रविवार, 24 जनवरी 2021

BHAGVAD GITA 1:37

 यद्द्प्येते न पश्यन्ति लोभोपहचेतसः।

कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोही च पातकम।।३७।।

कथं न ज्ञेयमस्माभिः पापादस्मान्निवर्तितुं। 

कुलक्षयकृत दोषं प्रपश्यद्भिर्जनार्दन।।३८।। 

यदि :-यदि; अपि:-भी; एते:-ये; न:-नहीं; पश्यन्ति:-देखते हैं; लोभ :-लोभ से; अपहत :-अभिभूत; चेतसः :-चित वाले; कुल-क्षय:-कुल -नाश; कृतम:-किया हुआ; दोषम :-दोष को; मित्र द्रोहे:-मित्रों से विरोध करने में; च :-भी; पातकम:-पाप को;कथम:- क्यों; न:-नहीं; ज्ञेयम:-जानना चाहिए; अस्माभिः :- हमारे द्वारा; पापत :- पापों से; अस्मात:- इन; निवर्तितुम:-बंद करने के लिए; कुल-क्षय:-वंश का नाश; कृतम:-हो जाने पर; दोषम:- अपराध; प्रपश्यद्भि :-देखने वालों के द्वारा; जनार्दन :- हे कृष्ण !

हे जनार्दन ! यद्द्पि लोभ से अभिभूत चित्त वाले लोग अपने परिवार को मारने या अपने मित्रों से द्रोह करने में कोई दोष नहीं देखते,किन्तु हम लोग,जो परिवार के विनष्ट करने में अपराध देख सकते हैं,ऐसे पापकर्मो में क्यों प्रवृत्त हों ?

अर्थात:- क्षत्रिय से यह आशा नहीं की जाती कि वह अपने विपक्षी दल द्वारा युद्ध करने या जुआ खेलने का आमंत्रण दिए जाने पर मना  करे। ऐसी अनिवार्यता में अर्जुन लड़ने से नकार नहीं सकता क्योंकि उसको दुर्योधन के दल ने ललकारा था। इस प्रसंग में अर्जुन ने विचार किया कि हो सकता है कि दूसरा पक्ष इस ललकार के परिणामो के प्रति अनभिज्ञ हों। किन्तु अर्जुन को दुष्परिणाम दिखाई पड़ रहे थे अतः वह इस ललकार को स्वीकार नहीं कर सकता। यदि परिणाम अच्छा हो तो कर्तव्य वस्तुतः पालनीय है, किन्तु यदि परिणाम विपरीत हो तो हम उसके लिए बाध्य नहीं होते। इन पक्ष- विपक्षों पर विचार करके अर्जुन ने युद्ध न करने का निश्चय किया। 

क्रमशः !!!

  


शनिवार, 23 जनवरी 2021

BHAGVAD GITA 1:36

 पापमेवाश्रयेदस्मान्हत्वैतानाततायिनः। 

तस्मान्नाहा वयम हन्तु धार्तराष्ट्रान्सबान्धवान। 

स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव।।३६।।  

पापम :-पाप;  एव:-निस्चय ही; आश्रयेत:-लगेगा; आस्मान:हमको; हत्वा:-मारकर; एतान:-इन सब;आततायिनः-आततायियों को; तस्मात्:-अतः; न:-कभी नहीं; अर्हा:-योग्य; वयम  :-हम; हन्तुम:-मारने लिए; धार्तराष्ट्रान:-धृतरास्ट्र के पुत्रों को; सबान्धवान:-उनके मित्रों सहित; स्वजनम:-कुटुम्बियों को; हि :-निश्चय ही; कथम:- कैसे; हत्वा:-मारकर; सुखिनः-सुखी; स्याम:-हम होंगे; माधवः -हे लक्ष्मीपति कृष्ण। 

यदि हम ऐसे आततायियों का वध करते हैं तो हम पर पाप चढ़ेगा, अतःयह उचित नहीं होगा कि हम धृतरास्ट्र के पुत्रों तथा उनके मित्रों का वध करें। हे लक्ष्मीपति कृष्ण ! इससे हमें क्या लाभ होगा ? और अपने ही कुटम्बियों को मार कर हम किस प्रकार सुखी हो सकते हैं ?

