति है। शल्यक्रिया का प्रयोजन रोगी को मारना नहीं अपतु उसको स्वस्थ बनाना है। अतः कृष्ण  आदेश पर अर्जुन द्वारा किये जाने वाला युद्ध पुरे ज्ञान के साथ हो रहा है,उससे पापफल की संभावना नहीं है। 🙏🙏

क्रमशः !!!

रविवार, 21 फ़रवरी 2021

BHAGAVAD GITA 2:20

🙏🙏 न जायते म्रियते वा कदाचि-

      न्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः।

अजो नित्यः शाश्वतोयं पुराणों 

     न हन्यते हन्यमाने शरीरे।।२०।। 🙏🙏

न -कभी नहीं; जायते-जन्मता है; म्रियते :-मरता है; वा -या; कदाचित -कभी भी;(भूत,वर्तमान,या भविस्य) न -कभी नहीं; अयम -यह; भूत्वा -होकर; भविता -होने वाला; वा -अथवा; न -नहीं; भूयः-अथवा,पुनः होने वाला है; अजः-अजन्मा; नित्य -नित्य; शाश्वत -स्थायी; अयम-यह;पुराणः-सबसे प्राचीन; न -नहीं; हन्यते -मारा जाता है; शरीरे-शरीर में। 

आत्मा के लिए किसी भी काल में न तो जन्म है न मृत्यु। वह न तो कभी जन्मा है,न जन्म लेता है और न जन्म लेगा। वह अजन्मा,नित्य,शाश्वत तथा पुरातन है। शरीर के मारे जाने पर वह मारा नहीं जाता। 

तात्पर्य :- गुणात्मक दृष्टि से, परमात्मा का अणु -अंश परम से अभिन्न है। वह शरीर की भांति विकारी नहीं है। कभी -कभी आत्मा को स्थायी या कूटस्थ कहा जाता है। शरीर में छह प्रकार के रूपान्तर होते है। वह माता के गर्भ से जन्म लेता है,कुछ काल तक रहता है,बढ़ता है,कुछ परिणाम उत्पन्न करता है,धीरे -धीरे क्षीण होता है और अन्त में समाप्त हो जाता है। किन्तु आत्मा में ऐसे परिवर्तन नहीं होते। आत्मा अजन्मा है,किन्तु चूँकि वह भौतिक शरीर धारण करता है,अतः शरीर जन्म लेता है। आत्मा न तो जन्म लेता है,न मरता है। जिसका जन्म होता है उसकी मृत्यु भी होती है। और चूँकि आत्मा जन्म नहीं लेता,अतः उसका न तो भूत है,न वर्तमान,न भविष्य। वह नित्य,शाश्वत तथा सनातन है -अर्थात उसके जन्म लेने का कोई इतिहास नहीं है। हम शरीर के प्रभाव में आकर आत्मा के जन्म,मरण आदि का इतिहास खोजते हैं। आत्मा शरीर की तरह कभी भी वृद्ध नहीं है अतः तथाकथित वृद्ध पुरुष भी अपने में बाल्यकाल या युवावस्था जैसी अनुभूति पाता है। शरीर  परिवर्तनों का आत्मा पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। आत्मा वृक्ष या किसी अन्य भौतिक वस्तु की तरह क्षीण नहीं होता। आत्मा की कोई उपसृष्टि नहीं होती। शरीर की उपसृष्टि संतानें हैं और वे भी व्यष्टि आत्माएं हैं और शरीर के कारण वे किसी न किसी की संतानें प्रतीत होते हैं शरीर की वृद्धि आत्मा की उपस्थिति के कारण होती है,किन्तु आत्मा के न तो कोई उपवृद्धि है न ही इसमें कोई परिवर्तन होता है। अतः आत्मा शरीर के छः प्रकार के परिवर्तन से मुक्त है। 

कठोपनिषद (१.२.१८ ) के अनुसार -

 न जायते  म्रियते वा  विपश्चिन 

         नायं कुतश्चिन्न बभूव कश्चित। 

अजो नित्यः  शाश्वतो यं  पुराणों 

           न हन्यते  हन्यमाने  शरीरे।।  

इस श्लोक का अर्थ भगवदगीता के श्लोक जैसा ही है,किन्तु इस श्लोक में एक विशिष्ट शब्द विपश्चित का प्रयोग हुआ है जिसका अर्थ है विद्वान या ज्ञानमय। 

आत्मा ज्ञान से या चेतना से सदैव पूर्ण रहता है। अतः चेतना ही आत्मा का लक्षण है। यदि कोई ह्रदयस्थ आत्मा को नहीं खोज पाता तब भी वह आत्मा की उपस्थिति को चेतना की उपस्थिति से जान सकता है। कभी-कभी हम बादलों या अन्य कारणों से सूर्य को नहीं देख पाते,किन्तु सूर्य का प्रकाश सदैव विद्दमान रहता है,अतः हमें विश्वास सो जाता है कि यह दिन का समय है। प्रातःकाल ज्यों ही आकाश में थोड़ा सा सूर्य प्रकाश दिखता है तो हम समझ जाते हैं कि सूर्य आकाश में है। इसी प्रकार चूँकि शरीरों में,चाहे पशु के हों या पुरुषों के,कुछ न कुछ चेतना रहती है,अतः हम आत्मा की उपस्थिति को जान लेते हैं। किन्तु जीव की यह चेतना परमेश्वर की चेतना से भिन्न है क्योंकि परम चेतना तो सर्वज्ञ है -भूत,वर्तमान तथा भविष्य के ज्ञान से पूर्ण। व्यष्टि जीव की चेतना विस्मरणशील है। जब वह अपने वास्तविक स्वरूप को भूल जाता है,तो उसे कृष्ण के उपदेशों से शिक्षा तथा प्रकाश और बोध प्राप्त होता है। किन्तु कृष्ण विस्मरणशील जीव नहीं है। यदि वे ऐसे होते तो उनके द्वारा दिये गये भगवदगीता के उपदेश व्यर्थ होते। 

आत्मा के दो प्रकार होते हैं -एक तो अणु-आत्मा और दूसरा विभु -आत्मा। कठोपनिषद में (१.२.२० )इसकी पुष्टि इस प्रकार हुई है - 

अणोरणियांमहतो महियानं 

          आत्मास्य जाणतोर्निहितो गुहायाम। 

तमक्रतुः पश्यति  वीतशोको 

           धातुः प्रसादान्महिमानमात्मनः।। 

"परमात्मा  तथा अणु-आत्मा दोनों शरीर रुपी उसी वृक्ष में जीव के ह्रदय में विद्द्मान हैं और इनमे से जो समस्त इच्छाओं तथा शोकों से मुक्त हो चुका है वही भगवत्कृपा से आत्मा की महिमा को समझ सकता है। "कृष्ण परमात्मा के भी उदगम हैं जैसा कि अगले अध्यायों में बताया जायेगा और अर्जुन अणु -आत्मा के समान है जो अपने वास्तविक स्वरूप को भूल गया है। अतः उसे कृष्ण द्वारा या उनके प्रामाणिक प्रतिनिधि गुरु द्वारा प्रबुद्ध किये जाने की आवश्यकता है। 🙏🙏

क्रमशः !!! 

शनिवार, 20 फ़रवरी 2021

BHAGAVAD GITA 2:19

🙏🙏 य एनं वेति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम। 

उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते।।१९।।

यः-जो; एनम -इसको; वेत्ति-जानता है; हन्तारम-मारने वाला; यः -जो; च -भी; एनम-इसे; मन्यते -मानता है; हतम -मरा हुआ; उभौ -दोनों; तौ -वे; न -कभी नहीं; विजानीत-जानते है; न -कभी नहीं; अयम-यह; हन्ति -मारता है; न -नहीं; हन्यते -मारा जाता है। 

जो इस जीवात्मा को मारने वाला समझता है तथा जो इसे मरा हुआ समझता है; वे जो अज्ञानी हैं, क्योंकि आत्मा न तो मारता है और न मारा जाता है। 

तात्पर्य :- जब देहधारी जीव को किसी घातक हथियार से आघात पहुँचाया जाता है तो यह समझ लेना चाहिए कि शरीर के भीतर का जीवात्मा मरा नहीं। आत्मा इतना सूक्ष्म है कि इसे किसी तरह के भौतिक हथियार से मार पाना असम्भव है, जैसा की अगले श्लोकों से स्पष्ट हो जायेगा। न ही जीवात्मा अपने आध्यात्मिक स्वरूप के कारण वध्य है। जिसे मारा जाता है या जिसे मरा हुआ समझा जाता है वह केवल शरीर होता है। किन्तु इसका तात्पर्य शरीर का वध को प्रोत्साहित करना नहीं। वैदिक आदेश है -मा हिंस्यात सर्वा भूतानि -किसी भी जीव की हिंसा न करो। न ही 'जीवात्मा का अवध्य है' का अर्थ यह है कि पशु -हिंसा को प्रोत्साहन दिया जाय। किसी भी जीव के शरीर की अनाधिकार हत्या करना निंद्य है और राज्य तथा भगवदविधान के द्वारा दंडनीय है। किन्तु अर्जुन को तो धर्म के नियमानुसार मारने के लिए नियुक्त किया जा रहा था, किसी पागलपनवश नहीं। 🙏🙏

क्रमशः !!!   

  

शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2021

BHAGAVAD GITA 2:18

अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः 

अनाशिनो प्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत।।१८।।

अन्त-वंत -नाशवान; इमे -ये सब; देहा -भौतिक शरीर; नित्यस्य -नित्य स्वरुप; उक्ताः -कहे जाते हैं; शरीरिणः-देहधारी जीव का; अनाशिनः -कभी नाश न होने वाला;अप्रमेयस्य -न मापा जा सकने योग्य; तस्मात् -अतः; युध्यस्य-युद्ध करो; भारत हे भरतवंशी। 

अविनाशी, अप्रमेय तथा शाश्वत जीव के भौतिक शरीर का अन्त अवस्यम्भावी है। अतः हे भरतवंशी !युद्ध करो। 

तात्पर्य :- भौतिक शरीर स्वभाव से नाशवान है। यह तत्क्षण नष्ट हो सकता है और सौ वर्ष बाद भी। यह केवल समय की बात है। इसे अनन्त काल तक बनाये रखने की कोई सम्भावना नहीं है। किन्तु आत्मा इतना सूक्ष्म है कि इसे शत्रु देख भी नहीं सकता,मारना तो दूर रहा। जैसा कि पिछले श्लोक में कहा गया है,यह इतना सूक्ष्म है कि कोई इसके मापने की बात सोच भी नहीं सकता। अतः दोनों ही दृष्टि से शोक का कोई कारण नहीं है क्योंकि जीव जिस रूप में है, न तो उसे मारा जा सकता है,न ही शरीर को कुछ समय तक या स्थायी रूप से बचाया जा सकता है। पूर्ण आत्मा के सूक्ष्म कण अपने कर्म के अनुसार ही यह शरीर धारण करते हैं,अतः धार्मिक नियमों का पालन करना चाहिए। वेदांत -सूत्र में जीव को प्रकाश बताया गया है क्योंकि वह परम प्रकाश का अंश है। जिस प्रकार सूर्य का प्रकाश  सारे ब्रह्माण्ड का पोषण करता है उसी प्रकार आत्मा के प्रकाश से इस भौतिक देह का पोषण होता है। जैसे ही आत्मा इस भौतिक शरीर से बाहर निकल जाता है,शरीर सड़ने लगता है,अतः आत्मा ही शरीर का पोषक है। शरीर अपने आप में महत्वहीन है। इसलिए अर्जुन को उपदेश दिया गया कि वह युद्ध करे और भौतिक शरीरिक कारणों से धर्म की बलि न  होने दे। 

क्रमशः !!!   

