बुधवार, 17 फ़रवरी 2021

BHAGAVAD GITA 2:16

 🙏🙏

नासतो विद्दते भावो नभाओ विद्दते सतः। 

उभयोरपि दृष्टोन्तस्त्वनयोस्तत्वदर्शिभिः।।१६।।

न -नहीं; असत:-असत का; विद्दते -है; भावः-चिरस्थायित्व; न -कभी नहीं; अभावः -परिवर्तनशील गुण; विद्द्ते -है; सतः-शाश्वत का; उभयोः -दोनों का; अपि -ही; दृष्ट -देखा गया; अन्तः-निष्कर्ष; तु -निस्संदेह; अनयोः -इनका; तत्व-सत्य के; दर्शभिः-भविष्यद्रष्टा द्वारा। 

तत्वदर्शियों ने यह निष्कर्ष निकाला है कि असत (भौतिक शरीर) का तो कोई चिरस्थायित्व नहीं है,किन्तु सत (आत्मा ) अपरिवर्तित रहता है। उन्होंने इन दोनों की प्रकृति के अध्ययन द्वारा यह निष्कर्ष निकाला है। 

तात्पर्य :- परिवर्तनशील शरीर का कोई स्थायित्व नहीं है। आधुनिक चिकित्सा विज्ञान ने यह भी स्वीकार किया है कि विभिन्न कोशिकाओं की क्रिया -प्रतिक्रिया द्वारा शरीर प्रतिक्षण बदलता रहता है। इस तरह शरीर में वृद्धि तथा वृद्धावस्था आती रहती है। किन्तु शरीर तथा मन में निरंतर परिवर्तन होने पर भी आत्मा स्थायी रहता है। यही पदार्थ तथा आत्मा का अंतर है। स्वभावतः शरीर नित्य परिवर्तनशील है और आत्मा शाश्वत है। तत्वदर्शियों ने,चाहे वे निर्विशेषवादी हो हों या सगुणवादी,इस निष्कर्ष की स्थापना की है। (ज्योतिषिं विष्णुर्भवनानी विष्णु:) सत तथा असत शब्द आत्मा तथा भौतिक पदार्थ के ही द्योतक हैं। सभी तत्वदर्शियों की यही स्थापना है। 

यही से भगवान् द्वारा अज्ञान से मोहग्रस्त जीवों को उपदेश देने का शुभारम्भ होता है अज्ञान को हटाने के लिए आराधक और आराध्य के बीच पुनः शाश्वत सम्बन्ध स्थापित करना होता है और फिर अंश रूप जीवों तथा श्रीभगवान के अन्तर को समझना होता है। वेदान्त -सूत्र तथा श्रीमदभागवत में परमेश्वर को समस्त उदभवों (प्रकाश )का मूल माना गया है। ऐसे उदभवो का अनुभव परा तथा अपरा प्राकृतिक कर्मों द्वारा किया जाता है। जीव का सम्बन्ध परा प्रकृति से है,जैसा कि सातवें अध्याय में स्पष्ट होगा। यद्दपि शक्ति तथा शक्तिमान में कोई अन्तर नहीं है,किन्तु शक्तिमान को परम माना जाता है और शक्ति या प्रकृति को गौण। अतः सारे जीव उसी तरह परमेश्वर के सदैव अधीन रहते हैं जिस तरह सेवक स्वामी के या शिष्य गुरु के अधीन रहता है। अज्ञान अवस्था में ऐसे स्पष्ट ज्ञान को समझ पाना असम्भव है। अतः ऐसे अज्ञान को दूर करने के लिए सदा सर्वदा के लिए जीवों को प्रबुद्ध करने हेतु भगवान् भगवतगीता का उपदेश देते हैं। 🙏🙏

क्रमशः !!!     