अर्थात :-वैदिक आदेशानुसार आततायी छः प्रकार के होते हैं -१. विष देने वाला, २. घर में अग्नि लगाने वाला, ३. घातक हथियार से आक्रमण करने वाला, ४. धन लूटने वाला, ५. दूसरे की भूमि हड़पने वाला,तथा ६. पराई स्त्री का अपहरण करने वाला। ऐसे आततायियों का तुरंत वध कर देना चाहिए क्योंकि इनके वध से कोई पाप नहीं लगता। आततायियों का इस तरह वध करना किसी सामान्य व्यक्ति को शोभा दे सकता है,किन्तु अर्जुन कोई सामान्य व्यक्ति नहीं है। वह स्वाभाव से साधु है अतः वह उनके साथ साधुवत व्यवहार करना चाहता था। किन्तु इस प्रकार का व्यवहार क्षत्रिय के लिए उपयुक्त नहीं है। यद्द्पि राज्य के प्रशासन के लिए उत्तरदायी व्यक्ति को साधु की प्रकृति का होना चाहिये, किन्तु उसे कायर नहीं होना चाहिए। उदाहरणार्थ ,भगवान् राम इतने साधु थे कि आज भी लोग रामराज्य में रहना चाहते हैं,किन्तु उन्होंने कभी कायरता प्रदर्शित नहीं की। रावण आततायी तह क्योंकि वह राम की पत्नी सीता का अपहरण करके ले गया था,किन्तु राम ने उसे ऐसा पाठ पढ़ाया कि जो विश्व -इतिहास में बेजोड़ है। अर्जुन के प्रसंग में विशिष्ट प्रकार के आततायियों से भेंट होती है -ये हैं उसके निजी पितामह,आचार्य, मित्र, पुत्र,पौत्र इत्यादि। इसलिए अर्जुन ने विचार किया कि उनके प्रति वह सामान्य आततायियों जैसा कटु व्यवहार न करे। इसके अतिरिक्त, साधु पुरुषों को तो क्षमा करने की सलाह दी जाती है। साधु पुरुषों के लिए ऐसे आदेश किसी राजनैतिक आपातकाल से अधिक महत्व रखते हैं। इसलिए अर्जुन ने विचार किया कि राजनितिक कारणों से स्वजनों का वध करने की अपेक्षा धर्म तथा सदाचार की दृष्टि से उन्हें क्षमा कर देना श्रेयकर होगा। अतः क्षणिक शारीरिक सुख के लिए इस तरह वध करना लाभप्रद नहीं होगा। अन्ततः जब सारा राज्य तथा उससे प्राप्त सुख स्थाई नहीं है तो फिर अपने स्वजनों को मारकर वह अपने ही जीवन तथा शास्वत मुक्ति को संकट में क्यों डाले? अर्जुन द्वारा कृष्ण को "माधव"अथवा "लक्ष्मीपति" के रूप में सम्बोधित करना भी सार्थक है। वह लक्ष्मीपति कृष्ण को यह बताना चाह रहा था वे  कि उसे ऐसा काम करने के लिए प्रेरित न करें, जिससे अनिष्ट हो। किन्तु कृष्ण कभी भी किसी का अनिष्ट नहीं चाहते, भक्तों का तो कदापि नहीं। 

क्रमशः !!!💓💔💗❤   

      

    