गुरुवार, 18 फ़रवरी 2021

BHAGAVAD GITA 2:17

 अविनाशी तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम। 

विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चितकर्तुमर्हति।।१७।।

अविनाशी -नाशरहित; तु -लेकिन; तत -उसे; विद्धि -जानो; येन -जिससे; सर्वम -सम्पूर्ण,शरीर; इदम -यह; ततम -परिव्याप्त; विनाशम -नाश; अव्ययस्य -अविनाशी का; अस्य -इस; न कश्चित् -कोई भी नहीं; कर्तुम -करने के लिए; अर्हति -समर्थ है। 

जो सारे शरीर में व्याप्त है उसे ही तुम अविनाशी समझो।इस अव्यय आत्मा को नष्ट करने में कोई भी समर्थ  नहीं है। 

तात्पर्य :- इस श्लोक में सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त आत्मा की प्रकृति का अधिक स्पष्ट वर्णन हुआ है। सभी लोग समझते हैं कि जो सारे शरीर में व्याप्त है वह चेतना है। प्रत्येक व्यक्ति को शरीर में किसी अंश या पुरे भाग में सुख दुःख का अनुभव होता है। किन्तु चेतना की यह व्याप्ति किसी शरीर तक ही सीमित रहती है। एक शरीर से सुख या दुःख का बोध दूसरे शरीर को नहीं हो पाता। फलतः प्रत्येक शरीर में व्यष्टि आत्मा है और इस आत्मा की उपस्थिति का लक्षण व्यष्टि चेतना द्वारा परिलक्षित होता है। इस आत्मा बाल के अग्रभाग के दस हजारवें भाग के तुल्य बताया जाता है। श्वेतश्वतर उपनिषद में (५.९ )इसकी पुष्टि हुई है -

बालग्रशतभागस्य  शतधा  कल्पितस्य च। 

भागो  जीवः स विज्ञेय : स  चानन्त्याय  कल्पते।। 

"यदि बाल के अग्रभाग  को एक सौ भागों में बिभाजित किया जाय और फिर इनमे से प्रत्येक भाग को एक सौ भागों में विभाजित किया जाय तो इस तरह के प्रत्येक भाग की माप आत्मा का परिमाप है। इसी प्रकार यही कथन निम्नलिखित श्लोक में मिलता है -

केशारग्रशतभागस्य  शतांशः सादृश्यात्मकः।

जीवः सूक्ष्मस्वरुपोयं  संख्यातीतो  हि  चित्कणः।। 

 "आत्मा के परमाणुओं के अनंत कण हैं जो माप में बाल के अगले भाग (नोक) के दस हजारवें भाग के बराबर है। "

इस प्रकार आत्मा का प्रत्येक कण भौतिक परमाणुओं से भी छोटा है और ऐसे असंख्य कण हैं। यह अत्यंत लघु आत्म -स्फुलिंग भौतिक शरीर का मूल आधार है और इस आत्म स्फुलिंग का प्रभाव सारे शरीर में उसी तरह व्याप्त है जिस प्रकार किसी औषधि का प्रभाव व्याप्त रहता है। आत्मा की यह धारा (विद्धुत धारा)सारे शरीर में चेतना के रूप में अनुभव की जाती है और यही आत्मा का प्रमाण है। सामान्य से सामान्य व्यक्ति भी समझ सकता है कि यह भौतिक शरीर चेतनारहित होने पर मृतक हो जाता है और शरीर में इस चेतना को किसी भी भौतिक उपचार से वापस नहीं लाया जा सकता। अतः यह चेतना भौतिक संयोग के फलस्वरूप नहीं है, अपितु  कारण मुण्डक उपनिषद में (३.१.९ ) सूक्ष्म परमाणविक आत्मा की और अधिक विवेचना हुई है -

एषोणुरात्मा  चेतसा  वेदितव्यो यस्मिन्प्राण पञ्चधा संविवेश। 

प्राणैश्चितं  सर्वमोतं  प्रजानां  यस्मिन  विशुद्धे  विभवत्येष  आत्मा।। 

"आत्मा आकर में अणुतुल्य है जिसे पूर्ण बुद्धि के द्वारा जाना जा सकता है। यह अणु आत्मा पांच प्रकार के प्राणों में तैर रहा है ( प्राण, अपान,व्यान,समान  तथा उदान); यह ह्रदय के भीतर स्थित है और देहधारी जीव के पूरे शरीर में अपने प्रभाव का विस्तार करता है। जब आत्मा को पांच वायुओं के कल्मष से शुद्ध कर लिया जाता है तो इसका आद्यात्मिक प्रभाव प्रकट होता है। "

हठ योग का प्र्योजन विविध आसनो द्वारा उन पांच प्रकार प्राणों को नियंत्रित करना है, जो आत्मा को घेरे हुए हैं। यह योग किसी भौतिक लाभ के लिए नहीं,अपितु भौतिक आकाश के बन्धन से अणु -आत्मा की मुक्ति के लिए किया जाता है। 

इस प्रकार अणु आत्मा को सारे वैदिक साहित्य ने स्वीकारा है और प्रत्येक बुद्धिमान व्यक्ति अपने व्यावहारिक अनुभव से इसका प्रत्यक्ष अनुभव करता है। केवल मुर्ख व्यक्ति ही इस अणु आत्मा को सर्वव्यापी विष्णुतत्व के रूप में सोच सकता है। 

अणु-आत्मा का प्रभाव पुरे शरीर में व्याप्त हो  सकता है। मुण्डक उपनिषद के अनुसार यह अणु -आत्मा प्रत्येक जीव के ह्रदय में स्थित है और चूँकि भौतिक विज्ञानी इस अणु -आत्मा को माप सकने में असमर्थ हैं अतः उनमे से कुछ यह अनुभव करते हैं कि आत्मा है ही नहीं। व्यष्टि आत्मा तो  निस्संदेह परमात्मा के साथ -साथ ह्रदय में है और इसीलिए शारीरिक गतियों की सारी शक्ति शरीर के इसी भाग में उद्भूत है। जो लाल रक्तकण फेफड़ों से ऑक्सीजन ले जाते हैं  वे आत्मा से ही शक्ति  सकते हैं। अतः जब आत्मा इस स्थान से निकल जाता है तो रक्तोपादक संलयन बंद हो जाता है. औषधि विज्ञान लाल रक्तकणों की महत्ता को तो स्वीकार करता है,किन्तु वह यह निश्चित नहीं कर पाता कि शक्ति का स्रोत आत्मा है।  जो भी हो,औषधि विज्ञान यह स्वीकार करता है कि शरीर की सारी शक्ति का उद्गमस्थल ह्रदय है। 

पूर्ण आत्मा के ऐसे अणुकणों की तुलना सूर्य-प्रकाश के कणों से की  जाती है। इस सूर्य -प्रकाश में असंख्य तेजोमय अणु होते हैं। इसी प्रकार परमेश्वर के अंश उनकी किरणों के परमाणु स्फुल्लिंग है और प्रभा या पराशक्ति कहलाते हैं। अतः चाहे कोई वैदिक ज्ञान का अनुगामी हो या आधुनिक विज्ञान का,वह शरीर में आत्मा के अस्तित्व को नकार नहीं सकता। भगवान् ने स्वयं भगवदगीता में आत्मा से इस विज्ञान का विशद वर्णन किया है। 

क्रमशः !!!      

 

बुधवार, 17 फ़रवरी 2021

BHAGAVAD GITA 2:16

 🙏🙏

नासतो विद्दते भावो नभाओ विद्दते सतः। 

उभयोरपि दृष्टोन्तस्त्वनयोस्तत्वदर्शिभिः।।१६।।

न -नहीं; असत:-असत का; विद्दते -है; भावः-चिरस्थायित्व; न -कभी नहीं; अभावः -परिवर्तनशील गुण; विद्द्ते -है; सतः-शाश्वत का; उभयोः -दोनों का; अपि -ही; दृष्ट -देखा गया; अन्तः-निष्कर्ष; तु -निस्संदेह; अनयोः -इनका; तत्व-सत्य के; दर्शभिः-भविष्यद्रष्टा द्वारा। 

तत्वदर्शियों ने यह निष्कर्ष निकाला है कि असत (भौतिक शरीर) का तो कोई चिरस्थायित्व नहीं है,किन्तु सत (आत्मा ) अपरिवर्तित रहता है। उन्होंने इन दोनों की प्रकृति के अध्ययन द्वारा यह निष्कर्ष निकाला है। 

तात्पर्य :- परिवर्तनशील शरीर का कोई स्थायित्व नहीं है। आधुनिक चिकित्सा विज्ञान ने यह भी स्वीकार किया है कि विभिन्न कोशिकाओं की क्रिया -प्रतिक्रिया द्वारा शरीर प्रतिक्षण बदलता रहता है। इस तरह शरीर में वृद्धि तथा वृद्धावस्था आती रहती है। किन्तु शरीर तथा मन में निरंतर परिवर्तन होने पर भी आत्मा स्थायी रहता है। यही पदार्थ तथा आत्मा का अंतर है। स्वभावतः शरीर नित्य परिवर्तनशील है और आत्मा शाश्वत है। तत्वदर्शियों ने,चाहे वे निर्विशेषवादी हो हों या सगुणवादी,इस निष्कर्ष की स्थापना की है। (ज्योतिषिं विष्णुर्भवनानी विष्णु:) सत तथा असत शब्द आत्मा तथा भौतिक पदार्थ के ही द्योतक हैं। सभी तत्वदर्शियों की यही स्थापना है। 

यही से भगवान् द्वारा अज्ञान से मोहग्रस्त जीवों को उपदेश देने का शुभारम्भ होता है अज्ञान को हटाने के लिए आराधक और आराध्य के बीच पुनः शाश्वत सम्बन्ध स्थापित करना होता है और फिर अंश रूप जीवों तथा श्रीभगवान के अन्तर को समझना होता है। वेदान्त -सूत्र तथा श्रीमदभागवत में परमेश्वर को समस्त उदभवों (प्रकाश )का मूल माना गया है। ऐसे उदभवो का अनुभव परा तथा अपरा प्राकृतिक कर्मों द्वारा किया जाता है। जीव का सम्बन्ध परा प्रकृति से है,जैसा कि सातवें अध्याय में स्पष्ट होगा। यद्दपि शक्ति तथा शक्तिमान में कोई अन्तर नहीं है,किन्तु शक्तिमान को परम माना जाता है और शक्ति या प्रकृति को गौण। अतः सारे जीव उसी तरह परमेश्वर के सदैव अधीन रहते हैं जिस तरह सेवक स्वामी के या शिष्य गुरु के अधीन रहता है। अज्ञान अवस्था में ऐसे स्पष्ट ज्ञान को समझ पाना असम्भव है। अतः ऐसे अज्ञान को दूर करने के लिए सदा सर्वदा के लिए जीवों को प्रबुद्ध करने हेतु भगवान् भगवतगीता का उपदेश देते हैं। 🙏🙏

क्रमशः !!!     

