BHAGAVAD GITA 2:51
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कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणि।
जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः पदं गछन्त्यनामयम।।५१।।
कर्म -जम -सकाम कर्मों के कारण; बुद्धि -युक्ता -भक्ति में लगे; हि -निश्चय ही; फलम -फल; त्यक्ता -त्याग कर; मनीषिणः- बड़े -बड़े ऋषि मुनि या भक्त गण; जन्म -बन्ध -जन्म तथा मृत्यु के बन्धन से; विनिर्मुक्ताः -मुक्त; पदम्-पद पर ; गच्छन्ति -पहुंचते हैं; अनायम -बिना कष्ट के।
इस तरह भगवद्भक्ति में लगे रहकर बड़े -बड़े ऋषि मुनि अथवा भक्तगण अपने आपको इस भौतिक संसार में कर्म के फलों से मुक्त कर लेते हैं। इस प्रकार वे जन्म मृत्यु के चक्र से छूट जाते हैं और भगवान् के पास जाकर उस अवस्था को प्राप्त करते हैं,जो समस्त दुःखों से परे है।
तात्पर्य :- मुक्त जीवों का सम्बन्ध उस स्थान से होता है जहाँ भौतिक कष्ट नहीं होते हैं। भागवत में (१०.१४.५८ )में कहा गया है -
समाश्रिता ये पादपल्ल्वप्लवं महत्पदं पुण्ययशो मुरारेः।
भवाम्बुधिरवत्सपदं परं पदं पदं पदं यदविपदां न तेषांम।।
"जिसने उन भगवान् के चरणकमलरूपी नाव को ग्रहण कर लिया है,जो दृश्य जगत के आश्रय हैं और मुकुंद के नाम से विख्यात हैं अर्थात मुक्ति के दाता हैं ,उसके लिए यह भवसागर गोखुर में समाये जल के समान है। उसका लक्ष्य परं पदं है अर्थात वह स्थान जहाँ भौतिक कष्ट नहीं है या कि वैकुण्ठ है; वह स्थान नहीं जहाँ पद -पद पर संकट हो। "
अज्ञानवश मनुष्य यह नहीं समझ पाता कि यह भौतिक जगत ऐसा दुखमय स्थान है जहाँ पद -पद पर संकट है। केवल अज्ञानवश अल्पज्ञानि पुरुष यह सोचकर कि कर्मों से वे सुखी रह सकेंगे सकाम कर्म करते हुए स्थिति को सहन करते हैं। उन्हे यह ज्ञात नहीं कि इस संसार में कहीं भी कोई भी सरीर दुःखों से रहित नहीं है। संसार में सर्वत्र जीवन के दुःख -जन्म ,मृत्यु ,जरा तथा व्याधि -विद्यमान हैं। किन्तु जो अपने वास्तविक स्वरुप को समझ लेता है और इस प्रकार भगवान की स्थिति को समझ लेता है,वही भगवान् की प्रेमा -भक्ति में लगता है -फलस्वरूप वह वैकुण्ठलोक जाने का अधिकारी बन जाता है जहाँ न तो भौतिक कष्टमय जीवन है न ही काल का प्रभाव तथा मृत्यु है। अपने स्वरूप को जानने का अर्थ है भगवान् की अलौकिक स्थति को भी जान लेना। जो भ्र्मवश यह सोचता है कि जीव की स्थति तथा भगवान् की स्थति एकसमान है उसे समझों कि वह अन्धकार में है और स्वयं भगबद्भक्ति करने में असमर्थ है। वह अपने आप को प्रभु मान लेता है और इस तरह जन्म मृत्यु की पुनरावर्ती का पथ चुन लेता है। किन्तु जो यह समझते हुए कि उसकी स्थति सेवक की है अपने को भगवान् की सेवा में लगा देता है वह तुरंत ही वैकुण्ठ लोक जाने का अधिकारी बन जाता है। भगवान की सेवा कर्मयोग या बुद्धियोग कहलाती है,जिसे स्पष्ट शब्दों में भगवद्भक्ति कहते हैं।
क्रमशः !!! 🙏🙏
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