मंगलवार, 16 फ़रवरी 2021

BHAGAVAD GITA 2:15

 🙏🙏यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषषर्भ। 

समदुःखसुखं धीरं सोमृतत्वाय कल्पते।।१५।।🙏🙏

यम -जिस; हि -निश्चित रूप से; न -कभी नहीं; व्यथयन्ति विचलित नहीं करते; एते -ये सब; पुरुषम मनुष्य को; पुरुष -ऋषभ -हे पुरुष श्रेष्ठ; सम -अपरिवर्तनीय; दुःख - दुःख में; सुखम -तथा सुख में; धीरम -धीर पुरुष; सः -वह; अमृतत्वाय -मुक्ति के लिए; कल्पते -योग्य है। 

हे पुरुषश्रेष्ठ  (अर्जुन ) !जो पुरुष सुख तथा दुःख में विचलित नहीं होता और इन दोनों में समभाव रखता है,वह निश्चित रूप से मुक्ति के योग्य है। 

तात्पर्य :-जो व्यक्ति आत्म साक्षात्कार की उच्च अवस्था प्राप्त करने के लिए दृढ़प्रतिज्ञ है और सुख तथा दुःख के प्रहारों को समभाव से सह सकता है वह निश्चय ही मुक्ति के योग्य है। वर्णाश्रम -धर्म में चौथी अवस्था अर्थात संन्यास आश्रम कष्टसाध्य अवस्था है। किन्तु जो अपने जीवन को सचमुच पूर्ण बनाना चाहता है वह समस्त कठिनाइयों के होते हुए भी संन्यास आश्रम अवश्य ग्रहण करता है। ये कठिनाइयां पारिवारिक सम्बन्ध विच्छेद करने तथा पत्नी और संतान से सम्बन्ध तोड़ने के कारण उत्पन्न होती हैं। किन्तु यदि कोई इन कठिनाइयों को सह लेता है तो उसके आत्म साक्षात्कार का पथ निष्कंटक हो जाता है। अतः अर्जुन को क्षत्रिय धर्म निर्वाह में दृढ़ रहने के लिए कहा जा रहा है,भले ही स्वजनों तथा अन्य प्रिय व्यक्तियों के साथ युद्ध करना कितना ही दुष्कर क्यों न हो। भगवान् चैतन्य ने चौबीस वर्ष की अवस्था में ही संन्यास ग्रहण कर लिया था यद्दपि उनपर आश्रित उनकी तरुण पत्नी तथा वृद्धा माँ की देखभाल करने वाला अन्य कोई न था। तो भी उच्चादर्श के लिए उन्होंने संन्यास ग्रहण किया और अपने कर्तव्यपालन में स्थिर बने रहे। भवबंधन से मुक्ति पाने का यही एकमात्र उपाय है। 

क्रमशः !!!

सोमवार, 15 फ़रवरी 2021

BHAGAVAD GITA 2:14

 मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुः खदाः। 

आगमापायिनो नित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत।।१४।।

मात्रा -स्पर्शाः -इन्द्रियविषय; तु -केवल; कौन्तेय -हे कुन्तीपुत्र; शीत -जाड़ा; उष्ण -ग्रीष्म; सुख -सुख; दुःख -दुःख; दाः -देने वाले; आगम -आना; अपायिनः -जाना; अनित्याः -क्षणिक; तान- उनको; तितिक्षस्व -सहन करने का प्रयत्न करो; भारत-हे भरतवंशी। इन्द्रयबोध से 

हे कुन्तीपुत्र !सुख तथा दुःख का क्षणिक उदय तथा कालक्रम में उनका अंतर्ध्यान होना सर्दी तथा गर्मी की श्रतुओं के आने जाने के समान है। हे भरतवंशी  !वे इन्द्रियबोध से उत्पन्न होते हैं और मनुष्य को चाहिए कि अविचल भाव से उनको सहन करना सीखे। 

