BHAGAVAD GITA 2:31
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स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि।
धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयो न्यतक्षत्रियस्य न विद्दते।।३१।।
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स्व -धर्मम-अपने धर्म को; अपि-भी,च-निस्संदेह; अवेक्ष्य -विचार करके; न -कभी नहीं; विकम्पितुम-संकोच के लिए; अर्हसि -तुम योग्य हो; धर्म्यात -धर्म के लिए; हि-निस्सन्देह; युद्धात -युद्ध करने की अपेक्षा; श्रेयः -श्रेष्ट साधन; अन्यत -कोई दूसरा; क्षत्रियस्य-क्षत्रिय का; न- नहीं; विद्द्ते-है।
क्षत्रिय होने के नाते अपने विशिष्ट धर्म का विचार करते हुए तुम्हें जानना चाहिए कि धर्म के लिए युद्ध करने से बढ़ कर तुम्हारे लिए अन्य कोई कार्य नहीं है। अतः तुम्हें संकोच करने की कोई आवश्यकता नहीं है।
अर्थात :-सामाजिक व्यवस्था के चार वर्णों में द्वितीय वर्ण उत्तम शासन के लिए है और क्षत्रिय कहलाता है। क्षत का अर्थ है चोट खाया हुआ। जो क्षति से रक्षा करे वह क्षत्रिय कहलाता है। क्षत्रियों को वन में आखेट करने का प्रशिक्षण दिया जाता। क्षत्रिय जंगल में जाकर शेर को ललकारता और उससे आमने -सामने अपनी तलवार से लड़ता था। शेर की मृत्यु होने पर उसकी राजसी ढंग से अंत्येष्टि की जाती थी। आज भी जयपुर रियासत के क्षत्रिय राजा इस प्रथा का पालन करते हैं। क्षत्रियों को विशेष रूप से ललकारने तथा शिक्षा दी जाती है क्योंकि कभी-कभी धार्मिक हिंसा अनिवार्य होती है। इसलिए क्षत्रियों को सीधे सन्यासाश्रम ग्रहण का विधान नहीं है। राजनीति में अहिंशा कूटनीतिक चाल हो सकती है,किन्तु यह कभी भी कारण या सिद्धांत नहीं रही। धार्मिक संहिताओं में उल्लेख मिलता है -
आवहेषु मिथोन्योन्यं जिघांसन्तो महीक्षितः।
युद्धमानाः परं शक्त्या स्वर्ग यान्त्यपराङ्गमुखाः।।
यज्ञेषु पशवो ब्रह्मन हन्यन्ते सततं द्विजैः।
संस्कृताः किल मन्त्रैश्च तेपि स्वर्गमाप्नुवन।।
"युद्ध में विरोधी ईर्ष्यालु राजा से संघर्ष करते हुए मरने वाले राजा या क्षत्रिय को मृत्यु के अनन्तर वे ही उच्चलोक प्राप्त होते हैं जिनकी प्राप्ति यज्ञाग्नि में मारे गए पशुओं की होती है।"अतः धर्म के लिए युद्ध भूमि में वध करना तथा याज्ञिक अग्नि के लिए पशुओं का वध करना हिंसा कार्य नहीं माना जाता क्योंकि इसमें नहित धर्म के कारण प्रत्येक व्यक्ति को लाभ पहुँचता है और यज्ञ में बलि दिए गए पशु को एक स्वरूप से दूसरे में बिना विकाश प्रक्रिया के ही तुरंत मनुष्य का शरीर प्राप्त हो जाता है। इसी तरह युद्धभूमि में मारे गए क्षत्रिय यज्ञ संपन्न करने वाले ब्राह्मणों को प्राप्त होने वाले स्वर्गलोक में जाते हैं।
स्वधर्म दो प्रकार का होता है जब। जब तक मनुष्य मुक्त नहीं हो जाता तब तक मुक्ति प्राप्त करने के लिए धर्म के अनुसार शरीर विशेष कर्तव्य करने होते हैं। जब वह मुक्त हो जाता है तो उसका विशेष कर्तव्य या स्वधर्म आध्यात्मिक हो जाता है और देहात्मबुद्धि में नहीं रहता। जब तक देहात्मबुद्धि है तब तक ब्राह्मणों तथा क्षत्रियों के लिए स्वधर्म पालन अनिवार्य होता है। स्वधर्म का का विधान भगवान् द्वारा होता है,जिसका स्पष्टीकरण चतुर्थ अध्याय में किया जाएगा। शारीरिक स्तर पर स्वधर्म को वर्णाश्रम धर्म अथवा आध्यात्मिक बोध का प्रथम सोपान कहते हैं। वर्णाश्रम धर्म अर्थात प्राप्त शरीर के विशिष्ट गुणों पर आधारित स्वधर्म की अवस्था से मानवीय सभ्यता का शुभारम्भ होता है। वर्णाश्रम -धर्म के अनुसार किसी कार्य-क्षेत्र में स्वधर्म का निर्वाह करने से जीवन के उच्चतर पद को प्राप्त किय जाता है।
क्रमशः - !!!!
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