शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2021

BHAGAVAD GITA 2:11

 श्री भगवानुवाच 

अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे। 

गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः 

श्री -भगवानुवाच -श्री भगवान ने कहा; अशोच्यान -जो शोक के योग्य नहीं है; अन्वशोच:-शोक करते हो; त्वम् -तुम; प्रज्ञा-वादन -पांडित्यपूर्ण बातें; च -भी; भाषसे- कहते हो; गत -चले गए,रहित; असून-प्राण; आगत -नहीं गए; असून -प्राण; च -भी; न -कभी नहीं; अनुशोचन्ति -शोक करते हैं; पण्डिताः -विद्वान लोग। 

श्री भगवान ने कहा -तुम पांडित्यपूर्ण वचन कहते हुए उनके लिए शोक कर रहे हो,जो शोक करने योग्य नहीं है। जो विद्वान होते हैं,वे न तो जीवित के लिए, न ही मृत के लिए शोक करते हैं। 

तात्पर्य :- भगवान ने तत्काल गुरु का पद संभाला और अपने शिष्य को अप्रत्यक्षतः मुर्ख कहकर डांटा। उन्होंने कहा, "तुम विद्वान की तरह बातें करते हो, किन्तु तुम यह नहीं जानते कि जो विद्वान होता है -अर्थात जो यह जानता है कि शरीर तथा आत्मा क्या है -वह किसी भी अवस्था में शरीर के लिए,चाहे वह जीवित हो या मृत -शोक नहीं करता। "अगले अध्यायों से यह स्पष्ट हो जायेगा कि ज्ञान का अर्थ पदार्थ तथा आत्मा एवं इन दोनों के नियामक को जानना है। अर्जुन का तर्क था कि राजनीती या समाजनीति की अपेक्षा धर्म को अधिक महत्व मिलना चाहिए,किन्तु उसे यह ज्ञात न था कि पदार्थ,आत्मा तथा परमेश्वर का ज्ञान धार्मिक सूत्रों से भी अधिक महत्वपूर्ण है। और चूँकि उसमें इस ज्ञान का अभाव था,अतः उसे विद्वान नहीं बनना चाहिए था। और चूँकि वह अत्यधिक विद्वान नहीं था इसलिए वह शोक के सर्वथा अयोग्य वस्तु के लिए शोक कर रहा था। यह शरीर जन्मता है और आज या कल इसका विनाश निश्चित है,अतः शरीर उतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना कि आत्मा है। जो इस तथ्य को जनता है वही असली विद्वान है और इसके लिए शोक का कोई कारण नहीं हो सकता। 

क्रमशः !!!

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