शनिवार, 13 फ़रवरी 2021

BHAGAVAD GITA 1:12

 न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः। 

न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम।।१२।।  

न -नहीं; तु -लेकिन; एव -निष्चय ही; अहम् -मैं; जातु-किसी काल में; न। नहीं; आसम-था; न -नहीं; भविष्यामः -रहेंगे; सर्वे वयम- हम सब; अतः परम -इससे आगे। 

ऐसा कभी नहीं हुआ कि मैं न रहा होऊं या तुम न रहे हो अथवा ये समस्त राजा  रहे हों; और न ऐसा है कि भविष्य में हम लोग नहीं रहेंगे। 

तात्पर्य :- वेदों में, कठोपनिषद में तथा श्र्वेताश्वर उपनिषद में भी कहा गया कि जो श्री भगवान् असंख्य जीवों के कर्म तथा कर्मफल के अनुसार उनकी अपनी -अपनी परिस्थितियों में पालक हैं,वही भगवान् अंश रूप में हर जीव के ह्रदय में वास कर रहे हैं। केवल साधु पुरुष,जो एक ही ईश्वर को भीतर -बाहर देख सकते हैं,पूर्ण एवं शाश्वत शांति प्राप्त कर पाते हैं। 

नित्यो नित्यानां चेतन श्र्वेतनानाम  एको बहुनां यो विदधाति कामान। तमात्मस्थं एनुपश्यन्ति श्रीरास्तेषां शान्तिः शाश्वती नेतरेषाम।।(कठोपनिषद 2.2.13)  

जो  वैदिक ज्ञान अर्जुन को प्रदान किया गया वही विश्व के उन समस्त पुरुषों को प्रदान किया जाता है जो विद्वान् होने दावा तो करते हैं,किन्तु जिनकी  ज्ञानराशि न्यून है। भगवान् यह स्पष्ट कहते हैं कि  स्वयं,अर्जुन तथा युद्धभूमि में एकत्र सारे राजा शाश्वत प्राणी हैं और  इन जीवों की बद्ध तथा मुक्त अवस्थाओं में भगवान्  एकमात्र  हैं। भगवान् परम पुरुष हैं तथा भगवान्  चिर संगी अर्जुन एवं वहां  एकत्र सारे राजागण शाश्वत पुरुष हैं। ऐसा नहीं है कि ये भूतकाल में प्राणियों के  रूप  में अलग -अलग उपस्थित नहीं थे और ऐसा भी नहीं है कि ये शाश्वत पुरुष बने नहीं रहेंगे। उनका अस्तित्व भूतकाल में था और भविष्य में भी निर्बाध बना रहेगा। अतः किसी के लिए शोक करने की कोई बात नहीं है। 

यह मायावादी सिद्धांत कि मुक्ति के बाद आत्मा माया के आवरण से पृथक होकर निराकार ब्रह्म में लीन  हो जायेगा  और अपना अस्तित्व खो देगा,यहाँ परम अधिकारी भगवान् कृष्ण द्वारा पुष्ट नहीं हो पाता। न ही इस सिद्धांत का समर्थन हो पाता है कि बद्ध अवस्था में ही हम अस्तित्व का चिंतन करते हैं। यहाँ पर कृष्ण स्पष्टतः कहते हैं कि भगवान् तथा अन्यों का अस्तित्व भविष्य में  अक्षुण्ण रहेगा जिसकी पुष्टि उपनिषदों द्वारा भी होती है। कृष्ण का यह कथन प्रामाणिक है क्योंकि कृष्ण मयावश्य नहीं हैं। यदि अस्तित्व तथ्य न होता तो फिर कृष्ण इतना बल क्यों देते और वह भी भविष्य के लिए ! मायावादी यह तर्क कर सकते हैं कि कृष्ण द्वारा कथित अस्तित्व आध्यात्मिक न होकर भौतिक है। यदि हम इस तर्क को,कि अस्तित्व भौतिक होता है,स्वीकार भी कर लें तो फिर कोई कृष्ण के अस्तित्व को किस  प्रकार पहचानेगा ? कृष्ण भूतकाल में भी अपने अस्तित्व की पुष्टि करते हैं और भविष्य में भी अपने अस्तित्व की पुष्टि करते हैं। उन्होंने अपने अस्तित्व की पुष्टि कई प्रकार से की है और  ब्रह्म उनके अधीन  घोषित किया जा चुका है। कृष्ण सदा सर्वदा अपना अस्तित्व बनाये रहे हैं;यदि उन्हें सामान्य चेतना वाले सामान्य व्यक्ति के रूप  में माना जाता है तो प्रामाणिक शास्त्र के रूप में उनकी भगवद्गीता की कोई महत्ता नहीं होगी। एक सामान्य व्यक्ति मनुष्यों  अवगुणों के कारण श्रवण करनें योग्य शिक्षा देने में असमर्थ रहता है। गीता ऐसे साहित्य से ऊपर है। 

कोई भी  संसारी ग्रन्थ गीता की तुलना नहीं कर सकता। श्री कृष्ण को सामान्य व्यक्ति मान लेने पर गीता  महत्ता जाती रहती है। मायावादियों का तर्क है कि इस श्लोक में वर्णित द्वैत लौकिक है और शरीर के लिए प्रयुक्त हुआ है। किन्तु इसके पहले वाले श्लोक में ऐसी देहात्मबुद्धि की निंदा की गयी है। एक बार जीवों की देहात्मबुद्धि की निंदा करने के बाद यह कैसे संभव है कि कृष्ण पुनः शरीर पर उसी वक्तव्य को दुहराते ?अतः यह अस्तित्व आध्यात्मिक आधार पर स्थापित है और इसकी पुष्टि रामानुजाचार्य तथा अन्य आचार्यों ने भी की है। गीता में कई स्थलों पर इसका उल्लेख है कि यह आध्यात्मिक अस्तित्व केवल भगवद्भक्तों द्वारा ज्ञेय है। जो लोग भगवान् कृष्ण का विरोध करते हैं उनकी इस महान साहित्य तक पहुँच नहीं हो पाती। अभक्तों द्वारा गीता के उपदेशों को समझने का प्रयास मधुमक्खी द्वारा मधुपात्र चाटने के सदृश है। पात्र को खोले बिना मधु को नहीं चखा जा सकता। इसी प्रकार भगवद्गीता के रहस्यवाद  को केवल भक्त ही समझ सकते हैं,अन्य कोई नहीं, जैसा कि इसके चतुर्थ अध्याय में कहा गया है। न ही गीता का स्पर्श ऐसे लोग कर पाते हैं, जो भगवान् के अस्तित्व का विरोध करते हैं।अतः मायावादियों द्वारा गीता की व्याख्या मानो समग्र सत्य का सरासर भ्रामक निरूपण है। भगवान् चैतन्य ने मायावादियों द्वारा की गयी गीता की व्याख्याओं को पढ़ने का निषेध किया है और चेतावनी दी है कि जो कोई  मायावादी दर्शन  ग्रहण करता है,वह गीता के वास्तविक रहस्य को समझ पाने में असमर्थ रहता है। यदि अस्तित्व का अभिप्राय अनुभवगम्य ब्रह्माण्ड से है तो भगवान् द्वारा उपदेश देने की कोई आवस्यकता नहीं थी। आत्मा तथा परमात्मा का द्वैत शाश्वत तथ्य है और इसकी पुष्टि वेदों द्वारा होती है जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है। 

क्रमशः !!!      


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