BHAGAVAD GITA 2:5
🙏🙏गुरूनहत्वा हि महानुभवान
श्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके।
हत्वार्थकामांस्तु गुरुनिहैव
भुञ्जीय भोगानरुधिरप्रदिग्धान।।५।।🙏🙏
गुरुन:-गुरुजनों को; अहत्वा:-न मारकर; हि:-निश्चय ही; महानुभवान:-महपुरुषों को; श्रेयः-अच्छा है; भोक्तुम:-भोगना; भैक्ष्यम:-भीख मांगकर; अपि:-भी; इह:-इस जीवन में, लोके:-इस संसार में;हत्वा:-मारकर; अर्थ:-लाभ गुरुन की; कामान:-इच्छा से; तु:-लेकिन; गुरुन:-गुरुजनों को; इह:-इस संसार में; एव:-निश्चय ही; भुञ्जीय:-भोगने के लिए बाध्य; भोगान:-भोग्य वस्तुएं; रुधिर:-रक्त से प्रदिग्धान:-सनी हुई,रंजित।
ऐसे महापुरुषों को जो मेरे गुरु हैं,उन्हें मारकर जीने की अपेक्षा इस संसार में भीख मांगकर खाना अच्छा है। भले ही वे सांसारिक लाभ के इच्छुक हों,किन्तु हैं तो गुरुजन ही ! यदि उनका वध होता है तो हमारे द्वारा भोग्य प्रत्येक वस्तु उनके रक्त से सनी होगी।
अर्थात :-शास्त्रों के अनुसार ऐसा गुरु जो निद्द कर्म में रत हो और जो विवेकशून्य हो,त्याज्य है। दुर्योधन से आर्थिक सहायता लेने के कारण भीष्म तथा द्रोण उसका पक्ष लेने के लिए बाध्य थे,यद्द्पि केवल आर्थिक लाभ से ऐसा करना उनके लिए उचित न था। ऐसी दशा में वे आचार्यों का सम्मान खो बैठे थे। किन्तु अर्जुन सोचता है की इतने पर भी वे उसके गुरुजन हैं,अतः उनका वध करके भौतिक लाभों का भोग करने का अर्थ होगा -रक्त से सने अवशेषों का भोग।
क्रमशः !!!
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