मंगलवार, 30 मार्च 2021

BHAGAVAD GITA 2:58

🙏🙏 

यदा संहरते चायं कूर्मोङ्गनीव सर्वशः 

इन्द्रियाणिन्द्रीयार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।५८।।

यदा -जब संहरते -समेत लेता है; च -भी; अयम-यह; कुर्मः -कछुआ; इव -सदृश; सर्वशः -एकसाथ; इन्द्रियाणि -इन्द्रियां; इन्द्रिय -अर्थेभ्य:-इन्द्रिय विषयों से; तस्य-उसकी; प्रज्ञा -चेतना; प्रतिष्ठिता-स्थिर। 

जिस प्रकार कछुआ अपने अंगों को संकुचित करके खोल के भीतर कर लेता है,उसी तरह मनुष्य अपनी इन्द्रियों को इन्द्रिय विषयों से खींच लेता है,वह पूर्ण चेतना में दृढ़तापूर्वक स्थिर होता है। 

तात्पर्य :-किसी योगी,भक्त या आत्मसिद्ध व्यक्ति की कसौटी यह है कि वह अपनी योजना के अनुसार इन्द्रियों को वश में कर सके,किन्तु अधिकांश व्यक्ति अपनी इन्द्रयों के दास बने रहते हैं और इन्द्रियों के ही कहने पर चलते हैं। यह है उत्तर इस प्रश्न का कि योगी किस प्रकार स्थिर होता है। इन्द्रियों की तुलना विषैले सर्पों से की गयी है। वे अत्यंत स्वंत्रता पूर्वक तथा बिना किसी नियंत्रण के कर्म करना चाहती है। योगी या भक्त को इन सर्पों को वश में करने के लिए,एक सपेरे की भांति अत्यंत प्रबल होना चाहिए। वह उन्हें कभी भी कार्य करने की छूट नहीं देता। शास्त्रों में अनेक आदेश हैं,उनमे से कुछ करो तथा कुछ न करो से सम्बद्ध हैं। जब तक कोई इन,करो या न करो का पालन नहीं कर पाता और इन्द्रिय भोग पर संयम नहीं बरतता है तब तक उसका कृष्णभावनामृत में स्थिर हो पाना असम्भव है। यहाँ पर सर्वश्रेष्ठ उदहारण कछुवे का है। वह किसी भी समय अपने अंग समेट सकता है और पुनः विशिष्ट  उद्देश्यों से प्रकट कर सकता है। इसी प्रकार कृष्णभावनाभावित व्यक्तियों की इन्द्रियां भी केवल भगवान् की विशिष्ट सेवाओं के लिए काम आती हैं अन्यथा उनका संकोच कर लिया जाता है। अर्जुन को उपदेश दिया जा रहा है कि वह अपनी इन्द्रियों को आत्मतुष्टि न करके भगवान् के सेवा में लगाये। अपनी इन्द्रियों को सदैव भगवान् की सेवा में लगाये रखना कूर्म द्वारा प्रस्तुत दृष्टांत के अनुरूप है। जो अपनी इन्द्रियों को समेटे रखता है। 

क्रमशः !!!🙏🙏    

सोमवार, 29 मार्च 2021

BHAGAVAD GITA 2:57

🙏🙏

यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य श्रुभाश्रुभम। 

नाभिनन्दन्ति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।५७।।

यः -जो; सर्वत्र -सभी जगह; अनभिस्नेहः -स्नेहशून्य; तत -उस; प्राप्य-प्राप्त करके; श्रुभ-अच्छा; अश्रुभम -बुरा; न -कभी नहीं; अभिनन्दन्ति-प्रशंसा करना; द्वेष्टि-द्वेष करता है; तस्य -उसका; प्रज्ञा-पूर्ण ज्ञान; प्रतिष्ठिता -अचल। 

इस भौतिक जगत में जो व्यक्ति न तो शुभ की प्राप्ति से हर्षित होता है और न अशुभ के प्राप्त होने पर उससे घृणा करता है,वह पूर्ण ज्ञान में स्थिर होता है। 

तात्पर्य :- भौतिक जगत में सदा ही कुछ न कुछ उथल -पुथल होती रहती है -उसका परिणाम अच्छा हो चाहे बुरा। जो ऐसी उथल-पुथल से विचलित नहीं होता,जो अच्छे (शुभ ) या बुरे (अशुभ ) से अप्रभावित रहता है उसे कृष्णभावनामृत में स्थिर समझना चाहिए। जब तक मनुष्य इस भौतिक संसार में है तब तक अच्छाई या बुराई की सम्भावना रहती है क्योंकि यह संसार द्वैत (द्वंदों ) से पूर्ण है। किन्तु जो कृष्णभावनामृत में स्थिर है वह अच्छाई या बुराई से अछूता रहता है क्योंकि उसका सरोकार कृष्ण से रहता है जो सर्व मंगलमय है। ऐसे कृष्णभावनामृत से मनुष्य पूर्ण ज्ञान की स्थति प्राप्त कर लेता है,जिसे समाधि कहते हैं। 

क्रमशः !!!🙏🙏       

रविवार, 28 मार्च 2021

BHAGAVAD GITA 2:56

🙏🙏

दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः। 

वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते।।५६।।

दुःखेषु -तीनों तापों में;अनुद्विग्नमनाः-मन में विचलित हुए बिना; सुखेषु -सुख में; विगत -स्पृहः -रुचिरत होने; वीत -मुक्त; राग -आसक्ति; भय-भय; क्रोधः -तथा क्रोध से; स्थित -धीः -स्थिर मन वाला; मुनिः-मुनि; उच्यते कहलाता है। 

जो त्रय तापों के होने पर भी विचलित नहीं होता अथवा सुख में प्रसन्न नहीं होता और जो आसक्ति,भय तथा क्रोध से मुक्त है,वह स्थिर मन वाला मुनि कहलाता है। 

तात्पर्य :- मुनि शब्द का अर्थ है वह जो शुष्क चिंतन के लिए मन को अनेक प्रकार से उद्वेलित करे,किन्तु किसी तथ्य पर न पहुँच सके। कहा जाता है की प्रत्येक मुनि का अपना-अपना दृष्टिकोण होता है और जब एक मुनि अन्य मुनियों से भिन्न न हो तब तक उसे वास्तविक मुनि नहीं कहा जा सकता। न चासावृषिर्यस्य मतं न भिन्नं ( महाभारत वनपर्व ३१३.११७ )किन्तु जिस स्तधीः  मुनि का भगवान् ने यहाँ उल्लेख किया है वह सामान्य मुनि से भिन्न है। स्तधीः मुनि सदैव कृष्णभावनाभावित रहता है क्योंकि वह सारा सृजनात्मक चिंतन पूरा कर कर चुका होता है। वह प्रशांत निःशेषः मनोरथान्तर (स्तोत्र रत्न ४३ ) कहलाता है या जिसने शुष्क चिंतन की अवस्थ पार कर ली है और इस निष्कर्ष पर पहुंचा है कि भगवान् श्रीकृष्ण या वासुदेव ही सब कुछ है (वासुदेवःसर्वमतिः स महात्मा सदुर्लभः ) वह स्थिरचित मुनि कहलाता है। ऐसा कृष्णभावनाभावित व्यक्ति तीन तापों के संघात से तनिक भी विचलित नहीं होता क्योंकि वह इन कष्टों को भगवतकृपा के रूप में लेता है और पूर्ण पापों के कारण अपने को अधिक कष्ट के लिए योग्य मानता है और वह देखता है कि सारे दुःख भगवत्कृपा से रंचमात्र रह जाते हैं। इसी प्रकार जब वह सुखी होता है तो अपने को सुख के लिए अयोग्य मानकर इसका भी श्रेय भगवान् को देता है। वह सोचता है कि भगवत्कृपा से ही वह ऐसी सुखद स्थिति में है और भगवान् की सेवा और अच्छी तरह से कर सकता है। और भगवान की सेवा के लिए तो वह सदैव साहस करने के लिए सन्नद्ध रहता है। वह राग या विराग से प्रभावित नहीं होता। राग का अर्थ होता है अपनी इन्द्रियतृप्ति के लिए वस्तुओं को ग्रहण करना और विराग का अर्थ है ऐसी इन्द्रिय आसक्ति का आभाव। किन्तु कृष्णभावनामृत में स्थिर व्यक्ति में न राग होता है न विराग क्योंकि उसका पूरा जीवन भगवत्सेवा में अर्पित रहता है। फलतः सारे प्रयास असफल रहने पर भी वह क्रुद्ध नहीं होता। चाहे विजय हो या न हो, कृष्णभावनाभावित व्यक्ति अपने सकल्प का पक्का होता है। 

क्रमशः !!!🙏🙏      

शनिवार, 27 मार्च 2021

BHAGAVAD GITA 2:55

 🙏🙏

श्रीभगवानुवाच

प्रजहाती यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान। 

आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थित्प्रगिस्तदोच्यते।।५५।।  

श्री-भगवानुवाच -श्रीभगवान ने कहा; परजहाती-त्यागता है; यदा -जब; कामान -इन्द्रियतृप्ति की इच्छाएं; सर्वान-सभी प्रकार की; पार्थ -हे पृथापुत्र; मनः-गतान -मनोरथ का; आत्मनि -आत्मा की शुद्ध अवस्था में;एव -निश्चय ही; आत्मना-विशुद्ध मन से; तुष्टः-संतुष्ट,प्रसन्न; स्थित-प्रज्ञः-अध्यात्म में स्थित; तदा -उस समय,तब; उच्यते -कहा जाता है। 
श्री भगवान् ने कहा -हे पार्थ ! जब मनुष्य मनोधर्म से उत्पन्न होने वाली इन्द्रियतृप्ति की समस्त कामनाओं का परित्याग कर देता है और जब इस तरह से विशुद्ध हुआ उसका मन आत्मा में संतोष प्राप्त करता है तो वह विशुद्ध दिव्य चेतना को प्राप्त (स्थित प्रज्ञ) कहा जाता है। 

तात्पर्य :-श्रीमदभागवत में पुष्टि हुई है कि जो मनुष्य पूर्णतया कृष्णभावनाभावित या भगवद्भक्त होता है उसमे महर्षियों के समस्त सद्गुण पाए जाते हैं,किन्तु जो व्यक्ति अध्यात्म में स्थित नहीं होता उसमे एक भी योग्यता नहीं होती क्योंकि वह अपने मनोधर्म पर ही आश्रित रहता है। फलतः यहाँ ठीक ही कहा गया है कि व्यक्ति को मनोधर्म द्वारा कल्पित सारी विषय-वासनाओं को त्यागना होता है  कृत्रिम साधन से इनको रोक पाना सम्भव नहीं। किन्तु यदि कोई कृष्णभावनामृत में लगा हो तो सारी विषय-वासनाएं स्वतः बिना किसी प्रयास के दब जाती हैं। अतः मनुष्य को बिना किसी झिझक के कृष्णभावनामृत में लगना होगा क्योंकि यह भक्ति उसे  दिव्य चेतना प्राप्त करने में सहायक होगी। अत्यधिक उन्नत जीवात्मा (महात्मा ) अपने आपको परमेश्वर का शाश्वत दास मानकर आत्मतुष्ट रहता है। ऐसे आध्यात्मिक पुरुष  के पास भौतिकता से उत्पन्न एक भी विषय-वासना फटक नहीं पाती। वह अपने को निरन्तर भगवान् के सेवक मानते हुए सहज रूप में सदैव प्रसन्न रहता है।

क्रमशः !!!🙏🙏      

शुक्रवार, 26 मार्च 2021

BHAGAVAD GITA 2:54

🙏🙏

अर्जुन उवाच

स्थितिप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशवः। 

स्थितधौः कि किमासीत ब्रजेत किम।।५४।।

अर्जुनः उवाच -अर्जुन ने कहा; स्थित -प्रज्ञस्य -कृष्णभावनामृत में स्थिर हुए व्यक्ति को; का -क्या; भाषा -भाषा; समाधि-स्थस्य -समाधि में स्थित पुरुष का; केशव -हे कृष्ण ! स्थित-धीः-कृष्णभावनामृत में स्थिर व्यक्ति; किम -क्या; परभाषेत -बोलता है; किम-कैसे; आसीत-रहता है; ब्रजेत -चलता है; किम -कैसे। 

