सोमवार, 15 फ़रवरी 2021

BHAGAVAD GITA 2:14

 मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुः खदाः। 

आगमापायिनो नित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत।।१४।।

मात्रा -स्पर्शाः -इन्द्रियविषय; तु -केवल; कौन्तेय -हे कुन्तीपुत्र; शीत -जाड़ा; उष्ण -ग्रीष्म; सुख -सुख; दुःख -दुःख; दाः -देने वाले; आगम -आना; अपायिनः -जाना; अनित्याः -क्षणिक; तान- उनको; तितिक्षस्व -सहन करने का प्रयत्न करो; भारत-हे भरतवंशी। इन्द्रयबोध से 

हे कुन्तीपुत्र !सुख तथा दुःख का क्षणिक उदय तथा कालक्रम में उनका अंतर्ध्यान होना सर्दी तथा गर्मी की श्रतुओं के आने जाने के समान है। हे भरतवंशी  !वे इन्द्रियबोध से उत्पन्न होते हैं और मनुष्य को चाहिए कि अविचल भाव से उनको सहन करना सीखे। 

तात्पर्य :- कर्तव्य निर्वाह करते हुए मनुष्य को सुख या दुःख के क्षणिक आने-जाने को सहन करने का अभ्यास करना चाहिए। वैदिक आदेशासनुसार मनुष्य को माघ के मास में प्रातःकाल स्नान करना चाहिए। उस समय अत्यधिक ठण्ड  पड़ती है,किन्तु जो धार्मिक नियमो का पालन करने वाला है,वह स्नान करने में तनिक भी नहीं झिझकता। इसी प्रकार एक गृहणी भीषण से भीषण गर्मी की श्रतु में भोजन पकाने में हिचकती नहीं। जलवायु सम्बन्धी असुविधायें होते हुए भी मनुष्य को अपना कर्तव्य निभाना होता है। इसी प्रकार युद्ध करना क्षत्रिय का धर्म है, अतः उसे अपने किसी भी मित्र या परिजन से युद्ध करना पड़े तो उसे अपने धर्म से विचलित नहीं होना चाहिए। मनुष्य को ज्ञान प्राप्त करने के लिए धर्म के विधि -विधान पालन करने होते हैं क्योंकि ज्ञान तथा भक्ति से ही मनुष्य अपने आप को माया के बंधन से छुड़ा सकता है। 

अर्जुन को जिन दो नामों से सम्बोधित किया गया है,वे भी महत्वपूर्ण है। कौन्तेय कहकर सम्बोधित करने से यह प्रकट होता है कि वह अपनी माता की ओर (मातृकुल)   से सम्बंधित है और भारत कहने से उसके पिता की ओर (पितृकुल )  से सम्बन्ध प्रकट होता है। दोनों ओर से उसको महान विरासत प्राप्त है। महान विरासत प्राप्त होने के फलस्वरूप कर्त्तव्यनिर्वाह का उत्तरदायित्व आ पड़ता है,अतः अर्जुन युद्ध से विमुख नहीं हो सकता।

क्रमशः  !!!

                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                       

    

रविवार, 14 फ़रवरी 2021

BHAGAVAD GITA 2:13

🙏🙏 देहिनोस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा। 

तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति।।१३।🙏🙏

  देहिनः -शरीर धारी की; अस्मिन -इसमें; यथा -जिस प्रकार; देहे -शरीर में; कौमारं -बाल्यावस्था; यौवनम-यौवन,तारुण्य; जरा-वृद्धावस्था; तथा -उसी प्रकार; देह -अंतर -शरीर के स्थानांतरण की; प्राप्ति -उपलब्धि; धीर -धीर व्यक्ति; तत्र -उस विषय में; न -कभी नहीं; मुह्यति -मोह को प्राप्त होता है। 

जिस प्रकार शरीर धारी आत्मा इस (वर्तमान) शरीर में बाल्यावस्था से तरुणावस्था में और फिर वृद्धावस्था में निरन्तर अग्रसर होता रहता है,उसी प्रकार मृत्यु होने पर आत्मा दूसरे में चला जाता है। धीर व्यक्ति ऐसे परिवर्तन से मोह को प्राप्त नहीं होता।   

