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यावनर्थ उदपाने सर्वतः सम्प्लुतोदके।
तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः।।४६।।
यावान -जितना सारा; अर्थः -प्रयोजन होता है; उड़ -पाने -जलकूप में; सर्वतः -सभी प्रकार से; सम्प्लुत -उदके -विशाल जलाशय में; तावान -उसी तरह; सर्वेषु -समस्त; वेदेषु -वेदों में;ब्राह्मणस्य -परब्रह्म को जानने वाले का;विजानतः -पूर्ण ज्ञानी का।
एक छोटे से कूप का सारा कार्य एक विशाल जलाशय से तुरंत पूरा हो जाता है। इसी प्रकार वेदों के आंतरिक तात्पर्य जानने वाले को उनके सारे प्रयोजन सिद्ध हो जाते हैं।
तात्पर्य :-वेदों के कर्मकांड विभाग में वर्णित अनुष्ठानों एवं यज्ञों का ध्येय आत्म - साक्षात्कार के क्रमिक विकास को प्रोत्साहित करना है। और आत्म -साक्षात्कार का ध्येय भगवदगीता के पन्द्रहवें अध्याय में (१५.१५ )इस प्रकार स्पष्ट किया गया है -वेद अध्ययन का ध्येय जगत के आदि कारण भगवान् कृष्ण को जानना है।अतः आत्म -साक्षात्कार का अर्थ है -कृष्ण को तथा उनके साथ शाश्वत सम्बन्ध को समझना। कृष्ण के साथ जीवों के सम्बन्ध का भी उल्लेख भगवदगीता के पन्द्रहवें अध्याय में (१५.७ )ही हुआ है। जीवात्माएं भगवान् के अंश स्वरुप हैं, अतः प्रत्येक जीव द्वारा कृष्णभावनामृत को जागृत करना वैदिक ज्ञान की सर्वोच्च पूर्णावस्था है। श्रीमदभागवत में (३.३३.७ )इसकी पुष्टि इस प्रकार हुई है -
अहो बात श्र्वपचोतो गरीयान यज्जिह्वाग्रे वर्तते नाम तुभ्यम।
तेपुस्तपस्ते जुहुवः सस्त्रुरार्या ब्रह्मानुचुर्नाम गृणन्ति ये ते।।
"हे प्रभो ,आपके पवित्र नाम का जाप करने वाला भले ही चांडाल जैसे निम्न परिवार में क्यों न उत्पन्न हुआ हो,किन्तु वह आत्म -साक्षात्कार के सर्वोच्च पद पर स्थित होता है। ऐसा व्यक्ति अवश्य ही वैदिक अनुष्ठानों के अनुसार सारी तपस्याएं संपन्न किये होता है और अनेकानेक बार तीर्थस्थानों में स्नान करके वेदों का अध्ययन किये होता है। ऐसा व्यक्ति आर्यकुल में सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। "
अतः मनुष्य को इतना बुद्धिमान तो होना ही चाहिए कि केवल अनुष्ठानों के प्रति आसक्त न रह कर वेदों के उद्देश्य को समझें और अधिकाधिक इन्द्रियतृप्ति के लिए ही स्वर्गलोक जाने की कामना न करे। इस युग में सामान्य व्यक्ति के लिए न तो वैदिक अनुष्ठानों के समस्त विधि -विधानों का पालन करना सम्भव है और न सारे वेदांत तथा उपनिषदों का सर्वांग अध्ययन कर पाना सहज है। वेदों के उद्देश्य को संपन्न करने के लिए प्रचुर समय,शक्ति ,ज्ञान तथा साधन की आवश्यकता होती है। इस युग में ऐसा कर पाना संभव नहीं है, किन्तु वैदिक संस्कृति का परम लक्ष्य भगवन्नाम कीर्तन द्वारा प्राप्त हो जाता है जिसकी संस्तुति पतितात्माओं के उद्धारक भगवान् चैतन्य द्वारा हुई है। जब चैतन्य से महान वैदिक पंडित प्रकाशानंद सरस्वती ने पूछा कि आप वेदांत दर्शन का अध्ययन न करके एक भावुक की भांति पवित्र नाम का कीर्तन क्यों करते हैं तो उन्होंने उत्तर दिया कि मेरे गुरु ने मुझे बड़ा मूर्ख समझकर भगवान् कृष्ण के नाम का कीर्तन करने की आज्ञा दी। अतः उन्होंने ऐसा ही किया और वे पागल की भांति भावोन्मत हो गये। इस कलियुग में अधिकांश जनता मूर्ख है और वेदांत दर्शन समझ पाने के लिए पर्याप्त शिक्षित नहीं है न.वेदांत दर्शन के परम उद्देश्य की पूर्ति भगवान के पवित्र नाम का कीर्तन करने से हो जाती है। वेदांत वैदिक ज्ञान की पराकाष्ठा है और वेदांत दर्शन के प्रणेता तथा ज्ञाता भगवान् कृष्ण हैं। सबसे बड़ा वेदांती तो वह महात्मा है, जो भगवान् के पवित्र नाम का जप करने में आनन्द लेता है। सम्पूर्ण वैदिक रहस्यवाद का यही चरम उद्देश्य है। 🙏🙏
क्रमशः !!!
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