गुरुवार, 21 जनवरी 2021

BHAGVAD GITA 1:31

 न च श्रेयोनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे। 

न काङ्गे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानी च।। ३१।।

🙏🙏

न :-न तो; च -भी; श्रेय:-कल्याण; अनुपश्यामि :-पहले से देख रहा हूँ; हत्वा :-मार कर; स्वजनम:-अपने सम्बन्धियों को; आहवे:-युद्ध में ; न :-न तो; काङ्गे :-आकांक्षा करता हूँ; विजयम:-विजय;कृष्ण :-हे कृष्ण; न :-न तो; च :-भी; राज्यम :-राज्य; सुखानी :-उसका सुख; च :- भी। 

हे कृष्ण ! इस युद्ध में अपने ही स्वजनों का वध करने से न तो मुझे कोई अच्छाई दिखती है और न,मैं उससे किसी प्रकार की विजय,राज्य या सुख की इच्छा रखता हूँ।

अर्थात :- यह जाने बिना कि मनुष्य का स्वार्थ विष्णु या कृष्ण में है, सारे बद्धजीव शारीरिक सम्बन्धों के प्रति यह सोचकर आकर्षित होते हैं की वे ऐसी परिस्थितियों में प्रसन्न होंगे। ऐसी देहात्मबुद्धि के कारण वे भौतिक सुख के कारणों को भी भूल जाते हैं। अर्जुन तो क्षत्रिय का नैतिक धर्म भी भूल गया था। कहा जाता है कि दो प्रकार के मनुष्य परम शक्तिशाली तथा जाज्वल्यमान सूर्यमण्डल में प्रवेश करने के योग्य होते हैं। ये हैं -एक तो क्षत्रिय जो कृष्ण की आज्ञा से युद्ध में मरता है तथा दूसरा सन्यासी जो आध्यात्मिक अनुशीलन में लगा रहता है। अर्जुन अपने शत्रुओं को भी मारने से विमुख हो रहा है,अपने सम्बन्धियों  की तो बात छोड़ दें। वह सोचता है कि स्वजनों को मारने से उसे जीवन में सुख नहीं मिल सकेगा। अतः वह लड़ने के लिए इच्छुक नहीं है,जिस प्रकार की भूख न लगने पर कोई भोजन बनाने को तैयार नहीं होता। उसने तो वन जाने का निश्चय लिया है,जहाँ वह एकांत में निराशपूर्ण जीवन काट सके। किन्तु क्षत्रिय होने के नाते उसे अपने जीवन निर्वाह के लिए राज्य चाहिए क्योंकि क्षत्रिय कोई अन्य कार्य नहीं कर सकता। किन्तु अर्जुन के पास राज्य कहाँ है ? उसके लिए तो राज्य प्राप्त करने का एकमात्र अवसर है के अपने बंधु-बांधवों से लड़कर अपने पिता के राज्य का उत्तराधिकार प्राप्त करे, जिसे वह करना नहीं चाह रहा है। इसलिए वह अपने को जंगल में एकांतवास करके निराशा का एकांत जीवन बिताने योग्य समझता है। 

क्रमशः !!!  

  


बुधवार, 20 जनवरी 2021

BHAGVAD GITA - 1.30

 न च शक्रोम्यवस्थातुं भ्र्मतीव च में मनः। 

निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशवः।। ३०।। 

न -नहीं; च -भी; शक्रोमि -समर्थ हूँ; अवस्थातुम -खड़े होने में; भ्र्मति -भूलता हुआ; इव -सदृश्य; च -तथा; में -मेरा; मनः-मन; निमित्तानि -कारण; च -भी; पश्यामि -देखता हूँ; विपरीतानि-बिल्कुल  उल्टा; केशव -केशी असुर को मारने  वाले कृष्ण। 

मैं यहाँ अब और अधिक खड़ा रहने में असमर्थ हूँ। मैं अपने को भूल रहा  हूँ और मेरा सिर चकरा रहा है। हे कृष्ण ! मुझे तो केवल अमंगल के कारण दिख रहे हैं। 