तात्पर्य :- प्रत्येक जीव एक व्यष्टि आत्मा है। वह प्रतिक्षण अपना शरीर बदलता रहता है -कभी बालक रूप में,कभी युवा तथा वृद्ध पुरुष के रूप में। तो भी आत्मा वही रहता है, उसमे कोई परिवर्तन नहीं होता। यह व्यष्टि आत्मा मृत्यु होने पर अंततोगत्वा एक शरीर बदलकर दूसरे शरीर में देहान्तरण कर जाता है और चूँकि अगले जन्म में इसको शरीर मिलना अवस्यम्भावी है-चाहे वह शरीर आध्यात्मिक हो या भौतिक-अतः अर्जुन के लिए न तो भीष्म, न ही द्रोण के लिए शोक करने का कोई कारण था। अपितु उसे प्रसन्न होना चाहिए था कि वे अपने पुराने शरीरों को बदल कर नयें शरीर ग्रहण करेंगे और इस तरह वे नई शक्ति प्राप्त करेंगे। ऐसे शरीर -परिवर्तन से जीवन में किये कर्म के अनुसार नाना प्रकार के सुखोपभोग या कष्टों का लेखा हो जाता है। चूँकि भीष्म व द्रोण साधु पुरुष थे इसलिए अगले जन्म में उन्हें आध्यात्मिक शरीर प्राप्त होंगे; नहीं तो कम से कम उन्हें स्वर्ग में भोग करने के शरीर प्राप्त होंगे ही,अतः दोनों ही दशाओं में शोक का कोई कारण नहीं था। जिस मनुष्य की व्यष्टि आत्मा,परमात्मा तथा भौतिक और आध्यात्मिक प्रवृति का पूर्ण ज्ञान होता है वह धीर कहलाता है। ऐसा ऐसा मनुष्य कभी भी शरीर -परिवर्तन द्वारा ठगा नहीं जाता। 

आत्मा के एकात्मवाद का मायावादी सिद्धांत मान्य नहीं हो सकता क्योंकि आत्मा के इस प्रकार विखंडन से परमेस्वर विखंडनीय या परिवर्तनशील हो जायेगा,जो परमात्मा के अपरिवर्तनीय होने के सिद्धांत के विरुद्ध होगा। गीता में पुष्टि हुई है कि परमात्मा के खण्डों का शाश्वत या सनातन अस्तित्व है,जिन्हें क्षर कहा जाता है अर्थात उनमे भौतिक प्रकृति में गिरने की प्रवृति हो जाती है। ये भिन्न अंश नित्य भिन्न रहते हैं,यहाँ तक की मृत्यु के बाद भी व्यष्टि आत्मा जैसा का तैसा -भिन्न अंश बना रहता है। किन्तु एक बार मुक्त होने पर वह श्री भगवान् के साथ सच्चिदानंद रूप में रहता है। परमात्मा पर प्रतिबिम्ब वाद का सिद्धांत व्यवहृत किया जा सकता है, जो प्रत्येक शरीर में विद्दमान रहता है। वह व्यष्टि जीव से भिन्न होता है। जब आकाश का प्रतिबिम्ब जल में पड़ता है तो प्रतिबिम्ब में सूर्य चंद्र तथा तारे सभी कुछ रहते हैं। तारों की तुलना जीवों से तथा सूर्य या चंद्र की परमेश्वर से की जा सकती है। व्यष्टि अंश आत्मा को अर्जुन के रूप में और परमात्मा को श्री भगवान् के रूप में प्रदर्शित किया जाता है। जैसा की चतुर्थ अध्याय के प्रारम्भ में स्पष्ट है,वे एक ही स्तर पर नहीं होते। यदि अर्जुन कृष्ण के समान स्तर पर हो और कृष्ण अर्जुन से श्रेष्ठतर न हो तो उनमे उपदेशक तथा दूसरे को उपदिष्ट का सम्बन्ध अर्थहीन होगा क्योंकि माया के चुंगुल में  रहकर कोई भी प्रामाणिक उपदेशक नहीं बन सकता। ऐसी परिस्थितियों में यह मान लिया जाता है की भगवान् कृष्ण परमेश्वर हैं, जो पद में माया द्वारा विस्मृत अर्जुन रुपी जीव से श्रेष्ठ है। 

क्रमशः !!!    

