शनिवार, 20 मार्च 2021

BHAGAVAD GITA 2:48

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योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय। 

सिद्धयसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्चते।।४८।।

योगस्थः -समभाव होकर; कुरु -करो; सङ्गम -आसक्ति को; त्यक्त्वा -त्यागकर; धनञ्जय -हे अर्जुन; सिद्धि-असिद्धयो -सफलता तथा विफलता में; समः -समभाव;भूत्वा -होकर; समत्वम -समता; योगः -योग; उच्चते -कहा जाता है.

हे अर्जुन ! जय अथवा पराजय की समस्त आसक्ति त्याग कर समभाव से अपना कर्म करो। ऐसी समता योग कहलाती है। 

तात्पर्य :- कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि वह योग में स्थित होकर कर्म करे और योग है क्या ? योग का अर्थ है सदैव चंचल रहने वाली इन्द्रियों को वश में रखते हुए परमतत्व में मन को एकाग्र करना। और परमतत्व कौन है ? भगवान् ही परमतत्व है और चूँकि वे स्वयं अर्जुन को युद्ध करने के लिए कह रहे हैं,अतः अर्जुन को युद्ध के फल से कोई सरोकार नहीं है। जय या पराजय कृष्ण के लिए विचारणीय है,अर्जुन को तो बस श्रीकृष्ण के निर्देशानुसार कर्म करना है। कृष्ण के निर्देश का पालन ही वास्तविक योग है और इसका अभ्यास कृष्णभावनामृत नामक विधि द्वारा किया जाता है। एकमात्र कृष्णभावनामृत के माध्यम से ही स्वामित्व भाव का परित्याग किया जा सकता है। इसके लिए उसे कृष्ण का दास या उनके दासों का दास बनना होता है। कृष्णभावनामृत में कर्म करने की यही एक विधि है जिससे योग में स्थित होकर कर्म किया जा सकता है। 

अर्जुन क्षत्रिय है,अतः वह वर्णाश्रम -धर्म का अनुयायी है। विष्णु - पुराण में कहा गया है कि वर्णाश्रम -धर्म का एकमात्र उद्देश्य विष्णु को प्रसन्न करना है। सांसारिक नियम है कि लोग पहले अपनी तुष्टि करते हैं, किन्तु यहाँ तो अपने को तुष्ट न करके कृष्ण को तुष्ट करना है। अतः कृष्ण को तुष्ट किये बिना कोई वर्णाश्रम -धर्म का पालन कर भी नहीं सकता। यहाँ पर परोक्ष रूप से अर्जुन को कृष्ण द्वारा बताई गयी विधि के अनुसार कर्म करने का आदेश है। 

क्रमशः !!!  🙏🙏  


शुक्रवार, 19 मार्च 2021

BHAGAVAD GITA2:47

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कर्मण्यवादिकारस्ते माँ फलेषु कदाचन। 

मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते सङ्गोस्त्वकर्मणि।।४७।।  

कर्मणि -कर्म करने में; एव -निश्चय ही; अधिकारः -अधिकार; ते -तुम्हारा; मा -कभी नहीं; फलेषु -(कर्म )फलों में; कदाचन -कदापि;मा -कभी नहीं; कर्म फल -कर्मों का फल; हेतुः -कारण;भूः -होओ; मा -कभी नहीं; ते -तुम्हारी; सङ्ग -आसक्ति;अस्तु -हो; अकर्मणि -कर्म न करने में। 

तुम्हें अपना कर्म (कर्तव्य )करने का अधिकार है,किन्तु कर्म के फलों के तुम अधिकारी नहीं हो। तुम न तो कभी अपने आप को अपने कर्मों के फलों का कारण मानों,न ही कर्म न करने में कभी आसक्त होओ। 

तात्पर्य :-यहाँ पर तीन विचारणीय बातें हैं -कर्म (स्वधर्म ),विकर्म तथा अकर्म। कर्म ( स्वधर्म )वे कार्य हैं,जिनका आदेश प्रकृति के गुणों के रूप में प्राप्त किया जाता है। अधिकारी की सम्मति के बिना किये गये कर्म विकर्म कहलाते हैं और अकर्म का अर्थ है -अपने कर्मों को न करना। भगवान् ने अर्जुन को उपदेश दिया कि वह निष्क्रिय न हो,अपितु फल के प्रति आसक्त हुए बिना अपना कर्म करे। कर्म फल के प्रति आसक्त रहने वाला भी कर्म का कारण है। इस तरह वह ऐसे कर्मफलों का भोक्ता होता है। 