अर्जुन ने कहा -हे कृष्ण ! अध्यात्म में लीन चेतना वाले व्यक्ति के क्या लक्षण हैं ? वह कैसे बोलता है तथा उसकी भाषा क्या है ? वह किस तरह बैठता और चलता है। 

तात्पर्य :- जिस प्रकार प्रत्येक व्यक्ति के उसकी विशिष्ट स्थिति के अनुसार कुछ लक्षण होते हैं उसी प्रकार कृष्णभावनामृत पुरुष का विशिष्ट स्वभाव होता है -यथा उसका बोलना,चलना,सोचना आदि। जिस प्रकार धनी पुरुष के कुछ लक्षण होते हैं,जिनसे वह धनवान जाना जाता है,जिस तरह रोगी अपने रोग के लक्षणों से रुग्ण जाना जाता है या कि विद्वान अपने गुणों से विद्वान जाना जाता है,उसी तरह कृष्ण की दिव्य चेतना से युक्त व्यक्ति अपने विशिष्ट लक्षणों से जाना जाता है। इन लक्षणों को भगवद्गीता से जाना जा सकता है। किन्तु सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि कृष्णभावनाभावित व्यक्ति किस तरह बोलता है,क्योंकि वाणी ही किसी मनुष्य का सबसे महत्वपूर्ण गुण है। कहा जाता है कि मूर्ख का पता तब तक नहीं लगता जब तक वह बोलता नहीं। एक बने ठने मूर्ख को तब तक नहीं पहचाना जा सकता जब तक वह बोले नहीं,किन्तु बोलते ही उसका यथार्थ रूप प्रकट हो जाता है। कृष्णभावनाभावित व्यक्ति का सर्वप्रमुख लक्षण यह है कि वह केवल कृष्ण तथा उन्ही से सम्बद्ध विषयों के बारे में बोलता है। फिर तो अन्य लक्षण स्वतः प्रकट हो जाते हैं,जिनका उल्लेख आगे किया गया है। 

क्रमशः !!!🙏🙏     


गुरुवार, 25 मार्च 2021

BHAGAVAD GITA 2:53

🙏🙏

श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला। 

समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि।।५३।।

🙏🙏 

श्रुति -वैदिक ज्ञान के; विप्रतिपन्ना -कर्मफलों से प्रभावित हुए बिना; ते -तुम्हारा; यदा -जब; स्थास्यति -स्थिर हो जायेगा; निश्चला -एकनिष्ठ; समाधौ -दिव्य चेतना या कृष्णभावनामृत में; अचला -स्थिर; बुद्धि-बुद्धि; तदा -तब; योगम -आत्म-साक्षात्कार; अवाप्स्यसि -तुम प्राप्त करोगे। 

जब तुम्हारा मन वेदों की अलंकारमयी भाषा से विचलित न हो और वह आत्म -साक्षात्कार की समाधि  में स्थिर हो जाय,तब तुम्हे दिब्य चेतना प्राप्त हो जाएगी। 

तात्पर्य :- "कोई समाधि  में है"इस कथन का अर्थ यह होता है कि वह पूर्णतया कृष्ष्णभावनाभावित है अर्थात उसने पूर्ण समाधि  में ब्रह्म,परमात्मा तथा भगवान् को प्राप्त कर लिया है। आत्म-साक्षात्कार की सर्वोच्च सिद्धि यह जान लेना है कि मनुष्य कृष्ण का शाश्वत दास है और उसका एकमात्र कर्तव्य कृष्णभावनामृत में अपने सारे कर्म करना है। कृष्णभावनाभावित व्यक्ति या भगवान् के एकनिष्ट भक्त को न तो वेदों की अलंकारमयी वाणी से विचलित होना चाहिए न ही स्वर्ग जाने के उद्देश्य से सकाम कर्मों में प्रवृत होना चाहिए। कृष्णभावनामृत में मनुष्य कृष्ण के सानिध्य में रहता है और कृष्ण से प्राप्त सारे आदेश उस दिव्य अवस्था में समझे जा सकते हैं। ऐसे कार्यों के परिणामस्वरूप निश्चयात्मक ज्ञान की प्राप्ति निश्चित है। उसे कृष्ण या उनके प्रतिनिधि गुरु की आज्ञाओं का पालन मात्र करना होगा। 

क्रमशः !!!🙏🙏     

 

बुधवार, 24 मार्च 2021

BHAGAVAD GITA 2:52

🙏🙏 

यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति। 

तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च।।५२।। 

यदा -जब; ते -तुम्हारा; मोह -मोह के; कलिलम -घने जंगल को; बुद्धि -बुद्धिमय,दिव्य सेवा; व्यतितरिष्यति -पार कर जाती है; तदा -उस समय; गन्ता असि -तुम जाओगे; निर्वेदम -विरक्ति को;  श्रोतव्यस्य -सुनने योग्य के प्रति; श्रुतस्य -सुने हुए का;च -भी। 

जब तुम्हारी बुद्धि मोह रुपी सघन वन को पार कर जायेगी तो तुम सुने हुए तथा सुनने योग्य सब के प्रति अन्यमनस्क हो जाओगे। 

तात्पर्य :- भगवद्भक्तों के जीवन में अनेक उदाहरण प्राप्त हैं जिन्हे भगवद्भक्ति के कारण वैदिक कर्मकाण्ड से विरक्ती हो गई। जब मनुष्य श्रीकृष्ण को तथा उनके साथ अपने सम्बन्ध को वास्तविक रूप में समझ लेता है तो वह सकाम कर्मों के अनुष्ठानों के प्रति पूर्णतया अन्यमनस्क हो जाता है,भले ही वह अनुभवी ब्राह्मण क्यों न हो।  भक्त परम्परा के महान भक्त तथा आचार्य श्री माधवेन्द्रपुरी का कहना है -

संध्यावंदन भद्रमस्तु भवतो भोः स्नान तुभ्यं नमो। 

                      भो देवा पितरश्च तर्पणविधौ नाहं क्षमः क्षम्यताम।। 

यत्र क्वापि निषद्द यादवकुलोत्तमस्य कंसद्विषः। 

                           स्मारं स्मारमघम  हरामि तदलं मन्ये किमन्येन में।। 

"हे मेरी त्रिकाल प्रार्थनाओं,तुम्हारी जय हो। हे स्नान,तुम्हें प्रणाम है। हे देवपतृगण अब मैं आप लोगों के लिए तर्पण करने में असमर्थ हूँ। अब तो जहाँ भी बैठता हूँ,यादव कुलवंशी,कंस के हन्ता श्रीकृष्ण का ही स्मरण करता हूँ और इस तरह मैं अपने पापमय बन्धन से मुक्त हो सकता हूँ। मैं सोचता हूँ कि यही मेरे लिए पर्याप्त है। "

वैदिक रस्में तथा अनुष्ठान यथा त्रिकाल संध्या,प्रातःकालीन स्नान, पितृ तर्पण आदि नवदीक्षितों के लिए अनिवार्य हैं। किन्तु जब कोई पूर्णतया कृष्णभावनाभावित हो और कृष्ण की दिव्य प्रेमाभक्ति में लगा हो, तो वह इन विधि -विधानों के प्रति उदासीन हो जाता है, क्योंकि उसे पहले ही सिद्धि प्राप्त हो चुकी होती है। यदि कोई परमेश्वर कृष्ण की सेवा करके ज्ञान को प्राप्त होता है तो उसे शास्त्रों में वर्णित विभिन्न प्रकार की तपस्याएं तथा यज्ञ करने की आवश्यकता नहीं रह जाती। इसी प्रकार जो यह नहीं समझता कि वेदों का उद्देश्य कृष्ण तक पहुंचना है और अपने आप को अनुष्ठानादि में व्यस्त रखता है,वह केवल अपना समय नष्ट करता है। कृष्णभावनाभावित व्यक्ति शब्द -ब्रह्म की सीमा या वेदों तथा उपनिषदों की परिधि को भी लाँघ जाते हैं।

क्रमशः !!! 🙏🙏       

मंगलवार, 23 मार्च 2021

BHAGAVAD GITA 2:51

 🙏🙏

कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणि। 

जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः पदं गछन्त्यनामयम।।५१।।   

कर्म -जम -सकाम कर्मों के कारण; बुद्धि -युक्ता -भक्ति में लगे; हि -निश्चय ही; फलम -फल; त्यक्ता -त्याग कर; मनीषिणः- बड़े -बड़े ऋषि मुनि या भक्त गण; जन्म -बन्ध -जन्म तथा मृत्यु के बन्धन से; विनिर्मुक्ताः  -मुक्त;  पदम्-पद पर ; गच्छन्ति -पहुंचते हैं; अनायम -बिना कष्ट के। 

इस तरह भगवद्भक्ति में लगे रहकर बड़े -बड़े ऋषि मुनि अथवा भक्तगण अपने आपको इस भौतिक संसार में कर्म के फलों से मुक्त कर लेते हैं। इस प्रकार वे जन्म मृत्यु के चक्र से छूट जाते हैं और भगवान् के पास जाकर उस अवस्था को प्राप्त करते हैं,जो समस्त दुःखों से परे है। 

तात्पर्य :-   मुक्त जीवों का सम्बन्ध उस स्थान से होता है जहाँ भौतिक कष्ट नहीं होते हैं। भागवत में (१०.१४.५८ )में कहा गया है -

समाश्रिता ये पादपल्ल्वप्लवं महत्पदं पुण्ययशो मुरारेः। 

भवाम्बुधिरवत्सपदं परं पदं पदं पदं यदविपदां   न तेषांम।। 

"जिसने उन भगवान् के चरणकमलरूपी नाव को ग्रहण कर लिया है,जो दृश्य जगत के आश्रय हैं और मुकुंद के नाम से विख्यात हैं  अर्थात मुक्ति के दाता  हैं ,उसके लिए यह भवसागर गोखुर में समाये जल के समान है। उसका लक्ष्य परं पदं है अर्थात वह स्थान जहाँ भौतिक कष्ट नहीं है या कि वैकुण्ठ है; वह स्थान नहीं जहाँ पद -पद पर संकट हो। "

अज्ञानवश मनुष्य यह नहीं समझ पाता कि यह भौतिक जगत ऐसा दुखमय स्थान है जहाँ पद -पद पर संकट है। केवल अज्ञानवश अल्पज्ञानि पुरुष यह सोचकर कि कर्मों से वे सुखी रह सकेंगे सकाम कर्म करते हुए स्थिति को सहन करते हैं। उन्हे यह ज्ञात नहीं कि  इस संसार में कहीं भी कोई भी सरीर दुःखों से रहित नहीं है। संसार में सर्वत्र जीवन के दुःख -जन्म ,मृत्यु ,जरा तथा व्याधि -विद्यमान हैं। किन्तु जो अपने वास्तविक स्वरुप को समझ लेता है और इस प्रकार भगवान की स्थिति को समझ   लेता है,वही भगवान् की प्रेमा -भक्ति में लगता है -फलस्वरूप वह वैकुण्ठलोक जाने का अधिकारी बन जाता है जहाँ न तो भौतिक कष्टमय जीवन है न ही काल का प्रभाव तथा मृत्यु है। अपने स्वरूप को जानने का अर्थ है भगवान् की अलौकिक स्थति को भी जान लेना। जो भ्र्मवश यह सोचता है कि जीव की स्थति तथा भगवान् की स्थति एकसमान है उसे समझों कि  वह अन्धकार में है और स्वयं भगबद्भक्ति करने में  असमर्थ है। वह अपने आप को प्रभु मान लेता है और इस तरह जन्म मृत्यु की पुनरावर्ती का पथ  चुन लेता है। किन्तु जो यह समझते हुए कि उसकी स्थति सेवक की है अपने को भगवान् की सेवा में लगा देता है वह तुरंत ही वैकुण्ठ लोक जाने का अधिकारी बन जाता है। भगवान की सेवा कर्मयोग या बुद्धियोग कहलाती है,जिसे स्पष्ट शब्दों में भगवद्भक्ति कहते हैं। 

क्रमशः !!! 🙏🙏

सोमवार, 22 मार्च 2021

BHAGVAD GITA 2:50

🙏🙏

बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते। 

तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम।।५०।।

🙏🙏

बुद्धियुक्तः-भक्ति में लगा रहने वाला; जहाति -मुक्त हो सकता है; इह-इस जीवन में;उभे-दोनों; सुकृत-दुस्कृते-अच्छे तथा बुरे फल; तस्मात्-अतः; योगाय -भक्ति के लिए; युज्यस्व -इस तरह लग जाओ; योगः -कृष्णभावनामृत; कर्मसु -समस्त कार्यों में; कौशलम-कुशलता,कला। 

भक्ति में संलग्न मनुष्य इस जीवन में ही अच्छे तथा बुरे कार्यों से अपने को मुक्त कर लेता है। अतः योग के लिए प्रयत्न करो क्योंकि सारा कार्य -कौशल यही है। 

तात्पर्य :- जीवात्मा अनादि काल से अपने अच्छे तथा बुरे कर्मों के फलों को संचित करता रहा है। फलतः वह निरन्तर अपने स्वरूप सेअनभिज्ञ बना रहा है। इस अज्ञान को भगवदगीता के उपदेश से दूर किया जा सकता है। यह हमें पूर्ण रूप में भगवान् श्रीकृष्ण की शरण में जाने तथा जन्म -जन्मान्तर कर्म -फल की श्रृंखला का शिकार बनने से मुक्त होने का उपदेश देती है, अतः अर्जुन को कृष्णभावनामृत में कार्य करने के लिए कहा गया है। क्योंकि कर्म फल के शुद्ध होने की यही प्रक्रिया है। 

क्रमशः !!!    