शुक्रवार, 22 जनवरी 2021

BHAGVAD GITA 1:32

 कि नो राज्येन गोविन्द कि भोगैर्जीवितेन वा। 

येषामर्थे काङ्क्षितम नो राज्यम भोगाः सुखानी च।।३२।।

त इमेवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च। 

आचार्यः पितरः पुत्रास्तथैव च पितामहाः।।३३।। 

मातुला: श्वसुराः पौत्राः श्यालाः सम्बन्धिनस्तथा।

एतान्न हन्तुमिच्छामि घ्रतोपि मधुसूदन।। ३४।।  

अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोः किं नु महीकृते। 

निहत्य धार्तराष्ट्रान्नः का प्रीतिः स्यात्तजनार्दनः।।३५।।

किम: -क्या लाभ;  न:-हमको; राज्येन: -राज्य से; गोविन्द: -हे कृष्ण; किम: -क्या; भोगै: -भोग से; जीवितेन:- जीवित रहने से; वा :-अथवा; येषां :- जिनके; अर्थे :- लिए; काङ्क्षितम:-इच्छित है; नः -हमारे द्वारा; राज्यम:-राज्य; भोगाः :-भौतिक भोग; सुखानी -समस्त सुख; 
च :-भी; ते :-वे ;  इमे :-ये; अवस्थिता: -स्थित; युद्धे :-युद्ध भूमि में; प्राणान:-जीवन को ; त्यक्त्वा:-त्याग कर; धनानि:-धन को; च:-भी; आचार्याः- गुरुजन; पितरः पितृगण; पुत्राः :-पुत्रगण ; तथा :-और; एव:-निश्चय ही; च:- भी; पितामहाः -पितामह; मातुलाः -मामा लोग; 
श्वसुराः-श्वसुर; पौत्राः-पौत्र; श्यालाः-साले; संबन्धिनः- सम्बन्धी; तथा एतान :-ये सब; न:-कभी नहीं; हन्तुम :-मारना; इच्छामि:-चाहता हूँ;  घृत:मारे जाने पर; अपि:-भी; मधुसूदन:-हे मधु असुर के मारने वाले कृष्ण;अपि:-तो भी; त्रैलोक्य :-तीनों लोकों के;राज्यस्य:- राज्य के; हेतोः- विनिमय में; किम नु:-क्या कहा जाय; महीकृते:-पृथ्वी केलिए;निहत्य:-मारकर; धार्तराष्ट्रान :-धृतरास्ट्र के पुत्रों को; नः-हमारी; का :-क्या; प्रीति:-प्रसन्नता; स्यात :-होगी; जनार्दन :-हे जीवों के पालक। 

हे गोविन्द ! हमें राज्य,सुख अथवा इस जीवन से क्या लाभ ! क्योंकि  जिन सारे लोगों के लिए हम उन्हें चाहते हैं वे ही इस युद्ध भूमि में खड़े हैं।  

हे मधुसूदन !जब गुरुजन,पितृगण,पुत्रगण,पितामह,मामा,ससुर,पौत्रगण,साले तथा अन्य सारे सम्बन्धी अपना -अपना धन एवं प्राण देने के लिए तत्पर हैं और मेरे सक्षम खड़े हैं तो फिर मैं इन सबको क्यों मारना चाहूंगा,भले ही वे मुझे क्यों न मार डालें ? हे जीवों के पालक ! मैं इन सबों से लड़ने को तैयार नहीं, भले ही बदले में मुझे तीनों लोक क्यों न मिलते हों,इस पृथ्वी की तो बात छोड़ दें। भला ध्रतराष्ट्र के पुत्रों को मारकर हमें कौन सी प्रसन्नता मिलेगी ?