अर्थात :- अपने अधैर्य के कारण अर्जुन युद्ध भूमि में खड़ा रहने में असमर्थ था और अपने मन की दुर्बलता के कारण उसे आत्मविस्मृति हो रही थी। भौतिक वस्तुओं के प्रति अत्यधिक आसक्ति के कारण मनुष्य ऐसी मोहमयी स्थिति में पड़ जाता है। भयं द्वितीयाभिनिवेशतः स्यात -ऐसा भय तथा मानसिक अंसतुलन उन व्यक्तियों में उत्पन्न होता है,जो भौतिक परिस्थितियों से ग्रस्त होते हैं। अर्जुन को युद्ध भूमि में केवल दुखदायी पराजय प्रतीत हो रही थी -वह शत्रु पर विजय पाकर भी सुखी नहीं होगा। निमित्तानि विपरीतानि  शब्द महत्वपूर्ण हैं। जब मनुष्य को अपनी आशाओं में केवल निराशा दिखती है  सोचता है "मैं यहाँ क्यों हूँ ?"प्रत्येक प्राणी अपने में तथा अपने स्वार्थ में रुचि रखता है। किसी को भी परमात्मा में रूचि नहीं  होती। कृष्ण की इच्छा से अर्जुन अपने स्वार्थ के प्रति अज्ञान दिखा रहा है। मनुष्य का वास्तविक स्वार्थ तो विष्णु या कृष्ण में निहित है। बद्धजीव भूल जाता है इसलिए उसे भौतिक कष्ट उठाने पड़ते हैं अर्जुन ने सोचा कि उसकी विजय केवल उसके शोक का कारण बन सकती है। 

क्रमशः !!!

मंगलवार, 19 जनवरी 2021

BHAGVAD GITA

 वेपथुरश्च शरीरे में रोमहर्षश्च जायते। 

गाण्डीवं स्रंसते हस्तात्त्वक्चैव परिदह्यते।।२९।।

वेपथुः-शरीर का कम्पन; च-भी; शरीरे-शरीर में; में -मेरे; रोम -हर्ष:-रोमांच; च -भी; जायते- उत्पन्न हो रहा है; गाण्डीवं -अर्जुन का धनुष,गांडीव; संस्रते- छूट या सरक रहा है; हस्तात -हाथ से; त्वक -त्वचा; च -भी; एव-निश्चय ही; परिदह्यते-जल रही है। 

मेरा सारा शरीर काँप रहा है,मेरे रोंगटे खड़े हो रहे हैं,मेरा गांडीव धनुष मेरे हाथ से सरक रहा है और मेरी त्वचा जल रही है। 

अर्थात :-शरीर में दो प्रकार का कम्पन होता है और रोंगटे भी दो प्रकार से खड़े होते हैं। ऐसा या तो आध्यात्मिक परमानन्द के समय या भौतिक परिस्थितियों में अत्यधिक भय उत्पन्न होने पर होता है। दिव्य साक्षात्कार में कोई भय नहीं होता। इस अवस्था में अर्जुन के जो लक्षण हैं वे भौतिक भय अर्थात जीवन की हानि के कारण हैं। अन्य लक्षणों से भी यह स्पष्ट है,वह इतना अधीर हो गया कि उसका विख्यात धनुष गांडीव उसके हाथों से सरक रहा था और उसकी त्वचा में जलन हो रही थी। ये सब लक्षण देहात्मबुद्धि से जन्य हैं। 

क्रमशः !!!

  

सोमवार, 18 जनवरी 2021

BHAGVAD GITA

 तान्समीक्ष्य स कौन्तेय: सर्वान्बन्धूनवस्थितान। 

कृपया परयाविष्टो विषीदन्निदमब्रवीत।।२७।।

तान :-उन सब को; समीक्ष्य :-देखकर; सः -वह; कौन्तेय -कुन्तीपुत्र; सर्वान:-सभी प्रकार के;बंधून:-सम्बन्धियों को; अवस्थितान -स्थित;  कृपया - दयावश; परया-अत्यधिक; अविष्ट: -अभिभूत; विषीदन -शोक करता हुआ; इदम-इस प्रकार; अब्रवीत- बोला। 

 जब कुन्तीपुत्र अर्जुन ने मित्रों तथा सम्बन्धियों की इन बिभिन्न श्रेणियों को देखा तो वह करुणा से अभिभूत हो गया और इस प्रकार बोला। 

अर्जुन उवाच 

दृष्टेमम स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम। 

सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिश्रुस्यति।। २८।। 

अर्जुन उवाच -अर्जुन ने कहा; दृष्टा:-देखकर; इमम -इन सारे; स्वजनम-सम्बन्धियों को; कृष्ण -हे कृष्ण; युयुत्सुम -युद्ध की इच्छा रखने वाले; समुपस्थितम -उपस्थित; सीदन्ति -काँप रहे हैं; मम -मेरे; गात्राणि -शरीर के अंग; मुखम - मुहं; च - भी; परिशयुष्यति- सूख रहा है। 

अर्जुन ने कहा -हे कृष्ण ! इस प्रकार युद्ध की इच्छा रखने वाले अपने मित्रों तथा सम्बन्धियों को अपने समक्ष उपस्थित देखकर मेरे शरीर के अंग काँप रहे हैं और मेरा मुहं सूखा जा रहा है। 