मंगलवार, 16 फ़रवरी 2021

BHAGAVAD GITA 2:15

 🙏🙏यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषषर्भ। 

समदुःखसुखं धीरं सोमृतत्वाय कल्पते।।१५।।🙏🙏

यम -जिस; हि -निश्चित रूप से; न -कभी नहीं; व्यथयन्ति विचलित नहीं करते; एते -ये सब; पुरुषम मनुष्य को; पुरुष -ऋषभ -हे पुरुष श्रेष्ठ; सम -अपरिवर्तनीय; दुःख - दुःख में; सुखम -तथा सुख में; धीरम -धीर पुरुष; सः -वह; अमृतत्वाय -मुक्ति के लिए; कल्पते -योग्य है। 

हे पुरुषश्रेष्ठ  (अर्जुन ) !जो पुरुष सुख तथा दुःख में विचलित नहीं होता और इन दोनों में समभाव रखता है,वह निश्चित रूप से मुक्ति के योग्य है। 

तात्पर्य :-जो व्यक्ति आत्म साक्षात्कार की उच्च अवस्था प्राप्त करने के लिए दृढ़प्रतिज्ञ है और सुख तथा दुःख के प्रहारों को समभाव से सह सकता है वह निश्चय ही मुक्ति के योग्य है। वर्णाश्रम -धर्म में चौथी अवस्था अर्थात संन्यास आश्रम कष्टसाध्य अवस्था है। किन्तु जो अपने जीवन को सचमुच पूर्ण बनाना चाहता है वह समस्त कठिनाइयों के होते हुए भी संन्यास आश्रम अवश्य ग्रहण करता है। ये कठिनाइयां पारिवारिक सम्बन्ध विच्छेद करने तथा पत्नी और संतान से सम्बन्ध तोड़ने के कारण उत्पन्न होती हैं। किन्तु यदि कोई इन कठिनाइयों को सह लेता है तो उसके आत्म साक्षात्कार का पथ निष्कंटक हो जाता है। अतः अर्जुन को क्षत्रिय धर्म निर्वाह में दृढ़ रहने के लिए कहा जा रहा है,भले ही स्वजनों तथा अन्य प्रिय व्यक्तियों के साथ युद्ध करना कितना ही दुष्कर क्यों न हो। भगवान् चैतन्य ने चौबीस वर्ष की अवस्था में ही संन्यास ग्रहण कर लिया था यद्दपि उनपर आश्रित उनकी तरुण पत्नी तथा वृद्धा माँ की देखभाल करने वाला अन्य कोई न था। तो भी उच्चादर्श के लिए उन्होंने संन्यास ग्रहण किया और अपने कर्तव्यपालन में स्थिर बने रहे। भवबंधन से मुक्ति पाने का यही एकमात्र उपाय है। 

क्रमशः !!!

सोमवार, 15 फ़रवरी 2021

BHAGAVAD GITA 2:14

 मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुः खदाः। 

आगमापायिनो नित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत।।१४।।

मात्रा -स्पर्शाः -इन्द्रियविषय; तु -केवल; कौन्तेय -हे कुन्तीपुत्र; शीत -जाड़ा; उष्ण -ग्रीष्म; सुख -सुख; दुःख -दुःख; दाः -देने वाले; आगम -आना; अपायिनः -जाना; अनित्याः -क्षणिक; तान- उनको; तितिक्षस्व -सहन करने का प्रयत्न करो; भारत-हे भरतवंशी। इन्द्रयबोध से 

हे कुन्तीपुत्र !सुख तथा दुःख का क्षणिक उदय तथा कालक्रम में उनका अंतर्ध्यान होना सर्दी तथा गर्मी की श्रतुओं के आने जाने के समान है। हे भरतवंशी  !वे इन्द्रियबोध से उत्पन्न होते हैं और मनुष्य को चाहिए कि अविचल भाव से उनको सहन करना सीखे। 

तात्पर्य :- कर्तव्य निर्वाह करते हुए मनुष्य को सुख या दुःख के क्षणिक आने-जाने को सहन करने का अभ्यास करना चाहिए। वैदिक आदेशासनुसार मनुष्य को माघ के मास में प्रातःकाल स्नान करना चाहिए। उस समय अत्यधिक ठण्ड  पड़ती है,किन्तु जो धार्मिक नियमो का पालन करने वाला है,वह स्नान करने में तनिक भी नहीं झिझकता। इसी प्रकार एक गृहणी भीषण से भीषण गर्मी की श्रतु में भोजन पकाने में हिचकती नहीं। जलवायु सम्बन्धी असुविधायें होते हुए भी मनुष्य को अपना कर्तव्य निभाना होता है। इसी प्रकार युद्ध करना क्षत्रिय का धर्म है, अतः उसे अपने किसी भी मित्र या परिजन से युद्ध करना पड़े तो उसे अपने धर्म से विचलित नहीं होना चाहिए। मनुष्य को ज्ञान प्राप्त करने के लिए धर्म के विधि -विधान पालन करने होते हैं क्योंकि ज्ञान तथा भक्ति से ही मनुष्य अपने आप को माया के बंधन से छुड़ा सकता है। 

अर्जुन को जिन दो नामों से सम्बोधित किया गया है,वे भी महत्वपूर्ण है। कौन्तेय कहकर सम्बोधित करने से यह प्रकट होता है कि वह अपनी माता की ओर (मातृकुल)   से सम्बंधित है और भारत कहने से उसके पिता की ओर (पितृकुल )  से सम्बन्ध प्रकट होता है। दोनों ओर से उसको महान विरासत प्राप्त है। महान विरासत प्राप्त होने के फलस्वरूप कर्त्तव्यनिर्वाह का उत्तरदायित्व आ पड़ता है,अतः अर्जुन युद्ध से विमुख नहीं हो सकता।

क्रमशः  !!!

                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                       

    

रविवार, 14 फ़रवरी 2021

BHAGAVAD GITA 2:13

🙏🙏 देहिनोस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा। 

तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति।।१३।🙏🙏

  देहिनः -शरीर धारी की; अस्मिन -इसमें; यथा -जिस प्रकार; देहे -शरीर में; कौमारं -बाल्यावस्था; यौवनम-यौवन,तारुण्य; जरा-वृद्धावस्था; तथा -उसी प्रकार; देह -अंतर -शरीर के स्थानांतरण की; प्राप्ति -उपलब्धि; धीर -धीर व्यक्ति; तत्र -उस विषय में; न -कभी नहीं; मुह्यति -मोह को प्राप्त होता है। 

जिस प्रकार शरीर धारी आत्मा इस (वर्तमान) शरीर में बाल्यावस्था से तरुणावस्था में और फिर वृद्धावस्था में निरन्तर अग्रसर होता रहता है,उसी प्रकार मृत्यु होने पर आत्मा दूसरे में चला जाता है। धीर व्यक्ति ऐसे परिवर्तन से मोह को प्राप्त नहीं होता।   

तात्पर्य :- प्रत्येक जीव एक व्यष्टि आत्मा है। वह प्रतिक्षण अपना शरीर बदलता रहता है -कभी बालक रूप में,कभी युवा तथा वृद्ध पुरुष के रूप में। तो भी आत्मा वही रहता है, उसमे कोई परिवर्तन नहीं होता। यह व्यष्टि आत्मा मृत्यु होने पर अंततोगत्वा एक शरीर बदलकर दूसरे शरीर में देहान्तरण कर जाता है और चूँकि अगले जन्म में इसको शरीर मिलना अवस्यम्भावी है-चाहे वह शरीर आध्यात्मिक हो या भौतिक-अतः अर्जुन के लिए न तो भीष्म, न ही द्रोण के लिए शोक करने का कोई कारण था। अपितु उसे प्रसन्न होना चाहिए था कि वे अपने पुराने शरीरों को बदल कर नयें शरीर ग्रहण करेंगे और इस तरह वे नई शक्ति प्राप्त करेंगे। ऐसे शरीर -परिवर्तन से जीवन में किये कर्म के अनुसार नाना प्रकार के सुखोपभोग या कष्टों का लेखा हो जाता है। चूँकि भीष्म व द्रोण साधु पुरुष थे इसलिए अगले जन्म में उन्हें आध्यात्मिक शरीर प्राप्त होंगे; नहीं तो कम से कम उन्हें स्वर्ग में भोग करने के शरीर प्राप्त होंगे ही,अतः दोनों ही दशाओं में शोक का कोई कारण नहीं था। जिस मनुष्य की व्यष्टि आत्मा,परमात्मा तथा भौतिक और आध्यात्मिक प्रवृति का पूर्ण ज्ञान होता है वह धीर कहलाता है। ऐसा ऐसा मनुष्य कभी भी शरीर -परिवर्तन द्वारा ठगा नहीं जाता। 