अर्थात :-

अर्जुन ने भगवान् कृष्ण को गोविन्द कह कर सम्बोधित किया क्योंकि वे गौओं तथा इन्द्रयों के समस्त प्रसन्नता के विषय हैं। इस विशिष्ट शब्द का प्रयोग करके अर्जुन संकेत करता है कि कृष्ण यह समझें कि अर्जुन की इन्द्रयाँ कैसे तृप्त होंगी। किन्तु गोविन्द हमारी इन्द्रयों को तुष्ट करने के लिए नहीं हैं। हाँ यदि हम गोविन्द की इन्द्रयों को तुष्ट करने का प्रयास करते हैं तो हमारी इन्द्रियां स्वतः तुष्ट होती हैं। भौतिक दृष्टि से प्रत्येक व्यक्ति अपनी इन्द्रयों को तुष्ट करना चाहता है और चाहता है की ईश्वर उसके आज्ञापालक की तरह काम करे। किन्तु ईश्वर उनकी तृप्ति वहीँ तक करते हैं जितने के वे पात्र होते हैं -उस हद तक नहीं जितना वे कहते हैं। किन्तु जब कोई इसके विपरीत मार्ग ग्रहण करता है अर्थात जब वह अपनी इन्द्रियों की तृप्ति की चिंता न करके गोविन्द की इद्रियों की तुष्टि करने का प्रयास करता है तो गोविन्द की कृपा से जीव की सारी  इच्छाएं पूर्ण हो जाती हैं। यहाँ पर जाती तथा कुटुम्बियों के प्रति अर्जुन का प्रगाढ़ स्नेह आंशिक रूप से इन सबके प्रति उसकी स्वाभाविक करुणा के कारण हैं। अतः वह युद्ध करने के लिए तैयार नहीं है। 

हर व्यक्ति अपने बैभव का प्रदर्शन अपने मित्रों तथा परिजनों के समक्ष करना चाहता है,किन्तु अर्जुन को भय है कि उसके सारे मित्र तथा परिजन युद्धभूमि में मारे जायेंगे  और वह विजय के पश्चात उनके साथ अपने बैभव का उपयोग नहीं कर सकेगा। भौतिक जीवन का यह सामान्य लेखा जोखा है। किन्तु  आध्यात्मिक जीवन इससे सर्वदा भिन्न होता है। चूंकि भक्त भगवान् की इच्छाओं की पूर्ति करना चाहता है अतः भगवद इच्छा होने पर वह भगवान् की सेवा के लिए ऐश्वर्य स्वीकार कर सकता है, किन्तु यदि भगवद इच्छा न हो तो वह एक पैसा भी ग्रहण नहीं कर सकता अर्जुन अपने सम्बन्धियों को मारना नहीं चाह रहा था और यदि उनको  मारने की  आवश्यकता हो तो अर्जुन की इच्छा थी की कृष्ण स्वयं उनका वध करे। इस समय उसे यह पता नहीं है की कृष्ण उन सबों को युद्धभूमि में आने से पूर्व ही मार चुके हैं और उसे निमित मात्र बनना है। इसका विवरण अगले अध्यायों में होगा। .भगवान् का असली भक्त होने के कारण अर्जुन अपने अत्याचारी बंधु-बांधवों से प्रतिशोध नहीं लेना चाहते, किन्तु भगवान् दुष्टों द्वारा भक्त के उत्पीड़न को सहन नहीं कर पाते। भगवान् किसी व्यक्ति को अपनी इच्छा से क्षमा कर सकते हैं, किन्तु यदि कोई उनके भक्तों को हानि पहुंचाता है तो वे उसे क्षमा नहीं कर सकते। इसलिए भगवान् इन दुराचारियों को वध करने के लिए उद्धत थे यद्धपि अर्जुन उन्हें क्षमा करना चाहता था। 

क्रमशः !!!!     🙏🙏🙏                                                       

  

गुरुवार, 21 जनवरी 2021

BHAGVAD GITA 1:31

 न च श्रेयोनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे। 

न काङ्गे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानी च।। ३१।।

🙏🙏

न :-न तो; च -भी; श्रेय:-कल्याण; अनुपश्यामि :-पहले से देख रहा हूँ; हत्वा :-मार कर; स्वजनम:-अपने सम्बन्धियों को; आहवे:-युद्ध में ; न :-न तो; काङ्गे :-आकांक्षा करता हूँ; विजयम:-विजय;कृष्ण :-हे कृष्ण; न :-न तो; च :-भी; राज्यम :-राज्य; सुखानी :-उसका सुख; च :- भी। 