जहाँ तक निर्धारित कर्मों का सम्बन्ध है वे तीन उपश्रेणियों के हो सकते है यथा नित्य कर्म,आपातकालीन कर्म,इच्छित कर्म। नित्यकर्म फल की इच्छा बिना शास्त्रों के निर्देशानुसार सतोगुण में रहकर किये जाते हैं। फल युक्त कर्म बन्धन के कारण बनते हैं,अतः ऐसे कर्म अशुभ हैं। हर व्यक्ति को अपने कर्म पर अधिकार है,उसे फल से अनासक्त होकर  कर्म करना चाहिए। ऐसे निष्काम कर्म निस्संदेह मुक्ति पथ की और ले जाने वाले हैं। 

अतएव  भगवान् ने अर्जुन को फलशक्ति रहित होकर कर्म (स्वधर्म)के रूप में युद्ध करने की आज्ञा दी। उसका युद्ध बिमुख होना आसक्ति का दूसरा पहलू  है।  ऐसी आसक्ति से कभी मुक्ति पथ की प्राप्ति नहीं हो पाती। आसक्ति चाहे स्वीकारात्मक हो या निषेधात्मक,वह बन्धन का कारण है। अकर्म पापमय है। अतः कर्तव्य के रूप में युद्ध करना ही अर्जुन के लिए मुक्ति का एकमात्र कल्याणकारी मार्ग था। 

क्रमशः !!!🙏🙏

गुरुवार, 18 मार्च 2021

BHAGAVAD GITA 2:46

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यावनर्थ उदपाने सर्वतः सम्प्लुतोदके। 

तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः।।४६।।  

यावान -जितना सारा; अर्थः -प्रयोजन होता है; उड़ -पाने -जलकूप में; सर्वतः -सभी प्रकार से; सम्प्लुत -उदके -विशाल जलाशय में; तावान -उसी तरह; सर्वेषु -समस्त; वेदेषु -वेदों में;ब्राह्मणस्य -परब्रह्म को जानने वाले का;विजानतः -पूर्ण ज्ञानी का।

एक छोटे से कूप का सारा कार्य एक विशाल जलाशय से तुरंत पूरा हो जाता है। इसी प्रकार वेदों के आंतरिक तात्पर्य जानने वाले को उनके सारे प्रयोजन सिद्ध हो जाते हैं। 

तात्पर्य :-वेदों के कर्मकांड विभाग में वर्णित अनुष्ठानों एवं यज्ञों का ध्येय आत्म - साक्षात्कार के क्रमिक विकास को प्रोत्साहित करना है। और आत्म -साक्षात्कार का ध्येय भगवदगीता के पन्द्रहवें अध्याय में (१५.१५ )इस प्रकार स्पष्ट किया गया है -वेद अध्ययन का ध्येय जगत के आदि कारण भगवान् कृष्ण को जानना है।अतः आत्म -साक्षात्कार का अर्थ है -कृष्ण को तथा उनके साथ शाश्वत सम्बन्ध को समझना। कृष्ण के साथ जीवों के सम्बन्ध का भी उल्लेख भगवदगीता  के पन्द्रहवें अध्याय में (१५.७ )ही हुआ है। जीवात्माएं भगवान् के अंश स्वरुप हैं, अतः प्रत्येक जीव द्वारा कृष्णभावनामृत को जागृत करना वैदिक ज्ञान की सर्वोच्च पूर्णावस्था है। श्रीमदभागवत में (३.३३.७ )इसकी पुष्टि इस प्रकार हुई है -

अहो बात श्र्वपचोतो गरीयान यज्जिह्वाग्रे वर्तते नाम तुभ्यम। 

तेपुस्तपस्ते जुहुवः सस्त्रुरार्या ब्रह्मानुचुर्नाम गृणन्ति ये ते।। 

"हे प्रभो ,आपके पवित्र नाम का जाप करने वाला भले ही चांडाल जैसे निम्न परिवार में क्यों न उत्पन्न हुआ हो,किन्तु वह आत्म -साक्षात्कार के सर्वोच्च पद पर स्थित होता है। ऐसा व्यक्ति अवश्य ही वैदिक अनुष्ठानों के अनुसार सारी तपस्याएं संपन्न किये होता है और अनेकानेक बार तीर्थस्थानों में स्नान करके वेदों का अध्ययन किये होता है। ऐसा व्यक्ति आर्यकुल में सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। "