अर्थात :-यथार्थ भक्ति से युक्त मनुष्य में सारे सद्गुण रहते हैं.जो सत्पुरषों या देवताओं में पाए जाते हैं, जबकि अभक्त अपनी शिक्षा तथा संस्कृति के द्वारा भौतिक योग्यताओं में चाहे कितना ही उन्नत क्यों न हो इन ईश्वरीय गुणों से विहीन होता है। अतः स्वजनों, मित्रों तथा सम्बन्धियों को युद्धभूमि में देखते ही अर्जुन उन सबों के लिए करुणा से अभिभूत हो गया ,जिन्होंने परस्पर युद्ध करने का निस्चय किया था। जहाँ तक उसके अपने सैनिकों का सम्बन्ध था, वह उनके प्रति प्रारम्भ से ही दयालु था, किन्तु बिपक्षी दल के सैनिकों की आसन्न मृत्यु को देखकर वह उन पर भी दया का अनुभव कर रहा था। और जब वह इस प्रकार सोच रहा था तो उसके अंगों में कम्पन होने लगा और मुहं सूख गया। 

उन सबको युद्धभिमुख देखकर उसे आष्चर्य भी हुआ। प्रायः सारा कुटुम्ब, अर्जुन के सगे सम्बन्धी उससे युद्ध करने आये थे। यद्द्पि इसका उल्लेख नहीं है, किन्तु तो भी सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि न केवल उसके अंग काँप रहे थे और मुहं सूख रहा था अपितु वह दयावश रुदन भी कर रहा था अर्जुन में ऐसे लक्षण किसी दुर्बलता के कारण नहीं अपितु ह्रदय की कोमलता के कारण थे, जो भगवान् के शुद्ध भक्त का लक्षण है। अतः कहा गया है। 

यस्यास्ति भक्तिर्भगवत्तिञ्चिना                                                     

सर्वगुणैस्तत्र  समासते सुराः। 

                      हरावभक्तस्य कुतो महद्गुणा 

मनोरथेनासती धावतो बहिः।। 

जो भगवान् के प्रति अविचल भक्ति रखता है उसमे देवताओं के सद्गुण पाए जाते हैं। किन्तु जो भगवद्भक्त नहीं हैं उसके पास भौतिक योग्यताएं ही रहती हैं जिनका कोई मूल्य नहीं होता है। इसका कारण यह है कि वह मानसिक धरातल पर मँडराता रहता है और ज्वलन्त माया के द्वारा अवश्य ही आकृष्ट होता है (भागवत ५.१८.१२.)

क्रमशः !!!!

  

                           

रविवार, 17 जनवरी 2021

BHAGVAD GITA

 तत्रापश्यत्स्थितानपार्थ: पितृनथ पितामहान। 

आचार्यान्मातुलानभृतृन्पुत्रान्पौत्रान्सखींस्तथा। 

श्र्वश्रुरान्सुहृदयेचैव सेनयोरुभयोरपि।।२६।।   

     तत्र- वहां अपश्यत -देखा;स्थितान -खड़े;पार्थ -पार्थ ने; पितृन -पितरों (चाचा ताऊ )को ; अथ-भी;पितमहान -पितामहों को; आचार्यान -शिक्षकों को; मातुलान -मामाओं को;भ्रातृन-भाइयों को; पुत्रान -पुत्रों को;सखीन -मित्रों को; तथा-और; श्र्वश्रुरान-श्र्वसुरों को;सुह्रद: -शुभचिंतकों को; च-भी; एव निश्चय ही; सनयोः -सेनाओं के; उभयोः -दोनों पक्षों की; अपि-सहित। 

  अर्जुन ने वहां पर दोनों पक्षों की सेनाओं के मध्य में अपने चाचा-ताऊओं,पितामहों, गुरुओं, मामाओं, भाइयों, पुत्रों, पौत्रों,मित्रों, ससुरों,और शुभचिंतकों को भी देखा। 

अर्थात :-अर्जुन युद्ध भूमि में अपने सभी सम्बन्धियों को देख सका। वह अपने पिता के समकालीन भूरिश्रवा जैसे व्यक्तियों को, भीष्म तथा सोमदत्त जैसे पितामहों, द्रोणाचार्य तथा कृपाचार्य जैसे गुरुओं, शल्य तथा शकुनि जैसे मामाओं,दुर्योधन जैसे भाइयों ,लक्ष्मण जैसे पुत्रों,अश्वथामा जैसे मित्रों एवं कृतवर्मा जैसे शुभचिंतकों को देख सका। वह उन सेनाओं को भी देख सका,जिनमें उसके अनेक मित्र थे। 

क्रमशः !!!