शनिवार, 13 फ़रवरी 2021

BHAGAVAD GITA 1:12

 न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः। 

न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम।।१२।।  

न -नहीं; तु -लेकिन; एव -निष्चय ही; अहम् -मैं; जातु-किसी काल में; न। नहीं; आसम-था; न -नहीं; भविष्यामः -रहेंगे; सर्वे वयम- हम सब; अतः परम -इससे आगे। 

ऐसा कभी नहीं हुआ कि मैं न रहा होऊं या तुम न रहे हो अथवा ये समस्त राजा  रहे हों; और न ऐसा है कि भविष्य में हम लोग नहीं रहेंगे। 

तात्पर्य :- वेदों में, कठोपनिषद में तथा श्र्वेताश्वर उपनिषद में भी कहा गया कि जो श्री भगवान् असंख्य जीवों के कर्म तथा कर्मफल के अनुसार उनकी अपनी -अपनी परिस्थितियों में पालक हैं,वही भगवान् अंश रूप में हर जीव के ह्रदय में वास कर रहे हैं। केवल साधु पुरुष,जो एक ही ईश्वर को भीतर -बाहर देख सकते हैं,पूर्ण एवं शाश्वत शांति प्राप्त कर पाते हैं। 

नित्यो नित्यानां चेतन श्र्वेतनानाम  एको बहुनां यो विदधाति कामान। तमात्मस्थं एनुपश्यन्ति श्रीरास्तेषां शान्तिः शाश्वती नेतरेषाम।।(कठोपनिषद 2.2.13)  

जो  वैदिक ज्ञान अर्जुन को प्रदान किया गया वही विश्व के उन समस्त पुरुषों को प्रदान किया जाता है जो विद्वान् होने दावा तो करते हैं,किन्तु जिनकी  ज्ञानराशि न्यून है। भगवान् यह स्पष्ट कहते हैं कि  स्वयं,अर्जुन तथा युद्धभूमि में एकत्र सारे राजा शाश्वत प्राणी हैं और  इन जीवों की बद्ध तथा मुक्त अवस्थाओं में भगवान्  एकमात्र  हैं। भगवान् परम पुरुष हैं तथा भगवान्  चिर संगी अर्जुन एवं वहां  एकत्र सारे राजागण शाश्वत पुरुष हैं। ऐसा नहीं है कि ये भूतकाल में प्राणियों के  रूप  में अलग -अलग उपस्थित नहीं थे और ऐसा भी नहीं है कि ये शाश्वत पुरुष बने नहीं रहेंगे। उनका अस्तित्व भूतकाल में था और भविष्य में भी निर्बाध बना रहेगा। अतः किसी के लिए शोक करने की कोई बात नहीं है। 

यह मायावादी सिद्धांत कि मुक्ति के बाद आत्मा माया के आवरण से पृथक होकर निराकार ब्रह्म में लीन  हो जायेगा  और अपना अस्तित्व खो देगा,यहाँ परम अधिकारी भगवान् कृष्ण द्वारा पुष्ट नहीं हो पाता। न ही इस सिद्धांत का समर्थन हो पाता है कि बद्ध अवस्था में ही हम अस्तित्व का चिंतन करते हैं। यहाँ पर कृष्ण स्पष्टतः कहते हैं कि भगवान् तथा अन्यों का अस्तित्व भविष्य में  अक्षुण्ण रहेगा जिसकी पुष्टि उपनिषदों द्वारा भी होती है। कृष्ण का यह कथन प्रामाणिक है क्योंकि कृष्ण मयावश्य नहीं हैं। यदि अस्तित्व तथ्य न होता तो फिर कृष्ण इतना बल क्यों देते और वह भी भविष्य के लिए ! मायावादी यह तर्क कर सकते हैं कि कृष्ण द्वारा कथित अस्तित्व आध्यात्मिक न होकर भौतिक है। यदि हम इस तर्क को,कि अस्तित्व भौतिक होता है,स्वीकार भी कर लें तो फिर कोई कृष्ण के अस्तित्व को किस  प्रकार पहचानेगा ? कृष्ण भूतकाल में भी अपने अस्तित्व की पुष्टि करते हैं और भविष्य में भी अपने अस्तित्व की पुष्टि करते हैं। उन्होंने अपने अस्तित्व की पुष्टि कई प्रकार से की है और  ब्रह्म उनके अधीन  घोषित किया जा चुका है। कृष्ण सदा सर्वदा अपना अस्तित्व बनाये रहे हैं;यदि उन्हें सामान्य चेतना वाले सामान्य व्यक्ति के रूप  में माना जाता है तो प्रामाणिक शास्त्र के रूप में उनकी भगवद्गीता की कोई महत्ता नहीं होगी। एक सामान्य व्यक्ति मनुष्यों  अवगुणों के कारण श्रवण करनें योग्य शिक्षा देने में असमर्थ रहता है। गीता ऐसे साहित्य से ऊपर है। 

