मंगलवार, 11 मई 2021

BHAGAVAD GITA 3:17

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यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तप्तश्च मानवः। 

आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्य न विद्द्ते।।१७।।

यः -जो; तु -लेकिन; आत्म -रति-आत्मा में ही आनंद लेते हुए; एव -निश्चय ही; स्यात -रहता है; आत्म-तृप्तः -स्वयं प्रकाशित; च -तथा; मानवः- मनुष्य; आत्मनि-अपने में; एव -केवल; च -तथा; संतुष्टः -पूर्णतया संतुष्ट ; तस्य -उसका; कार्यम-कर्तव्य; न -नहीं; विद्द्ते -रहता है। 

किन्तु जो व्यक्ति आत्मा में ही आनन्द लेता है तथा जिसका जीवन आत्म-साक्षात्कार युक्त है और जो अपने में ही पूर्णतया संतुष्ट रहता है उसके लिए कुछ करणीय (कर्तव्य ) नहीं होता। 

तात्पर्य :-जो व्यक्ति पूर्णतया कृष्णभावनाभावित है और अपने कृष्णभावनामृत के कार्यों से पूर्णतया संतुष्ट रहता है उसे कुछ भी नियत कर्म नहीं करना होता। कृष्णभावनाभावित होने के कारण उसके ह्रदय का सारा मैल तुरंत धूल जाता है,जो हजारों -हजारों यज्ञों को संपन्न करने पर ही सम्भव हो पाता है।इस प्रकार चेतना के शुद्ध होने से मनुष्य परमेश्वर के साथ अपने सम्बन्ध के प्रति पूर्णतया आश्वस्थ हो जाता है। भगवद्कृपा से उसका कार्य स्वयं प्रकाशित हो जाता है ;अतएव वैदिक आदेशों के प्रति उसका कर्तव्य निःशेष हो जाता है। ऐसा कृष्णभावनाभावित व्यक्ति कभी भी भौतिक कार्यों में रूचि नहीं लेता और न ही उसे सुरा,सुन्दरी तथा अन्य प्रलोभनों में कोई आनंद मिलता है। 

क्रमशः !!!🙏🙏  

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