तात्पर्य :- कर्तव्य निर्वाह करते हुए मनुष्य को सुख या दुःख के क्षणिक आने-जाने को सहन करने का अभ्यास करना चाहिए। वैदिक आदेशासनुसार मनुष्य को माघ के मास में प्रातःकाल स्नान करना चाहिए। उस समय अत्यधिक ठण्ड  पड़ती है,किन्तु जो धार्मिक नियमो का पालन करने वाला है,वह स्नान करने में तनिक भी नहीं झिझकता। इसी प्रकार एक गृहणी भीषण से भीषण गर्मी की श्रतु में भोजन पकाने में हिचकती नहीं। जलवायु सम्बन्धी असुविधायें होते हुए भी मनुष्य को अपना कर्तव्य निभाना होता है। इसी प्रकार युद्ध करना क्षत्रिय का धर्म है, अतः उसे अपने किसी भी मित्र या परिजन से युद्ध करना पड़े तो उसे अपने धर्म से विचलित नहीं होना चाहिए। मनुष्य को ज्ञान प्राप्त करने के लिए धर्म के विधि -विधान पालन करने होते हैं क्योंकि ज्ञान तथा भक्ति से ही मनुष्य अपने आप को माया के बंधन से छुड़ा सकता है। 

अर्जुन को जिन दो नामों से सम्बोधित किया गया है,वे भी महत्वपूर्ण है। कौन्तेय कहकर सम्बोधित करने से यह प्रकट होता है कि वह अपनी माता की ओर (मातृकुल)   से सम्बंधित है और भारत कहने से उसके पिता की ओर (पितृकुल )  से सम्बन्ध प्रकट होता है। दोनों ओर से उसको महान विरासत प्राप्त है। महान विरासत प्राप्त होने के फलस्वरूप कर्त्तव्यनिर्वाह का उत्तरदायित्व आ पड़ता है,अतः अर्जुन युद्ध से विमुख नहीं हो सकता।

क्रमशः  !!!

                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                       

    

रविवार, 14 फ़रवरी 2021

BHAGAVAD GITA 2:13

🙏🙏 देहिनोस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा। 

तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति।।१३।🙏🙏

  देहिनः -शरीर धारी की; अस्मिन -इसमें; यथा -जिस प्रकार; देहे -शरीर में; कौमारं -बाल्यावस्था; यौवनम-यौवन,तारुण्य; जरा-वृद्धावस्था; तथा -उसी प्रकार; देह -अंतर -शरीर के स्थानांतरण की; प्राप्ति -उपलब्धि; धीर -धीर व्यक्ति; तत्र -उस विषय में; न -कभी नहीं; मुह्यति -मोह को प्राप्त होता है। 

जिस प्रकार शरीर धारी आत्मा इस (वर्तमान) शरीर में बाल्यावस्था से तरुणावस्था में और फिर वृद्धावस्था में निरन्तर अग्रसर होता रहता है,उसी प्रकार मृत्यु होने पर आत्मा दूसरे में चला जाता है। धीर व्यक्ति ऐसे परिवर्तन से मोह को प्राप्त नहीं होता।   

तात्पर्य :- प्रत्येक जीव एक व्यष्टि आत्मा है। वह प्रतिक्षण अपना शरीर बदलता रहता है -कभी बालक रूप में,कभी युवा तथा वृद्ध पुरुष के रूप में। तो भी आत्मा वही रहता है, उसमे कोई परिवर्तन नहीं होता। यह व्यष्टि आत्मा मृत्यु होने पर अंततोगत्वा एक शरीर बदलकर दूसरे शरीर में देहान्तरण कर जाता है और चूँकि अगले जन्म में इसको शरीर मिलना अवस्यम्भावी है-चाहे वह शरीर आध्यात्मिक हो या भौतिक-अतः अर्जुन के लिए न तो भीष्म, न ही द्रोण के लिए शोक करने का कोई कारण था। अपितु उसे प्रसन्न होना चाहिए था कि वे अपने पुराने शरीरों को बदल कर नयें शरीर ग्रहण करेंगे और इस तरह वे नई शक्ति प्राप्त करेंगे। ऐसे शरीर -परिवर्तन से जीवन में किये कर्म के अनुसार नाना प्रकार के सुखोपभोग या कष्टों का लेखा हो जाता है। चूँकि भीष्म व द्रोण साधु पुरुष थे इसलिए अगले जन्म में उन्हें आध्यात्मिक शरीर प्राप्त होंगे; नहीं तो कम से कम उन्हें स्वर्ग में भोग करने के शरीर प्राप्त होंगे ही,अतः दोनों ही दशाओं में शोक का कोई कारण नहीं था। जिस मनुष्य की व्यष्टि आत्मा,परमात्मा तथा भौतिक और आध्यात्मिक प्रवृति का पूर्ण ज्ञान होता है वह धीर कहलाता है। ऐसा ऐसा मनुष्य कभी भी शरीर -परिवर्तन द्वारा ठगा नहीं जाता। 

