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त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन।
निर्द्वन्दों नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान।।४५।।
त्रै -गुण्य -प्राकृतिक तीनो गुणों से सम्बन्धित; विषयाः -विषयों में; वेदाः- वैदिक साहित्य; निस्त्रै-गुण्यः -प्रकृति के तीनो गुणों से परे ; भव -होओ; अर्जुन-हे अर्जुन;निर्द्वन्द -द्वैतभाव से मुक्त; नित्य-सत्त्व-स्थः -नित्य शुद्धसत्व में स्थित ; निर्योग -क्षेमः -लाभ तथा रक्षा के भाव से युक्त ; आत्म-वान -आत्मा में स्थित।
वेदों में मुख्यतया तीनों का वर्णन वर्णन हुआ है। हे अर्जुन ! इन तीनों गुणों से ऊपर उठो। समस्त द्वैतों और लाभ तथा सुरक्षा सारी चिंताओं से मुक्त होकर आत्मपरायण बनों।
तात्पर्य :-सारे भौतिक कार्यों में प्रकृति के तीनों गुणों की क्रियायें तथा प्रतिकिर्याएँ निहित होती हैं। इनका उद्देश्य -कर्म फल होता है, जो भौतिक जगत में बन्धन का कारण है। वेदों में मुख्यतया सकाम कर्मों का वर्णन है जिससे सामान्य जन क्रमशः इन्द्रियतृप्ति के क्षेत्र से उठकर आध्यात्मिक धरातल तक पहुँच सकें। कृष्ण अपने शिष्य तथा मित्र के रूप में अर्जुन को सलाह देते हैं कि वह वेदांत दर्शन के आध्यात्मिक पद तक ऊपर उठें जिसका प्रारम्भ ब्रह्म -जिज्ञासा अथवा परम आध्यात्मिकता पर प्रश्नों से होता है। इस भौतिक जगत के सारे प्राणी अपने अस्तित्व के लिए कठिन संघर्ष करते रहते हैं। उनके लिए भगवान् ने इस भौतिक जगत की सृष्टि करने के पश्चात वैदिक ज्ञान प्रदान किया जो जीवन यापन तथा भवबन्धन से छूटने का उपदेश देता है। जब इन्द्रियतृप्ति के कार्य तथा कर्मकांड समाप्त हो जाते हैं तो उपनिषदों के रूप में भगवत साक्षात्कार का अवसर प्रदान किया जाता है। ये उपनिषद विभिन्न वेदों के अंश हैं उसी प्रकार जैसे भगवदगीता पंचम वेद महाभारत का एक अंग है। उपनिषदों से आध्यात्मिक जीवन का सुभारम्भ होता है।
जब तक भौतिक शरीर का अस्तित्व है तब तक भौतिक गुणों की क्रियायेँ -प्रतिक्रियाएं होती रहती हैं। मनुष्य को चाहिए कि सुख दुःख या शीत -ग्रीष्म जैसी द्वैतताओं को सहन करना सीखे और इस प्रकार हानि तथा लाभ की चिंता से मुक्त हो जाय। जब मनुष्य कृष्ण की इच्छा पर पूर्णतया आश्रित रहता है तो यह दिव्य अवस्था प्राप्त होती है।
क्रमश !!!
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