आत्मा के एकात्मवाद का मायावादी सिद्धांत मान्य नहीं हो सकता क्योंकि आत्मा के इस प्रकार विखंडन से परमेस्वर विखंडनीय या परिवर्तनशील हो जायेगा,जो परमात्मा के अपरिवर्तनीय होने के सिद्धांत के विरुद्ध होगा। गीता में पुष्टि हुई है कि परमात्मा के खण्डों का शाश्वत या सनातन अस्तित्व है,जिन्हें क्षर कहा जाता है अर्थात उनमे भौतिक प्रकृति में गिरने की प्रवृति हो जाती है। ये भिन्न अंश नित्य भिन्न रहते हैं,यहाँ तक की मृत्यु के बाद भी व्यष्टि आत्मा जैसा का तैसा -भिन्न अंश बना रहता है। किन्तु एक बार मुक्त होने पर वह श्री भगवान् के साथ सच्चिदानंद रूप में रहता है। परमात्मा पर प्रतिबिम्ब वाद का सिद्धांत व्यवहृत किया जा सकता है, जो प्रत्येक शरीर में विद्दमान रहता है। वह व्यष्टि जीव से भिन्न होता है। जब आकाश का प्रतिबिम्ब जल में पड़ता है तो प्रतिबिम्ब में सूर्य चंद्र तथा तारे सभी कुछ रहते हैं। तारों की तुलना जीवों से तथा सूर्य या चंद्र की परमेश्वर से की जा सकती है। व्यष्टि अंश आत्मा को अर्जुन के रूप में और परमात्मा को श्री भगवान् के रूप में प्रदर्शित किया जाता है। जैसा की चतुर्थ अध्याय के प्रारम्भ में स्पष्ट है,वे एक ही स्तर पर नहीं होते। यदि अर्जुन कृष्ण के समान स्तर पर हो और कृष्ण अर्जुन से श्रेष्ठतर न हो तो उनमे उपदेशक तथा दूसरे को उपदिष्ट का सम्बन्ध अर्थहीन होगा क्योंकि माया के चुंगुल में  रहकर कोई भी प्रामाणिक उपदेशक नहीं बन सकता। ऐसी परिस्थितियों में यह मान लिया जाता है की भगवान् कृष्ण परमेश्वर हैं, जो पद में माया द्वारा विस्मृत अर्जुन रुपी जीव से श्रेष्ठ है। 

क्रमशः !!!    

शनिवार, 13 फ़रवरी 2021

BHAGAVAD GITA 1:12

 न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः। 

न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम।।१२।।  

न -नहीं; तु -लेकिन; एव -निष्चय ही; अहम् -मैं; जातु-किसी काल में; न। नहीं; आसम-था; न -नहीं; भविष्यामः -रहेंगे; सर्वे वयम- हम सब; अतः परम -इससे आगे। 

ऐसा कभी नहीं हुआ कि मैं न रहा होऊं या तुम न रहे हो अथवा ये समस्त राजा  रहे हों; और न ऐसा है कि भविष्य में हम लोग नहीं रहेंगे। 

तात्पर्य :- वेदों में, कठोपनिषद में तथा श्र्वेताश्वर उपनिषद में भी कहा गया कि जो श्री भगवान् असंख्य जीवों के कर्म तथा कर्मफल के अनुसार उनकी अपनी -अपनी परिस्थितियों में पालक हैं,वही भगवान् अंश रूप में हर जीव के ह्रदय में वास कर रहे हैं। केवल साधु पुरुष,जो एक ही ईश्वर को भीतर -बाहर देख सकते हैं,पूर्ण एवं शाश्वत शांति प्राप्त कर पाते हैं। 

नित्यो नित्यानां चेतन श्र्वेतनानाम  एको बहुनां यो विदधाति कामान। तमात्मस्थं एनुपश्यन्ति श्रीरास्तेषां शान्तिः शाश्वती नेतरेषाम।।(कठोपनिषद 2.2.13)  

जो  वैदिक ज्ञान अर्जुन को प्रदान किया गया वही विश्व के उन समस्त पुरुषों को प्रदान किया जाता है जो विद्वान् होने दावा तो करते हैं,किन्तु जिनकी  ज्ञानराशि न्यून है। भगवान् यह स्पष्ट कहते हैं कि  स्वयं,अर्जुन तथा युद्धभूमि में एकत्र सारे राजा शाश्वत प्राणी हैं और  इन जीवों की बद्ध तथा मुक्त अवस्थाओं में भगवान्  एकमात्र  हैं। भगवान् परम पुरुष हैं तथा भगवान्  चिर संगी अर्जुन एवं वहां  एकत्र सारे राजागण शाश्वत पुरुष हैं। ऐसा नहीं है कि ये भूतकाल में प्राणियों के  रूप  में अलग -अलग उपस्थित नहीं थे और ऐसा भी नहीं है कि ये शाश्वत पुरुष बने नहीं रहेंगे। उनका अस्तित्व भूतकाल में था और भविष्य में भी निर्बाध बना रहेगा। अतः किसी के लिए शोक करने की कोई बात नहीं है। 

यह मायावादी सिद्धांत कि मुक्ति के बाद आत्मा माया के आवरण से पृथक होकर निराकार ब्रह्म में लीन  हो जायेगा  और अपना अस्तित्व खो देगा,यहाँ परम अधिकारी भगवान् कृष्ण द्वारा पुष्ट नहीं हो पाता। न ही इस सिद्धांत का समर्थन हो पाता है कि बद्ध अवस्था में ही हम अस्तित्व का चिंतन करते हैं। यहाँ पर कृष्ण स्पष्टतः कहते हैं कि भगवान् तथा अन्यों का अस्तित्व भविष्य में  अक्षुण्ण रहेगा जिसकी पुष्टि उपनिषदों द्वारा भी होती है। कृष्ण का यह कथन प्रामाणिक है क्योंकि कृष्ण मयावश्य नहीं हैं। यदि अस्तित्व तथ्य न होता तो फिर कृष्ण इतना बल क्यों देते और वह भी भविष्य के लिए ! मायावादी यह तर्क कर सकते हैं कि कृष्ण द्वारा कथित अस्तित्व आध्यात्मिक न होकर भौतिक है। यदि हम इस तर्क को,कि अस्तित्व भौतिक होता है,स्वीकार भी कर लें तो फिर कोई कृष्ण के अस्तित्व को किस  प्रकार पहचानेगा ? कृष्ण भूतकाल में भी अपने अस्तित्व की पुष्टि करते हैं और भविष्य में भी अपने अस्तित्व की पुष्टि करते हैं। उन्होंने अपने अस्तित्व की पुष्टि कई प्रकार से की है और  ब्रह्म उनके अधीन  घोषित किया जा चुका है। कृष्ण सदा सर्वदा अपना अस्तित्व बनाये रहे हैं;यदि उन्हें सामान्य चेतना वाले सामान्य व्यक्ति के रूप  में माना जाता है तो प्रामाणिक शास्त्र के रूप में उनकी भगवद्गीता की कोई महत्ता नहीं होगी। एक सामान्य व्यक्ति मनुष्यों  अवगुणों के कारण श्रवण करनें योग्य शिक्षा देने में असमर्थ रहता है। गीता ऐसे साहित्य से ऊपर है। 

कोई भी  संसारी ग्रन्थ गीता की तुलना नहीं कर सकता। श्री कृष्ण को सामान्य व्यक्ति मान लेने पर गीता  महत्ता जाती रहती है। मायावादियों का तर्क है कि इस श्लोक में वर्णित द्वैत लौकिक है और शरीर के लिए प्रयुक्त हुआ है। किन्तु इसके पहले वाले श्लोक में ऐसी देहात्मबुद्धि की निंदा की गयी है। एक बार जीवों की देहात्मबुद्धि की निंदा करने के बाद यह कैसे संभव है कि कृष्ण पुनः शरीर पर उसी वक्तव्य को दुहराते ?अतः यह अस्तित्व आध्यात्मिक आधार पर स्थापित है और इसकी पुष्टि रामानुजाचार्य तथा अन्य आचार्यों ने भी की है। गीता में कई स्थलों पर इसका उल्लेख है कि यह आध्यात्मिक अस्तित्व केवल भगवद्भक्तों द्वारा ज्ञेय है। जो लोग भगवान् कृष्ण का विरोध करते हैं उनकी इस महान साहित्य तक पहुँच नहीं हो पाती। अभक्तों द्वारा गीता के उपदेशों को समझने का प्रयास मधुमक्खी द्वारा मधुपात्र चाटने के सदृश है। पात्र को खोले बिना मधु को नहीं चखा जा सकता। इसी प्रकार भगवद्गीता के रहस्यवाद  को केवल भक्त ही समझ सकते हैं,अन्य कोई नहीं, जैसा कि इसके चतुर्थ अध्याय में कहा गया है। न ही गीता का स्पर्श ऐसे लोग कर पाते हैं, जो भगवान् के अस्तित्व का विरोध करते हैं।अतः मायावादियों द्वारा गीता की व्याख्या मानो समग्र सत्य का सरासर भ्रामक निरूपण है। भगवान् चैतन्य ने मायावादियों द्वारा की गयी गीता की व्याख्याओं को पढ़ने का निषेध किया है और चेतावनी दी है कि जो कोई  मायावादी दर्शन  ग्रहण करता है,वह गीता के वास्तविक रहस्य को समझ पाने में असमर्थ रहता है। यदि अस्तित्व का अभिप्राय अनुभवगम्य ब्रह्माण्ड से है तो भगवान् द्वारा उपदेश देने की कोई आवस्यकता नहीं थी। आत्मा तथा परमात्मा का द्वैत शाश्वत तथ्य है और इसकी पुष्टि वेदों द्वारा होती है जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है। 

क्रमशः !!!      


शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2021

BHAGAVAD GITA 2:11

 श्री भगवानुवाच 

अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे। 

गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः 

श्री -भगवानुवाच -श्री भगवान ने कहा; अशोच्यान -जो शोक के योग्य नहीं है; अन्वशोच:-शोक करते हो; त्वम् -तुम; प्रज्ञा-वादन -पांडित्यपूर्ण बातें; च -भी; भाषसे- कहते हो; गत -चले गए,रहित; असून-प्राण; आगत -नहीं गए; असून -प्राण; च -भी; न -कभी नहीं; अनुशोचन्ति -शोक करते हैं; पण्डिताः -विद्वान लोग। 

श्री भगवान ने कहा -तुम पांडित्यपूर्ण वचन कहते हुए उनके लिए शोक कर रहे हो,जो शोक करने योग्य नहीं है। जो विद्वान होते हैं,वे न तो जीवित के लिए, न ही मृत के लिए शोक करते हैं। 

तात्पर्य :- भगवान ने तत्काल गुरु का पद संभाला और अपने शिष्य को अप्रत्यक्षतः मुर्ख कहकर डांटा। उन्होंने कहा, "तुम विद्वान की तरह बातें करते हो, किन्तु तुम यह नहीं जानते कि जो विद्वान होता है -अर्थात जो यह जानता है कि शरीर तथा आत्मा क्या है -वह किसी भी अवस्था में शरीर के लिए,चाहे वह जीवित हो या मृत -शोक नहीं करता। "अगले अध्यायों से यह स्पष्ट हो जायेगा कि ज्ञान का अर्थ पदार्थ तथा आत्मा एवं इन दोनों के नियामक को जानना है। अर्जुन का तर्क था कि राजनीती या समाजनीति की अपेक्षा धर्म को अधिक महत्व मिलना चाहिए,किन्तु उसे यह ज्ञात न था कि पदार्थ,आत्मा तथा परमेश्वर का ज्ञान धार्मिक सूत्रों से भी अधिक महत्वपूर्ण है। और चूँकि उसमें इस ज्ञान का अभाव था,अतः उसे विद्वान नहीं बनना चाहिए था। और चूँकि वह अत्यधिक विद्वान नहीं था इसलिए वह शोक के सर्वथा अयोग्य वस्तु के लिए शोक कर रहा था। यह शरीर जन्मता है और आज या कल इसका विनाश निश्चित है,अतः शरीर उतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना कि आत्मा है। जो इस तथ्य को जनता है वही असली विद्वान है और इसके लिए शोक का कोई कारण नहीं हो सकता। 

क्रमशः !!!

गुरुवार, 11 फ़रवरी 2021

BHAGAVAD GITA 2:10

 तमुवाच हृषिकेशं प्रहसन्निव भारत। 

सेनयोरुभयोर्मध्ये विषीदन्तमिदंवचः।।१०।। 

तम -उससे; उवाच -कहा; हृषीकेशः-इन्द्रियों के स्वामी कृष्ण ने; प्रहसन - हँसते हुए; इव- मानो; भारत-हे भरतवंशी धृतराष्ट्र; सनयोः -सेनाओं के; उभयो -दोनों पक्षों की; मध्ये- बीच में; विषीदन्तम- शोकमग्न; इदम - यह (निम्नलिखित ) वचः -शब्द। 

हे भरतवंशी धृतराष्ट्र ! उस समय दोनों सेनाओं के मध्य शोकमग्न अर्जुन से कृष्ण ने मानो हँसते हुए ये शब्द कहे। 

अर्थात :- दो घनिष्ट मित्रों अर्थात हृषिकेश तथा गुडाकेश के मध्य वार्ता चल रही थी। मित्र के रूप में दोनों का पद समान था,किन्तु इनमे से एक स्वेच्छा से दूसरे का शिष्य बन गया था। सबों के स्वामी होने के कारण वे सदैव श्रेष्ठ  पद पर रहते हैं तो भी भगवान अपने भक्त के लिए सखा,पुत्र या प्रेमी बनना स्वीकार करते हैं। किन्तु जब उन्हें गुरु रूप में अंगीकार कर लिया गया तो उन्होंने तुरंत गुरु की भूमिका निभाने के लिए शिष्य से गुरु की भाँति गम्भीरतापूर्वक बातें कीं जैसा कि अपेक्षित है। ऐसा प्रतीत होता है कि गुरु तथा शिष्य की यह वार्ता दोनों सेनाओं की उपस्थिति में हुई,जिससे सारे लोग लाभान्वित हुए। अतः भगवदगीता का संवाद किसी एक व्यक्ति,समाज या जाति के लिए नहीं अपितु सबों के लिए है और उसे सुनने के लिए शत्रु या मित्र समान रूप से अधिकारी हैं। 

क्रमशः !!!

बुधवार, 10 फ़रवरी 2021

BHAGAVAD GITA 2:9

🙏🙏 सञ्जय: उवाच 🙏🙏

एवमुक्ता हृषीकेशं गुडाकेशः परन्तपः।  

न योत्स्य इति गोविन्दमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह।।९।।  

सञ्जयः उवाच-संजय ने कहा; एवम-इस प्रकार; उक्त्वा-कहकर; हृषीकेशं-कृष्ण से,जो इन्द्रयों के स्वामी हैं; गुडाकेशः -अर्जुन,जो अज्ञान मिटने वाला है; परन्तपः-अर्जुन,शत्रुओं का दमन  करने वाला;  योत्स्ये -नहीं लडूंगा; इति-इस प्रकार; गोविन्दम इन्द्रयों के आनन्ददायक कृष्ण से; उक्त्वा-कहकर; तूष्णीम-चुप; बभूव -हो गया; ह-निश्चय ही। 

संजय ने कहा -इस प्रकार कहने के बाद शत्रुओं का दमन करने वाला अर्जुन कृष्ण से बोला, "हे गोविन्द ! मैं युद्ध नहीं करूँगा,"और चुप हो गया। 

तात्पर्य :- धृतराष्ट्र को यह जानकर परम प्रसन्नता हुई होगी कि अर्जुन युद्ध न करके युद्ध भूमि छोड़कर भिक्षाटन करने जा रहा है। किन्तु संजय ने उसे पुनः यह कहकर निराश कर दिया कि अर्जुन अपने  शत्रुओं को मारने में सक्षम हैं (परन्तपः)।   यद्दपि कुछ समय के लिए अर्जुन अपने पारिवारिक स्नेह के प्रति मिथ्या शोक से अभिभूत था,किन्तु उसने शिष्य रूप में अपने गुरु श्री कृष्ण की शरण ग्रहण कर ली। इससे सूचित होता है कि शीघ्र ही  वह  शोक से निवृत  हो जायेगा और आत्म-साक्षात्कार या कृष्ण भावनामृत के पूर्ण ज्ञान प्रकाशित होकर पुनः युद्ध करेगा। इस तरह धृतराष्ट्र का हर्ष भंग हो जायेगा। 

क्रमशः 

मंगलवार, 9 फ़रवरी 2021

BHAGAVAD GITA 2:8

 न हि प्रपश्यामि मामानुद्दाद -

         यच्छोकमुच्छोषणमिन्द्रियाणाम। 

अवाप्य भूमावसपत्नमृद्धं 

         राज्यं सुराणामपि चाधिपत्यम।।८।। 

 ना.-नहीं; हि:-निश्चय ही; प्रपश्यामि:-देखता हूँ; मम:-मेरा; अपनुद्यात:-दूर कर सके; यत:-जो; शोकम:-शोक; उच्छोषणम:-सूखने वाला; इन्द्रियाणां:- इन्द्रयों का; अवाप्य:-प्राप्त करके; भूमौ:-पृथ्वी पर; असपत्नम:-शत्रु बिहीन; ऋद्धम:-समृद्ध; राज्यम:-राज्य; सुराणाम:- देवताओं का; अपि:-.चाहे; च.-भी; आधिपत्यम:-सर्वोच्चता। 

मुझे ऐसा कोई साधन नहीं दिखता जो मेरी इन्द्रयों को सूखने वाले इस शोक को दूर कर सके। स्वर्ग पर देवताओं के आधिपत्य की तरह इस धनधान्य संपन्न सारी  पृथ्वी पर निष्कंटक राज्य प्राप्त करके मैं भी इस शोक को दूर नहीं कर सकूंगा। 

तात्पर्य :- यद्दपि अर्जुन धर्म तथा सदाचार के नियमों पर आधारित अनेक तर्क प्रस्तुत करता है,किन्तु ऐसा प्रतीत होता है की वह अपने गुरु भगवान् श्रीकृष्ण की सहायता के बिना अपनी असली तपस्या को हल नहीं कर पा रहा। वह समझ गया था की उसका तथाकथित ज्ञान उसकी उन समस्याओं को दूर करने में व्यर्थ है जो उसके सारे अस्तित्व (शरीर )को सुखाये दे रही थीं। उसे इन उलझनों को भगवान् कृष्ण जैसे आधात्मिक गुरु की सहायता के बिना हल कर पाना असम्भव लग रहा था। शैक्षिक ज्ञान,विद्वता,उच्च पद-ये सब जीवन की समस्याओं को हल करने में व्यर्थ हैं। यदि कोई इसमें सहायता कर सकता है,तो वह एकमात्र गुरु। अतः निष्कर्ष यह निकला कि गुरु जो शत  प्रतिशत कृष्णभावनाभावित होता है,वही एकमात्र प्रमाणिक गुरु है और वही जीवन की समस्याओं को हल कर सकता है। भगवान चैतन्य ने कहा है कि जो कृष्णभावनामृत के विज्ञान में दक्ष हो,कृष्णतत्ववेता हो,चाहे वह जिस किसी जाती का हो,वही वास्तविक गुरु है -

किबा बिप्र, किबा न्यासी ,शूद्र केने नय। 

येई कृष्ण तत्ववेता ,सेई  गुरु हय।। 

"कोई व्यक्ति चाहे वह विप्र (वैदिक ज्ञान में दक्ष )हो,निम्न जाति मे जन्मा शूद्र हो या सन्यासी,यदि वह कृष्ण के विज्ञान में दक्ष (कृष्णतत्ववेता ) है तो वह यथार्थ प्रमाणिक गुरु है। "(चैतन्य चरिमामृत,मध्य ८.१२८ )अतः कृष्णतत्ववेता हुए बिना कोई भी प्रमाणिक गुरु नहीं हो सकता। वैदिक साहित्य में भी कहा गया है -

षट्कर्मणिपुणों विप्रो मन्त्रतन्त्रविशारदः।  

अवैष्णवो गुरुर्न स्याद वैष्णवः ऋवपचौ  गुरुः।। 

"विद्वान ब्राह्मण,भले ही वह सम्पूर्ण वैदिक ज्ञान में पारंगत क्यों न हो,यदि वह वैष्णव नहीं है या कृष्ण भावनामृत में दक्ष नहीं है तो गुरु बनाने का पात्र नहीं है। किन्तु शूद्र,यदि वह वैष्णव या कृष्ण भक्त है तो गुरु बन सकता है। "(पद्मपुराण )

संसार  की समस्याओं -जन्म,जरा,व्याधि तथा मृत्यु -की निवृति धन -संचय तथा आर्थिक विकास से सम्भव नहीं है। विश्व के विभिन्न भागों में ऐसे राज्य हैं जो जीवन की सारी  सुबिधाओं से तथा  सम्पत्ति एवं आर्थिक विकास से पूरित हैं,किन्तु फिर भी उनके सांसारिक जीवन की समस्याएं ज्यों की त्यों बनी हुई हैं। वे बिभिन्न साधनों से शांति खोजते हैं,किन्तु वास्तविक सुख उन्हें तभी मिल पाता है जब वे कृष्ण भावनामृत से युक्त कृष्ण के प्रामाणिक प्रतिनिधि के माध्यम से कृष्ण अथवा कृष्ण तत्वपूरक भगवद्गीता तथा श्रीमदभागवत के परामर्श को ग्रहण करते है। 