आत्मा के एकात्मवाद का मायावादी सिद्धांत मान्य नहीं हो सकता क्योंकि आत्मा के इस प्रकार विखंडन से परमेस्वर विखंडनीय या परिवर्तनशील हो जायेगा,जो परमात्मा के अपरिवर्तनीय होने के सिद्धांत के विरुद्ध होगा। गीता में पुष्टि हुई है कि परमात्मा के खण्डों का शाश्वत या सनातन अस्तित्व है,जिन्हें क्षर कहा जाता है अर्थात उनमे भौतिक प्रकृति में गिरने की प्रवृति हो जाती है। ये भिन्न अंश नित्य भिन्न रहते हैं,यहाँ तक की मृत्यु के बाद भी व्यष्टि आत्मा जैसा का तैसा -भिन्न अंश बना रहता है। किन्तु एक बार मुक्त होने पर वह श्री भगवान् के साथ सच्चिदानंद रूप में रहता है। परमात्मा पर प्रतिबिम्ब वाद का सिद्धांत व्यवहृत किया जा सकता है, जो प्रत्येक शरीर में विद्दमान रहता है। वह व्यष्टि जीव से भिन्न होता है। जब आकाश का प्रतिबिम्ब जल में पड़ता है तो प्रतिबिम्ब में सूर्य चंद्र तथा तारे सभी कुछ रहते हैं। तारों की तुलना जीवों से तथा सूर्य या चंद्र की परमेश्वर से की जा सकती है। व्यष्टि अंश आत्मा को अर्जुन के रूप में और परमात्मा को श्री भगवान् के रूप में प्रदर्शित किया जाता है। जैसा की चतुर्थ अध्याय के प्रारम्भ में स्पष्ट है,वे एक ही स्तर पर नहीं होते। यदि अर्जुन कृष्ण के समान स्तर पर हो और कृष्ण अर्जुन से श्रेष्ठतर न हो तो उनमे उपदेशक तथा दूसरे को उपदिष्ट का सम्बन्ध अर्थहीन होगा क्योंकि माया के चुंगुल में  रहकर कोई भी प्रामाणिक उपदेशक नहीं बन सकता। ऐसी परिस्थितियों में यह मान लिया जाता है की भगवान् कृष्ण परमेश्वर हैं, जो पद में माया द्वारा विस्मृत अर्जुन रुपी जीव से श्रेष्ठ है। 

क्रमशः !!!    

शनिवार, 13 फ़रवरी 2021

BHAGAVAD GITA 1:12

 न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः। 

न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम।।१२।।  

न -नहीं; तु -लेकिन; एव -निष्चय ही; अहम् -मैं; जातु-किसी काल में; न। नहीं; आसम-था; न -नहीं; भविष्यामः -रहेंगे; सर्वे वयम- हम सब; अतः परम -इससे आगे। 

ऐसा कभी नहीं हुआ कि मैं न रहा होऊं या तुम न रहे हो अथवा ये समस्त राजा  रहे हों; और न ऐसा है कि भविष्य में हम लोग नहीं रहेंगे। 