कोई भी  संसारी ग्रन्थ गीता की तुलना नहीं कर सकता। श्री कृष्ण को सामान्य व्यक्ति मान लेने पर गीता  महत्ता जाती रहती है। मायावादियों का तर्क है कि इस श्लोक में वर्णित द्वैत लौकिक है और शरीर के लिए प्रयुक्त हुआ है। किन्तु इसके पहले वाले श्लोक में ऐसी देहात्मबुद्धि की निंदा की गयी है। एक बार जीवों की देहात्मबुद्धि की निंदा करने के बाद यह कैसे संभव है कि कृष्ण पुनः शरीर पर उसी वक्तव्य को दुहराते ?अतः यह अस्तित्व आध्यात्मिक आधार पर स्थापित है और इसकी पुष्टि रामानुजाचार्य तथा अन्य आचार्यों ने भी की है। गीता में कई स्थलों पर इसका उल्लेख है कि यह आध्यात्मिक अस्तित्व केवल भगवद्भक्तों द्वारा ज्ञेय है। जो लोग भगवान् कृष्ण का विरोध करते हैं उनकी इस महान साहित्य तक पहुँच नहीं हो पाती। अभक्तों द्वारा गीता के उपदेशों को समझने का प्रयास मधुमक्खी द्वारा मधुपात्र चाटने के सदृश है। पात्र को खोले बिना मधु को नहीं चखा जा सकता। इसी प्रकार भगवद्गीता के रहस्यवाद  को केवल भक्त ही समझ सकते हैं,अन्य कोई नहीं, जैसा कि इसके चतुर्थ अध्याय में कहा गया है। न ही गीता का स्पर्श ऐसे लोग कर पाते हैं, जो भगवान् के अस्तित्व का विरोध करते हैं।अतः मायावादियों द्वारा गीता की व्याख्या मानो समग्र सत्य का सरासर भ्रामक निरूपण है। भगवान् चैतन्य ने मायावादियों द्वारा की गयी गीता की व्याख्याओं को पढ़ने का निषेध किया है और चेतावनी दी है कि जो कोई  मायावादी दर्शन  ग्रहण करता है,वह गीता के वास्तविक रहस्य को समझ पाने में असमर्थ रहता है। यदि अस्तित्व का अभिप्राय अनुभवगम्य ब्रह्माण्ड से है तो भगवान् द्वारा उपदेश देने की कोई आवस्यकता नहीं थी। आत्मा तथा परमात्मा का द्वैत शाश्वत तथ्य है और इसकी पुष्टि वेदों द्वारा होती है जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है। 

क्रमशः !!!      


शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2021

BHAGAVAD GITA 2:11

 श्री भगवानुवाच 

अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे। 

गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः 

श्री -भगवानुवाच -श्री भगवान ने कहा; अशोच्यान -जो शोक के योग्य नहीं है; अन्वशोच:-शोक करते हो; त्वम् -तुम; प्रज्ञा-वादन -पांडित्यपूर्ण बातें; च -भी; भाषसे- कहते हो; गत -चले गए,रहित; असून-प्राण; आगत -नहीं गए; असून -प्राण; च -भी; न -कभी नहीं; अनुशोचन्ति -शोक करते हैं; पण्डिताः -विद्वान लोग। 

श्री भगवान ने कहा -तुम पांडित्यपूर्ण वचन कहते हुए उनके लिए शोक कर रहे हो,जो शोक करने योग्य नहीं है। जो विद्वान होते हैं,वे न तो जीवित के लिए, न ही मृत के लिए शोक करते हैं। 