अतः मनुष्य  को इतना बुद्धिमान तो होना ही चाहिए कि केवल अनुष्ठानों के प्रति आसक्त न रह कर वेदों के उद्देश्य को समझें  और अधिकाधिक इन्द्रियतृप्ति के लिए ही स्वर्गलोक जाने की कामना न करे। इस युग में सामान्य व्यक्ति के लिए न तो वैदिक अनुष्ठानों के समस्त विधि -विधानों का पालन करना सम्भव है और न सारे वेदांत तथा उपनिषदों का सर्वांग अध्ययन कर पाना सहज है। वेदों के उद्देश्य को संपन्न करने के लिए प्रचुर समय,शक्ति ,ज्ञान तथा साधन की आवश्यकता होती है। इस युग में ऐसा कर पाना संभव नहीं है, किन्तु वैदिक संस्कृति का परम लक्ष्य भगवन्नाम कीर्तन द्वारा प्राप्त हो जाता है जिसकी संस्तुति पतितात्माओं  के उद्धारक भगवान् चैतन्य द्वारा हुई है। जब चैतन्य से महान वैदिक पंडित प्रकाशानंद सरस्वती ने पूछा कि आप वेदांत दर्शन का अध्ययन न करके एक भावुक की भांति पवित्र नाम का कीर्तन क्यों करते हैं तो उन्होंने उत्तर दिया कि मेरे गुरु ने मुझे बड़ा मूर्ख  समझकर भगवान् कृष्ण के नाम का कीर्तन करने की आज्ञा दी। अतः उन्होंने ऐसा ही किया और वे पागल की भांति भावोन्मत हो गये। इस कलियुग में अधिकांश जनता मूर्ख है और वेदांत दर्शन समझ पाने के लिए पर्याप्त शिक्षित नहीं है न.वेदांत दर्शन के परम उद्देश्य की पूर्ति भगवान के  पवित्र नाम का कीर्तन करने से हो जाती है। वेदांत वैदिक ज्ञान की पराकाष्ठा है और वेदांत दर्शन के प्रणेता तथा ज्ञाता भगवान् कृष्ण हैं। सबसे बड़ा वेदांती तो वह महात्मा है, जो भगवान् के पवित्र नाम का जप करने में आनन्द लेता है। सम्पूर्ण वैदिक  रहस्यवाद का यही चरम  उद्देश्य है। 🙏🙏

क्रमशः !!!   


बुधवार, 17 मार्च 2021

BHAGAVAD GITA 2:45

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त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन। 

निर्द्वन्दों नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान।।४५।।

  त्रै -गुण्य -प्राकृतिक तीनो गुणों से सम्बन्धित; विषयाः -विषयों में; वेदाः- वैदिक साहित्य; निस्त्रै-गुण्यः -प्रकृति के तीनो गुणों से परे ; भव -होओ; अर्जुन-हे अर्जुन;निर्द्वन्द -द्वैतभाव से मुक्त; नित्य-सत्त्व-स्थः -नित्य शुद्धसत्व में स्थित ; निर्योग -क्षेमः -लाभ तथा रक्षा के भाव से युक्त ; आत्म-वान -आत्मा में स्थित।

वेदों में मुख्यतया  तीनों  का वर्णन वर्णन हुआ है।  हे अर्जुन ! इन तीनों गुणों से ऊपर उठो।  समस्त द्वैतों और लाभ तथा सुरक्षा  सारी चिंताओं से मुक्त होकर आत्मपरायण बनों। 

तात्पर्य :-सारे भौतिक कार्यों में प्रकृति के तीनों गुणों की क्रियायें तथा प्रतिकिर्याएँ निहित होती हैं। इनका उद्देश्य -कर्म फल होता है, जो भौतिक जगत में बन्धन का कारण है। वेदों में मुख्यतया सकाम कर्मों का वर्णन है जिससे सामान्य जन क्रमशः इन्द्रियतृप्ति के क्षेत्र  से उठकर आध्यात्मिक धरातल तक पहुँच सकें। कृष्ण अपने शिष्य तथा मित्र के रूप में अर्जुन को  सलाह देते हैं कि  वह वेदांत दर्शन के आध्यात्मिक पद तक ऊपर उठें जिसका प्रारम्भ ब्रह्म -जिज्ञासा अथवा परम आध्यात्मिकता पर प्रश्नों से होता है। इस भौतिक जगत के सारे प्राणी अपने अस्तित्व के लिए कठिन संघर्ष करते रहते हैं।  उनके लिए भगवान् ने इस भौतिक जगत की सृष्टि करने के पश्चात वैदिक ज्ञान प्रदान किया जो जीवन यापन तथा भवबन्धन से छूटने का उपदेश देता है। जब इन्द्रियतृप्ति के कार्य तथा कर्मकांड समाप्त हो जाते हैं तो उपनिषदों के रूप में भगवत साक्षात्कार का अवसर प्रदान किया जाता है। ये उपनिषद विभिन्न वेदों के अंश हैं उसी प्रकार जैसे भगवदगीता पंचम वेद महाभारत का एक अंग है। उपनिषदों से आध्यात्मिक जीवन का सुभारम्भ होता है। 