यदि आर्थिक विकास तथा भौतिक सुख किसी के पारिवारिक,सामाजिक,राष्ट्रीय या अन्तर्राष्ट्रीय अव्यवस्था से उत्पन्न शोकों को दूर कर पाते,तो अर्जुन यह न कहता कि पृथ्वी का अप्रतिम राज्य या स्वर्गलोक में देवताओं की सर्वोच्चता भी उसके शोकों को दूर नहीं कर सकती। इसलिए उसने कृष्ण भावनामृत का ही आश्रय ग्रहण किया और यही शांति और समरसता  का उचित मार्ग है। आर्थिक विकास या विश्व आधिपत्य प्राकृतिक प्रलय द्वारा किसी भी क्षण समाप्त हो सकता है। यहाँ तक कि चंद्रलोक जैसे उच्च लोकों की यात्रा भी,जिसके लिए मनुष्य प्रयत्नशील है,एक झटके में समाप्त हो सकती है,भगवद्गीता इसकी पुष्टि करती  है -क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति -जब पुण्यकर्मों के फल समाप्त हो जाते हैं तो मनुष्य सुख के शिखर से जीवन के निम्नतम स्तर पर गिर जाता है। इस तरह से विश्व के अनेक राजनीतिज्ञों का पतन हुआ है। ऐसा अधः पतन शोक का कारण बनता है। 

अतः यदि हम सदा के लिए शोक का निवारण चाहते हैं तो हमें कृष्ण शरण ग्रहण करनी होगी,जिस तरह अर्जुन ने की। अर्जुन ने कृष्ण से प्रार्थना की कि वे उसकी समस्या का निश्चित समाधान कर दें और यही कृष्ण भावनामृत की विधि है।

क्रमशः !!!  

सोमवार, 8 फ़रवरी 2021

BHAGAVAD GITA 2:7

 कार्पण्यदोषोपहतस्वभाव:

       पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः। 

यत्श्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे 

         शिष्यतेहं शाधि मां त्वां प्रपन्नं।।७।। 

कार्पण्य :-कृपणता; दोष:-दुर्बलता; उपहत:-ग्रस्त; स्व-भावः -गुण.विशेषताएँ; पृच्छामि:-पूछ रहा हूँ; त्वाम:-तुम से; धर्म-धर्म; सम्मूढ:-मोहग्रस्त; चेताः-ह्रदय में; यत:-जो; श्रेय :-कल्याणकारी; स्यात:-हो; निश्चितम :-विश्वासपूर्वक; ब्रूहि :-कहो; तत :-वह;में:-मुझको; शिष्य :-शिष्य; ते :-तुम्हारा; अहम् :-मैं; शाधि :-उपदेश दीजिये; माम :-मुझको; त्वाम् :-तुम्हारा ; प्रपन्नं:-शरणागत। 

अब मैं अपनी कृपण -दुर्बलता के कारण अपना कर्तव्य भूल गया हूँ और सारा धैर्य खो चूका हूँ। ऐसी अवस्था में मैं आपसे पूछ रहा हूँ कि जो मेरे लिए श्रेयकर हो उसे निश्चित रूप से बताएं। अब मैं आपका शिष्य हूँ और आपका शरणागत हूँ। कृपया मुझे उपदेश दें। 

तात्पर्य :- यह प्राकृतिक नियम है की भौतिक कार्यकलाप की प्रणाली ही हर एक के लिए चिंता का कारण है। पग -पग पर उलझन मिलती है,अतः प्रमाणिक गुरु के पास जाना आवश्यक है,जो जीवन के उद्देश्य को पूरा करने के लिए समुचित पथ निर्देश दे सके। समग्र वैदिक ग्रन्थ हमें यह उपदेश देते हैं कि जीवन की अनचाही उलझनों से मुक्त होने के लिए प्रमाणिक गुरु के पास जाना चाहिए। ये उलझने उस दावाग्नि के सामान है जो किसी के द्वारा लगाए बिना भभक उठती है। इसी प्रकार विश्व की स्थति ऐसी है कि बिना चाहे जीवन की उलझने स्वतः उत्पन्न हो जाती हैं। कोई नहीं चाहता कि आग लगे,किन्तु फिर भी वह लगती है और हम अत्यधिक व्याकुल हो उठते हैं। अतः वैदिक वाङ्ग्मय उपदेश देता है की जीवन की उलझनों को समझने तथा उनका समाधान करने के लिए हमें परम्परागत गुरु के पास जाना जाना चाहिए। जिस व्यक्ति का प्रमाणिक गुरु होता है वह सब कुछ जानता है। अतः मनुष्य को भौतिक उलझनों में न रहकर गुरु के पास जाना चाहिए। यही इस श्लोक का तात्पर्य है। 

आखिर भौतिक उलझनों में कौन सा व्यक्ति पड़ता है ?वह जो जीवन की समस्याओं को नहीं समझता। बृहदारण्यक उपनिषद (३.८.१० )व्याकुल मनुष्य का वर्णन इस प्रकार हुआ है -यो वा एतदक्षरं गार्ग्यविदितवास्माल्लोकातप्रेति सो कृपणः -"कृपण वह है जो मानव जीवन की समस्याओं को हल नहीं करता और आत्म-साक्षात्कार के विज्ञानं को समझे बिना कुकर -सुकर की भांति इस संसार को त्यागकर चला जाता है। "जीव के लिए यह मनुष्य जीवन अत्यंत मूलयवान निधि है ,जिसका उपयोग वह अपने जीवन की समस्याओं को हल करने में कर सकता है,अतः जो इस अवसर का लाभ नहीं उठाता वह कृपण है।ब्राह्मण इसके बिपरीत होता है जो इस शरीर का उपयोग जीवन की समस्त समस्याओं को हल करने में करता है। य एतदक्षरं गार्गि विडितवास्माल्लोकातप्रेति स ब्राह्मण : देहात्मबुद्धि वश कृपण या कंजूस लोग अपना सारा समय परिवार,समाज, देश आदि के अत्यधिक प्रेम में गवां देते हैं। मनुष्य प्रायः चर्मरोग के आधार पर अपने पारिवारिक जीवन अर्थात पत्नी,बच्चों तथा परिजनों में आसक्त रहता है। कृपण यह सोचता है कि वह अपने परिवार को मृत्यु से बचा सकता है। ऐसी पारिवारिक आसक्ति निम्न पशुओं में भी पायी जाती है क्योंकि वे भी बच्चों की देखभाल करते हैं। बुद्धिमान होने के कारण अर्जुन समझ गया था कि पारिवारिक सदस्यों के प्रति उसका अनुराग तथा मृत्यु से उनकी रक्षा करने की उसकी इच्छा ही उसकी उलझनों का कारण है। 

यद्द्पि वह समझ रहा था की युद्ध करने का कर्तव्य उसकी प्रतीक्षा कर रहा था,किन्तु कृपण -दुर्बलता के कारण वह अपना कर्तव्य नहीं निभा रहा था। अतः वह परम गुरु भगवान् कृष्ण से कोई निश्चित हल निकालने का अनुरोध कर रहा है। वह कृष्ण का शिष्यत्व ग्रहण करता है। वह मित्रतापूर्ण बातें बंद करना चाहता है। गुरु तथा शिष्य की बातें गंभीर होती है और जब अर्जुन अपने मान्य गुरु के समक्ष गम्भीरतापूर्वक बातें करना चाहता है। इसलिए कृष्ण भगवद्गीता ज्ञान के आदि गुरु हैं और अर्जुन गीता समझने वाला प्रथम शिष्य है। अर्जुन भगवद गीता को किस तरह समझता है वह गीता में वर्णित है। तो भी मूर्ख संसारी विद्वान बतातें है कि किसी को मनुष्य रूप कृष्ण की नहीं बल्कि "अजन्मा कृष्ण "की शरण ग्रहण करनी चाहिए। कृष्ण के अन्तः तथा बाह्य में कोई अंतर नहीं। इस ज्ञान के बिना जो भगवद्गीता समझने का प्रयास करता है,वह सबसे बड़ा मूर्ख है। 

क्रमशः !!!!

रविवार, 7 फ़रवरी 2021

BHAGAVAD GITA 2:6

 🙏🙏न चैतद्विद्मः कतरन्नो गरियो 

            यद्वा जयेम यदि व नो जयेयुः। 

यानेव हत्वा न जिजीविषाम 

          स्टेवस्थिता: प्रमुखे धार्तराष्ट्राः।।६।।🙏🙏


 :-नहीं; च:-भी;  एतत:-यह; विद्मः -हम जानते हैं; करतत:-जो;नः-हमको जयेयुः-वे जीतें; जिजीविषाम:-हम जीना चाहेंगे; ते:-वे सब; अवस्थिताः-खड़े हैं; प्रमुखे:-सामने; धार्तराष्ट्राः धृतराष्ट्र के पुत्र। 

हम यह भी जानते हैं कि हमारे लिए क्या श्रेष्ठ है -उनको जीतना या उनके जीते जाना। यदि हम धृतराष्ट्र के पुत्रों का वध कर देते हैं तो हमें जीवित रहने की आवश्यकता नहीं है। फिर भी वे युद्धभूमि में हमारे समक्ष खड़े हैं। 

तात्पर्य:- अर्जुन की समझ में यह नहीं आ रहा था कि वह क्या करे -युद्ध करे और अनावश्यक रक्तपात का कारण बने,यद्द्पि क्षत्रिय होने के नाते युद्ध करना उसका धर्म है; या फिर वह युद्ध से विमुख होकर भीख मांगकर जीवन-यापन करे। यदि वह शत्रु को जीतता नहीं तो जीविका का एकमात्र साधन भिक्षा ही रह जाता है। फिर जीत भी निश्चित नहीं क्योंकि कोई भी पक्ष विजयी हो सकता है। यदि उसकी विजय हो भी जाय (क्योंकि उसका पक्ष न्याय पर है),तो भी यदि धृतराष्ट्र के पुत्र मरते हैं, तो उनके बिना रह पाना अत्यंत कठिन हो जायेगा। उस दशा में यह उसको दूसरी प्रकार की हार होगी। 

अर्जुन द्वारा व्यक्त इस प्रकार के ये विचार सिद्ध करते है कि वह न केवल भगवान का महान भक्त था,अपितु वह अत्यधिक प्रबुद्ध और अपने मन तथा इन्द्रियों पर पूर्ण नियंत्रण रखने वाला था। राज परिवार में जन्म लेकर भी भिक्षा द्वारा जीवित रहने की इच्छा उसकी विरक्ति का दूसरा लक्षण है। ये सारे गुण तथा अपने आध्यात्मिक गुरु श्रीकृष्ण के उपदेशों में उसकी श्रद्धा,ये सब मिलकर सूचित करते हैं  कि वह सचमुच पुण्यात्मा था। इस तरह यह निष्कर्ष निकला कि अर्जुन मुक्ति के सर्वथा योग्य था। जब तक इन्द्रियां संयमित न हों,ज्ञान के पद तक उठ पाना कठिन है और बिना ज्ञान तथा भक्ति के मुक्ति नहीं होती। अर्जुन अपने भौतिक गुणों के अतिरिक्त इन समस्त दैवी गुणों में भी दक्ष था।

क्रमशः  !!!   

