बुधवार, 7 अप्रैल 2021

BHAGAVAD GITA 2:61

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तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः। 

वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।६१।। 

तानी- उन इन्द्रियों को; सर्वाणि-समस्त; संयम्य-वश करके; युक्त -लगा हुआ; आसीत-स्थित होना चाहिए; मत-पर -मुझमे; वशे -पूर्णतया वश में; हि-निश्चय ही; यस्य-जिसकी; तस्य -उसकी; प्रज्ञा -चेतना; प्रतिष्ठिता -स्थिर। 

 जो इन्द्रियों को पूर्णतया वश में रखते हुए इन्द्रिय -संयमन  करता है और अपनी चेतना को मुझमे स्थिर कर देता है, वह मनुष्य स्थिरबुद्धि कहलाता है। 

तात्पर्य :- इस श्लोक में बताया गया है कि योगसिद्धि की चरम अनुभूति कृष्णभावनामृत ही है। जब तक कोई कृष्णभावनाभावित नहीं होता तब तक इन्द्रियों को वश में करना सम्भव नहीं है। जैसा कि पहले कहा जा चुका है,दुर्वाशा मुनि का झगड़ा  महाराज अम्बरीष से हुआ,क्योकि वे गर्ववश महाराज अम्बरीष  पर क्रुद्ध हो गए,जिससे अपनी इन्द्रियों को रोक नहीं पाए दूसरी ओंर यद्धपि राजा मुनि के समान योगी न था,किन्तु वह कृष्ण का भक्त था और उसने मुनि के सारे अन्याय सह लिये,जिससे वह विजयी हुआ। राजा अपनी इन्द्रियों को वश में कर सका क्योंकि उसमे निम्नलिखित गुण थे,जिनका उल्लेख श्रीमदभागवत में (१. ४. १८. २० )हुआ है -

स वै मनः कृष्णपदारविन्दयोर्वचांसि वैकुंठगुणानुवर्णने। 

करौ हरेर्मन्दिरमार्जनादिषु   श्रुति चक्राच्युतसत्कथोदये।।

मुकुंदलिङ्गालयदार्शने  दृशौ तद्भृत्यगात्रस्पृशेगसंगमम। 

घ्राणं  च तत्पादसरोजसौरभे  श्रीमतुलस्या  रसनां तदर्पाति।। 

पादौ हरेः क्षेत्रपादानुसर्पणे  शिरों हृषीकेशपदाभिवंदने।

कामं च दास्ये न तु  कामकाम्यया यथोत्तमश्लोकजनाश्रया रतिः।। 

"राजा अंबरीष ने अपना मन भगवान् कृष्ण के चरणारविन्दों पर स्थिर कर दिया है अपनी वाणी भगवान् के धाम की चर्चा करने में लगा दी,अपने कानों को भगवान् की लीलाओं के सुनने में,अपने हाथों को भगवान् का मंदिर साफ़ करने में,अपनी आँखों को भगवान् का स्वरुप देखने में,अपने शरीर को भक्त के शरीर का स्पर्श करने में, अपनी नाक को भगवान् के चरणारविन्दों पर भेंट किये  गये फूलों की गन्ध सूंघने में,अपनी जीभ को उन्हें अर्पित तुलसी दलों काआस्वाद करने में,अपने पावों को जहाँ -जहाँ भगवान्  के मंदिर हैं, उन  स्थानों की यात्रा करने में,अपने सिर को भगवान् को नमस्कार करने में तथा अपनी इच्छाओं को भगवान की इच्छाओं को पूरा करने में लगा दिया और इन गुणों के कारण वे भगवान् के मत्पर भक्त बनने के योग्य हो गए। 

इस प्रसंग में मत्पर शब्द अत्यंत सार्थक है। कोई मत्पर किस तरह हो सकता है इसका वर्णन महाराज अंबरीष के जीवन में बताया गया है। मत्पर परम्परा के महान विद्वान् तथा आचार्य श्रील बलदेव विद्याभूषण का  कहना है -मद्भक्ति प्रभावेन सर्वेन्द्रियविजयपूर्विका  स्वात्मदृष्टिः सुलभेति भावः -इन्द्रियों को केवल कृष्ण की भक्ति के बल से वश में किया जा सकता है-कभी-कभी अग्नि का भी उदाहरण दिया जाता है -"जिस प्रकार जलती हुई अग्नि कमरे  की सारी वस्तुएँ जला देती है उसी प्रकार  योगी के ह्रदय में स्थित भगवान् विष्णु सारे मलों को जला देते हैं"। योग -सूत्र भी विष्णु का ध्यान आवश्यक बताता है,शून्य का नहीं। तथाकथित योगी जो विष्णु पद को छोड़कर अन्य किसी वास्तु का ध्यान धरते हैं,वे केवल मृगमरीचिकाओं की खोज में वृथा ही अपना समय गंवाते हैं। हमें कृष्णभावनाभावित होना चाहिए -भगवान् के प्रति अनुरक्त होना चाहिए। असली योग का यही उद्देश्य है।