रविवार, 21 मार्च 2021

BHAGAVAD GITA 2:49

 🙏🙏

दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनञ्जय। 

बुद्धौ शरणमन्विच्छ  कृपणाः फलहेतवः।।४९।।

दूरेण -दूर से ही त्याग दो; हि -निश्चय ही; अवरम -गर्हित,निंदनीय; कर्म - कर्म; बुद्धि-योगात -कृष्णभावनामृत के बल पर;धनञ्जय -हे संम्पति को जीतने वाले ; बुद्धौ -ऐसी चेतना में; शरणम-पूर्ण समर्पण,आश्रय;अन्विच्छ -प्रयत्न करो; कृपणाः -कंजूस व्यक्ति; फल -हेतवः -सकाम कर्म की अभिलाषा वाले। 

हे धनञ्जय ! भक्ति द्वारा समस्त गर्हित कर्मों से दूर रहो और उसी भाव से भगवान् की शरण ग्रहण करो। जो व्यक्ति अपने सकाम कर्म -फलों को भोगना चाहते हैं,वे कृपण हैं। 

तात्पर्य :-जो व्यक्ति भगवान् के दास रूप में अपने स्वरुप को समझ लेता है वह कृष्णभावनामृत में स्थित रहने के अतिरिक्त सारे कर्मों को छोड़ देता है। जीव के लिए ऐसी भक्ति कर्म का सही मार्ग है। केवल कृपण ही अपने सकाम कर्मों का फल भोगना चाहते हैं,किन्तु इससे वे भवबन्धन में और अधिक फंसते जाते हैं। कृष्णभावनामृत के अतिरिक्त जितने भी कर्म संपन्न किये जाते हैं वे गर्हित हैं क्योंकि इससे कर्ता जन्म -मृत्यु के चक्र में लगातार फँसा रहता है। अतः कभी इसकी अकांक्षा नहीं करनी चाहिए कि मैं कर्म का कारण बनूँ । कृपणों को यह ज्ञात नहीं है कि दैववश या कठोर श्रम से अर्जित संम्पति का किस तरह सदुपयोग करें। मनुष्य को सारी  शक्ति कृष्णभावनामृत अर्जित करने में लगानी चाहिए। इससे उसका जीवन सफल हो सकेगा। कृपणों की भांति अभागे व्यक्ति अपनी मानवी शक्ति को भगवान् की सेवा में नहीं लगाते। 

क्रमशः !!!🙏🙏   

शनिवार, 20 मार्च 2021

BHAGAVAD GITA 2:48

 🙏🙏

योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय। 

सिद्धयसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्चते।।४८।।

योगस्थः -समभाव होकर; कुरु -करो; सङ्गम -आसक्ति को; त्यक्त्वा -त्यागकर; धनञ्जय -हे अर्जुन; सिद्धि-असिद्धयो -सफलता तथा विफलता में; समः -समभाव;भूत्वा -होकर; समत्वम -समता; योगः -योग; उच्चते -कहा जाता है.

हे अर्जुन ! जय अथवा पराजय की समस्त आसक्ति त्याग कर समभाव से अपना कर्म करो। ऐसी समता योग कहलाती है। 

तात्पर्य :- कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि वह योग में स्थित होकर कर्म करे और योग है क्या ? योग का अर्थ है सदैव चंचल रहने वाली इन्द्रियों को वश में रखते हुए परमतत्व में मन को एकाग्र करना। और परमतत्व कौन है ? भगवान् ही परमतत्व है और चूँकि वे स्वयं अर्जुन को युद्ध करने के लिए कह रहे हैं,अतः अर्जुन को युद्ध के फल से कोई सरोकार नहीं है। जय या पराजय कृष्ण के लिए विचारणीय है,अर्जुन को तो बस श्रीकृष्ण के निर्देशानुसार कर्म करना है। कृष्ण के निर्देश का पालन ही वास्तविक योग है और इसका अभ्यास कृष्णभावनामृत नामक विधि द्वारा किया जाता है। एकमात्र कृष्णभावनामृत के माध्यम से ही स्वामित्व भाव का परित्याग किया जा सकता है। इसके लिए उसे कृष्ण का दास या उनके दासों का दास बनना होता है। कृष्णभावनामृत में कर्म करने की यही एक विधि है जिससे योग में स्थित होकर कर्म किया जा सकता है। 

अर्जुन क्षत्रिय है,अतः वह वर्णाश्रम -धर्म का अनुयायी है। विष्णु - पुराण में कहा गया है कि वर्णाश्रम -धर्म का एकमात्र उद्देश्य विष्णु को प्रसन्न करना है। सांसारिक नियम है कि लोग पहले अपनी तुष्टि करते हैं, किन्तु यहाँ तो अपने को तुष्ट न करके कृष्ण को तुष्ट करना है। अतः कृष्ण को तुष्ट किये बिना कोई वर्णाश्रम -धर्म का पालन कर भी नहीं सकता। यहाँ पर परोक्ष रूप से अर्जुन को कृष्ण द्वारा बताई गयी विधि के अनुसार कर्म करने का आदेश है। 

क्रमशः !!!  🙏🙏  


शुक्रवार, 19 मार्च 2021

BHAGAVAD GITA2:47

 🙏🙏

कर्मण्यवादिकारस्ते माँ फलेषु कदाचन। 

मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते सङ्गोस्त्वकर्मणि।।४७।।  

कर्मणि -कर्म करने में; एव -निश्चय ही; अधिकारः -अधिकार; ते -तुम्हारा; मा -कभी नहीं; फलेषु -(कर्म )फलों में; कदाचन -कदापि;मा -कभी नहीं; कर्म फल -कर्मों का फल; हेतुः -कारण;भूः -होओ; मा -कभी नहीं; ते -तुम्हारी; सङ्ग -आसक्ति;अस्तु -हो; अकर्मणि -कर्म न करने में। 

तुम्हें अपना कर्म (कर्तव्य )करने का अधिकार है,किन्तु कर्म के फलों के तुम अधिकारी नहीं हो। तुम न तो कभी अपने आप को अपने कर्मों के फलों का कारण मानों,न ही कर्म न करने में कभी आसक्त होओ। 

तात्पर्य :-यहाँ पर तीन विचारणीय बातें हैं -कर्म (स्वधर्म ),विकर्म तथा अकर्म। कर्म ( स्वधर्म )वे कार्य हैं,जिनका आदेश प्रकृति के गुणों के रूप में प्राप्त किया जाता है। अधिकारी की सम्मति के बिना किये गये कर्म विकर्म कहलाते हैं और अकर्म का अर्थ है -अपने कर्मों को न करना। भगवान् ने अर्जुन को उपदेश दिया कि वह निष्क्रिय न हो,अपितु फल के प्रति आसक्त हुए बिना अपना कर्म करे। कर्म फल के प्रति आसक्त रहने वाला भी कर्म का कारण है। इस तरह वह ऐसे कर्मफलों का भोक्ता होता है। 

जहाँ तक निर्धारित कर्मों का सम्बन्ध है वे तीन उपश्रेणियों के हो सकते है यथा नित्य कर्म,आपातकालीन कर्म,इच्छित कर्म। नित्यकर्म फल की इच्छा बिना शास्त्रों के निर्देशानुसार सतोगुण में रहकर किये जाते हैं। फल युक्त कर्म बन्धन के कारण बनते हैं,अतः ऐसे कर्म अशुभ हैं। हर व्यक्ति को अपने कर्म पर अधिकार है,उसे फल से अनासक्त होकर  कर्म करना चाहिए। ऐसे निष्काम कर्म निस्संदेह मुक्ति पथ की और ले जाने वाले हैं। 

अतएव  भगवान् ने अर्जुन को फलशक्ति रहित होकर कर्म (स्वधर्म)के रूप में युद्ध करने की आज्ञा दी। उसका युद्ध बिमुख होना आसक्ति का दूसरा पहलू  है।  ऐसी आसक्ति से कभी मुक्ति पथ की प्राप्ति नहीं हो पाती। आसक्ति चाहे स्वीकारात्मक हो या निषेधात्मक,वह बन्धन का कारण है। अकर्म पापमय है। अतः कर्तव्य के रूप में युद्ध करना ही अर्जुन के लिए मुक्ति का एकमात्र कल्याणकारी मार्ग था। 

क्रमशः !!!🙏🙏

गुरुवार, 18 मार्च 2021

BHAGAVAD GITA 2:46

 🙏🙏

यावनर्थ उदपाने सर्वतः सम्प्लुतोदके। 

तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः।।४६।।  

यावान -जितना सारा; अर्थः -प्रयोजन होता है; उड़ -पाने -जलकूप में; सर्वतः -सभी प्रकार से; सम्प्लुत -उदके -विशाल जलाशय में; तावान -उसी तरह; सर्वेषु -समस्त; वेदेषु -वेदों में;ब्राह्मणस्य -परब्रह्म को जानने वाले का;विजानतः -पूर्ण ज्ञानी का।

एक छोटे से कूप का सारा कार्य एक विशाल जलाशय से तुरंत पूरा हो जाता है। इसी प्रकार वेदों के आंतरिक तात्पर्य जानने वाले को उनके सारे प्रयोजन सिद्ध हो जाते हैं। 

तात्पर्य :-वेदों के कर्मकांड विभाग में वर्णित अनुष्ठानों एवं यज्ञों का ध्येय आत्म - साक्षात्कार के क्रमिक विकास को प्रोत्साहित करना है। और आत्म -साक्षात्कार का ध्येय भगवदगीता के पन्द्रहवें अध्याय में (१५.१५ )इस प्रकार स्पष्ट किया गया है -वेद अध्ययन का ध्येय जगत के आदि कारण भगवान् कृष्ण को जानना है।अतः आत्म -साक्षात्कार का अर्थ है -कृष्ण को तथा उनके साथ शाश्वत सम्बन्ध को समझना। कृष्ण के साथ जीवों के सम्बन्ध का भी उल्लेख भगवदगीता  के पन्द्रहवें अध्याय में (१५.७ )ही हुआ है। जीवात्माएं भगवान् के अंश स्वरुप हैं, अतः प्रत्येक जीव द्वारा कृष्णभावनामृत को जागृत करना वैदिक ज्ञान की सर्वोच्च पूर्णावस्था है। श्रीमदभागवत में (३.३३.७ )इसकी पुष्टि इस प्रकार हुई है -