तात्पर्य :- भगवान ने तत्काल गुरु का पद संभाला और अपने शिष्य को अप्रत्यक्षतः मुर्ख कहकर डांटा। उन्होंने कहा, "तुम विद्वान की तरह बातें करते हो, किन्तु तुम यह नहीं जानते कि जो विद्वान होता है -अर्थात जो यह जानता है कि शरीर तथा आत्मा क्या है -वह किसी भी अवस्था में शरीर के लिए,चाहे वह जीवित हो या मृत -शोक नहीं करता। "अगले अध्यायों से यह स्पष्ट हो जायेगा कि ज्ञान का अर्थ पदार्थ तथा आत्मा एवं इन दोनों के नियामक को जानना है। अर्जुन का तर्क था कि राजनीती या समाजनीति की अपेक्षा धर्म को अधिक महत्व मिलना चाहिए,किन्तु उसे यह ज्ञात न था कि पदार्थ,आत्मा तथा परमेश्वर का ज्ञान धार्मिक सूत्रों से भी अधिक महत्वपूर्ण है। और चूँकि उसमें इस ज्ञान का अभाव था,अतः उसे विद्वान नहीं बनना चाहिए था। और चूँकि वह अत्यधिक विद्वान नहीं था इसलिए वह शोक के सर्वथा अयोग्य वस्तु के लिए शोक कर रहा था। यह शरीर जन्मता है और आज या कल इसका विनाश निश्चित है,अतः शरीर उतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना कि आत्मा है। जो इस तथ्य को जनता है वही असली विद्वान है और इसके लिए शोक का कोई कारण नहीं हो सकता। 

क्रमशः !!!

गुरुवार, 11 फ़रवरी 2021

BHAGAVAD GITA 2:10

 तमुवाच हृषिकेशं प्रहसन्निव भारत। 

सेनयोरुभयोर्मध्ये विषीदन्तमिदंवचः।।१०।। 

तम -उससे; उवाच -कहा; हृषीकेशः-इन्द्रियों के स्वामी कृष्ण ने; प्रहसन - हँसते हुए; इव- मानो; भारत-हे भरतवंशी धृतराष्ट्र; सनयोः -सेनाओं के; उभयो -दोनों पक्षों की; मध्ये- बीच में; विषीदन्तम- शोकमग्न; इदम - यह (निम्नलिखित ) वचः -शब्द। 

हे भरतवंशी धृतराष्ट्र ! उस समय दोनों सेनाओं के मध्य शोकमग्न अर्जुन से कृष्ण ने मानो हँसते हुए ये शब्द कहे। 

अर्थात :- दो घनिष्ट मित्रों अर्थात हृषिकेश तथा गुडाकेश के मध्य वार्ता चल रही थी। मित्र के रूप में दोनों का पद समान था,किन्तु इनमे से एक स्वेच्छा से दूसरे का शिष्य बन गया था। सबों के स्वामी होने के कारण वे सदैव श्रेष्ठ  पद पर रहते हैं तो भी भगवान अपने भक्त के लिए सखा,पुत्र या प्रेमी बनना स्वीकार करते हैं। किन्तु जब उन्हें गुरु रूप में अंगीकार कर लिया गया तो उन्होंने तुरंत गुरु की भूमिका निभाने के लिए शिष्य से गुरु की भाँति गम्भीरतापूर्वक बातें कीं जैसा कि अपेक्षित है। ऐसा प्रतीत होता है कि गुरु तथा शिष्य की यह वार्ता दोनों सेनाओं की उपस्थिति में हुई,जिससे सारे लोग लाभान्वित हुए। अतः भगवदगीता का संवाद किसी एक व्यक्ति,समाज या जाति के लिए नहीं अपितु सबों के लिए है और उसे सुनने के लिए शत्रु या मित्र समान रूप से अधिकारी हैं। 

क्रमशः !!!

