BHAGAVAD GITA 2:62
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ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते।
सङ्गात्सन्नजायते कामः कामातक्रोधोभिजायते।।६२।।
ध्यायतः-चिन्तन करते हुए ; विषयान -इन्द्रिय विषयों को; पुंसः मनुष्य की; सङ्गात-आसक्ति से; संञ्जायते-विकसित होती है; कामः -इच्छा; कामात-काम से; क्रोधः -क्रोध; अभिजायते -प्रकट होता है।
इन्द्रियविषयों का चिंतन करते हुए मनुष्य की उनमे आसक्ति उत्पन्न हो जाती है और ऐसी आसक्ति से काम उत्पन्न होता है और फिर काम से क्रोध प्रकट होता है।
तात्पर्य :-जो मनुष्य कृष्णभावनाभावित नहीं है उसमे इन्द्रियविषयों के चिंतन से भौतिक इच्छाएं उत्पन्न होती हैं। इन्द्रियों को किसी न किसी कार्य में लगा रहना चाहिए और यदि वे भगवान् की दिव्य प्रेमा भक्ति में नहीं लगी रहेंगी तो वे निश्चय ही भौतिकतावाद में लगना चाहेंगी। इस भौतिक जगत में हर एक प्राणी इन्द्रियविषयों के अधीन है,यहाँ तक कि ब्रह्माँ तथा शिवजी भी। तो स्वर्ग के अन्य देवताओं के विषय में क्या कहा जा सकता है ? इस संसार के जंजाल से निकलने का एक मात्र उपाय है -कृष्णभावनाभावित होना। शिव ध्यानमग्न थे,किन्तु पार्वती ने विषयभोग के लिए उन्हें उत्तेजित किया,तो सहमत हो गए जिसके फलस्वरूप कार्तिकेय का जन्म हुआ। इसी प्रकार तरुण भगवत्भक्त हरिदास ठाकुर को माया देवी के अवतार ने मोहित करने का प्रयास किया,किन्तु विशुद्ध कृष्ण भक्ति के कारण वे इस कसौटी में खरे उतरे। जैसा कि यमुनाचार्य के उपर्युक्त श्लोक में बताया जा चुका है,भगवान् का एकनिष्ठ भक्त भगवान् की संगति के आध्यत्मिक सुख का आस्वादन करने के कारण समस्त भौतिक इन्द्रियसुख को त्याग देता है। अतः जो कृष्णभावनाभावित नहीं है,वह कृत्रिम दमन के द्वारा अपनी इन्द्रियों को वश में करने में कितना ही शक्तिशाली क्यों न हो,अंत में अवश्य असफल होगा,क्योंकि विषय सुख का रंचमात्र विचार भी उसे इन्द्रियतृप्ति के लिए उत्तेजित कर देगा।
क्रमशः !!!
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