क्रमशः  🙏🙏        

 

                                                                                                                                                                                                     

सोमवार, 5 अप्रैल 2021

BHAGAVAD GITA 2:60

🙏🙏

ययतो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः। 

इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति परसभं मनः।।६०।।

यतत:-प्रयत्न करते हुये; हि -निश्चय ही; अपि-के बावजूद; कौन्तेय -हे कुन्तीपुत्र; पुरुषस्य - मनुष्य की; विपश्चित -विवेक से युक्त; इन्द्रियाणि-इन्द्रियां; प्रमाथीनि-उत्तेजित; हरन्ति -फेंकती हैं; प्रसभम -बल से; मनः-मन को।

हे अर्जुन ! इन्द्रियां इतनी प्रबल तथा वेगवान हैं कि विवेकी पुरुष के मन को भी बलपूर्वक हर लेती हैं,जो उन्हें वश करने का  प्रयत्न करता है। 

तात्पर्य :-अनेक विद्वान,ऋषि,दार्शनिक तथा अध्यात्मवादी इन्द्रियों को वश में करने का प्रयत्न करते हैं,किन्तु उनमे से बड़े से बड़ा भी कभी -कभी विचलित मन के कारण इन्द्रियभोग का लक्ष्य बन जाता है। यहाँ तक कि विश्वामित्र जैसे महर्षि तथा पूर्ण योगी को मेनका के साथ विषय भोग में प्रवृत होना पड़ा,यद्दपि वे इन्द्रिय निग्रह के लिए कठिन तपस्या तथा योग कर रहे थे। विश्व इतिहास में तरह अनेक दृष्टान्त हैं। अतः पूर्णतया कृष्णभावनाभावित  हुए बिना मन तथा इन्द्रियों को वश में कर  सकना अत्यंत कठिन है। मन को कृष्ण में लगाये बिना मनुष्य ऐसे भौतिक कार्यों को बंद नहीं कर सकता।  परम साधु तथा भक्त यामुनाचार्य ने एक व्यावहारिक उदहारण प्रस्तुत किया है।  कहते हैं -

यदविधि  मम चेतः कृष्णपदारविन्दे 

              नवनवरसधामान्युद्यतं रन्तुमासीत। 

तदवधि बत नारीसंगमे स्मर्यमाने 

            भवति मुखविकारः सुष्ठु निष्ठीवनं च।।

"जब से मेरा मन भगवान् कृष्ण  के चरणारविन्दों की सेवा में लग गया है और जब से मैं नित्य नव दिव्य रस का अनुभव  करता हूँ,तब से स्त्री प्रसंग का विचार आते ही मेरा मन उधर से फिर जाता है और मैं ऐसे विचार का थू -थू करता हूँ।"

कृष्णभावनामृत इतनी दिव्य सुन्दर वस्तु है कि इसके प्रभाव से भौतिक भोग स्वतः नीरस हो जाता है। यह वैसा ही है जैसे कोई भूखा मनुष्य प्रचुर मात्रा में पुष्टिदायक भोजन करके अपनी भूख मिटा ले। महाराज अंबरीष भी परम योगी दुर्वासा मुनि पर इसलिए विजय पा सके क्योंकि उनका मन निरन्तर कृष्णभावनामृत में लगा रहता था। (स वै मनः कृष्णपदारविन्दयोः वचांसि बैकुंठगुणानुवर्णने) 

क्रमशः !!! 🙏🙏


     

   

  

  


शुक्रवार, 2 अप्रैल 2021

BHAGAVAD GITA 2:59

🙏🙏


 

विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः।



रसवर्ज रसोप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते।।५९।।



विषया -इन्द्रिय भोग की वस्तुएँ;विनिवर्तन्ते -दूर रहने के लिए अभ्यास की जाती है; निराहारस्य -निषेधात्मक प्रतिबंधों से; देहिनः -देहवान जीव के लिए;रास -वर्जम-स्वाद का त्याग करता है; रस:-भोगेच्छा; अपि -यद्धपि है; अस्य -उसका; परम -अत्यन्त उत्कृष्ट वस्तुएँ; दृष्टा -अनुभव होने पर;निवर्तते -वह समाप्त हो जाता है। 