बुधवार, 10 फ़रवरी 2021

BHAGAVAD GITA 2:9

🙏🙏 सञ्जय: उवाच 🙏🙏

एवमुक्ता हृषीकेशं गुडाकेशः परन्तपः।  

न योत्स्य इति गोविन्दमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह।।९।।  

सञ्जयः उवाच-संजय ने कहा; एवम-इस प्रकार; उक्त्वा-कहकर; हृषीकेशं-कृष्ण से,जो इन्द्रयों के स्वामी हैं; गुडाकेशः -अर्जुन,जो अज्ञान मिटने वाला है; परन्तपः-अर्जुन,शत्रुओं का दमन  करने वाला;  योत्स्ये -नहीं लडूंगा; इति-इस प्रकार; गोविन्दम इन्द्रयों के आनन्ददायक कृष्ण से; उक्त्वा-कहकर; तूष्णीम-चुप; बभूव -हो गया; ह-निश्चय ही। 

संजय ने कहा -इस प्रकार कहने के बाद शत्रुओं का दमन करने वाला अर्जुन कृष्ण से बोला, "हे गोविन्द ! मैं युद्ध नहीं करूँगा,"और चुप हो गया। 

तात्पर्य :- धृतराष्ट्र को यह जानकर परम प्रसन्नता हुई होगी कि अर्जुन युद्ध न करके युद्ध भूमि छोड़कर भिक्षाटन करने जा रहा है। किन्तु संजय ने उसे पुनः यह कहकर निराश कर दिया कि अर्जुन अपने  शत्रुओं को मारने में सक्षम हैं (परन्तपः)।   यद्दपि कुछ समय के लिए अर्जुन अपने पारिवारिक स्नेह के प्रति मिथ्या शोक से अभिभूत था,किन्तु उसने शिष्य रूप में अपने गुरु श्री कृष्ण की शरण ग्रहण कर ली। इससे सूचित होता है कि शीघ्र ही  वह  शोक से निवृत  हो जायेगा और आत्म-साक्षात्कार या कृष्ण भावनामृत के पूर्ण ज्ञान प्रकाशित होकर पुनः युद्ध करेगा। इस तरह धृतराष्ट्र का हर्ष भंग हो जायेगा। 

क्रमशः 

मंगलवार, 9 फ़रवरी 2021

BHAGAVAD GITA 2:8

 न हि प्रपश्यामि मामानुद्दाद -

         यच्छोकमुच्छोषणमिन्द्रियाणाम। 

अवाप्य भूमावसपत्नमृद्धं 

         राज्यं सुराणामपि चाधिपत्यम।।८।। 

 ना.-नहीं; हि:-निश्चय ही; प्रपश्यामि:-देखता हूँ; मम:-मेरा; अपनुद्यात:-दूर कर सके; यत:-जो; शोकम:-शोक; उच्छोषणम:-सूखने वाला; इन्द्रियाणां:- इन्द्रयों का; अवाप्य:-प्राप्त करके; भूमौ:-पृथ्वी पर; असपत्नम:-शत्रु बिहीन; ऋद्धम:-समृद्ध; राज्यम:-राज्य; सुराणाम:- देवताओं का; अपि:-.चाहे; च.-भी; आधिपत्यम:-सर्वोच्चता। 

मुझे ऐसा कोई साधन नहीं दिखता जो मेरी इन्द्रयों को सूखने वाले इस शोक को दूर कर सके। स्वर्ग पर देवताओं के आधिपत्य की तरह इस धनधान्य संपन्न सारी  पृथ्वी पर निष्कंटक राज्य प्राप्त करके मैं भी इस शोक को दूर नहीं कर सकूंगा। 

तात्पर्य :- यद्दपि अर्जुन धर्म तथा सदाचार के नियमों पर आधारित अनेक तर्क प्रस्तुत करता है,किन्तु ऐसा प्रतीत होता है की वह अपने गुरु भगवान् श्रीकृष्ण की सहायता के बिना अपनी असली तपस्या को हल नहीं कर पा रहा। वह समझ गया था की उसका तथाकथित ज्ञान उसकी उन समस्याओं को दूर करने में व्यर्थ है जो उसके सारे अस्तित्व (शरीर )को सुखाये दे रही थीं। उसे इन उलझनों को भगवान् कृष्ण जैसे आधात्मिक गुरु की सहायता के बिना हल कर पाना असम्भव लग रहा था। शैक्षिक ज्ञान,विद्वता,उच्च पद-ये सब जीवन की समस्याओं को हल करने में व्यर्थ हैं। यदि कोई इसमें सहायता कर सकता है,तो वह एकमात्र गुरु। अतः निष्कर्ष यह निकला कि गुरु जो शत  प्रतिशत कृष्णभावनाभावित होता है,वही एकमात्र प्रमाणिक गुरु है और वही जीवन की समस्याओं को हल कर सकता है। भगवान चैतन्य ने कहा है कि जो कृष्णभावनामृत के विज्ञान में दक्ष हो,कृष्णतत्ववेता हो,चाहे वह जिस किसी जाती का हो,वही वास्तविक गुरु है -