जब तक भौतिक शरीर का अस्तित्व है तब तक भौतिक गुणों की क्रियायेँ  -प्रतिक्रियाएं होती रहती हैं। मनुष्य को चाहिए कि सुख दुःख या शीत -ग्रीष्म जैसी द्वैतताओं को सहन करना सीखे और इस प्रकार हानि तथा लाभ की चिंता से मुक्त हो जाय। जब मनुष्य कृष्ण की इच्छा पर पूर्णतया आश्रित रहता है तो यह दिव्य अवस्था प्राप्त होती है। 

क्रमश !!!                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                

मंगलवार, 16 मार्च 2021

BHAGAVAD GITA 2:44

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भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम। 

व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते।।४४।।

भोग -भौतिक भोग; ऐश्वर्य -तथा ऐश्वर्य के प्रति; प्रसक्तानां-अशक्तों के लिए; तया -ऐसी वस्तुओं से;  अपहृत -चेतसाम-मोहग्रसित चित्त वाले;व्यवसाय -अत्मिका -दृढ निश्चय वाली; बुद्धिः-भगवान की भक्ति; समाधौ-नियंत्रित मन में; न -कभी नहीं; विधीयते-घटित होती है। 

      जो लोग इन्द्रियभोग तथा भौतिक ऐश्वर्य के प्रति अत्यधिक आसक्त होने से ऐसी वस्तुओं से मोहग्रस्त हो जाते हैं,उनके मनों में भगवान् के प्रति दृढ़ निश्चय नहीं होता। 

तात्पर्य :-समाधि का अर्थ है "स्थिर मन "वैदिक शब्दकोश निरूक्ति के अनुसार -सम्यग आधियति स्मिन्नात्मतयाथात्म्यम -जब मन आत्मा को समझने में स्थिर रहता है तो उसे समाधि । जो लोग इन्द्रियभोग में रुचि रखते हैं अथवा जो ऐसी क्षणिक वस्तुओं से मोहग्रस्त हैं उनके लिए समाधि कभी भी सम्भव नहीं है। माया के चक्कर में पड़कर वे न्यूनाधिक पतन को प्राप्त होते हैं। 

क्रमशः !!! 🙏🙏
















 

सोमवार, 15 मार्च 2021

BHAGAVAD GITA 2:42 & 2:43

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यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चितः। 

               वेदवादरताः पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः।।४२।।

कामात्मानः स्वर्गपरा जन्मकर्मफ़लपर्दाम। 

                क्रियाविशेषबहुलां भोगैश्वर्यगतिं प्रति।।४३।।

यामिमां -ये सब; पुष्पितां -दिखावटी; वाचम -शब्द; प्रवदन्ति-कहते हैं; अविपश्चितः-अल्पज्ञ व्यक्ति;वेद -वाद-रताः-वेदों के अनुयायी; पार्थ -हे पार्थ; न-कभी नहीं; अन्यतः - अन्य कुछ; अस्ति है; इति -इस प्रकार; वादिनः -बोलने वाले;काम -आत्मनः -इन्द्रितृप्ति के इच्छुक;स्वर्ग-परा -स्वर्गप्राप्ति के इच्छुक; जन्म -कर्म-फल-पर्दाम -उत्तम जन्म तथा अन्य सकाम कर्म फल प्रदान करने वाला; क्रिया-विशेष -भड़कीले उत्सव; बहुलाम-विविध; भोग -इन्द्रियतृप्ति; ऐश्वर्य  -तथा ऐश्वर्य; गतिम् -प्रगति; प्रति -की ओर। 