तात्पर्य :- वेदों में, कठोपनिषद में तथा श्र्वेताश्वर उपनिषद में भी कहा गया कि जो श्री भगवान् असंख्य जीवों के कर्म तथा कर्मफल के अनुसार उनकी अपनी -अपनी परिस्थितियों में पालक हैं,वही भगवान् अंश रूप में हर जीव के ह्रदय में वास कर रहे हैं। केवल साधु पुरुष,जो एक ही ईश्वर को भीतर -बाहर देख सकते हैं,पूर्ण एवं शाश्वत शांति प्राप्त कर पाते हैं। 

नित्यो नित्यानां चेतन श्र्वेतनानाम  एको बहुनां यो विदधाति कामान। तमात्मस्थं एनुपश्यन्ति श्रीरास्तेषां शान्तिः शाश्वती नेतरेषाम।।(कठोपनिषद 2.2.13)  

जो  वैदिक ज्ञान अर्जुन को प्रदान किया गया वही विश्व के उन समस्त पुरुषों को प्रदान किया जाता है जो विद्वान् होने दावा तो करते हैं,किन्तु जिनकी  ज्ञानराशि न्यून है। भगवान् यह स्पष्ट कहते हैं कि  स्वयं,अर्जुन तथा युद्धभूमि में एकत्र सारे राजा शाश्वत प्राणी हैं और  इन जीवों की बद्ध तथा मुक्त अवस्थाओं में भगवान्  एकमात्र  हैं। भगवान् परम पुरुष हैं तथा भगवान्  चिर संगी अर्जुन एवं वहां  एकत्र सारे राजागण शाश्वत पुरुष हैं। ऐसा नहीं है कि ये भूतकाल में प्राणियों के  रूप  में अलग -अलग उपस्थित नहीं थे और ऐसा भी नहीं है कि ये शाश्वत पुरुष बने नहीं रहेंगे। उनका अस्तित्व भूतकाल में था और भविष्य में भी निर्बाध बना रहेगा। अतः किसी के लिए शोक करने की कोई बात नहीं है। 

यह मायावादी सिद्धांत कि मुक्ति के बाद आत्मा माया के आवरण से पृथक होकर निराकार ब्रह्म में लीन  हो जायेगा  और अपना अस्तित्व खो देगा,यहाँ परम अधिकारी भगवान् कृष्ण द्वारा पुष्ट नहीं हो पाता। न ही इस सिद्धांत का समर्थन हो पाता है कि बद्ध अवस्था में ही हम अस्तित्व का चिंतन करते हैं। यहाँ पर कृष्ण स्पष्टतः कहते हैं कि भगवान् तथा अन्यों का अस्तित्व भविष्य में  अक्षुण्ण रहेगा जिसकी पुष्टि उपनिषदों द्वारा भी होती है। कृष्ण का यह कथन प्रामाणिक है क्योंकि कृष्ण मयावश्य नहीं हैं। यदि अस्तित्व तथ्य न होता तो फिर कृष्ण इतना बल क्यों देते और वह भी भविष्य के लिए ! मायावादी यह तर्क कर सकते हैं कि कृष्ण द्वारा कथित अस्तित्व आध्यात्मिक न होकर भौतिक है। यदि हम इस तर्क को,कि अस्तित्व भौतिक होता है,स्वीकार भी कर लें तो फिर कोई कृष्ण के अस्तित्व को किस  प्रकार पहचानेगा ? कृष्ण भूतकाल में भी अपने अस्तित्व की पुष्टि करते हैं और भविष्य में भी अपने अस्तित्व की पुष्टि करते हैं। उन्होंने अपने अस्तित्व की पुष्टि कई प्रकार से की है और  ब्रह्म उनके अधीन  घोषित किया जा चुका है। कृष्ण सदा सर्वदा अपना अस्तित्व बनाये रहे हैं;यदि उन्हें सामान्य चेतना वाले सामान्य व्यक्ति के रूप  में माना जाता है तो प्रामाणिक शास्त्र के रूप में उनकी भगवद्गीता की कोई महत्ता नहीं होगी। एक सामान्य व्यक्ति मनुष्यों  अवगुणों के कारण श्रवण करनें योग्य शिक्षा देने में असमर्थ रहता है। गीता ऐसे साहित्य से ऊपर है। 