अहो बात श्र्वपचोतो गरीयान यज्जिह्वाग्रे वर्तते नाम तुभ्यम। 

तेपुस्तपस्ते जुहुवः सस्त्रुरार्या ब्रह्मानुचुर्नाम गृणन्ति ये ते।। 

"हे प्रभो ,आपके पवित्र नाम का जाप करने वाला भले ही चांडाल जैसे निम्न परिवार में क्यों न उत्पन्न हुआ हो,किन्तु वह आत्म -साक्षात्कार के सर्वोच्च पद पर स्थित होता है। ऐसा व्यक्ति अवश्य ही वैदिक अनुष्ठानों के अनुसार सारी तपस्याएं संपन्न किये होता है और अनेकानेक बार तीर्थस्थानों में स्नान करके वेदों का अध्ययन किये होता है। ऐसा व्यक्ति आर्यकुल में सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। "

अतः मनुष्य  को इतना बुद्धिमान तो होना ही चाहिए कि केवल अनुष्ठानों के प्रति आसक्त न रह कर वेदों के उद्देश्य को समझें  और अधिकाधिक इन्द्रियतृप्ति के लिए ही स्वर्गलोक जाने की कामना न करे। इस युग में सामान्य व्यक्ति के लिए न तो वैदिक अनुष्ठानों के समस्त विधि -विधानों का पालन करना सम्भव है और न सारे वेदांत तथा उपनिषदों का सर्वांग अध्ययन कर पाना सहज है। वेदों के उद्देश्य को संपन्न करने के लिए प्रचुर समय,शक्ति ,ज्ञान तथा साधन की आवश्यकता होती है। इस युग में ऐसा कर पाना संभव नहीं है, किन्तु वैदिक संस्कृति का परम लक्ष्य भगवन्नाम कीर्तन द्वारा प्राप्त हो जाता है जिसकी संस्तुति पतितात्माओं  के उद्धारक भगवान् चैतन्य द्वारा हुई है। जब चैतन्य से महान वैदिक पंडित प्रकाशानंद सरस्वती ने पूछा कि आप वेदांत दर्शन का अध्ययन न करके एक भावुक की भांति पवित्र नाम का कीर्तन क्यों करते हैं तो उन्होंने उत्तर दिया कि मेरे गुरु ने मुझे बड़ा मूर्ख  समझकर भगवान् कृष्ण के नाम का कीर्तन करने की आज्ञा दी। अतः उन्होंने ऐसा ही किया और वे पागल की भांति भावोन्मत हो गये। इस कलियुग में अधिकांश जनता मूर्ख है और वेदांत दर्शन समझ पाने के लिए पर्याप्त शिक्षित नहीं है न.वेदांत दर्शन के परम उद्देश्य की पूर्ति भगवान के  पवित्र नाम का कीर्तन करने से हो जाती है। वेदांत वैदिक ज्ञान की पराकाष्ठा है और वेदांत दर्शन के प्रणेता तथा ज्ञाता भगवान् कृष्ण हैं। सबसे बड़ा वेदांती तो वह महात्मा है, जो भगवान् के पवित्र नाम का जप करने में आनन्द लेता है। सम्पूर्ण वैदिक  रहस्यवाद का यही चरम  उद्देश्य है। 🙏🙏

क्रमशः !!!   


बुधवार, 17 मार्च 2021

BHAGAVAD GITA 2:45

 🙏🙏

त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन। 

निर्द्वन्दों नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान।।४५।।

  त्रै -गुण्य -प्राकृतिक तीनो गुणों से सम्बन्धित; विषयाः -विषयों में; वेदाः- वैदिक साहित्य; निस्त्रै-गुण्यः -प्रकृति के तीनो गुणों से परे ; भव -होओ; अर्जुन-हे अर्जुन;निर्द्वन्द -द्वैतभाव से मुक्त; नित्य-सत्त्व-स्थः -नित्य शुद्धसत्व में स्थित ; निर्योग -क्षेमः -लाभ तथा रक्षा के भाव से युक्त ; आत्म-वान -आत्मा में स्थित।

वेदों में मुख्यतया  तीनों  का वर्णन वर्णन हुआ है।  हे अर्जुन ! इन तीनों गुणों से ऊपर उठो।  समस्त द्वैतों और लाभ तथा सुरक्षा  सारी चिंताओं से मुक्त होकर आत्मपरायण बनों। 

तात्पर्य :-सारे भौतिक कार्यों में प्रकृति के तीनों गुणों की क्रियायें तथा प्रतिकिर्याएँ निहित होती हैं। इनका उद्देश्य -कर्म फल होता है, जो भौतिक जगत में बन्धन का कारण है। वेदों में मुख्यतया सकाम कर्मों का वर्णन है जिससे सामान्य जन क्रमशः इन्द्रियतृप्ति के क्षेत्र  से उठकर आध्यात्मिक धरातल तक पहुँच सकें। कृष्ण अपने शिष्य तथा मित्र के रूप में अर्जुन को  सलाह देते हैं कि  वह वेदांत दर्शन के आध्यात्मिक पद तक ऊपर उठें जिसका प्रारम्भ ब्रह्म -जिज्ञासा अथवा परम आध्यात्मिकता पर प्रश्नों से होता है। इस भौतिक जगत के सारे प्राणी अपने अस्तित्व के लिए कठिन संघर्ष करते रहते हैं।  उनके लिए भगवान् ने इस भौतिक जगत की सृष्टि करने के पश्चात वैदिक ज्ञान प्रदान किया जो जीवन यापन तथा भवबन्धन से छूटने का उपदेश देता है। जब इन्द्रियतृप्ति के कार्य तथा कर्मकांड समाप्त हो जाते हैं तो उपनिषदों के रूप में भगवत साक्षात्कार का अवसर प्रदान किया जाता है। ये उपनिषद विभिन्न वेदों के अंश हैं उसी प्रकार जैसे भगवदगीता पंचम वेद महाभारत का एक अंग है। उपनिषदों से आध्यात्मिक जीवन का सुभारम्भ होता है। 

जब तक भौतिक शरीर का अस्तित्व है तब तक भौतिक गुणों की क्रियायेँ  -प्रतिक्रियाएं होती रहती हैं। मनुष्य को चाहिए कि सुख दुःख या शीत -ग्रीष्म जैसी द्वैतताओं को सहन करना सीखे और इस प्रकार हानि तथा लाभ की चिंता से मुक्त हो जाय। जब मनुष्य कृष्ण की इच्छा पर पूर्णतया आश्रित रहता है तो यह दिव्य अवस्था प्राप्त होती है। 

क्रमश !!!                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                

मंगलवार, 16 मार्च 2021

BHAGAVAD GITA 2:44

 🙏🙏 

भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम। 

व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते।।४४।।

भोग -भौतिक भोग; ऐश्वर्य -तथा ऐश्वर्य के प्रति; प्रसक्तानां-अशक्तों के लिए; तया -ऐसी वस्तुओं से;  अपहृत -चेतसाम-मोहग्रसित चित्त वाले;व्यवसाय -अत्मिका -दृढ निश्चय वाली; बुद्धिः-भगवान की भक्ति; समाधौ-नियंत्रित मन में; न -कभी नहीं; विधीयते-घटित होती है। 

      जो लोग इन्द्रियभोग तथा भौतिक ऐश्वर्य के प्रति अत्यधिक आसक्त होने से ऐसी वस्तुओं से मोहग्रस्त हो जाते हैं,उनके मनों में भगवान् के प्रति दृढ़ निश्चय नहीं होता। 

तात्पर्य :-समाधि का अर्थ है "स्थिर मन "वैदिक शब्दकोश निरूक्ति के अनुसार -सम्यग आधियति स्मिन्नात्मतयाथात्म्यम -जब मन आत्मा को समझने में स्थिर रहता है तो उसे समाधि । जो लोग इन्द्रियभोग में रुचि रखते हैं अथवा जो ऐसी क्षणिक वस्तुओं से मोहग्रस्त हैं उनके लिए समाधि कभी भी सम्भव नहीं है। माया के चक्कर में पड़कर वे न्यूनाधिक पतन को प्राप्त होते हैं। 

क्रमशः !!! 🙏🙏
















 

सोमवार, 15 मार्च 2021

BHAGAVAD GITA 2:42 & 2:43

🙏🙏

यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चितः। 

               वेदवादरताः पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः।।४२।।

कामात्मानः स्वर्गपरा जन्मकर्मफ़लपर्दाम। 

                क्रियाविशेषबहुलां भोगैश्वर्यगतिं प्रति।।४३।।

यामिमां -ये सब; पुष्पितां -दिखावटी; वाचम -शब्द; प्रवदन्ति-कहते हैं; अविपश्चितः-अल्पज्ञ व्यक्ति;वेद -वाद-रताः-वेदों के अनुयायी; पार्थ -हे पार्थ; न-कभी नहीं; अन्यतः - अन्य कुछ; अस्ति है; इति -इस प्रकार; वादिनः -बोलने वाले;काम -आत्मनः -इन्द्रितृप्ति के इच्छुक;स्वर्ग-परा -स्वर्गप्राप्ति के इच्छुक; जन्म -कर्म-फल-पर्दाम -उत्तम जन्म तथा अन्य सकाम कर्म फल प्रदान करने वाला; क्रिया-विशेष -भड़कीले उत्सव; बहुलाम-विविध; भोग -इन्द्रियतृप्ति; ऐश्वर्य  -तथा ऐश्वर्य; गतिम् -प्रगति; प्रति -की ओर। 

अल्पज्ञानी मनुष्य वेदों के उन अलंकारिक शब्दों के प्रति अत्यधिक आसक्त रहते हैं,जो स्वर्ग की प्राप्ति,अच्छे जन्म,शक्ति इत्यादि के लिए विविध सकाम कर्म करने की संस्तुति करते हैं। इन्द्रियतृप्ति तथा ऐश्वर्यमय जीवन की अभिलाषा के कारण वे कहते हैं कि इससे बढ़कर और कुछ नहीं है। 

तात्पर्य :- साधारणतः सब लोग अत्यंत बुद्धिमान नहीं होते और वे अज्ञान के कारण वेदों के कर्मकाण्ड भाग में बताये गए सकाम कर्मों के प्रति अत्यधिक आसक्त रहते हैं। वे स्वर्ग में जीवन का आनंद उठाने के लिए इन्द्रियतृप्ति कराने वाले प्रस्तावों से अधिक और कुछ नहीं चाहते,जहाँ मदिरा तथा तरुणियाँ उपलब्ध हैं और भौतिक ऐश्वर्य सर्व सामान्य है। वेदों में स्वर्ग लोक पहुँचने के लिए अनेक यज्ञों की संस्तुति है.जिनमे ज्योतिष्टोम यज्ञ प्रमुख है। वास्तव में वेदों में कहा गया है कि जो स्वर्ग जाना चाहता है उसे ये यज्ञ संपन्न करने चाहिए और अल्पज्ञानी पुरुष सोचते हैं  कि वैदिक ज्ञान का सारा अभिप्राय इतना ही है। जिस प्रकार मुर्ख लोग विषैले वृक्षों के फूलों के प्रति बिना यह जाने कि इस आकर्षण का फल क्या होगा,आसक्त रहते हैं उसी प्रकार अज्ञानी व्यक्ति स्वर्गिक ऐश्वर्य तथा तज्जनित इन्द्रियभोग के प्रति आकृष्ट रहते हैं। 

वेदों के कर्मकाण्ड भाग में कहा गया है -अपाम सोममृता अभूम तथा अक्षय्यं ह वै चातुर्मासस्ययाजिनः सुकृतं भवति। दूसरे शब्दों में,जो लोग चातुर्मास तप करते हैं वे अमर तथा सदा सुखी रहने के लिए सोम -रस पीने के अधिकारी हो जाते हैं। यहाँ तक कि इस पृथ्वी में भी कुछ लोग सोम -रस पीने के लिए अत्यंत इच्छुक रहते हैं जिससे वे बलवान बने और इन्द्रियतृप्ति का सुख पाने में समर्थ हों। ऐसे लोगों को भवबंधन से मुक्ति में कोई श्रद्धा नहीं होती और वे वैदिक यज्ञों की तड़क-भड़क में विशेष आसक्त रहते हैं। वे सामान्यतया विषयी होते हैं और जीवन में आनन्द के अतिरिक्त और कुछ नहीं चाहते। कहा जाता है कि स्वर्ग में नन्दन-कानन नामक अनेक उद्यान हैं,जिनमे दैवी सुंदरी स्त्रियों का संग तथा प्रचुर मात्रा में सोम -रस उपलब्ध रहता है। ऐसा शारीरिक सुख निस्सन्देह विषयी है,अतः ये वे लोग हैं,जो भौतिक जगत के स्वामी बनकर ऐसे भौतिक अस्थायी सुख के प्रति आसक्त हैं।

