मंगलवार, 16 फ़रवरी 2021

BHAGAVAD GITA 2:15

 🙏🙏यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषषर्भ। 

समदुःखसुखं धीरं सोमृतत्वाय कल्पते।।१५।।🙏🙏

यम -जिस; हि -निश्चित रूप से; न -कभी नहीं; व्यथयन्ति विचलित नहीं करते; एते -ये सब; पुरुषम मनुष्य को; पुरुष -ऋषभ -हे पुरुष श्रेष्ठ; सम -अपरिवर्तनीय; दुःख - दुःख में; सुखम -तथा सुख में; धीरम -धीर पुरुष; सः -वह; अमृतत्वाय -मुक्ति के लिए; कल्पते -योग्य है। 

हे पुरुषश्रेष्ठ  (अर्जुन ) !जो पुरुष सुख तथा दुःख में विचलित नहीं होता और इन दोनों में समभाव रखता है,वह निश्चित रूप से मुक्ति के योग्य है। 

तात्पर्य :-जो व्यक्ति आत्म साक्षात्कार की उच्च अवस्था प्राप्त करने के लिए दृढ़प्रतिज्ञ है और सुख तथा दुःख के प्रहारों को समभाव से सह सकता है वह निश्चय ही मुक्ति के योग्य है। वर्णाश्रम -धर्म में चौथी अवस्था अर्थात संन्यास आश्रम कष्टसाध्य अवस्था है। किन्तु जो अपने जीवन को सचमुच पूर्ण बनाना चाहता है वह समस्त कठिनाइयों के होते हुए भी संन्यास आश्रम अवश्य ग्रहण करता है। ये कठिनाइयां पारिवारिक सम्बन्ध विच्छेद करने तथा पत्नी और संतान से सम्बन्ध तोड़ने के कारण उत्पन्न होती हैं। किन्तु यदि कोई इन कठिनाइयों को सह लेता है तो उसके आत्म साक्षात्कार का पथ निष्कंटक हो जाता है। अतः अर्जुन को क्षत्रिय धर्म निर्वाह में दृढ़ रहने के लिए कहा जा रहा है,भले ही स्वजनों तथा अन्य प्रिय व्यक्तियों के साथ युद्ध करना कितना ही दुष्कर क्यों न हो। भगवान् चैतन्य ने चौबीस वर्ष की अवस्था में ही संन्यास ग्रहण कर लिया था यद्दपि उनपर आश्रित उनकी तरुण पत्नी तथा वृद्धा माँ की देखभाल करने वाला अन्य कोई न था। तो भी उच्चादर्श के लिए उन्होंने संन्यास ग्रहण किया और अपने कर्तव्यपालन में स्थिर बने रहे। भवबंधन से मुक्ति पाने का यही एकमात्र उपाय है। 

क्रमशः !!!

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