हे कृष्ण ! इस युद्ध में अपने ही स्वजनों का वध करने से न तो मुझे कोई अच्छाई दिखती है और न,मैं उससे किसी प्रकार की विजय,राज्य या सुख की इच्छा रखता हूँ।

अर्थात :- यह जाने बिना कि मनुष्य का स्वार्थ विष्णु या कृष्ण में है, सारे बद्धजीव शारीरिक सम्बन्धों के प्रति यह सोचकर आकर्षित होते हैं की वे ऐसी परिस्थितियों में प्रसन्न होंगे। ऐसी देहात्मबुद्धि के कारण वे भौतिक सुख के कारणों को भी भूल जाते हैं। अर्जुन तो क्षत्रिय का नैतिक धर्म भी भूल गया था। कहा जाता है कि दो प्रकार के मनुष्य परम शक्तिशाली तथा जाज्वल्यमान सूर्यमण्डल में प्रवेश करने के योग्य होते हैं। ये हैं -एक तो क्षत्रिय जो कृष्ण की आज्ञा से युद्ध में मरता है तथा दूसरा सन्यासी जो आध्यात्मिक अनुशीलन में लगा रहता है। अर्जुन अपने शत्रुओं को भी मारने से विमुख हो रहा है,अपने सम्बन्धियों  की तो बात छोड़ दें। वह सोचता है कि स्वजनों को मारने से उसे जीवन में सुख नहीं मिल सकेगा। अतः वह लड़ने के लिए इच्छुक नहीं है,जिस प्रकार की भूख न लगने पर कोई भोजन बनाने को तैयार नहीं होता। उसने तो वन जाने का निश्चय लिया है,जहाँ वह एकांत में निराशपूर्ण जीवन काट सके। किन्तु क्षत्रिय होने के नाते उसे अपने जीवन निर्वाह के लिए राज्य चाहिए क्योंकि क्षत्रिय कोई अन्य कार्य नहीं कर सकता। किन्तु अर्जुन के पास राज्य कहाँ है ? उसके लिए तो राज्य प्राप्त करने का एकमात्र अवसर है के अपने बंधु-बांधवों से लड़कर अपने पिता के राज्य का उत्तराधिकार प्राप्त करे, जिसे वह करना नहीं चाह रहा है। इसलिए वह अपने को जंगल में एकांतवास करके निराशा का एकांत जीवन बिताने योग्य समझता है। 

क्रमशः !!!  

  


बुधवार, 20 जनवरी 2021

BHAGVAD GITA - 1.30

 न च शक्रोम्यवस्थातुं भ्र्मतीव च में मनः। 

निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशवः।। ३०।। 

न -नहीं; च -भी; शक्रोमि -समर्थ हूँ; अवस्थातुम -खड़े होने में; भ्र्मति -भूलता हुआ; इव -सदृश्य; च -तथा; में -मेरा; मनः-मन; निमित्तानि -कारण; च -भी; पश्यामि -देखता हूँ; विपरीतानि-बिल्कुल  उल्टा; केशव -केशी असुर को मारने  वाले कृष्ण। 

मैं यहाँ अब और अधिक खड़ा रहने में असमर्थ हूँ। मैं अपने को भूल रहा  हूँ और मेरा सिर चकरा रहा है। हे कृष्ण ! मुझे तो केवल अमंगल के कारण दिख रहे हैं। 

