गुरुवार, 20 मई 2021

Bhagavad Gita 3:22

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न में पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किञ्चनः।  

नानमाप्तमवाप्तरव्यं वर्त एव च कर्माणि व च।।२२।।

न -नहीं; में -मुझे; पार्थ -हे पृथापुत्र; अस्ति - है; कर्त्व्यम -नियत कार्य; त्रिषु -तीनों; लोकेषु -लोकों में; किञ्चन -कोई; न -कुछ नहीं; अनवाप्तम -इच्छित; अवाप्तव्यम -पाने के लिए; वर्ते -लगा रहता हूँ; एव -निश्चय ही; च -भी; कर्मणि -नियत कर्मों में। 

हे पृथापुत्र !  तीनों लोकों में मेरे लिए कोई भी कर्म नियत नहीं है , न मुझे किसी वास्तु का अभाव है और न आवश्यकता ही है। तो भी मैं नियतकर्म करने में तत्पर रहता हूँ। 

तात्पर्य:- वैदिक साहित्य में भगवान् का वर्णन इस प्रकार हुआ है -

तमिश्राणां परमं महेस्वरं तं देवतानां परमं च दैवतंम। 

पतिं पतीनां परमं प्रस्ताद विदाम देवं भुवनेशमीड्यम।। 

न तस्य कार्यं कर्णम च विद्द्यते न तत्समश्रभ्यदिकश्च  दृश्यते। 

परास्य शक्तिर्विविधैव श्रूयते स्वाभाविकी ज्ञानबलक्रिया च।। 

"परमेस्वर समस्त नियंताओं के नियंता हैं और विभिन्न लोकपालकों  में सबसे महान हैं। सभी उनके अधीन हैं। सारे जीवों को परमेश्वर से ही विशिष्ट शक्ति प्राप्त होती है, जीव स्वयं श्रेष्ठ नहीं है। वे सभी देवताओं द्वारा पूज्य हैं और समस्त संचालकों के भी संचकलक हैं। अतः वे समस्त भौतिक नेताओं तथा नियंताओं से बढ़कर हैं और सबों द्वारा आराध्य हैं। उनसे बढ़कर कोई नहीं है औरवे  ही समस्त कारणों के कारण हैं। "

"उनका शारीरिक स्वरुप सामान्य जीव जैसा नहीं होता। उनके शरीर तथा आत्मा में कोई अन्तर नहीं है। वे परम हैं। उनकी सारी इन्द्रियां दिव्य हैं। उनकी कोई भी इन्द्रिय का अन्य किसी इन्द्रिय का कार्य संपन्न कर सकती है। अतः न तो कोई उनसे बढ़कर है,न ही उनके तुल्य है। उनकी शक्तियां बहुरूपिणी हैं, फलतः  उनके सारे कार्य प्राकृतिक अनुक्रम के अनुसार संपन्न हो जाते हैं। "(श्वेताश्वतर उपनिषद ६.७ -८ ) -

चूँकि भगवान् में प्रत्येक वस्तु ऐश्वर्य से परिपूर्ण रहती है और पूर्ण सत्य से ओतप्रोत रहती है,अतः उनके लिए कोई कर्तव्य करने की आवश्यकता नहीं रहती। जिसे अपने कर्म का फल पाना है,उसके लिए कुछ न कुछ कर्म नियत रहता है,परन्तु जो तीनो लोकों में कुछ भी प्राप्त करने की इच्छा नहीं रखता,उसके लिए निश्चय ही कोई कर्तव्य नहीं रहता फिर भी क्षत्रियों के नायक के रूप में भगवान् कृष्ण कुरुक्षेत्र की युद्ध भूमि में कार्यरत हैं,क्योंकि क्षत्रियों का धर्म है कि दीन -दुखियों को आश्रय प्रदान करें। यद्द्पि वे शास्त्रों के विधिविधानों से सर्वथा ऊपर हैं,फिर भी वे ऐसा कुछ भी नहीं करते जो शास्त्रों के विरुद्ध हो। 

क्रमशः !!! 🙏🙏     

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