कोई भी  संसारी ग्रन्थ गीता की तुलना नहीं कर सकता। श्री कृष्ण को सामान्य व्यक्ति मान लेने पर गीता  महत्ता जाती रहती है। मायावादियों का तर्क है कि इस श्लोक में वर्णित द्वैत लौकिक है और शरीर के लिए प्रयुक्त हुआ है। किन्तु इसके पहले वाले श्लोक में ऐसी देहात्मबुद्धि की निंदा की गयी है। एक बार जीवों की देहात्मबुद्धि की निंदा करने के बाद यह कैसे संभव है कि कृष्ण पुनः शरीर पर उसी वक्तव्य को दुहराते ?अतः यह अस्तित्व आध्यात्मिक आधार पर स्थापित है और इसकी पुष्टि रामानुजाचार्य तथा अन्य आचार्यों ने भी की है। गीता में कई स्थलों पर इसका उल्लेख है कि यह आध्यात्मिक अस्तित्व केवल भगवद्भक्तों द्वारा ज्ञेय है। जो लोग भगवान् कृष्ण का विरोध करते हैं उनकी इस महान साहित्य तक पहुँच नहीं हो पाती। अभक्तों द्वारा गीता के उपदेशों को समझने का प्रयास मधुमक्खी द्वारा मधुपात्र चाटने के सदृश है। पात्र को खोले बिना मधु को नहीं चखा जा सकता। इसी प्रकार भगवद्गीता के रहस्यवाद  को केवल भक्त ही समझ सकते हैं,अन्य कोई नहीं, जैसा कि इसके चतुर्थ अध्याय में कहा गया है। न ही गीता का स्पर्श ऐसे लोग कर पाते हैं, जो भगवान् के अस्तित्व का विरोध करते हैं।अतः मायावादियों द्वारा गीता की व्याख्या मानो समग्र सत्य का सरासर भ्रामक निरूपण है। भगवान् चैतन्य ने मायावादियों द्वारा की गयी गीता की व्याख्याओं को पढ़ने का निषेध किया है और चेतावनी दी है कि जो कोई  मायावादी दर्शन  ग्रहण करता है,वह गीता के वास्तविक रहस्य को समझ पाने में असमर्थ रहता है। यदि अस्तित्व का अभिप्राय अनुभवगम्य ब्रह्माण्ड से है तो भगवान् द्वारा उपदेश देने की कोई आवस्यकता नहीं थी। आत्मा तथा परमात्मा का द्वैत शाश्वत तथ्य है और इसकी पुष्टि वेदों द्वारा होती है जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है। 

क्रमशः !!!      


शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2021

BHAGAVAD GITA 2:11

 श्री भगवानुवाच 

अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे। 

गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः 

श्री -भगवानुवाच -श्री भगवान ने कहा; अशोच्यान -जो शोक के योग्य नहीं है; अन्वशोच:-शोक करते हो; त्वम् -तुम; प्रज्ञा-वादन -पांडित्यपूर्ण बातें; च -भी; भाषसे- कहते हो; गत -चले गए,रहित; असून-प्राण; आगत -नहीं गए; असून -प्राण; च -भी; न -कभी नहीं; अनुशोचन्ति -शोक करते हैं; पण्डिताः -विद्वान लोग। 

श्री भगवान ने कहा -तुम पांडित्यपूर्ण वचन कहते हुए उनके लिए शोक कर रहे हो,जो शोक करने योग्य नहीं है। जो विद्वान होते हैं,वे न तो जीवित के लिए, न ही मृत के लिए शोक करते हैं। 