अल्पज्ञानी मनुष्य वेदों के उन अलंकारिक शब्दों के प्रति अत्यधिक आसक्त रहते हैं,जो स्वर्ग की प्राप्ति,अच्छे जन्म,शक्ति इत्यादि के लिए विविध सकाम कर्म करने की संस्तुति करते हैं। इन्द्रियतृप्ति तथा ऐश्वर्यमय जीवन की अभिलाषा के कारण वे कहते हैं कि इससे बढ़कर और कुछ नहीं है। 

तात्पर्य :- साधारणतः सब लोग अत्यंत बुद्धिमान नहीं होते और वे अज्ञान के कारण वेदों के कर्मकाण्ड भाग में बताये गए सकाम कर्मों के प्रति अत्यधिक आसक्त रहते हैं। वे स्वर्ग में जीवन का आनंद उठाने के लिए इन्द्रियतृप्ति कराने वाले प्रस्तावों से अधिक और कुछ नहीं चाहते,जहाँ मदिरा तथा तरुणियाँ उपलब्ध हैं और भौतिक ऐश्वर्य सर्व सामान्य है। वेदों में स्वर्ग लोक पहुँचने के लिए अनेक यज्ञों की संस्तुति है.जिनमे ज्योतिष्टोम यज्ञ प्रमुख है। वास्तव में वेदों में कहा गया है कि जो स्वर्ग जाना चाहता है उसे ये यज्ञ संपन्न करने चाहिए और अल्पज्ञानी पुरुष सोचते हैं  कि वैदिक ज्ञान का सारा अभिप्राय इतना ही है। जिस प्रकार मुर्ख लोग विषैले वृक्षों के फूलों के प्रति बिना यह जाने कि इस आकर्षण का फल क्या होगा,आसक्त रहते हैं उसी प्रकार अज्ञानी व्यक्ति स्वर्गिक ऐश्वर्य तथा तज्जनित इन्द्रियभोग के प्रति आकृष्ट रहते हैं। 

वेदों के कर्मकाण्ड भाग में कहा गया है -अपाम सोममृता अभूम तथा अक्षय्यं ह वै चातुर्मासस्ययाजिनः सुकृतं भवति। दूसरे शब्दों में,जो लोग चातुर्मास तप करते हैं वे अमर तथा सदा सुखी रहने के लिए सोम -रस पीने के अधिकारी हो जाते हैं। यहाँ तक कि इस पृथ्वी में भी कुछ लोग सोम -रस पीने के लिए अत्यंत इच्छुक रहते हैं जिससे वे बलवान बने और इन्द्रियतृप्ति का सुख पाने में समर्थ हों। ऐसे लोगों को भवबंधन से मुक्ति में कोई श्रद्धा नहीं होती और वे वैदिक यज्ञों की तड़क-भड़क में विशेष आसक्त रहते हैं। वे सामान्यतया विषयी होते हैं और जीवन में आनन्द के अतिरिक्त और कुछ नहीं चाहते। कहा जाता है कि स्वर्ग में नन्दन-कानन नामक अनेक उद्यान हैं,जिनमे दैवी सुंदरी स्त्रियों का संग तथा प्रचुर मात्रा में सोम -रस उपलब्ध रहता है। ऐसा शारीरिक सुख निस्सन्देह विषयी है,अतः ये वे लोग हैं,जो भौतिक जगत के स्वामी बनकर ऐसे भौतिक अस्थायी सुख के प्रति आसक्त हैं।

क्रमशः-!!! 🙏🙏            

BHAGAVAD GITA 2:41

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व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन। 

बहुशाखा ह्यनन्ता बुद्ध्योव्यवसायिनाम 

व्यवसाय -आत्मिका-कृष्णभावनामृत में स्थित; बुद्धि -बुद्धि; एक एकमात्र; इह -इस संसार में; कुरुनन्दन -हे कुरुओं के प्रिय पुत्र; बहु -शाखा -अनेक शाखाओं में विभक्त; हि -निस्संदेह;अनन्ता-असीम;च -भी;बुद्धय-बुद्धि; अव्यवसायिनाम-जो कृष्णभावनामृत में नहीं हैं उनकी। 

जो इस मार्ग पर चलते हैं वे प्र्योजन में दृढ़ रहते हैं और उनका लक्ष भी एक होता है। हे कुरुनन्दन ! जो दृढ़ प्रतिज्ञ नहीं हैं उनकी बुद्धि अनेक शाखाओं में विभक्त रहती है। 