देहधारी जीव इन्द्रिय भोग से भले ही निवृत हो जाये पर उसमे इन्द्रिय भोगों की इच्छा बनी रहती है। लेकिन उत्तम रस के अनुभव होने से ऐसे कार्यों को बंद करने पर वह भक्ति में स्थिर हो जाता है। 

तात्पर्य :-जब कोई अध्यात्म को प्राप्त न हो तब तक इन्द्रियभोग से वितरित होना असम्भव है। विधि -विधानों द्वारा इन्द्रियभोग को संयमित करने की विधि वैसी ही है जैसे किसी रोगी के किसी भोज्य पदार्थ खाने पर प्रतिबंध लगाना। किन्तु इससे रोगी की न तो भोजन के प्रति रूचि समाप्त होती है और न वह ऐसा प्रतिबन्ध लगाया जाना चाहता है। इसी प्रकार अल्पज्ञानी व्यक्तियों के लिए इन्द्रियसंयमन के लिए अष्टांग योग जैसी विधि की संस्तुति की जाती है जिसमे यम,नियम,आसन,प्राणायाम,प्रत्याहार,धारणा,ध्यान आदि सम्मिलित हैं। किन्तु जिसने कृष्णभावनामृत के पथ पर प्रगति के क्रम में परमेश्वर कृष्ण के सौन्दर्य का रसास्वादन  कर लिया है, उसे जड़ भौतिक वस्तुओं में कोई रूचि नहीं रह जाती। ऐसे प्रतिबन्ध अल्पज्ञानी नवदीक्षितों के लिए हैं। ऐसे प्रतिबन्ध तभी ठीक हैं,जब तक कृष्णभावनामृत में रूचि जागृत नहीं जाती जब वास्तव में रूचि जग जाती है,तो मनुष्य में स्वतः ऐसी वस्तुओं के प्रति अरुचि उत्पन्न हो जाती है। 

क्रमशः !!! 🙏🙏  

  

मंगलवार, 30 मार्च 2021

BHAGAVAD GITA 2:58

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यदा संहरते चायं कूर्मोङ्गनीव सर्वशः 

इन्द्रियाणिन्द्रीयार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।५८।।

यदा -जब संहरते -समेत लेता है; च -भी; अयम-यह; कुर्मः -कछुआ; इव -सदृश; सर्वशः -एकसाथ; इन्द्रियाणि -इन्द्रियां; इन्द्रिय -अर्थेभ्य:-इन्द्रिय विषयों से; तस्य-उसकी; प्रज्ञा -चेतना; प्रतिष्ठिता-स्थिर। 

जिस प्रकार कछुआ अपने अंगों को संकुचित करके खोल के भीतर कर लेता है,उसी तरह मनुष्य अपनी इन्द्रियों को इन्द्रिय विषयों से खींच लेता है,वह पूर्ण चेतना में दृढ़तापूर्वक स्थिर होता है। 

तात्पर्य :-किसी योगी,भक्त या आत्मसिद्ध व्यक्ति की कसौटी यह है कि वह अपनी योजना के अनुसार इन्द्रियों को वश में कर सके,किन्तु अधिकांश व्यक्ति अपनी इन्द्रयों के दास बने रहते हैं और इन्द्रियों के ही कहने पर चलते हैं। यह है उत्तर इस प्रश्न का कि योगी किस प्रकार स्थिर होता है। इन्द्रियों की तुलना विषैले सर्पों से की गयी है। वे अत्यंत स्वंत्रता पूर्वक तथा बिना किसी नियंत्रण के कर्म करना चाहती है। योगी या भक्त को इन सर्पों को वश में करने के लिए,एक सपेरे की भांति अत्यंत प्रबल होना चाहिए। वह उन्हें कभी भी कार्य करने की छूट नहीं देता। शास्त्रों में अनेक आदेश हैं,उनमे से कुछ करो तथा कुछ न करो से सम्बद्ध हैं। जब तक कोई इन,करो या न करो का पालन नहीं कर पाता और इन्द्रिय भोग पर संयम नहीं बरतता है तब तक उसका कृष्णभावनामृत में स्थिर हो पाना असम्भव है। यहाँ पर सर्वश्रेष्ठ उदहारण कछुवे का है। वह किसी भी समय अपने अंग समेट सकता है और पुनः विशिष्ट  उद्देश्यों से प्रकट कर सकता है। इसी प्रकार कृष्णभावनाभावित व्यक्तियों की इन्द्रियां भी केवल भगवान् की विशिष्ट सेवाओं के लिए काम आती हैं अन्यथा उनका संकोच कर लिया जाता है। अर्जुन को उपदेश दिया जा रहा है कि वह अपनी इन्द्रियों को आत्मतुष्टि न करके भगवान् के सेवा में लगाये। अपनी इन्द्रियों को सदैव भगवान् की सेवा में लगाये रखना कूर्म द्वारा प्रस्तुत दृष्टांत के अनुरूप है। जो अपनी इन्द्रियों को समेटे रखता है। 

