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यदा संहरते चायं कूर्मोङ्गनीव सर्वशः
इन्द्रियाणिन्द्रीयार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।५८।।
यदा -जब संहरते -समेत लेता है; च -भी; अयम-यह; कुर्मः -कछुआ; इव -सदृश; सर्वशः -एकसाथ; इन्द्रियाणि -इन्द्रियां; इन्द्रिय -अर्थेभ्य:-इन्द्रिय विषयों से; तस्य-उसकी; प्रज्ञा -चेतना; प्रतिष्ठिता-स्थिर।
जिस प्रकार कछुआ अपने अंगों को संकुचित करके खोल के भीतर कर लेता है,उसी तरह मनुष्य अपनी इन्द्रियों को इन्द्रिय विषयों से खींच लेता है,वह पूर्ण चेतना में दृढ़तापूर्वक स्थिर होता है।
तात्पर्य :-किसी योगी,भक्त या आत्मसिद्ध व्यक्ति की कसौटी यह है कि वह अपनी योजना के अनुसार इन्द्रियों को वश में कर सके,किन्तु अधिकांश व्यक्ति अपनी इन्द्रयों के दास बने रहते हैं और इन्द्रियों के ही कहने पर चलते हैं। यह है उत्तर इस प्रश्न का कि योगी किस प्रकार स्थिर होता है। इन्द्रियों की तुलना विषैले सर्पों से की गयी है। वे अत्यंत स्वंत्रता पूर्वक तथा बिना किसी नियंत्रण के कर्म करना चाहती है। योगी या भक्त को इन सर्पों को वश में करने के लिए,एक सपेरे की भांति अत्यंत प्रबल होना चाहिए। वह उन्हें कभी भी कार्य करने की छूट नहीं देता। शास्त्रों में अनेक आदेश हैं,उनमे से कुछ करो तथा कुछ न करो से सम्बद्ध हैं। जब तक कोई इन,करो या न करो का पालन नहीं कर पाता और इन्द्रिय भोग पर संयम नहीं बरतता है तब तक उसका कृष्णभावनामृत में स्थिर हो पाना असम्भव है। यहाँ पर सर्वश्रेष्ठ उदहारण कछुवे का है। वह किसी भी समय अपने अंग समेट सकता है और पुनः विशिष्ट उद्देश्यों से प्रकट कर सकता है। इसी प्रकार कृष्णभावनाभावित व्यक्तियों की इन्द्रियां भी केवल भगवान् की विशिष्ट सेवाओं के लिए काम आती हैं अन्यथा उनका संकोच कर लिया जाता है। अर्जुन को उपदेश दिया जा रहा है कि वह अपनी इन्द्रियों को आत्मतुष्टि न करके भगवान् के सेवा में लगाये। अपनी इन्द्रियों को सदैव भगवान् की सेवा में लगाये रखना कूर्म द्वारा प्रस्तुत दृष्टांत के अनुरूप है। जो अपनी इन्द्रियों को समेटे रखता है।
क्रमशः !!!🙏🙏
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