अर्थात :- अपने अधैर्य के कारण अर्जुन युद्ध भूमि में खड़ा रहने में असमर्थ था और अपने मन की दुर्बलता के कारण उसे आत्मविस्मृति हो रही थी। भौतिक वस्तुओं के प्रति अत्यधिक आसक्ति के कारण मनुष्य ऐसी मोहमयी स्थिति में पड़ जाता है। भयं द्वितीयाभिनिवेशतः स्यात -ऐसा भय तथा मानसिक अंसतुलन उन व्यक्तियों में उत्पन्न होता है,जो भौतिक परिस्थितियों से ग्रस्त होते हैं। अर्जुन को युद्ध भूमि में केवल दुखदायी पराजय प्रतीत हो रही थी -वह शत्रु पर विजय पाकर भी सुखी नहीं होगा। निमित्तानि विपरीतानि  शब्द महत्वपूर्ण हैं। जब मनुष्य को अपनी आशाओं में केवल निराशा दिखती है  सोचता है "मैं यहाँ क्यों हूँ ?"प्रत्येक प्राणी अपने में तथा अपने स्वार्थ में रुचि रखता है। किसी को भी परमात्मा में रूचि नहीं  होती। कृष्ण की इच्छा से अर्जुन अपने स्वार्थ के प्रति अज्ञान दिखा रहा है। मनुष्य का वास्तविक स्वार्थ तो विष्णु या कृष्ण में निहित है। बद्धजीव भूल जाता है इसलिए उसे भौतिक कष्ट उठाने पड़ते हैं अर्जुन ने सोचा कि उसकी विजय केवल उसके शोक का कारण बन सकती है। 

क्रमशः !!!

मंगलवार, 19 जनवरी 2021

BHAGVAD GITA

 वेपथुरश्च शरीरे में रोमहर्षश्च जायते। 

गाण्डीवं स्रंसते हस्तात्त्वक्चैव परिदह्यते।।२९।।

वेपथुः-शरीर का कम्पन; च-भी; शरीरे-शरीर में; में -मेरे; रोम -हर्ष:-रोमांच; च -भी; जायते- उत्पन्न हो रहा है; गाण्डीवं -अर्जुन का धनुष,गांडीव; संस्रते- छूट या सरक रहा है; हस्तात -हाथ से; त्वक -त्वचा; च -भी; एव-निश्चय ही; परिदह्यते-जल रही है। 

मेरा सारा शरीर काँप रहा है,मेरे रोंगटे खड़े हो रहे हैं,मेरा गांडीव धनुष मेरे हाथ से सरक रहा है और मेरी त्वचा जल रही है। 

अर्थात :-शरीर में दो प्रकार का कम्पन होता है और रोंगटे भी दो प्रकार से खड़े होते हैं। ऐसा या तो आध्यात्मिक परमानन्द के समय या भौतिक परिस्थितियों में अत्यधिक भय उत्पन्न होने पर होता है। दिव्य साक्षात्कार में कोई भय नहीं होता। इस अवस्था में अर्जुन के जो लक्षण हैं वे भौतिक भय अर्थात जीवन की हानि के कारण हैं। अन्य लक्षणों से भी यह स्पष्ट है,वह इतना अधीर हो गया कि उसका विख्यात धनुष गांडीव उसके हाथों से सरक रहा था और उसकी त्वचा में जलन हो रही थी। ये सब लक्षण देहात्मबुद्धि से जन्य हैं। 

क्रमशः !!!

  

सोमवार, 18 जनवरी 2021

BHAGVAD GITA

 तान्समीक्ष्य स कौन्तेय: सर्वान्बन्धूनवस्थितान। 

कृपया परयाविष्टो विषीदन्निदमब्रवीत।।२७।।

तान :-उन सब को; समीक्ष्य :-देखकर; सः -वह; कौन्तेय -कुन्तीपुत्र; सर्वान:-सभी प्रकार के;बंधून:-सम्बन्धियों को; अवस्थितान -स्थित;  कृपया - दयावश; परया-अत्यधिक; अविष्ट: -अभिभूत; विषीदन -शोक करता हुआ; इदम-इस प्रकार; अब्रवीत- बोला। 