शनिवार, 16 जनवरी 2021

BHAGVAD GITA

 भीष्मद्रोणप्रमुखतः सर्वेषां च महीक्षिताम । 

उवाच पार्थ पश्यैतान्समवेतांकुरुनीति।।२५।।

भीष्म -भीष्म पितामह ; द्रोण -गुरु द्रोण; प्रमुखतः-के समक्ष; सर्वेषाम -सबों के; च -भी; महीक्षिताम -संसार भर के राजा; उवाच -कहा; पार्थ। हे पृथा के पुत्र; पश्य -देखो; एतान -इन सबों को; समवेतान-एकत्रित; कुरुन -कुरुवंश के सदस्यों को; इति -इस प्रकार। 

भीष्म,द्रोण तथा विश्व भर के अन्य समस्त राजाओं के सामने भगवान् ने कहा कि हे पार्थ !यहाँ पर एकत्र सारे कुरुओं को देखो। 

अर्थात-समस्त जीवों के प्र्मात्मास्वरूप भगवान् कृष्ण यह जानते थे कि अर्जुन के मन में क्या बीत रहा है। इस प्रसंग में हृषिकेश शब्द का प्रयोग सूचित करता है कि वे सब कुछ जानते थे। इसी प्रकार पार्थ शब्द अर्थात प्रथा  कुन्तीपुत्र भी अर्जुन के लिए प्रयुक्त होने के कारण महत्वपूर्ण है। मित्र के रूप में वे अर्जुन को बता देना चाहते थे कि चूँकि अर्जुन उनके पिता वसुदेव की बहन पृथा का पुत्र था इसलिए उन्होंने अर्जुन का सारथी बनना स्वीकार किया था। किन्तु जब उन्होंने अर्जुन से "कुरुओं को देखो" कहा तो इससे उनका क्या अभिप्राय था? क्या अर्जुन वहीँ पर रूक कर  युद्ध करना नहीं चाहता था ? कृष्ण को अपनी बुआ पृथा के पुत्र से कभी भी ऐसी आशा नहीं थी। इस प्रकार से कृष्ण ने अपने मित्र की मनःस्थिति की पूर्वसूचना परिहासवश दी है। 

क्रमशः !!! 

 

शुक्रवार, 15 जनवरी 2021

BHAGVAD GITA

 सञ्जय उवाच

एवमुक्तो हृषीकेशो गुडाकेशेन भारत। 

सेनयोरुभयोर्मध्ये स्थापयित्वा रथोत्तमम।।२४।। 

सञ्जय उवाच-संजय ने कहा; एवम-इस प्रकार; उक्तः-कहे गये; हृषिकेश:-भगवान् कृष्ण ने; गुडाकेशेन-अर्जुन द्वारा; भारत-हे भरत के वंशंज; सेनयो:-सेनाओं के; उभयो-दोनों; मध्ये :-मध्य में; स्थापयित्वा -खड़ा करके; रथ-उत्तमम:-उस उत्तम रथ को। 

संजय ने कहा - भारतवंशी !अर्जुन द्वारा इस प्रकार सम्बोधित किये जाने पर भगवान् कृष्ण ने दोनों दलों के बीच में उस उत्तम रथ को लाकर खड़ा कर दिया। 

अर्थात -इस श्लोक में अर्जुन को गुडाकेश कहा गया है। गुडा का अर्थ नींद से है और जो नींद को जीत लेता है वह गुडाकेश है। नींद का मतलब अज्ञान से है। अतः अर्जुन ने कृष्ण की मित्रता के कारण नींद तथा अज्ञान दोनों पर विजय प्राप्त की थी। कृष्ण के भक्त के रूप में वह कृष्ण को क्षण नहीं भुला पाया क्योंकि भक्त का  स्वभाव ही ऐसा होता है। यहाँ तक कि चलते अथवा सोते समय भी कृष्ण के नाम,रूप,गुणों तथा लीलाओं के चिंतन से भक्त कभी मुक्त नहीं रह सकता। अतः कृष्ण का भक्त उनका निरंतर चिंतन करते हुए नींद था अज्ञान दोनों को जीत सकता है। इसी को कृष्णभावनामृत या समाधि कहते हैं। प्रत्येक जीव की इन्द्रियों तथा मन के निर्देशक अर्थात हृषिकेश के रूप में कृष्ण अर्जुन के मंतव्य को समझ गये कि वह क्यों सेनाओं के मध्य में रथ को खड़ा करवाना चाहता है। ,अतः उन्होंने वैसा ही किया और फिर वे इस प्रकार बोले। 

क्रमश !!!