BHAGAVAD GITA 2:10
तमुवाच हृषिकेशं प्रहसन्निव भारत।
सेनयोरुभयोर्मध्ये विषीदन्तमिदंवचः।।१०।।
तम -उससे; उवाच -कहा; हृषीकेशः-इन्द्रियों के स्वामी कृष्ण ने; प्रहसन - हँसते हुए; इव- मानो; भारत-हे भरतवंशी धृतराष्ट्र; सनयोः -सेनाओं के; उभयो -दोनों पक्षों की; मध्ये- बीच में; विषीदन्तम- शोकमग्न; इदम - यह (निम्नलिखित ) वचः -शब्द।
हे भरतवंशी धृतराष्ट्र ! उस समय दोनों सेनाओं के मध्य शोकमग्न अर्जुन से कृष्ण ने मानो हँसते हुए ये शब्द कहे।
अर्थात :- दो घनिष्ट मित्रों अर्थात हृषिकेश तथा गुडाकेश के मध्य वार्ता चल रही थी। मित्र के रूप में दोनों का पद समान था,किन्तु इनमे से एक स्वेच्छा से दूसरे का शिष्य बन गया था। सबों के स्वामी होने के कारण वे सदैव श्रेष्ठ पद पर रहते हैं तो भी भगवान अपने भक्त के लिए सखा,पुत्र या प्रेमी बनना स्वीकार करते हैं। किन्तु जब उन्हें गुरु रूप में अंगीकार कर लिया गया तो उन्होंने तुरंत गुरु की भूमिका निभाने के लिए शिष्य से गुरु की भाँति गम्भीरतापूर्वक बातें कीं जैसा कि अपेक्षित है। ऐसा प्रतीत होता है कि गुरु तथा शिष्य की यह वार्ता दोनों सेनाओं की उपस्थिति में हुई,जिससे सारे लोग लाभान्वित हुए। अतः भगवदगीता का संवाद किसी एक व्यक्ति,समाज या जाति के लिए नहीं अपितु सबों के लिए है और उसे सुनने के लिए शत्रु या मित्र समान रूप से अधिकारी हैं।
क्रमशः !!!
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