सोमवार, 29 मार्च 2021

BHAGAVAD GITA 2:57

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यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य श्रुभाश्रुभम। 

नाभिनन्दन्ति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।५७।।

यः -जो; सर्वत्र -सभी जगह; अनभिस्नेहः -स्नेहशून्य; तत -उस; प्राप्य-प्राप्त करके; श्रुभ-अच्छा; अश्रुभम -बुरा; न -कभी नहीं; अभिनन्दन्ति-प्रशंसा करना; द्वेष्टि-द्वेष करता है; तस्य -उसका; प्रज्ञा-पूर्ण ज्ञान; प्रतिष्ठिता -अचल। 

इस भौतिक जगत में जो व्यक्ति न तो शुभ की प्राप्ति से हर्षित होता है और न अशुभ के प्राप्त होने पर उससे घृणा करता है,वह पूर्ण ज्ञान में स्थिर होता है। 

तात्पर्य :- भौतिक जगत में सदा ही कुछ न कुछ उथल -पुथल होती रहती है -उसका परिणाम अच्छा हो चाहे बुरा। जो ऐसी उथल-पुथल से विचलित नहीं होता,जो अच्छे (शुभ ) या बुरे (अशुभ ) से अप्रभावित रहता है उसे कृष्णभावनामृत में स्थिर समझना चाहिए। जब तक मनुष्य इस भौतिक संसार में है तब तक अच्छाई या बुराई की सम्भावना रहती है क्योंकि यह संसार द्वैत (द्वंदों ) से पूर्ण है। किन्तु जो कृष्णभावनामृत में स्थिर है वह अच्छाई या बुराई से अछूता रहता है क्योंकि उसका सरोकार कृष्ण से रहता है जो सर्व मंगलमय है। ऐसे कृष्णभावनामृत से मनुष्य पूर्ण ज्ञान की स्थति प्राप्त कर लेता है,जिसे समाधि कहते हैं। 

क्रमशः !!!🙏🙏       

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