किबा बिप्र, किबा न्यासी ,शूद्र केने नय। 

येई कृष्ण तत्ववेता ,सेई  गुरु हय।। 

"कोई व्यक्ति चाहे वह विप्र (वैदिक ज्ञान में दक्ष )हो,निम्न जाति मे जन्मा शूद्र हो या सन्यासी,यदि वह कृष्ण के विज्ञान में दक्ष (कृष्णतत्ववेता ) है तो वह यथार्थ प्रमाणिक गुरु है। "(चैतन्य चरिमामृत,मध्य ८.१२८ )अतः कृष्णतत्ववेता हुए बिना कोई भी प्रमाणिक गुरु नहीं हो सकता। वैदिक साहित्य में भी कहा गया है -

षट्कर्मणिपुणों विप्रो मन्त्रतन्त्रविशारदः।  

अवैष्णवो गुरुर्न स्याद वैष्णवः ऋवपचौ  गुरुः।। 

"विद्वान ब्राह्मण,भले ही वह सम्पूर्ण वैदिक ज्ञान में पारंगत क्यों न हो,यदि वह वैष्णव नहीं है या कृष्ण भावनामृत में दक्ष नहीं है तो गुरु बनाने का पात्र नहीं है। किन्तु शूद्र,यदि वह वैष्णव या कृष्ण भक्त है तो गुरु बन सकता है। "(पद्मपुराण )

संसार  की समस्याओं -जन्म,जरा,व्याधि तथा मृत्यु -की निवृति धन -संचय तथा आर्थिक विकास से सम्भव नहीं है। विश्व के विभिन्न भागों में ऐसे राज्य हैं जो जीवन की सारी  सुबिधाओं से तथा  सम्पत्ति एवं आर्थिक विकास से पूरित हैं,किन्तु फिर भी उनके सांसारिक जीवन की समस्याएं ज्यों की त्यों बनी हुई हैं। वे बिभिन्न साधनों से शांति खोजते हैं,किन्तु वास्तविक सुख उन्हें तभी मिल पाता है जब वे कृष्ण भावनामृत से युक्त कृष्ण के प्रामाणिक प्रतिनिधि के माध्यम से कृष्ण अथवा कृष्ण तत्वपूरक भगवद्गीता तथा श्रीमदभागवत के परामर्श को ग्रहण करते है। 

यदि आर्थिक विकास तथा भौतिक सुख किसी के पारिवारिक,सामाजिक,राष्ट्रीय या अन्तर्राष्ट्रीय अव्यवस्था से उत्पन्न शोकों को दूर कर पाते,तो अर्जुन यह न कहता कि पृथ्वी का अप्रतिम राज्य या स्वर्गलोक में देवताओं की सर्वोच्चता भी उसके शोकों को दूर नहीं कर सकती। इसलिए उसने कृष्ण भावनामृत का ही आश्रय ग्रहण किया और यही शांति और समरसता  का उचित मार्ग है। आर्थिक विकास या विश्व आधिपत्य प्राकृतिक प्रलय द्वारा किसी भी क्षण समाप्त हो सकता है। यहाँ तक कि चंद्रलोक जैसे उच्च लोकों की यात्रा भी,जिसके लिए मनुष्य प्रयत्नशील है,एक झटके में समाप्त हो सकती है,भगवद्गीता इसकी पुष्टि करती  है -क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति -जब पुण्यकर्मों के फल समाप्त हो जाते हैं तो मनुष्य सुख के शिखर से जीवन के निम्नतम स्तर पर गिर जाता है। इस तरह से विश्व के अनेक राजनीतिज्ञों का पतन हुआ है। ऐसा अधः पतन शोक का कारण बनता है। 

अतः यदि हम सदा के लिए शोक का निवारण चाहते हैं तो हमें कृष्ण शरण ग्रहण करनी होगी,जिस तरह अर्जुन ने की। अर्जुन ने कृष्ण से प्रार्थना की कि वे उसकी समस्या का निश्चित समाधान कर दें और यही कृष्ण भावनामृत की विधि है।

क्रमशः !!!