तात्पर्य :-यह दृढ़ श्रद्धा कि कृष्णभावनामृत द्वारा मनुष्य जीवन को सर्वोच्च सिद्धि प्राप्त कर सकेगा,व्यवसायात्मिक्ता बुद्धि कहलाती है। चैतन्य -चरितामृत में (मध्य २२.६२ )कहा गया है

श्रद्धा -शब्दे -विश्वास कहे सुदृढ़ निश्चय। 

कृष्णे भक्ति कैले सर्वकर्म कृत है।।  

श्रद्धा का अर्थ है किसी अलौकिक वस्तु में अटूट विश्वास। जब कोई कृष्णभावनामृत के कार्यों में लगा होता है तो उसे परिवार,मानवता या राष्ट्रीयता से बँधकर  कार्य करने की  आवश्यकता नहीं होती। पूर्व में किये गये शुभ -अशुभ कर्मों के फल ही उसे सकाम कर्मों में लगाते हैं जब कोई कृष्णभावनामृत में संलग्न हो तो उसे अपने कार्यों के शुभ फल के लिए प्रयत्नशील नहीं रहना चाहिए। जब कोई कृष्णभावनामृत में लीन होता है तो उसके सारे कार्य आध्यात्मिक धरातल पर होते हैं क्योंकि उनमे अच्छे तथा बुरे को द्वैत नहीं रह जाता। कृष्णभावनामृत की सर्वोच्च सिद्धि देहात्मबुद्धि का त्याग है। कृष्णभावनामृत की प्रगति के साथ क्रमशः यह अवस्था स्वतः प्राप्त हो जाती है। 

कृष्णभावनाभावित व्यक्ति का दृढ़ निश्चय ज्ञान पर आधारित है। वासुदेवः सर्वम इति स महात्मा सुदुर्लभः-कृष्णभावनाभावित व्यक्ति अत्यंत दुर्लभ जीव है जो भलीभांति जानता है कि वासुदेव या कृष्ण समस्त प्रकट कारणों के मूल कारण हैं। जिस प्रकार वृक्ष की जड़ सींचने पर स्वतः ही पत्तियों तथा टहनियों में जल पहुंच जाता है उसी तरह कृष्णाभावनाभावित होने पर मनुष्य प्रत्येक प्राणी की अर्थात अपनी,परिवार की,समाज की,मानवता की सर्वोच्च सेवा कर सकता है। यदि मनुष्य के कर्मों से कृष्ण प्रसन्न हो जाएँ तो प्रत्येक व्यक्ति संतुष्ट होगा।

किन्तु कृष्णभावनामृत में सेवा गुरु के समर्थ निर्देशन में ही ठीक से हो पाती है क्योंकि गुरु कृष्ण का प्रामाणिक प्रतिनिधि होता है जो शिष्य के स्वभाव से परिचित होता है और उसे कृष्णभावनामृत की दिशा में कार्य करने के लिए मार्ग दिखा सकता है। अतः कृष्णभावनामृत में दक्ष होने के लिए मनुष्य को दृढ़ता से कर्म करना होगा और कृष्ण के प्रतिनिधि की आज्ञा का पालन करना होगा। उसे गुरु के उपदेशों को जीवन का लक्ष्य मान लेना होगा। श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर ने गुरु की प्रसिद्ध प्रार्थना में उपदेश दिया है -

यस्य प्रसादाद भगवत्प्रसादो यस्याप्रसादनन्न  गतिः कुतोपि। 

ध्यायांस्तुवंसत्स्य यशस्त्रिसन्ध्यं वनडे गुरोः श्रीचरणारविन्दम।।

"गुरु की तुष्टि से भगवान् भी प्रसन्न होते हैं। गुरु को प्रसन्न किये बिना कृष्णभावनामृत के स्तर तक पँहुच पाने की कोई संभावना नहीं रहती। अतः मुझे उनका चिंतन करना चाहिए और दिन में तीन बार उनकी कृपा की याचना करनी चाहिए और अपने गुरु को सादर नमस्कार करना चाहिए। "

किन्तु यह सम्पूर्ण पद्धति देहात्मबुद्धि से परे सैद्धांतिक रूप से नहीं वरन व्यवहारिक रूप से पूर्ण आत्मज्ञान पर निर्भर करती है,जब सकाम कर्मों से इन्द्रियतृप्ति की कोई सम्भावना नहीं रहती। जिसका मन दृढ़ नहीं वही विभिन्न सकाम कर्मों की ओर आकर्षित होता है।

क्रमशः !!!🙏🙏