क्रमशः-!!! 🙏🙏            

BHAGAVAD GITA 2:41

🙏🙏

व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन। 

बहुशाखा ह्यनन्ता बुद्ध्योव्यवसायिनाम 

व्यवसाय -आत्मिका-कृष्णभावनामृत में स्थित; बुद्धि -बुद्धि; एक एकमात्र; इह -इस संसार में; कुरुनन्दन -हे कुरुओं के प्रिय पुत्र; बहु -शाखा -अनेक शाखाओं में विभक्त; हि -निस्संदेह;अनन्ता-असीम;च -भी;बुद्धय-बुद्धि; अव्यवसायिनाम-जो कृष्णभावनामृत में नहीं हैं उनकी। 

जो इस मार्ग पर चलते हैं वे प्र्योजन में दृढ़ रहते हैं और उनका लक्ष भी एक होता है। हे कुरुनन्दन ! जो दृढ़ प्रतिज्ञ नहीं हैं उनकी बुद्धि अनेक शाखाओं में विभक्त रहती है। 

तात्पर्य :-यह दृढ़ श्रद्धा कि कृष्णभावनामृत द्वारा मनुष्य जीवन को सर्वोच्च सिद्धि प्राप्त कर सकेगा,व्यवसायात्मिक्ता बुद्धि कहलाती है। चैतन्य -चरितामृत में (मध्य २२.६२ )कहा गया है

श्रद्धा -शब्दे -विश्वास कहे सुदृढ़ निश्चय। 

कृष्णे भक्ति कैले सर्वकर्म कृत है।।  

श्रद्धा का अर्थ है किसी अलौकिक वस्तु में अटूट विश्वास। जब कोई कृष्णभावनामृत के कार्यों में लगा होता है तो उसे परिवार,मानवता या राष्ट्रीयता से बँधकर  कार्य करने की  आवश्यकता नहीं होती। पूर्व में किये गये शुभ -अशुभ कर्मों के फल ही उसे सकाम कर्मों में लगाते हैं जब कोई कृष्णभावनामृत में संलग्न हो तो उसे अपने कार्यों के शुभ फल के लिए प्रयत्नशील नहीं रहना चाहिए। जब कोई कृष्णभावनामृत में लीन होता है तो उसके सारे कार्य आध्यात्मिक धरातल पर होते हैं क्योंकि उनमे अच्छे तथा बुरे को द्वैत नहीं रह जाता। कृष्णभावनामृत की सर्वोच्च सिद्धि देहात्मबुद्धि का त्याग है। कृष्णभावनामृत की प्रगति के साथ क्रमशः यह अवस्था स्वतः प्राप्त हो जाती है। 

कृष्णभावनाभावित व्यक्ति का दृढ़ निश्चय ज्ञान पर आधारित है। वासुदेवः सर्वम इति स महात्मा सुदुर्लभः-कृष्णभावनाभावित व्यक्ति अत्यंत दुर्लभ जीव है जो भलीभांति जानता है कि वासुदेव या कृष्ण समस्त प्रकट कारणों के मूल कारण हैं। जिस प्रकार वृक्ष की जड़ सींचने पर स्वतः ही पत्तियों तथा टहनियों में जल पहुंच जाता है उसी तरह कृष्णाभावनाभावित होने पर मनुष्य प्रत्येक प्राणी की अर्थात अपनी,परिवार की,समाज की,मानवता की सर्वोच्च सेवा कर सकता है। यदि मनुष्य के कर्मों से कृष्ण प्रसन्न हो जाएँ तो प्रत्येक व्यक्ति संतुष्ट होगा।

किन्तु कृष्णभावनामृत में सेवा गुरु के समर्थ निर्देशन में ही ठीक से हो पाती है क्योंकि गुरु कृष्ण का प्रामाणिक प्रतिनिधि होता है जो शिष्य के स्वभाव से परिचित होता है और उसे कृष्णभावनामृत की दिशा में कार्य करने के लिए मार्ग दिखा सकता है। अतः कृष्णभावनामृत में दक्ष होने के लिए मनुष्य को दृढ़ता से कर्म करना होगा और कृष्ण के प्रतिनिधि की आज्ञा का पालन करना होगा। उसे गुरु के उपदेशों को जीवन का लक्ष्य मान लेना होगा। श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर ने गुरु की प्रसिद्ध प्रार्थना में उपदेश दिया है -

यस्य प्रसादाद भगवत्प्रसादो यस्याप्रसादनन्न  गतिः कुतोपि। 

ध्यायांस्तुवंसत्स्य यशस्त्रिसन्ध्यं वनडे गुरोः श्रीचरणारविन्दम।।

"गुरु की तुष्टि से भगवान् भी प्रसन्न होते हैं। गुरु को प्रसन्न किये बिना कृष्णभावनामृत के स्तर तक पँहुच पाने की कोई संभावना नहीं रहती। अतः मुझे उनका चिंतन करना चाहिए और दिन में तीन बार उनकी कृपा की याचना करनी चाहिए और अपने गुरु को सादर नमस्कार करना चाहिए। "

किन्तु यह सम्पूर्ण पद्धति देहात्मबुद्धि से परे सैद्धांतिक रूप से नहीं वरन व्यवहारिक रूप से पूर्ण आत्मज्ञान पर निर्भर करती है,जब सकाम कर्मों से इन्द्रियतृप्ति की कोई सम्भावना नहीं रहती। जिसका मन दृढ़ नहीं वही विभिन्न सकाम कर्मों की ओर आकर्षित होता है।

क्रमशः !!!🙏🙏          


शनिवार, 13 मार्च 2021

BHAGAVAD GITA 2:40

🙏🙏 

नेहाभिक्रमनाशोस्ति प्रत्यवायो न विद्द्ते। 

स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात।।४०।।

न -नहीं; इह -इस योग में; अभिक्रम -प्रयत्न करने में; नाश -हानि; अस्ति -है; प्रत्यवायः-ह्रास;न -कभी नहीं; विद्द्ते-है; सु-अल्पम-थोड़ा;अपि-यद्द्पि; अस्य-इस; धर्मस्य-धर्म का; त्रायते-मुक्त करता है; महतः-महान; भयात-भय से। 

इस प्रयास में न तो हानि होती है न ही ह्रास अपितु इस पथ पर की गयी अल्प प्रगति भी महान भय से रक्षा कर सकती है। 

तात्पर्य :-कर्म का सर्वोच्च दिव्य गुण है,कृष्णभावनामृत में कर्म या इन्द्रियतृप्ति की आशा न करके कृष्ण के हित में कर्म करना। ऐसे कर्म का लघु आरम्भ होने पर भी कोई बाधा नहीं आती है,न कभी इस आरम्भ का विनाश होता है। भौतिक स्तर पर या प्रारम्भ किये जाने वाले किसी भी कार्य को पूरा करना होता है अन्यथा सारा प्रयास निष्फल हो जाता है। किन्तु कृष्णभावनामृत में प्रारम्भ किया जाने वाला कोई भी कार्य अधूरा रहकर भी स्थायी प्रभाव डालता है। अतः ऐसे कर्म करने वाले को कोई हानि नहीं होती,चाहे यह कर्म  क्यों न रह जाय। यदि कृष्णभावनामृत का एक प्रतिशत भी पूरा हुआ तो उसका स्थायी फल होता है,अतः अगली बार दो प्रतिशत से सुभारम्भ होगा,किन्त्तु भौतिक कर्म में जब तक शत  प्रतिशत सफलता प्राप्त न हो तब तक कोई लाभ प्राप्त नहीं होता। अजामिल ने कृष्णभावनामृत में अपने कर्तव्य का कुछ ही प्रतिशत पूरा किया था,किन्तु भगवान् की कृपा से उसे शत प्रतिशत लाभ मिला। इस सम्बन्ध में श्रीमदभागवत में (१.५.१७ )एक अत्यंत सुन्दर श्लोक आया है -

त्यक्त्वा स्वधर्म चरणाम्बुजं हरेर्भजन्नम्पक्वोथ पतेततो यदि।  

यत्र क्व वाभद्रमभूदमुष्य किं को वार्थ आप्तोभजतां स्वधर्मतः।। 

 

  "यदि कोई अपना धर्म छोड़कर कृष्णभावनामृत में काम करता है और फिर काम पूरा न होने के कारण नीचे गिर जाता है तो इसमें उसको क्या हानि ? और यदि कोई अपने भौतिक कार्यों को पूरा करता है तो इसमें उसको क्या लाभ होगा ? अथवा जैसा कि इशाई कहते हैं "यदि कोई अपनी शाश्वत आत्मा को खोकर सम्पूर्ण जगत को पा ले तो मनुष्य को इससे क्या लाभ होगा ?"

भौतिक कार्य तथा उनके फल शरीर के साथ ही समाप्त हो जाते हैं,किन्तु कृष्णभावनामृत में किया गया कार्य मनुष्य को इस शरीर के विनष्ट होने पर भी पुनः कृष्णभावनामृत तक जाता है। कम से कम इतना तो निश्चित है कि अगले जन्म में उसे सुसंस्कृत ब्राह्मण परिवार में या धनीमानी कुल में मनुष्य का शरीर प्राप्त हो सकेगा जिससे उसे भविष्य में ऊपर उठने का अवसर प्राप्त हो सकेगा कृष्णभावनामृत में संपन्न कार्य का यही अनुपम गुण है। 

क्रमशः !!!   

शुक्रवार, 12 मार्च 2021

BHAGAVAD GITA 2:39

🙏🙏 

एषा तेभिहिता सांख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां शृणु। 

बुद्ध्या युक्तो यया पार्थ कर्मबन्धं प्रहास्यसि।। ३९।।

🙏🙏 

एषा -यह सब; ते -तेरे लिए; अभिहिता -वर्णन किया गया; सांख्ये -वैश्लेषिक अध्ययन द्वारा; बुद्धि -बुद्धि; योगे -निष्काम कर्म में; तु-लेकिन इमाम -इसे; शृणु -सुनों; बुद्ध्या -बुद्धि से; युक्त -साथ -साथ,सहित; यया -जिससे; पार्थ -हे पृथापुत्र; कर्म -बन्धम-कर्म के बंधन से;प्रहास्यसि -मुक्त हो जाओगे। 

यहाँ मैंने वैश्लेषिक अध्ययन (सांख्य )द्वारा इस ज्ञान का वर्णन किया है। अब निष्काम भाव से कर्म करना बता रहा हूँ,उसे सुनो। हे पृथापुत्र ! तुम यदि ऐसे ज्ञान से कर्म करोगे तो तुम कर्मों के बंधन से अपने को मुक्त कर सकते हो। 

तात्पर्य :-  वैदिक कोश निरुक्ति के अनुसार सांख्य का अर्थ है -विस्तार से वस्तुओं का वर्णन करने वाला तथा सांख्य उस दर्शन के लिए प्रयुक्त मिलता है जो आत्मा की वास्तविक प्रकृति का वर्णन करता है। और योग का अर्थ -इन्द्रियों का निग्रह। अर्जुन का युद्ध न करने का प्रस्ताव इन्द्रियतृप्ति पर आधारित था। वह अपने प्रधान कर्तव्य को भुलाकर युद्ध से दूर रहना चाहता था क्योंकि उसने यह सोचा कि धृतराष्ट्र के पुत्रों अर्थात अपने बन्धु -वान्धवों को परास्त करके राज्यभोग करने की अपेक्षा अपने सम्बन्धियों तथा स्वजनों को न मारकर वह अधिक सुखी रहेगा। दोनों ही प्रकार से मूल सिद्धांत तो इन्द्रियतृप्ति था। उन्हें जीतने से प्राप्त होने वाला सुख तथा स्वजनों को जीवित देखने का सुख ये दोनों इन्द्रियतृप्ति के धरातल पर एक है,क्योंकि इससे बुद्धि तथा कर्तव्य दोनों का अंत हो जाता है। 