क्रमशः !!!🙏🙏    

सोमवार, 29 मार्च 2021

BHAGAVAD GITA 2:57

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यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य श्रुभाश्रुभम। 

नाभिनन्दन्ति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।५७।।

यः -जो; सर्वत्र -सभी जगह; अनभिस्नेहः -स्नेहशून्य; तत -उस; प्राप्य-प्राप्त करके; श्रुभ-अच्छा; अश्रुभम -बुरा; न -कभी नहीं; अभिनन्दन्ति-प्रशंसा करना; द्वेष्टि-द्वेष करता है; तस्य -उसका; प्रज्ञा-पूर्ण ज्ञान; प्रतिष्ठिता -अचल। 

इस भौतिक जगत में जो व्यक्ति न तो शुभ की प्राप्ति से हर्षित होता है और न अशुभ के प्राप्त होने पर उससे घृणा करता है,वह पूर्ण ज्ञान में स्थिर होता है। 

तात्पर्य :- भौतिक जगत में सदा ही कुछ न कुछ उथल -पुथल होती रहती है -उसका परिणाम अच्छा हो चाहे बुरा। जो ऐसी उथल-पुथल से विचलित नहीं होता,जो अच्छे (शुभ ) या बुरे (अशुभ ) से अप्रभावित रहता है उसे कृष्णभावनामृत में स्थिर समझना चाहिए। जब तक मनुष्य इस भौतिक संसार में है तब तक अच्छाई या बुराई की सम्भावना रहती है क्योंकि यह संसार द्वैत (द्वंदों ) से पूर्ण है। किन्तु जो कृष्णभावनामृत में स्थिर है वह अच्छाई या बुराई से अछूता रहता है क्योंकि उसका सरोकार कृष्ण से रहता है जो सर्व मंगलमय है। ऐसे कृष्णभावनामृत से मनुष्य पूर्ण ज्ञान की स्थति प्राप्त कर लेता है,जिसे समाधि कहते हैं। 

क्रमशः !!!🙏🙏       

रविवार, 28 मार्च 2021

BHAGAVAD GITA 2:56

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दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः। 

वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते।।५६।।

दुःखेषु -तीनों तापों में;अनुद्विग्नमनाः-मन में विचलित हुए बिना; सुखेषु -सुख में; विगत -स्पृहः -रुचिरत होने; वीत -मुक्त; राग -आसक्ति; भय-भय; क्रोधः -तथा क्रोध से; स्थित -धीः -स्थिर मन वाला; मुनिः-मुनि; उच्यते कहलाता है। 

जो त्रय तापों के होने पर भी विचलित नहीं होता अथवा सुख में प्रसन्न नहीं होता और जो आसक्ति,भय तथा क्रोध से मुक्त है,वह स्थिर मन वाला मुनि कहलाता है। 

