शुक्रवार, 9 अप्रैल 2021

BHAGAVAD GITA 2:63

 क्रोधाद्भवति सम्मोहः ससम्मोहात्स्मृतिविभ्र्मः।

स्मृतिभ्रंशाद भुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यन्ति।।६२।।

क्रोधात -क्रोध से; भवति -होता है; सम्मोह -पूर्ण मोह; सम्मोहात-मोह से;स्मृति -स्मरणशक्ति का; बिभ्रमः  -मोह; स्मृति-भ्रंशात- स्मृति के मोह से; बुद्धिनाशः -बुद्धि का विनाश; बुद्धि-नाशात-तथा बुद्धि नाश से;प्रणश्यन्ति -अधः पतन होता है। 

क्रोध से पूर्ण मोह उत्पन्न होता है और मोह से स्मरणशक्ति का विभ्रम हो जाता है। जब स्मरणशक्ति भ्रमित हो जाती  है,तो बुद्धि नष्ट हो जाती है,और बुद्धि नष्ट होने पर मनुष्य भव -कूप में पुनः गिर जाता है। 

तात्पर्य :-श्रील रूप गोस्वामी ने हमें यह आदेश दिया है -

                            प्रापञ्चिकतया बुद्ध्या हरिसंम्बन्धिवस्तुनः।

    मुमुक्षुभिःपरित्यागो वैराग्यं फल्गु कथ्यते।  (भक्तिरसामृत  सिंधु  १.२.२५८ )

कृष्णभावनामृत  विकास  से मनुष्य जान सकता है कि प्रत्येक  उपयोग भगवान् की सेवा के लिए किया जा सकता है। जो कृष्णभावनामृत के ज्ञान से रहित हैं,वे कृत्रिम ढंग से भौतिक विषयों से वचने का प्रयास करते हैं,फलतः वे भवबंधन से मोक्ष की कामना करते हुए भी वैराग्य की चरम अवस्था को प्राप्त नहीं कर पाते।  तथाकथित वैराग्य फल्गु अर्थात गौण कहलाता है। .इसके विपरीत कृष्णभावनाभावित व्यक्ति जानता है कि प्रत्येक वस्तु का उपयोग भगवान् की सेवा में किसप्रकार किया जाय फलतः वह भौतिक चेतना का शिकार नहीं होता। उदाहरणार्थ,निर्विशेषवादी के अनुसार भगवान् निराकार होने के कारण भोजन नहीं कर सकते, अतः वह अच्छे खाद्दों से बचता रहता है, किन्तु भक्त  जानता है कि कृष्ण परम भोक्ता है और भक्तिपूर्वक उन  पर जो भी भेंट चढाई जाती है, उसे वे खाते है।  अतः भगवान को अच्छा भोजन चढ़ाने के बाद भक्त प्रसाद ग्रहण करता है। इस प्रकार हर वस्तु प्राणवान हो जाती है और अधः पतन का कोई संकट नहीं रहता। भक्त कृष्णभावनामृत में रहकर प्रसाद ग्रहण करता है जबकि अभक्त इसे पदार्थ के  के रूप में तिरस्कार कर देता है। अतः निर्विशेषवादी अपने  कृत्रिम त्याग के कारण जीवन को भोग  नहीं  पाता और यही  कारण है कि मन के थोड़े से विचलन से वह भव -कूप में पुनः आ गिरता है। कहा जाता है कि मुक्ति के स्तर तक पहुँच जाने पर भी ऐसा जीव  नीचे गिर जाता  है, क्योंकि उसे भक्ति का कोई आश्रय नहीं मिलता। 

  क्रमशः !!!

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