अतः कृष्ण ने अर्जुन को बताना चाहा कि वह अपने पितामह के शरीर का वध करके उनके आत्मा को नहीं मारेगा। उन्होंने यह बताया कि उनके सहित सरे जीव शाश्वत प्राणी हैं,वे भूतकाल में प्राणी थे,वर्तमान में भी प्राणी रूप में हैं और भविष्य में भी प्राणी बने रहेंगे क्योंकि हम सब शाश्वत आत्मा हैं। हम विभिन्न प्रकार से केवल अपना शारीरिक परिधान (वस्त्र)बदलते रहते हैं और इस भौतिक वस्त्र के बन्धन से मुक्ति के बाद भी हमारी पृथक सत्ता बनी रहती है। भगवान् कृष्ण द्वारा आत्मा तथा शरीर का अत्यंत विशद वैश्लेषिक अध्ययन प्रस्तुत किया गया है और निरुक्ति कोष को शब्दावली में विशद अध्ययन को यहाँ सांख्य कहा गया है। इस सांख्य का नास्तिक -कपिल के सांख्य -दर्शन से कोई सरोकार नहीं है। इस नास्तिक -कपिल -के सांख्य दर्शन से बहुत पहले भगवान् कृष्ण के अवतार भगवान् कपिल ने अपनी माता देवहुति के समक्ष श्रीमदभागवत में वास्तविक सांख्य -दर्शन पर प्रवचन किया था। उन्होने स्पष्ट बताया है कि पुरुष तथा परमेश्वर क्रियाशील है और नवे प्रकृति पर दृष्टिपात करके सृष्टि की उत्पत्ति करते हैं। इसको वेदों ने तथा गीता ने स्वीकार किया है। वेदों में वर्णन मिलता है किभगवान् ने प्रकृति पर दृष्टिपात किया और उसमे आणविक जीवात्माएं प्रविष्ट कर दीं। ये सारे जीव भौतिक -जगत में इन्द्रियतृप्ति के लिए कर्म रहते हैं और माया के वशीभूत होकर अपने को भोक्ता मानते रहते हैं। इस मानसिकता की चरम सीमा भगवान् के साथ सायुज्य प्राप्त करना है। यह माया अथवा इन्द्रियतृप्तिजन्य मोह का अंतिम पाश है और अनेकानेकों जन्मों तक इस तरह इन्द्रियतृप्ति करते हुए कोई महात्मा भगवान् कृष्ण यानि वासुदेव की शरण में जाता है जिससे परम सत्य की खोज पूरी होती है। 

अर्जुन ने कृष्ण की शरण ग्रहण करके पहले ही उन्हें गुरु रूप में स्वीकार कर लिया है -शिष्य्तेहं शाधि मां त्वाम प्रपन्नं। फलस्वरूप कृष्ण अब उसे बुद्धियोग या कर्मयोग की कार्यविधि बताएँगे,जो कृष्ण की इन्द्रियतृप्ति के लिए किया गया भक्तियोग है। यह बुद्धियोग अध्याय दस के दशवें श्लोक में वर्णित है जिसमे इसे उन भगवान् के साथ प्रत्यक्ष संपर्क बताया गया है,जो सबके ह्रदय में परमात्मा रूप में विद्द्मान हैं, किन्तु ऐसा संपर्क भक्ति के बिना सम्भव नहीं है। अतः जो भगवान् की भक्ति या दिव्य प्रेमाभक्ति में या कृष्णभावनामृत में स्थित होता है,वही भगवान् की विशिष्ट कृपा से बुद्धियोग की यह अवस्था प्राप्त कर पाता है। अतः भगवान् कहते हैं कि जो लोग दिव्य प्रेमवश भक्ति में निरंतर लगे रहते हैं उन्हें ही वे भक्ति का विशुद्ध ज्ञान प्रदान करते हैं इस प्रकार भक्त सरलता से उनके चिदानन्दमय धाम में पहुँच सकते हैं। 

इस प्रकार इस श्लोक में वर्णित बुद्धियोग भगवान् कृष्ण की भक्ति है और यहाँ पर उल्लिखित सांख्य शब्द का नास्तिक -कपिल द्वारा प्रतिपादित अनीश्वरवादी सांख्य-योग से कुछ भी सम्बन्ध नहीं है। अतः किसी को यह भ्रम नहीं होना चाहिए कि यहां पर उल्लिखित सांख्य -योग का अनीश्वरवादी सांख्य से किसी प्रकार का सम्बन्ध है। न ही उस समय उसके दर्शन का कोई प्रभाव था,और न कृष्ण ने ऐसी ईश्वरहीन दार्शनिक कल्पना का उल्लेख करने की चिंता की। वास्तविक सांख्य -दर्शन का वर्णन भगवान् कपिल द्वारा श्रीमदभागवत में हुआ है,किन्तु वर्तमान प्रकरणों में उस सांख्य से भी कोई सरोकार नहीं है। यहाँ सांख्य का अर्थ है शरीर तथा आत्मा का वैश्लेषिक अध्ययन। भगवान् कृष्ण ने आत्मा का वैश्लेषिक वर्णन अर्जुन को बुद्धियोग तथा कर्मयोग तक लाने के लिए किया। अतः भगवान कृष्ण का सांख्य तथा भागवत में भगवान् कपिल द्वारा वर्णित सांख्य एक ही है। ये दोनों भक्तियोग हैं। अतः भगवान् कृष्ण ने कहा है कि केवल अल्पज्ञ ही सांख्य -योग तथा भक्तियोग में भेदभाव मानते हैं। 

निस्संदेह अनीश्वरवादी सांख्य -योग का भक्तियोग से कोई सम्बन्ध नहीं है फिर भी बुद्धिहीन व्यक्तियों का दावा है कि भगवतगीता में अनीश्वरवादी सांख्य का ही वर्णन हुआ है। 

अतः मनुष्य को यह जान लेना चाहिए कि बुद्धियोग का अर्थ कृष्णभावनामृत में,पूर्ण आनंद तथा भक्ति के ज्ञान में कर्म करना है। जो व्यक्ति भगवान् की तुष्टि के लिए कर्म करता है,चाहे वह कर्म  कितना ही कठिन क्यों न हो,वह बुद्धियोग के सिद्धांत के अनुसार कार्य करता है और दिव्य आनन्द का अनुभव करता है। ऐसी दिव्य व्यस्तता के कारण उसे भगवत्कृपा से स्वतः सम्पूर्ण दिव्य ज्ञान प्राप्त हो जाता है और ज्ञान प्राप्त करने के लिए अतिरिक्त श्रम किये बिना ही उसकी पूर्ण मुक्ति हो जाती है। कृष्णभावनाभावित कर्म तथा फल प्राप्ति की इच्छा से किये गये कर्म में,विशेषतया पारिवारिक या भौतिक सुख प्राप्त करने की इन्द्रितृप्ति के लिए किये गये कर्म में,प्रचुर अन्तर होता है। अतः बुद्धियोग हमारे द्वारा संपन्न कार्य का दिव्य गुण है।

क्रमशः !!!  🙏🙏      

      


गुरुवार, 11 मार्च 2021

BHAGAVAD GITA 2:38

🙏🙏 

सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ। 

ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि।।३८।।  

सुख -सुख; दुःखे-तथा दुःख में; समे -समभाव से; कृत्वा-करके; लाभ -अलाभो -लाभ तथा हानि दोनों; जय -अजयौ-विजय तथा पराजय दोनों;ततः -तत्पश्चात; युद्धाय-युद्ध करने के लिए; युज्यस्व् लगो (लड़ो ); न -कभी नहीं; एवम -इस तरह; पापम-पाप; अवाप्यस्य-प्राप्तसि करोगे। 

तुम सुख या दुःख,हानि लाभ,विजय या पराजय का विचार किये बिना युद्ध के लिए युद्ध करो। ऐसा करने पर तुम्हें कोई पाप नहीं लगेगा। 

तात्पर्य :- अब भगवान् कृष्ण प्रत्यक्ष रूप से कहते हैं कि अर्जुन  को युद्ध करना चाहिए क्योंकि यह उनकी इच्छा है। कृष्णभावनामृत के कार्यों में सुख या दुःख,हानि या लाभ,जय या पराजय कोई महत्व नहीं जाता। दिव्य चेतना तो यही होगी कि हर कार्य कृष्ण के निमित किया जाय,अतः भौतिक कार्यों का कोई बंधन (फल)नहीं होता। जो कोई सतोगुण या रजोगुण के अधीन होकर अपनी इन्द्रियतृप्ति के लिए कर्म करता है उसे अच्छे या बुरे फल प्राप्त होते हैं,किन्तु जो कृष्णभावनामृत के कार्यों में अपने आप को समर्पित कर देता है,वह सामान्य कर्म करने वाले के समान किसी का कृतज्ञ या ऋणी नहीं होता। भागवत में (११.५.४१ )कहा गया है -

देवर्षिभूताप्तनृणां  पितृणां न किङ्करो नायमृणी च राजन। 

सर्वात्मना यः शरणं शरण्यं गतो मुकुन्दं परिहृत्य कर्तम।।    

" जिसने समस्त कार्यों को त्याग कर मुकुंद श्रीकृष्ण की शरण ग्रहण कर ली है वह न तो किसी का ऋणी है और न ही किसी का कृतज्ञ -चाहे वे देवता,साधु,सामान्यजन,अथवा परिजन,मानवजाति या उसके पितर ही क्यों न हों। "इस श्लोक में कृष्ण ने अर्जुन को अप्रत्यक्ष रूप से इसी का संकेत किया है। इसकी व्याख्या अगले श्लोकों में और भी स्पष्टता से की जायेगी। 

क्रमशः !!!  🙏🙏

बुधवार, 10 मार्च 2021

BHAGAVAD GITA 2:37

 🙏🙏

हतो वा प्राप्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम। 

तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चिचः।।३७।। 

हतः -मारा जा कर; वा -या तो; प्राप्यसि -प्राप्त करोगे; स्वर्गम-स्वर्गलोक को; जित्वा-विजयी होकर;वा-अथवा; भोक्ष्यसे-भोगोगे; महीम-पृथ्वी को;तस्मात्-अतः; उत्तिष्ठ-उठो; कौन्तेय-हे कुन्तीपुत्र; युद्धाय-लड़ने के लिए; कृत-दृढ़; निश्चय-संकल्प से। 

हे कुन्तीपुत्र ! तुम यदि युद्ध में मारे जाओगे तो स्वर्ग प्राप्त करोगे या यदि या यदि जीत जाओगे तो पृथ्वी के साम्राज्य का भोग करोगे। अतः दृढ़ संकल्प करके खड़े होओ और युद्ध करो। 

तात्पर्य:- यद्दपि अर्जुन के पक्ष में विजय निश्चित नहीं थी फिर भी उसे युद्ध करना था,क्योंकि यदि वह युद्ध में मारा भी गया तो वह स्वर्गलोक को जायेगा। 

क्रमशः!!! 

मंगलवार, 9 मार्च 2021

BHAGAVAD GITA 2:36

अवाच्च्यवादांश्च बहून्वदिष्यन्ति तवाहिताः। 

निन्दन्तस्तव सामर्थ्य ततो दुःखतरं नु किम।।३६।।

अवाच्च्य :-कटु; वादान-मिथ्या शब्द; च-भी; बहून-अनेक; वदिष्यन्ति -कहेंगे; तव -तुम्हारी; सामर्थ्यं- सामर्थ्य को;ततः-उसकी अपेक्षा; दुःख-तरम -अधिक दुखदायी; नु -निस्संदेह; किम -और क्या है। 

तुम्हारे शत्रु अनेक प्रकार के कटु शब्दों से तुम्हारा वर्णन करेंगे और तुम्हारी सामर्थ्य का उपहास करेंगे। तुम्हारे लिए इससे दुखदायी और क्या हो सकता है। 

तात्पर्य:- प्रारम्भ में ही भगवान् कृष्ण को अर्जुन के अयाचित दयाभाव पर आश्चर्य हुआ था और उन्होंने इस दयाभाव को अनार्योचित बताया था। अब उन्होंने विस्तार से अर्जुन के तथाकथित दयाभाव के बिरुद्ध कहे गए अपने वचनों को सिद्ध कर दिया है। 

क्रमशः !!!   

