शनिवार, 15 मई 2021

BHAGAVAD GITA 3:19

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 तस्मादसक्तः सततं कार्य कर्म समाचार। 

असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पुरुषः।।१९।।

तस्मात् -अतः, असक्तः -आसक्तिरहित; सततम -निरंतर; कार्यम -कर्तव्य के रूप में; कर्म -कार्य; समाचार -करो; असक्त -अनासक्त; हि -निश्चय ही; आचरन -करते हुए; कर्म -कार्य; परम -परब्रह्म को; आप्नोती -प्राप्त करता है; पुरुषः -पुरुष,मनुष्य। 

अतः कर्मफल में आसक्त हुए बिना मनुष्य को अपना कर्तव्य समझ कर निरन्तर कर्म करते रहना चाहिए क्योंकि अनासक्त होकर कर्म करने से उसे परब्रह्म ( परम ) की प्राप्ति होती है। 

तात्पर्य :- भक्तों के लिए श्रीभगवान परम हैं और निर्विशेषवादियों के लिए मुक्ति परम है। अतः जो व्यक्ति समुचित पथ प्रदर्शन पाकर और कर्मफल से अनासक्त होकर कृष्ण के लिए कृष्णभावनामृत में कार्य करता है,वह निश्चित रूप से जीवन -लक्ष्य की ओर प्रगति करता है। अर्जुन से कहा जा रहा है कि वह कृष्ण के लिए कुरुक्षेत्र के युद्ध में लड़े क्योंकि कृष्ण की इच्छा है कि वह ऐसा करे। उत्तम व्यक्ति होना या अहिंसक होना व्यक्तिगत आसक्ति है, किन्तु फल की आसक्ति से रहित होकर कार्य करना परमात्मा के लिए कार्य करना है। यह उच्चतम कोटि का पूर्ण कर्म है,जिसकी  संस्तुति भगवान् ने की है। 

नियत यज्ञ, जैसे वैदिक अनुष्ठान, उन पापकर्मो की शुद्धि के लिए जाते हैं, जो इन्द्रियतृप्ति के उद्देश्य से किये गए हों। किन्तु कृष्णभावनामृत में जो कर्म किया जाता है  वह अच्छे या बुरे कर्मों के फलों से परे है। कृष्णभावनाभावित व्यक्ति में फल के प्रति लेशमात्र आसक्ति नहीं रहती, वह तो केवल कृष्ण के लिए कार्य करता है। वह समस्त प्रकार के कर्मों में रत रहकर भी पूर्णतया अनासक्त रहा आता है। 

क्रमशः !!!🙏🙏     

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