शनिवार, 6 फ़रवरी 2021

BHAGAVAD GITA 2:5

🙏🙏गुरूनहत्वा  हि महानुभवान 

              श्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके।  

हत्वार्थकामांस्तु गुरुनिहैव 

             भुञ्जीय भोगानरुधिरप्रदिग्धान।।५।।🙏🙏


गुरुन:-गुरुजनों को; अहत्वा:-न मारकर; हि:-निश्चय ही; महानुभवान:-महपुरुषों को; श्रेयः-अच्छा है; भोक्तुम:-भोगना; भैक्ष्यम:-भीख मांगकर; अपि:-भी; इह:-इस जीवन में, लोके:-इस संसार में;हत्वा:-मारकर; अर्थ:-लाभ गुरुन की; कामान:-इच्छा से; तु:-लेकिन; गुरुन:-गुरुजनों को; इह:-इस संसार में; एव:-निश्चय ही; भुञ्जीय:-भोगने के लिए बाध्य; भोगान:-भोग्य वस्तुएं; रुधिर:-रक्त से प्रदिग्धान:-सनी हुई,रंजित।

ऐसे महापुरुषों को जो मेरे गुरु हैं,उन्हें मारकर जीने की अपेक्षा इस संसार में भीख मांगकर खाना अच्छा है। भले ही वे सांसारिक लाभ के इच्छुक हों,किन्तु हैं तो गुरुजन ही ! यदि उनका वध होता है तो हमारे द्वारा भोग्य प्रत्येक वस्तु उनके रक्त से सनी होगी। 

अर्थात :-शास्त्रों के अनुसार ऐसा गुरु जो निद्द कर्म में रत हो और जो विवेकशून्य हो,त्याज्य है। दुर्योधन से आर्थिक सहायता लेने के कारण भीष्म तथा द्रोण उसका पक्ष लेने के लिए बाध्य थे,यद्द्पि केवल आर्थिक लाभ से ऐसा करना उनके लिए उचित न था। ऐसी दशा में वे आचार्यों का सम्मान खो बैठे थे। किन्तु अर्जुन सोचता है की इतने पर भी वे उसके गुरुजन हैं,अतः उनका वध करके भौतिक लाभों का भोग करने का अर्थ होगा -रक्त से सने अवशेषों का भोग। 

क्रमशः !!! 

    

शुक्रवार, 5 फ़रवरी 2021

BHAGAVAD GITA 2:4

 अर्जुन उवाच 

कथं भीष्ममहं संख्ये द्रोण च मधुसूदन। 

इषुभिः प्रतियोत्स्यामि पूजार्हावरिसूदन।।४।।

अर्जुनः उवाच :-अर्जुन ने कहा; कथम:- किस प्रकार; भीष्मम :-भीष्म को; अहम :-मैं; संख्ये :-युद्ध में; द्रोणम:- द्रोण को; च :-भी; मधु-सूदन:-हे मधु के संहारकर्ता; इषुभिः -तीरों से; प्रतियोत्स्यामि:-उलट कर प्रहार करूंगा;  पूजा-अर्हा :-पूजनीय; अरि -सूदन:-हे शत्रुओं के संहारक। 

अर्जुन ने कहा -हे शत्रुहंता ! हे मधुसूदन ! मैं युद्धभूमि में किस तरह भीष्म तथा द्रोण जैसे पूजनीय व्यक्तियों पर उलट कर बाण चलाऊंगा ?

तात्पर्य :- भीष्म पितामह तथा द्रोणाचार्य जैसे सम्माननीय व्यक्ति सदैव पूजनीय हैं। यदि वे आक्रमण भी करें तो उन पर उलट कर आक्रमण नहीं करना चाहिए। यह सामान्य शिष्टाचार है कि गुरुजनों से वाग्युद्ध भी न किया जाय। यहाँ तक कि यदि कभी वे रुक्ष व्यवहार करें तो भी उनके साथ रुक्ष व्यवहार न किया जाय। तो फिर भला अर्जुन उन पर बाण कैसे छोड़ सकता था ? क्या कृष्ण कभी अपने पितामह,नाना उग्रसेन या अपने आचार्य सान्दीपनि मुनि पर हाथ चला सकते थे ? अर्जुन ने  कृष्ण के समक्ष ये ही कुछ तर्क प्रस्तुत किये। 

क्रमशः ... 

गुरुवार, 4 फ़रवरी 2021

BHAGAVAD GITA 2:3

 कैलब्यं माँ स्म गमः पार्थ नेतत्वय्युपपद्धति। 

क्षुद्रम ह्रदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप।।३।। 

कैलब्यं :-नपुंसकता; माँ स्म :-मत; गमः-प्राप्त हो; पार्थ :-हे पृथा पुत्र; न:- कभी नहीं; एतत:-यह; त्वयि:-तुमको; उपपद्यते:-शोभा देता है; क्षुद्रम:-तुच्छ; ह्रदय:-ह्रदय की; दौर्बल्यम:-दुर्बलता; त्यक्त्वा :-त्याग कर; उत्तिष्ठ:-खड़ा हो; परन्तप:-हे शत्रुओं का दमन करने वाले।  

  हे पृथापुत्र  ! हीन नपुंसकता को प्राप्त मत होओ। यह तुम्हे शोभा नहीं देती। हे शत्रुओं के दमनकर्ता ! ह्रदय की क्षुद्र दुर्बलता को त्याग कर युद्ध के लिए खड़े होओ।  

तात्पर्य :-अर्जुन को पृथापुत्र के रूप में सम्बोधित किया गया है। पृथा कृष्ण के पिता वासुदेव की बहन थी,अतः कृष्ण के साथ अर्जुन का रक्त का सम्बन्ध था। यदि क्षत्रिय पुत्र लड़ने से मना करता है तो वह नाम का क्षत्रिय है और यदि ब्राह्मण पुत्र अपवित्र कार्य करता है तो वह नाम का ब्राह्मण है। ऐसे क्षत्रिय तथा ब्राह्मण अपने पिता के अयोग्य पुत्र होते हैं,अतः कृष्ण यह नहीं चाहते थे कि अर्जुन अयोग्य क्षत्रिय पुत्र कहलाये। अर्जुन कृष्ण का घनिष्टतम मित्र था और कृष्ण प्रत्यक्ष रूप से उसके रथ का संचालन कर रहे थे, किंतु  इन सब गुणों के होते हुए भी यदि अर्जुन युद्धभूमि को छोड़ता है तो वह अत्यंत निंदनीय कार्य करेगा। 

अतः कृष्ण ने कहा कि ऐसी प्रवृति अर्जुन के व्यक्तित्व को शोभा नहीं देती। अर्जुन यह तर्क कर सकता था कि वह परम पूज्य भीष्म तथा स्वजनों के प्रति उदार दृष्टिकोण के कारण युद्धभूमि छोड़ रहा है,किन्तु कृष्ण ऐसी उदारता को केवल ह्रदय दौर्बल्य मानते हैं। ऐसी झूठी उदारता का अनुमोदन  एक भी शास्त्र नहीं करता। अतः अर्जुन जैसे व्यक्ति को कृष्ण के प्रत्यक्ष निर्देशन में ऐसी उदारता या तथाकथित अहिंसा का परित्याग कर देना चहिये। 

क्रमशः !!! 

बुधवार, 3 फ़रवरी 2021

BHAGAVAD GITA 2:2

श्रीभगवानुवाच 

 कुतस्त्वा कश्मलविदं विषमे समुपस्थितम।

अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुनः।।२।।

श्री भगवानुवाच :-भगवान् ने कहा; कुतः:-कहाँ से;त्वा:-तुमको; कश्मलम:-गंदगी,अज्ञान; इदम:-यह शोक; विषमे:-इस विषम अवसर पर; समुपस्थितम:-प्राप्त हुआ; अनार्य:-वे लोग जो जीवन के मूल्य को नहीं समझते; जुष्टम :- आचरित; अस्वर्ग्यम :-उच्च लोकों को न ले जाने वाला; अकीर्ति:-अपयश का; करम :-कारण; अर्जुन :-हे अर्जुन। 

श्री भगवान् ने कहा - हे अर्जुन ! तुम्हारे मन में यह कल्मष आया कैसे ? यह उस मनुष्य के लिए तनिक भी अनुकूल नहीं है, जो जीवन के मूल्य  जानता हो। इससे उच्च  लोक नहीं अपितु अपयश की प्राप्ति होगी। 

तात्पर्य :-श्रीकृष्ण तथा भगवान् अभिन्न हैं इसीलिए श्रीकृष्ण को सम्पूर्ण गीता में भगवान् ही कहा गया है। भगवान् परम सत्य की पराकाष्ठा हैं। सत्य का बोध ज्ञान की तीन अवस्थाओं में होता है  -ब्रह्म या निर्विशेष सर्वव्यापी चेतना, परमात्मा या भगवान् का अन्तर्यामी रूप जो समस्त जीवों  ह्रदय में है तथा भगवान् या श्रीभगवान कृष्ण परम सत्य की धारणा  इस प्रकार बताई गई है।  श्रीमद्भागवद (१.२.११ ) 

वदन्ति ततत्वमिदस्तत्वं यज्ज्ञानमद्वयम। 

                            ब्रह्मेति परमात्मेति भागनिति शब्दधते।। 

" परम सत्य का ज्ञाता परम सत्य का अनुभव ज्ञान की तीन अवस्थाओं में करता है,और ये ब्रह्म,परमात्मा तथा भगवान् के रूप में व्यक्त की जाती है। "