   

सोमवार, 8 मार्च 2021

BHAGAVAD GITA 2:35

🙏

भयाद्रणादुपरतं मंस्यन्ते त्वाम महारथाः। 

येषां च त्वं बहुमतो भूत्वा यास्यसि लाघवम।।

भयात -भय से; रणात-युद्धभूमि से; उपरतम-विमुख; मंस्यन्ते-मानेंगे; त्वाम-तुमको; महारथा-बड़े -बड़े योद्धा; येषां -जिनके लिए; च -भी; त्वम् -तुम; बहुमतः-अत्यंत सम्मानित; भूत्वा -होकर; यास्यसि-जाओगे; लाघवम-तुच्छता को। 

जिन -जिन महान योद्धाओं ने तुम्हारे नाम तथा यश को सम्मान दिया है वे सोचेंगे कि तुमने डर के मारे युद्धभूमि छोड़ दी है और इस तरह वे तुम्हें तुच्छ मानेंगे। 

तात्पर्य :-भगवान् कृष्ण अर्जुन को अपना निर्णय सुना रहे हैं, "तुम यह मत सोचो कि दुर्योधन,कर्ण तथा अन्य समकालीन महारथी यह सोचेंगे कि तुमने अपने भाइयों तथा पितामह पर दया करके युद्धभूमि छोड़ी है। इस प्रकार उनकी दृष्टि में तुम्हारे प्रति जो सम्मान है वह धूल में मिल जाएगा। "🙏🙏

क्रमशः- !!

    

रविवार, 7 मार्च 2021

BHAGAVAD GITA 2:34

 🙏

अकीर्ति चापि भूतानि कथयिष्यन्ति तेव्ययाम। 

सम्भावितस्य चाकीर्तिर्मरणादतिरिच्यते।।३४।।

🙏

अकीर्तिम -अपयश; च -भी; अपि -इसके अतिरिक्त; भूतानि -सभी लोग; कथयिष्यन्ति -कहेंगे; ते- तुम्हारे; अव्ययाम -सदा के लिए; सम्भावितस्य -सम्मानित व्यक्ति के लिए; च -भी;अकीर्ति -अपयश,अपकीर्ति;मरणत -मृत्यु से भी; अतिरिच्यते - अधिक होती है। 

लोग सदैव तुम्हारे अपयश का वर्णन करेंगे और सम्मानित व्यक्ति के लिए अपयश तो मृत्यु से भी बढ़कर है। 

तात्पर्य :-अब अर्जुन के मित्र तथा गुरु के रूप में भगवान् कृष्ण अर्जुन को युद्ध विमुख न होने का अंतिम निर्णय देते हैं। वे कहते हैं, "अर्जुन ! यदि तुम युद्ध प्रारम्भ होने से पूर्व ही युद्धभूमि  छोड़ देते हो तो लोग तुम्हें कायर कहेंगे। और यदि तुम सोचते हो कि लोग गाली देते रहें,किन्तु तुम युद्धभूमि से भागकर अपनी जान बचा लोगे तो मेरी सलाह है कि तुम्हें युद्ध में मर जाना ही श्रेयस्कर होगा। तुम जैसे सम्माननीय व्यक्ति के लिए अपकीर्ति मृत्यु से भी बुरी है। अतः तुम्हें प्राणभय से भागना नहीं चाहिए,युद्ध में मर जाना ही श्रेयस्कर होगा। इससे तुम मेरी मित्रता का दुरुप्रयोग करने तथा समाज में अपनी प्रतिष्ठा खोने के अपयश से बच जाओगे।"

अतः अर्जुन के लिए भगवान् का अंतिम निर्णय था की वह संग्राम से पलायन न करे अपितु युद्ध में मरे। 

क्रमशः !!!   

शनिवार, 6 मार्च 2021

BHAGAVAD GITA 2:33

🙏

अथ चेत्वमिमं धर्म्यं सङ्ग्रामं न करिष्यसि। 

ततः स्वधर्म कीर्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि

।।२:३३।।🙏  

अथ -अतः;चेत -यदि;त्वम् -तुम; इमम -इस; धर्म्यम-अपने धर्म को; सङ्ग्रामं -युद्ध को;न -नहीं; करिस्यसि -करोगे; ततः-तब; स्व -धर्मम -आपने धर्म को; कीर्तिम-यश को; च-भी; हित्वा -खोकर;पापम -पापपूर्ण फल को;अवाप्स्यसि-प्राप्त करोगे। 

किन्तु यदि तुम युद्ध करने के स्वधर्म को संपन्न नहीं करते तो तुम्हें निश्चित रूप से अपने कर्तव्य की अपेक्षा करने का पाप लगेगा और तुम योद्धा के रूप में भी अपना यश खो दोगे।

अर्थात:-अर्जुन विख्यात योद्धा था जिसने शिव आदि अनेक देवताओं से युद्ध करके यश अर्जित किया था। शिकारी के वेश में शिवजी से युद्ध करके तथा उन्हें हराकर अर्जुन ने उन्हें प्रसन्न किया था और वर के रूप में पाशुपतास्त्र  प्राप्त किया था सभी लोग जानते थे कि वह महान योद्धा है। स्वयं द्रोणाचार्य उसे आशीष दिया था और एक विशेष अस्त्र प्रदान किया था,जिससे वह अपने गुरु का भी वध कर सकता था। इस प्रकार वह अपने धर्मपिता एवं स्वर्ग के राजा इंद्र समेत अनेक अधिकारियों से अनेक युद्धों के प्रमाणपत्र प्राप्त कर चुका था,किन्तु यदि वह इस समय युद्ध का परित्याग करता है तो वह न केवल क्षत्रिय धर्म की उपेक्षा का दोषी होगा,अपितु उसके यश की भी हानि होगी और वह नरक जाने के लिए अपना मार्ग तैयार कर लेगा। दूसरे शब्दों में,वह युद्ध करने से नहीं,अपितु युद्ध से पलायन करने के कारण नरक का भागी होगा। 

क्रमशः !!!

 

     

शुक्रवार, 5 मार्च 2021

BHAGAVAD GITA 2:32

 🙏

यदृच्छया चोपपन्नम स्वर्गद्वारमपावृतम। 

सुखिनः क्षत्रियाः पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम।।३२।।

🙏

यदृच्छया -अपने आप; च -भी; उप्पन्नम -प्राप्त हुए;स्वर्ग -स्वर्गलोक का; द्वारम-दरवाजा; अपावृतम -खुला हुआ; सुखिनः-अत्यंत सुखी; क्षत्रियाः- राजपरिवार के सदस्य;पार्थ -हे पृथापुत्र; लभन्ते -प्राप्त करते हैं; युद्धम -युद्ध को; ईदृशम-इस तरह। 

हे पार्थ ! वे क्षत्रिय सुखी हैं,जिन्हे ऐसे युद्ध के अवसर अपने आप प्राप्त होते हैं जिससे उनके लिए स्वर्गलोक के द्वार खुल जाते हैं। 

तात्पर्य :- विश्व के परम गुरु भगवान् कृष्ण अर्जुन की इस प्रवृति की भर्त्सना करते हैं जब वह कहता है कि उसे इस युद्ध में कुछ भी तो लाभ नहीं दिख रहा है। इससे नरक में शाश्वत वास करना होगा। अर्जुन द्वारा ऐसे वक्तव्य केवल अज्ञानजन्य थे। वह अपने स्वधर्म के आचरण में अहिंसक बनना चाह रहा था,किन्तु एक क्षत्रिय के लिए युद्धभूमि में स्थित होकर इस प्रकार अहिंसक बनना मूर्खों का दर्शन है। पराशर -स्मृति में व्यासदेव के पिता पराशर ने कहा -

क्षत्रियो हि प्रजारक्षण शस्त्रपाणिः परदण्डयन। 

निर्जित्य परसैन्यादि क्षिति धर्मेण पालयेत।।  

"क्षत्रिय का धर्म है कि वह सभी क्लेशों से नागरिकों की रक्षा करे। इसलिए उसे शांति तथा व्यवस्था बनाये रखने के लिए हिंसा करनी पड़ती है। अतः उसे शत्रु राजाओं के सैनिकों को जीत कर धर्मपूर्वक संसार पर राज्य करना चाहिए। "

यदि सभी पक्षों पर  विचार करें  अर्जुन को युद्ध  विमुख होने का कोई कारण नहीं था। यदि वह शत्रुओं को जीतता है तो राज्यभोग करेगा और यदि वह युद्धभूमि में मरता है तो स्वर्ग को जाएगा जिसके द्वार उसके लिए खुले हुए हैं। युद्ध करने से उसे दोनों ही तरह लाभ होगा। 

क्रमशः!!!  





गुरुवार, 4 मार्च 2021

BHAGAVAD GITA 2:31

 🙏

स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि। 

धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयो न्यतक्षत्रियस्य न विद्दते।।३१।।

🙏

स्व -धर्मम-अपने धर्म को; अपि-भी,च-निस्संदेह; अवेक्ष्य -विचार करके; न -कभी नहीं; विकम्पितुम-संकोच  के लिए; अर्हसि -तुम योग्य हो; धर्म्यात -धर्म के लिए; हि-निस्सन्देह; युद्धात -युद्ध करने की अपेक्षा; श्रेयः -श्रेष्ट साधन; अन्यत -कोई दूसरा; क्षत्रियस्य-क्षत्रिय का; न- नहीं; विद्द्ते-है। 

क्षत्रिय होने के नाते अपने विशिष्ट धर्म का विचार करते हुए तुम्हें जानना चाहिए कि धर्म  के लिए युद्ध करने से बढ़ कर तुम्हारे लिए अन्य कोई कार्य नहीं है। अतः तुम्हें संकोच करने की कोई आवश्यकता नहीं है। 

अर्थात :-सामाजिक व्यवस्था के चार वर्णों में द्वितीय वर्ण उत्तम शासन  के लिए है और क्षत्रिय कहलाता है। क्षत का अर्थ है चोट खाया हुआ। जो क्षति से रक्षा करे वह क्षत्रिय कहलाता है। क्षत्रियों को वन में आखेट करने का प्रशिक्षण दिया जाता। क्षत्रिय जंगल में जाकर शेर को ललकारता और उससे आमने -सामने अपनी तलवार से लड़ता था। शेर की मृत्यु होने पर उसकी राजसी ढंग से अंत्येष्टि की जाती थी। आज भी जयपुर रियासत के क्षत्रिय राजा इस प्रथा का पालन करते हैं। क्षत्रियों को विशेष रूप से ललकारने तथा  शिक्षा दी जाती है क्योंकि कभी-कभी धार्मिक हिंसा अनिवार्य होती है। इसलिए क्षत्रियों को सीधे सन्यासाश्रम ग्रहण का विधान नहीं है। राजनीति में अहिंशा कूटनीतिक चाल हो सकती है,किन्तु यह कभी भी कारण या सिद्धांत नहीं रही। धार्मिक संहिताओं में उल्लेख मिलता है -

आवहेषु मिथोन्योन्यं जिघांसन्तो महीक्षितः। 

युद्धमानाः परं शक्त्या स्वर्ग यान्त्यपराङ्गमुखाः।। 

यज्ञेषु पशवो ब्रह्मन हन्यन्ते सततं द्विजैः। 

संस्कृताः किल  मन्त्रैश्च तेपि स्वर्गमाप्नुवन।।  

"युद्ध में विरोधी ईर्ष्यालु राजा से संघर्ष करते हुए मरने वाले राजा या क्षत्रिय को मृत्यु के अनन्तर वे ही उच्चलोक प्राप्त होते हैं जिनकी प्राप्ति यज्ञाग्नि में मारे गए पशुओं की होती है।"अतः धर्म के लिए युद्ध भूमि में वध करना तथा याज्ञिक अग्नि के लिए पशुओं का वध करना हिंसा कार्य नहीं माना जाता क्योंकि इसमें नहित धर्म के कारण प्रत्येक व्यक्ति को लाभ पहुँचता है और यज्ञ में बलि दिए गए पशु को एक स्वरूप से दूसरे में बिना विकाश  प्रक्रिया के ही तुरंत मनुष्य का शरीर प्राप्त हो जाता है। इसी तरह  युद्धभूमि में मारे गए  क्षत्रिय यज्ञ संपन्न करने वाले ब्राह्मणों को प्राप्त होने वाले स्वर्गलोक में जाते हैं।  

स्वधर्म दो प्रकार का होता है जब। जब तक मनुष्य मुक्त नहीं हो जाता  तब तक मुक्ति प्राप्त करने के लिए धर्म के अनुसार शरीर विशेष कर्तव्य करने होते हैं। जब वह मुक्त हो जाता है तो उसका विशेष कर्तव्य या स्वधर्म आध्यात्मिक हो जाता है और देहात्मबुद्धि में नहीं रहता। जब तक देहात्मबुद्धि है तब तक ब्राह्मणों तथा क्षत्रियों के लिए स्वधर्म पालन अनिवार्य होता है। स्वधर्म का का विधान भगवान् द्वारा होता है,जिसका स्पष्टीकरण चतुर्थ अध्याय में किया जाएगा। शारीरिक स्तर पर स्वधर्म को वर्णाश्रम धर्म अथवा आध्यात्मिक बोध का प्रथम सोपान कहते हैं। वर्णाश्रम धर्म अर्थात प्राप्त शरीर के विशिष्ट गुणों पर आधारित स्वधर्म की अवस्था से मानवीय सभ्यता का शुभारम्भ होता है। वर्णाश्रम -धर्म के अनुसार किसी कार्य-क्षेत्र में स्वधर्म का निर्वाह करने से जीवन के उच्चतर पद को प्राप्त किय जाता है। 

क्रमशः - !!!!