तात्पर्य :- भगवान ने तत्काल गुरु का पद संभाला और अपने शिष्य को अप्रत्यक्षतः मुर्ख कहकर डांटा। उन्होंने कहा, "तुम विद्वान की तरह बातें करते हो, किन्तु तुम यह नहीं जानते कि जो विद्वान होता है -अर्थात जो यह जानता है कि शरीर तथा आत्मा क्या है -वह किसी भी अवस्था में शरीर के लिए,चाहे वह जीवित हो या मृत -शोक नहीं करता। "अगले अध्यायों से यह स्पष्ट हो जायेगा कि ज्ञान का अर्थ पदार्थ तथा आत्मा एवं इन दोनों के नियामक को जानना है। अर्जुन का तर्क था कि राजनीती या समाजनीति की अपेक्षा धर्म को अधिक महत्व मिलना चाहिए,किन्तु उसे यह ज्ञात न था कि पदार्थ,आत्मा तथा परमेश्वर का ज्ञान धार्मिक सूत्रों से भी अधिक महत्वपूर्ण है। और चूँकि उसमें इस ज्ञान का अभाव था,अतः उसे विद्वान नहीं बनना चाहिए था। और चूँकि वह अत्यधिक विद्वान नहीं था इसलिए वह शोक के सर्वथा अयोग्य वस्तु के लिए शोक कर रहा था। यह शरीर जन्मता है और आज या कल इसका विनाश निश्चित है,अतः शरीर उतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना कि आत्मा है। जो इस तथ्य को जनता है वही असली विद्वान है और इसके लिए शोक का कोई कारण नहीं हो सकता। 

क्रमशः !!!

गुरुवार, 11 फ़रवरी 2021

BHAGAVAD GITA 2:10

 तमुवाच हृषिकेशं प्रहसन्निव भारत। 

सेनयोरुभयोर्मध्ये विषीदन्तमिदंवचः।।१०।। 

तम -उससे; उवाच -कहा; हृषीकेशः-इन्द्रियों के स्वामी कृष्ण ने; प्रहसन - हँसते हुए; इव- मानो; भारत-हे भरतवंशी धृतराष्ट्र; सनयोः -सेनाओं के; उभयो -दोनों पक्षों की; मध्ये- बीच में; विषीदन्तम- शोकमग्न; इदम - यह (निम्नलिखित ) वचः -शब्द। 

हे भरतवंशी धृतराष्ट्र ! उस समय दोनों सेनाओं के मध्य शोकमग्न अर्जुन से कृष्ण ने मानो हँसते हुए ये शब्द कहे। 

अर्थात :- दो घनिष्ट मित्रों अर्थात हृषिकेश तथा गुडाकेश के मध्य वार्ता चल रही थी। मित्र के रूप में दोनों का पद समान था,किन्तु इनमे से एक स्वेच्छा से दूसरे का शिष्य बन गया था। सबों के स्वामी होने के कारण वे सदैव श्रेष्ठ  पद पर रहते हैं तो भी भगवान अपने भक्त के लिए सखा,पुत्र या प्रेमी बनना स्वीकार करते हैं। किन्तु जब उन्हें गुरु रूप में अंगीकार कर लिया गया तो उन्होंने तुरंत गुरु की भूमिका निभाने के लिए शिष्य से गुरु की भाँति गम्भीरतापूर्वक बातें कीं जैसा कि अपेक्षित है। ऐसा प्रतीत होता है कि गुरु तथा शिष्य की यह वार्ता दोनों सेनाओं की उपस्थिति में हुई,जिससे सारे लोग लाभान्वित हुए। अतः भगवदगीता का संवाद किसी एक व्यक्ति,समाज या जाति के लिए नहीं अपितु सबों के लिए है और उसे सुनने के लिए शत्रु या मित्र समान रूप से अधिकारी हैं। 

क्रमशः !!!