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कर्मण्यवादिकारस्ते माँ फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते सङ्गोस्त्वकर्मणि।।४७।।
कर्मणि -कर्म करने में; एव -निश्चय ही; अधिकारः -अधिकार; ते -तुम्हारा; मा -कभी नहीं; फलेषु -(कर्म )फलों में; कदाचन -कदापि;मा -कभी नहीं; कर्म फल -कर्मों का फल; हेतुः -कारण;भूः -होओ; मा -कभी नहीं; ते -तुम्हारी; सङ्ग -आसक्ति;अस्तु -हो; अकर्मणि -कर्म न करने में।
तुम्हें अपना कर्म (कर्तव्य )करने का अधिकार है,किन्तु कर्म के फलों के तुम अधिकारी नहीं हो। तुम न तो कभी अपने आप को अपने कर्मों के फलों का कारण मानों,न ही कर्म न करने में कभी आसक्त होओ।
तात्पर्य :-यहाँ पर तीन विचारणीय बातें हैं -कर्म (स्वधर्म ),विकर्म तथा अकर्म। कर्म ( स्वधर्म )वे कार्य हैं,जिनका आदेश प्रकृति के गुणों के रूप में प्राप्त किया जाता है। अधिकारी की सम्मति के बिना किये गये कर्म विकर्म कहलाते हैं और अकर्म का अर्थ है -अपने कर्मों को न करना। भगवान् ने अर्जुन को उपदेश दिया कि वह निष्क्रिय न हो,अपितु फल के प्रति आसक्त हुए बिना अपना कर्म करे। कर्म फल के प्रति आसक्त रहने वाला भी कर्म का कारण है। इस तरह वह ऐसे कर्मफलों का भोक्ता होता है।
जहाँ तक निर्धारित कर्मों का सम्बन्ध है वे तीन उपश्रेणियों के हो सकते है यथा नित्य कर्म,आपातकालीन कर्म,इच्छित कर्म। नित्यकर्म फल की इच्छा बिना शास्त्रों के निर्देशानुसार सतोगुण में रहकर किये जाते हैं। फल युक्त कर्म बन्धन के कारण बनते हैं,अतः ऐसे कर्म अशुभ हैं। हर व्यक्ति को अपने कर्म पर अधिकार है,उसे फल से अनासक्त होकर कर्म करना चाहिए। ऐसे निष्काम कर्म निस्संदेह मुक्ति पथ की और ले जाने वाले हैं।
अतएव भगवान् ने अर्जुन को फलशक्ति रहित होकर कर्म (स्वधर्म)के रूप में युद्ध करने की आज्ञा दी। उसका युद्ध बिमुख होना आसक्ति का दूसरा पहलू है। ऐसी आसक्ति से कभी मुक्ति पथ की प्राप्ति नहीं हो पाती। आसक्ति चाहे स्वीकारात्मक हो या निषेधात्मक,वह बन्धन का कारण है। अकर्म पापमय है। अतः कर्तव्य के रूप में युद्ध करना ही अर्जुन के लिए मुक्ति का एकमात्र कल्याणकारी मार्ग था।
क्रमशः !!!🙏🙏
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