  

बुधवार, 3 मार्च 2021

BHAGAVAD GITA 2:30

🙏 

देहि नित्यमवध्योयं देहे सर्वस्य भारत। 

तस्मातसर्वाणि भूतानि न त्वं शोचितुमर्हसि।।३०।।

🙏


  देहि -भौतिक शरीर का स्वामी; नित्यम -शाश्वत,अवध्य -मारा नहीं जा सकता; आयम -यह आत्मा; देहे -शरीर में; सर्वस्य -हर एक के; भारत-हे भरतवंशी; तस्मात् -अतः; सर्वाणी -समस्त; भूतानि -जीवों (जन्म लेने वालों )को; न -कभी नहीं; त्वम् -तुम; शोचितुम -शोक करने के लिए; अर्हसि -योग्य हो। 

हे भरतवंशी ! शरीर में रहने वाले (देहि )का कभी भी वध नहीं किया जा सकता अतः तुम्हे किसी भी जीव के लिए शोक करने की आवश्यकता नहीं है।

तात्पर्य :- अब भगवान्  अविकारी आत्मा विषयक अपना उपदेश समाप्त कर रहे हैं। अमर आत्मा का अनेक प्रकार से वर्णन करते हुए भगवान् कृष्ण ने आत्मा को अमर तथा शरीर को नाशवान सिद्ध किया है। अतः क्षत्रिय होने के नाते अर्जुन को इस भय से की युद्ध में उसके पितामह भीष्म तथा गुरु द्रोण मर जायेंगे अपने कर्तव्य से विमुख नहीं होना चाहिए। कृष्ण को प्रमाण मानकर भौतिक देह से भिन्न आत्मा का पृथक अस्तित्व स्वीकार करना ही होगा,यह नहीं कि आत्मा जैसी कोई वस्तु नहीं है या कि जीवन के लक्षण रसायनों की अन्तःक्रिया के फलस्वरूप एक विशेष अवस्था में प्रकट होते हैं। यद्धपि आत्मा अमर है,किन्तु इससे हिंसा को प्रोत्साहित नहीं किया जाता। फिर भी युद्ध के समय हिंसा का निषेध नहीं किया जाता क्योंकि तब इसकी आवश्यकता नहीं रहती। ऐसी आवश्यकता को भगवान् की आज्ञा के आधार पर उचित ठहराया जा सकता है,स्वेच्छा से नहीं। 

क्रमशः !!!

मंगलवार, 2 मार्च 2021

BHAGAVAD GITA 2:29

आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेन 

              माश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः। 

आश्चर्यवच्चैनमन्यः शृणोति 

              श्रुत्वाप्येनं वेद  चैव कश्चित्।।२९।। 

आश्चर्यवत-आश्चर्य की तरह; पश्यति -देखता है; कश्चित्-कोई; एनम -इस आत्मा को;आश्चर्य वत -आश्चर्य की तरह; वदति- कहता है; तथा -जिस प्रकार; एव-निश्चय ही; च -भी; अन्य -दूसरा; आश्चर्यवत -आश्चर्य से; च -और; एनम -इस आत्मा को;अन्य -दूसरा; शृणोति -सुनता है; श्रुत्वा -सुनकर; अपि -भी;एनम-इस आत्मा को;वेद जानता है;न -कभी नहीं; च -तथा; एव- निश्चय ही; कश्चित् -कोई। 

कोई आत्मा को आश्चर्य से देखता है,कोई इसे आश्चर्य की तरह बताता है तथा कोई इसे आश्चर्य की तरह सुनता है,किन्तु कोई-कोई इसके विषय में सुनकर भी कुछ नहीं समझ पाते। 

तात्पर्य :- चूँकि गीतोपनिषद उपनिषदों के सिद्धांत पर आधारित है अतः कठोपनिषद में (१.२.७ )इस श्लोक में होना कोई आश्चर्यजनक नहीं है -

श्रवणयापी  बहुभिर्यो  न लभ्यः श्रणवन्तोपि  बहवो याम न विदुः। 

आश्चर्यो वक्ता कुशलोस्य लब्धा  आश्चर्योस्य ज्ञाता कुषलानुशिष्टः।। 

विशाल पशु ,विशाल वट वृक्ष तथा एक इंच स्थान में लाखों करोड़ों की संख्या में  उपस्थित सूक्ष्म कीटाणुओं  के भीतर अणु। आत्मा की उपस्थिति  निश्चित रूप से आश्चर्यजनक है। अल्पज्ञ तथा दुराचारी व्यक्ति अणु आत्मा के स्फुलिंग  के चमत्कारोंको नहीं समझ पाता, भले ही उसे बड़े से बड़ा ज्ञानी ,जिसने विश्व के प्रथम प्राणी ब्रह्मा को भी शिक्षा दी हो ,क्यों न समझाएं। वस्तुओं के स्थूल भौतिक बोध के कारण इस युग के अधिकांश व्यक्ति इसकी कल्पना नहीं कर सकते कि इतना सूक्ष्म कण किस प्रकार इतना विराट तथा लघु बन सकता है अतः लोग आत्मा को उसकी संरचना या उसके विवरण के आधार पर ही आश्चर्य देखते हैं। इन्द्रियतृप्ति की बातों में फंस कर लोग भौतिक शक्ति ( माया )से इस तह मोहित होते हैं की उनके पास आत्मज्ञान समझने का अवसर ही नहीं रहता यद्धपि यह तथ्य है कि आत्मज्ञान के बिना  सारे कार्यों का दुष्परिणाम जीवन-संघर्ष में पराजय के रूप में होता है। सम्भवतः उन्हें इसका  कोई अनुमान नहीं होता कि मनुष्य को आत्मा के विषय में चिंतन करना चाहिए और दुखों का हल खोज निकलना चाहिए। 

ऐसे थोड़े से लोग, जो आत्मा के सुनने के विषय में सुनने के इच्छुक हैं ,अच्छी संगति पाकर भाषण सुनते हैं ,किन्तु कभी -कभी अज्ञानवश वे परमात्मा तथा अणु -आत्मा को एक समझ बैठते हैं। ऐसा व्यक्ति खोज पाना कठिन है ,जो परमात्मा अणु -आत्मा,उनके पृथक-पृथक कार्यों तथा संबंधों एवं अन्य विस्तारों को सही ढंग से समझ सके। इससे अधिक कठिन है ऐसा व्यक्ति खोज पाना जिसने आत्मा के ज्ञान से पूरा -पूरा लाभ उठाया हो और जो सभी पक्षों से आत्मा की स्थति का सही -सही निर्धारण कर सके। किन्तु यदि कोई किसी तरह से आत्मा के इस विषय को समझ लेता है तो उसका जीवन सफल हो जाता है। 

इस आत्म -ज्ञान को समझने का सरलतम उपाय यह है की अन्य मतों से विचलित हुए बिना परम प्रमाण भगवान् कृष्ण द्वारा कथित भगवतगीता के उपदेशों को ग्रहण कर लिया जाय। किन्तु इसके लिए भी इस जन्म में या पिछले जन्मों में प्रचुर तपस्या की आवश्यकता होती है,तभी कृष्ण को  श्री भगवान् के रूप में स्वीकार किया जा सकता है। पर कृष्ण को इस रूप में जानना शुद्ध भक्तों की अहैतुकी कृपा से ही होता है,अन्य किसी उपाय से नहीं। 

क्रमशः !!!!

सोमवार, 1 मार्च 2021

BHAGAVAD GITA 2:28

अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि। 

अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना।।२८।। 

अव्यक्त -आदीनी-प्रारम्भ में अप्रकट; भूतानि - सारे प्राणी; व्यक्त-प्रकट; मध्यानी -मध्य में; भारत-हे भरतवंशी; अव्यक्त-अप्रकट;निधनानी-विनाश होने पर; एव-इस तरह से;तत्र-अतः; का-क्या; परिवेदना -शोक। 

सारे जीव प्रारम्भ अव्यक्त रहते हैं,मध्य अवस्था में व्यक्त होते हैं और विनष्ट होने पर पुनः अव्यक्त हो जाते हैं। अतः शोक करने की क्या आवश्यकता है ?

तात्पर्य :- यह स्वीकार करते हुए दो प्रकार के दार्शनिक हैं। एक तो वे जो आत्मा के अस्तित्व को मानते हैं,और दूसरे वे जो आत्मा के अस्तित्व को नहीं मानते,कहा जा सकता है कि किसी भी दशा में शोक करने का कोई कारण नहीं है। आत्मा के अस्तित्व को न मानने वालों को वेदान्तवादी नास्तिक कहते। यदि हम तर्क के लिए इस नास्तिकतावादी को भी मान लें तो भी शोक करने का कोई कारण नहीं है। आत्मा के पृथक अस्तित्व से भिन्न सारे भौतिक तत्व सृष्टि के पूर्व अदृश्य रहते हैं। इस अदृश्य रहने की सूक्ष्म अवस्था से ही दृश्य अवस्था आती है,जिस प्रकार आकाश से वायु उत्पन्न होती है,वायु से अग्नि,अग्नि से जल और जल से पृथ्वी उत्पन्न होती है। पृथ्वी से अनेक प्रकार के पदार्थ प्रकट होते हैं -यथा एक विशाल गगनचुंभी महल पृथ्वी से ही प्रकट हैं। जब इसे ध्वस्त किया जाता है,तो वह अदृश्य हो जाता है,और अंततः परमाणु में बना रहता है। शक्ति सरंक्षण का नियम बना रहता है, किन्तु कालकर्म से वस्तुएं प्रकट तथा अप्रकट होती रहती-अंतर इतना ही है। अतः प्रकट (व्यक्त)या अप्रकट (अव्यक्त)होने पर शोक करने का कोई कारण  नहीं है। यहाँ तक कि अप्रकट अवस्था में भी वस्तुएं समाप्त नहीं होती। प्रारम्भिक तथा अंतिम दोनों अवस्थाओं में ही सारे तत्व अप्रकट रहते हैं,केवल मध्य में वे प्रकट होते हैं और इस तरह इससे वास्तविक अंतर नहीं पड़ता। 

यदि हम भगवद्गीता के इस वैदिक निष्कर्ष को मानते हैं की ये भौतिक शरीर कालक्रम में नाशवान हैं (अंतवत इमे देहा) किन्तु आत्मा शाश्वत है (नित्योक्ताः शरीरिणः) तो हमें यह सदा स्मरण रखना होगा कि यह शरीर वस्त्र (परिधान )के समान है। स्वप्न में हम आकाश में उड़ते या राजा की भांति रथ पर आरूढ़ हो सकते हैं,किन्तु जागने पर देखते है कि न तो हम आकाश में हैं,न रथ पर। वैदिक ज्ञान आत्मसाक्षात्कार को भौतिक शरीर के अनस्तित्व के आधार पर प्रोत्साहन देता है। अतः चाहे हम आत्मा को अस्तित्व को मानें या न मानें,शरीर नाश के लिए शोक करने का कोई कारण नहीं है। 

क्रमशः!!!