 जब कुन्तीपुत्र अर्जुन ने मित्रों तथा सम्बन्धियों की इन बिभिन्न श्रेणियों को देखा तो वह करुणा से अभिभूत हो गया और इस प्रकार बोला। 

अर्जुन उवाच 

दृष्टेमम स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम। 

सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिश्रुस्यति।। २८।। 

अर्जुन उवाच -अर्जुन ने कहा; दृष्टा:-देखकर; इमम -इन सारे; स्वजनम-सम्बन्धियों को; कृष्ण -हे कृष्ण; युयुत्सुम -युद्ध की इच्छा रखने वाले; समुपस्थितम -उपस्थित; सीदन्ति -काँप रहे हैं; मम -मेरे; गात्राणि -शरीर के अंग; मुखम - मुहं; च - भी; परिशयुष्यति- सूख रहा है। 

अर्जुन ने कहा -हे कृष्ण ! इस प्रकार युद्ध की इच्छा रखने वाले अपने मित्रों तथा सम्बन्धियों को अपने समक्ष उपस्थित देखकर मेरे शरीर के अंग काँप रहे हैं और मेरा मुहं सूखा जा रहा है। 

अर्थात :-यथार्थ भक्ति से युक्त मनुष्य में सारे सद्गुण रहते हैं.जो सत्पुरषों या देवताओं में पाए जाते हैं, जबकि अभक्त अपनी शिक्षा तथा संस्कृति के द्वारा भौतिक योग्यताओं में चाहे कितना ही उन्नत क्यों न हो इन ईश्वरीय गुणों से विहीन होता है। अतः स्वजनों, मित्रों तथा सम्बन्धियों को युद्धभूमि में देखते ही अर्जुन उन सबों के लिए करुणा से अभिभूत हो गया ,जिन्होंने परस्पर युद्ध करने का निस्चय किया था। जहाँ तक उसके अपने सैनिकों का सम्बन्ध था, वह उनके प्रति प्रारम्भ से ही दयालु था, किन्तु बिपक्षी दल के सैनिकों की आसन्न मृत्यु को देखकर वह उन पर भी दया का अनुभव कर रहा था। और जब वह इस प्रकार सोच रहा था तो उसके अंगों में कम्पन होने लगा और मुहं सूख गया। 

उन सबको युद्धभिमुख देखकर उसे आष्चर्य भी हुआ। प्रायः सारा कुटुम्ब, अर्जुन के सगे सम्बन्धी उससे युद्ध करने आये थे। यद्द्पि इसका उल्लेख नहीं है, किन्तु तो भी सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि न केवल उसके अंग काँप रहे थे और मुहं सूख रहा था अपितु वह दयावश रुदन भी कर रहा था अर्जुन में ऐसे लक्षण किसी दुर्बलता के कारण नहीं अपितु ह्रदय की कोमलता के कारण थे, जो भगवान् के शुद्ध भक्त का लक्षण है। अतः कहा गया है। 

यस्यास्ति भक्तिर्भगवत्तिञ्चिना                                                     

सर्वगुणैस्तत्र  समासते सुराः। 

                      हरावभक्तस्य कुतो महद्गुणा 

मनोरथेनासती धावतो बहिः।। 

जो भगवान् के प्रति अविचल भक्ति रखता है उसमे देवताओं के सद्गुण पाए जाते हैं। किन्तु जो भगवद्भक्त नहीं हैं उसके पास भौतिक योग्यताएं ही रहती हैं जिनका कोई मूल्य नहीं होता है। इसका कारण यह है कि वह मानसिक धरातल पर मँडराता रहता है और ज्वलन्त माया के द्वारा अवश्य ही आकृष्ट होता है (भागवत ५.१८.१२.)

क्रमशः !!!!