इन तीनों दिव्य पक्षों को सूर्य के दृष्टांत द्वारा समझाया जा सकता है क्योंकि उसके भी तीन भिन्न भिन्न पक्ष होते हैं -यथा,धूप, ( प्रकाश ),सूर्य की सतह तथा सूर्य लोक स्वयं। जो सूर्य के प्रकाश का अध्यन करता है वह नौसिखिया है। जो सूर्य की सतह को समझता है वह कुछ आगे बढ़ा हुआ होता है और जो सूर्यलोक में प्रवेश कर सकता है वह उत्तम ज्ञानी है। जो नौसिखिया सूर्य प्रकाश-उसकी विश्व व्याप्ति तथा उसकी निर्विशेष प्रकृति के अखंड तेज -के ज्ञान से ही तुष्ट हो जाता है वह उस व्यक्ति के समान है जो परम सत्य के ब्रह्म रूप को ही समझ सकता है।  

जो व्यक्ति कुछ अधिक जानकार है वह सूर्य के गोले के विषय में जान सकता है जिसकी तुलना परम सत्य के परमात्मा स्वरुप से की जाती है। जो व्यक्ति सूर्यलोक के अंतर में प्रवेश कर सकता है उसकी तुलना उससे की जाती है जो परम सत्य के साक्षात रूपरूप की अनुभूति प्राप्त करता है। अतः जिन भक्तों ने परम सत्य के भगवान् स्वरूप का साक्षात्कार किया है वो सर्वोच्च अध्यात्मवादी है, यद्धपि परम सत्य के अध्यन में रत सारे विद्यार्थी एक ही विषय के अध्यन में लगे हुए हैं। सूर्य का प्रकाश,सूर्य का गोला तथा सूर्यलोक की भीतरी बातें -इन तीनों अवस्थाओं के अद्ध्येता एक ही श्रेणी के नहीं होते। 

संस्कृत शब्द भगवान् की व्याख्या व्यासदेव के पिता पराशर मुनि ने की है। समस्त धन,शक्ति,यश,सौन्दर्य,ज्ञान तथा त्याग से युक्त परम पुरुष भगवान् कहलाता है। ऐसे अनेक व्यक्ति हैं जो अत्यंत धनी  हैं,अत्यंत शक्तिमान हैं,अत्यंत सुन्दर हैं और अत्यंत विख्यात,विद्वान तथा विरक्त भी हैं, किन्तु कोई साधिकार यह नहीं कह सकता कि उसके पास सारा धन शक्ति आदि है। एकमात्र कृष्ण ही ऐसा दावा कर सकते हैं क्योंकि वे भगवान् हैं। ब्रह्मा,शिव या नारायण सहित कोई भी भी जीव कृष्ण के समान पूर्ण ऐश्वर्यवान नहीं है। अतः ब्रह्म संहिता में स्वयं ब्रह्मा जी का निर्णय है कि श्री कृष्ण स्वयं भगवान् हैं। न तो कोई तुल्य है,न उन बढ़कर है। वे आदि स्वामी या भगवान् हैं,गोविन्द रूप में जाने जाते हैं और समस्त कारणों के परम कारण हैं। 

ईश्वर:परमः कृष्ण: सच्चिदानंद विग्रह:

अनादिरादिगोविन्द:सर्वकारणकारणम 

"ऐसे अनेक पुरुष हैं जो भगवान् के गुणों से युक्त हैं,किन्तु कृष्ण परम हैं क्योंकि उनसे बढ़कर कोई नहीं हैं। वे परम पुरुष हैं उनका शरीर सच्चिदानंदमय है। वे आदि भगवान् गोविन्द हैं और समस्त कारणों के कारण हैं भगवत में भी भगवान् के नाना अवतारों की सूचि है,किन्तु कृष्ण को आदि भगवान् बताया गया है,जिनसे अनेकानेक अवतार तथा ईश्वर विस्तार करते हैं। 

एते चांसकला:पुंस: कृष्णस्तु भगवान् स्वयं। 

इंद्रारिव्याकुलम लोकं मृडयन्ति युगे युगे।।  

"यहाँ पर वर्णित सारे अवतारों की सूचियां या तो भगवान् की अंशकलाओं अथवा पूर्ण कलाओं की हैं,किन्तु कृष्ण तो स्वयं भगवान् हैं अतः कृष्ण आदि भगवान,  परम सत्य,परमात्मा तथा निर्विशेष ब्रह्म दोनों के उद्द्गम हैं। 

भगवान् की उपस्थिति में अर्जुन द्वारा स्वजनों के लिए शोक करना सर्वथा अशोभनीय है,अतः कृष्ण ने कुतः शब्द से अपना आश्चर्य व्यक्त किया है। आर्य जैसी सभ्य जाती के किसी व्यक्ति से ऐसी मलिनता की उम्मीद नहीं की जाती। आर्य शब्द उन व्यक्तियों पर लागू होता है जो जीवन के मूल्य को जानते हैं और  सभ्यता आत्म -साक्षात्कार पर निर्भर करती है। देहात्मबुद्धि से प्रेरित मनुष्यों को यह ज्ञान नहीं रहता कि जीवन का उद्देश्य परम सत्य,विष्णु या  साक्षात्कार है। वे  भौतिक जगत के ब्रह्म स्वरूप से मोहित हो जाते हैं,अतः वे यह नहीं समझ पाते कि मुक्ति क्या है। जिन पुरुषों को भौतिक बंधन से मुक्ति का कोई ज्ञान  नहीं होता वेअनार्य कहलाते हैं। यद्द्पि अर्जुन क्षत्रिय था,किन्तु युद्ध से विचलित होकर वह अपने कर्तव्य से गुमराह हो रहा था। उसकी यह कायरता अनार्यों के लिए ही शोभा देने वाली हो सकती है। कर्तव्य पथ से इस प्रकार का विचलन न तो आध्यत्मिक जीवन में प्रगति करने में सहयक बनता है न ही इससे इस संसार में ख्याति प्राप्त की जा सकती है। भगवान् कृष्ण ने अर्जुन द्वारा अपने स्वजनों पर इस प्रकार  की करुणा  का अनुमोदन नहीं किया। 

क्रमशः !!!                                         

मंगलवार, 2 फ़रवरी 2021

BHAGAVAD GITA 2:1

 अध्याय २ 

गीता सार 

सञ्जय उवाच 

तम तथा कृपयविष्टम्श्रुपूर्णाकुलेक्षणम।  

विषीदन्तमिदम वाक्यमुवाच मधुसूधन:।।१।।   

सञ्जयः उवाच :.-संजय ने कहा; तम :-अर्जुन के प्रति; तथा :-इस प्रकार; कृपया :-करुणा से; आविष्टम :-अभिभूत; अश्रुपूर्णाकुल :-अश्रुओं से पूर्ण; ईक्षणम :-नेत्र ; विषीदन्तम :-शोकयुक्त; इदम:-यह; वाक्यम :-वचन; उवाच :-कहा; मधु -सूधन:-मधुसूदन  का वध करने वाले (कृष्ण) ने।  

संजय ने कहा -करुणा से व्याप्त,शोकयुक्त,अश्रुपूरित नेत्रों वाले अर्जुन को देखकर मधुसूदन कृष्ण ने ये शब्द कहे। 

तात्पर्य :-भौतिक पदार्थों के प्रति करुणा,शोक,तथा अश्रु -ये सब असली आत्मा को न जानने के लक्षण हैं। शाश्वत आत्मा के प्रति करुणा ही आत्म -साक्षात्कार है। इस श्लोक में "मधुसूदन" शब्द  महत्वपूर्ण है। कृष्ण ने मधु नामक असुर का वध किया था और अब अर्जुन चाह रहा है कि कृष्ण उस अज्ञान रूपी असुर का वध करे जिसने उसे  कर्तव्य से विमुख कर रखा है। यह कोई नहीं जानता कि करुणा का प्रयोग कहाँ होना चाहिए। डूबता हुए मनुष्य के वस्त्रों के लिए करुणा मूर्खता होगी।  अज्ञान -सागर में गिरे हुए मनुष्य को केवल उसके बाहरी पहनावे अर्थात स्थूल शरीर की रक्षा करके नहीं बचाया जा सकता। जो इसे नहीं जानता और बाहरी पहनावे के लिए शोक करता है,व शूद्र कहलाता है अर्थात वह वृथा ही शोक करता है। अर्जुन तो क्षत्रिय था,अतः उससे ऐसे आचरण की आशा न थी। किन्तु भगवान् कृष्ण अज्ञानी पुरुष के शोक को विनष्ट कर सकते हैं और इसी उद्देश्य से उन्होने भगवद्गीता का उपदेश दिया। यह अध्याय हमें भौतिक शरीर तथा आत्मा के वैश्लेषिक अध्ययन द्वारा आत्म -साक्षात्कार का उपदेश  देता है,जिसकी व्याख्या परम अधिकारी भगवान कृष्ण द्वारा दी गयी है।  साक्षात्कार तभी सम्भव है,जब मनुष्य निष्काम भाव से कर्म करे और आत्म -बोध को प्राप्त हो। 

क्रमशः !!! 



सोमवार, 1 फ़रवरी 2021

BHAGAVAD GITA 1:46

 सञ्जय उवाच 

एवमुक्त्वार्जुनः संख्ये रथोपस्थ उपविशत। 

विसृज्य सशरं चापं शोकसंविग्नमानसः।।४६।। 

सञ्जय उवाच :-संजय ने कहा; एवं इस प्रकार उक्त्वा :-कहकर;अर्जुनः-अर्जुन; संख्ये :-युद्धभूमि में;रथ:-रथ के; उपस्थे :-आसन पर उपविशत :-पुनःबैठ गया; विसृज्य :-एक और रखकर; स -शरम :-बाणो सहित; चापम:-धनुष को; शोक:-शोक से; संविग्न :-संतप्त,उद्विग्न; मानसः -मन  भीतर। 

संजय ने कहा -युद्धभूमि में इस प्रकार कह कर अर्जुन ने अपने धनुष तथा बाण एक ओर रख दिया है और शोक संतप्त चित्त से रथ के आसन पर बैठ गया। 

अर्थात :-अपने शत्रु की स्थिति का अवलोकन करते समय अर्जुन रथ पर खड़ा हो गया था,किन्तु वह शोक से इतना संतप्त हो उठा कि अपना धनुष -बाण एक ओर रख कर रथ के आसन पर पुनः बैठ गया। ऐसा दयालु तथा कोमलहृदय व्यक्ति,जो भगवान् की सेवा में रत हो,आत्मज्ञान प्राप्त करने योग्य है। 

इस प्रकार भगवद्गीता के प्रथम अध्याय  "कुरुक्षेत्र के युद्धस्थल में सैन्यनिरीक्षण" का भक्तिवेदांत तात्पर्य पूर्ण हुआ। 

क्रमशः !!!