तात्पर्य :- मुनि शब्द का अर्थ है वह जो शुष्क चिंतन के लिए मन को अनेक प्रकार से उद्वेलित करे,किन्तु किसी तथ्य पर न पहुँच सके। कहा जाता है की प्रत्येक मुनि का अपना-अपना दृष्टिकोण होता है और जब एक मुनि अन्य मुनियों से भिन्न न हो तब तक उसे वास्तविक मुनि नहीं कहा जा सकता। न चासावृषिर्यस्य मतं न भिन्नं ( महाभारत वनपर्व ३१३.११७ )किन्तु जिस स्तधीः  मुनि का भगवान् ने यहाँ उल्लेख किया है वह सामान्य मुनि से भिन्न है। स्तधीः मुनि सदैव कृष्णभावनाभावित रहता है क्योंकि वह सारा सृजनात्मक चिंतन पूरा कर कर चुका होता है। वह प्रशांत निःशेषः मनोरथान्तर (स्तोत्र रत्न ४३ ) कहलाता है या जिसने शुष्क चिंतन की अवस्थ पार कर ली है और इस निष्कर्ष पर पहुंचा है कि भगवान् श्रीकृष्ण या वासुदेव ही सब कुछ है (वासुदेवःसर्वमतिः स महात्मा सदुर्लभः ) वह स्थिरचित मुनि कहलाता है। ऐसा कृष्णभावनाभावित व्यक्ति तीन तापों के संघात से तनिक भी विचलित नहीं होता क्योंकि वह इन कष्टों को भगवतकृपा के रूप में लेता है और पूर्ण पापों के कारण अपने को अधिक कष्ट के लिए योग्य मानता है और वह देखता है कि सारे दुःख भगवत्कृपा से रंचमात्र रह जाते हैं। इसी प्रकार जब वह सुखी होता है तो अपने को सुख के लिए अयोग्य मानकर इसका भी श्रेय भगवान् को देता है। वह सोचता है कि भगवत्कृपा से ही वह ऐसी सुखद स्थिति में है और भगवान् की सेवा और अच्छी तरह से कर सकता है। और भगवान की सेवा के लिए तो वह सदैव साहस करने के लिए सन्नद्ध रहता है। वह राग या विराग से प्रभावित नहीं होता। राग का अर्थ होता है अपनी इन्द्रियतृप्ति के लिए वस्तुओं को ग्रहण करना और विराग का अर्थ है ऐसी इन्द्रिय आसक्ति का आभाव। किन्तु कृष्णभावनामृत में स्थिर व्यक्ति में न राग होता है न विराग क्योंकि उसका पूरा जीवन भगवत्सेवा में अर्पित रहता है। फलतः सारे प्रयास असफल रहने पर भी वह क्रुद्ध नहीं होता। चाहे विजय हो या न हो, कृष्णभावनाभावित व्यक्ति अपने सकल्प का पक्का होता है। 

क्रमशः !!!🙏🙏      

शनिवार, 27 मार्च 2021

BHAGAVAD GITA 2:55

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श्रीभगवानुवाच

प्रजहाती यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान। 

आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थित्प्रगिस्तदोच्यते।।५५।।  

श्री-भगवानुवाच -श्रीभगवान ने कहा; परजहाती-त्यागता है; यदा -जब; कामान -इन्द्रियतृप्ति की इच्छाएं; सर्वान-सभी प्रकार की; पार्थ -हे पृथापुत्र; मनः-गतान -मनोरथ का; आत्मनि -आत्मा की शुद्ध अवस्था में;एव -निश्चय ही; आत्मना-विशुद्ध मन से; तुष्टः-संतुष्ट,प्रसन्न; स्थित-प्रज्ञः-अध्यात्म में स्थित; तदा -उस समय,तब; उच्यते -कहा जाता है। 
श्री भगवान् ने कहा -हे पार्थ ! जब मनुष्य मनोधर्म से उत्पन्न होने वाली इन्द्रियतृप्ति की समस्त कामनाओं का परित्याग कर देता है और जब इस तरह से विशुद्ध हुआ उसका मन आत्मा में संतोष प्राप्त करता है तो वह विशुद्ध दिव्य चेतना को प्राप्त (स्थित प्रज्ञ) कहा जाता है। 

तात्पर्य :-श्रीमदभागवत में पुष्टि हुई है कि जो मनुष्य पूर्णतया कृष्णभावनाभावित या भगवद्भक्त होता है उसमे महर्षियों के समस्त सद्गुण पाए जाते हैं,किन्तु जो व्यक्ति अध्यात्म में स्थित नहीं होता उसमे एक भी योग्यता नहीं होती क्योंकि वह अपने मनोधर्म पर ही आश्रित रहता है। फलतः यहाँ ठीक ही कहा गया है कि व्यक्ति को मनोधर्म द्वारा कल्पित सारी विषय-वासनाओं को त्यागना होता है  कृत्रिम साधन से इनको रोक पाना सम्भव नहीं। किन्तु यदि कोई कृष्णभावनामृत में लगा हो तो सारी विषय-वासनाएं स्वतः बिना किसी प्रयास के दब जाती हैं। अतः मनुष्य को बिना किसी झिझक के कृष्णभावनामृत में लगना होगा क्योंकि यह भक्ति उसे  दिव्य चेतना प्राप्त करने में सहायक होगी। अत्यधिक उन्नत जीवात्मा (महात्मा ) अपने आपको परमेश्वर का शाश्वत दास मानकर आत्मतुष्ट रहता है। ऐसे आध्यात्मिक पुरुष  के पास भौतिकता से उत्पन्न एक भी विषय-वासना फटक नहीं पाती। वह अपने को निरन्तर भगवान् के सेवक मानते हुए सहज रूप में सदैव प्रसन्न रहता है।

क्रमशः !!!🙏🙏