Bhagavad Gita is the life management book and self motivational book. many peoples change there life by reading this book, this is not a religious book anybody, any religion can read for better future. many peoples got success his business from this energetic book, I'm writing a shloka a day so if anybody don't have enough time to read so you can read a shloka a day, Thanks.
BHAGAVAD GITA IN HINDI
सोमवार, 22 मार्च 2021
BHAGVAD GITA 2:50
रविवार, 21 मार्च 2021
BHAGAVAD GITA 2:49
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दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनञ्जय।
बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः।।४९।।
दूरेण -दूर से ही त्याग दो; हि -निश्चय ही; अवरम -गर्हित,निंदनीय; कर्म - कर्म; बुद्धि-योगात -कृष्णभावनामृत के बल पर;धनञ्जय -हे संम्पति को जीतने वाले ; बुद्धौ -ऐसी चेतना में; शरणम-पूर्ण समर्पण,आश्रय;अन्विच्छ -प्रयत्न करो; कृपणाः -कंजूस व्यक्ति; फल -हेतवः -सकाम कर्म की अभिलाषा वाले।
हे धनञ्जय ! भक्ति द्वारा समस्त गर्हित कर्मों से दूर रहो और उसी भाव से भगवान् की शरण ग्रहण करो। जो व्यक्ति अपने सकाम कर्म -फलों को भोगना चाहते हैं,वे कृपण हैं।
तात्पर्य :-जो व्यक्ति भगवान् के दास रूप में अपने स्वरुप को समझ लेता है वह कृष्णभावनामृत में स्थित रहने के अतिरिक्त सारे कर्मों को छोड़ देता है। जीव के लिए ऐसी भक्ति कर्म का सही मार्ग है। केवल कृपण ही अपने सकाम कर्मों का फल भोगना चाहते हैं,किन्तु इससे वे भवबन्धन में और अधिक फंसते जाते हैं। कृष्णभावनामृत के अतिरिक्त जितने भी कर्म संपन्न किये जाते हैं वे गर्हित हैं क्योंकि इससे कर्ता जन्म -मृत्यु के चक्र में लगातार फँसा रहता है। अतः कभी इसकी अकांक्षा नहीं करनी चाहिए कि मैं कर्म का कारण बनूँ । कृपणों को यह ज्ञात नहीं है कि दैववश या कठोर श्रम से अर्जित संम्पति का किस तरह सदुपयोग करें। मनुष्य को सारी शक्ति कृष्णभावनामृत अर्जित करने में लगानी चाहिए। इससे उसका जीवन सफल हो सकेगा। कृपणों की भांति अभागे व्यक्ति अपनी मानवी शक्ति को भगवान् की सेवा में नहीं लगाते।
क्रमशः !!!🙏🙏
शनिवार, 20 मार्च 2021
BHAGAVAD GITA 2:48
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योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय।
सिद्धयसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्चते।।४८।।
योगस्थः -समभाव होकर; कुरु -करो; सङ्गम -आसक्ति को; त्यक्त्वा -त्यागकर; धनञ्जय -हे अर्जुन; सिद्धि-असिद्धयो -सफलता तथा विफलता में; समः -समभाव;भूत्वा -होकर; समत्वम -समता; योगः -योग; उच्चते -कहा जाता है.
हे अर्जुन ! जय अथवा पराजय की समस्त आसक्ति त्याग कर समभाव से अपना कर्म करो। ऐसी समता योग कहलाती है।
तात्पर्य :- कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि वह योग में स्थित होकर कर्म करे और योग है क्या ? योग का अर्थ है सदैव चंचल रहने वाली इन्द्रियों को वश में रखते हुए परमतत्व में मन को एकाग्र करना। और परमतत्व कौन है ? भगवान् ही परमतत्व है और चूँकि वे स्वयं अर्जुन को युद्ध करने के लिए कह रहे हैं,अतः अर्जुन को युद्ध के फल से कोई सरोकार नहीं है। जय या पराजय कृष्ण के लिए विचारणीय है,अर्जुन को तो बस श्रीकृष्ण के निर्देशानुसार कर्म करना है। कृष्ण के निर्देश का पालन ही वास्तविक योग है और इसका अभ्यास कृष्णभावनामृत नामक विधि द्वारा किया जाता है। एकमात्र कृष्णभावनामृत के माध्यम से ही स्वामित्व भाव का परित्याग किया जा सकता है। इसके लिए उसे कृष्ण का दास या उनके दासों का दास बनना होता है। कृष्णभावनामृत में कर्म करने की यही एक विधि है जिससे योग में स्थित होकर कर्म किया जा सकता है।
अर्जुन क्षत्रिय है,अतः वह वर्णाश्रम -धर्म का अनुयायी है। विष्णु - पुराण में कहा गया है कि वर्णाश्रम -धर्म का एकमात्र उद्देश्य विष्णु को प्रसन्न करना है। सांसारिक नियम है कि लोग पहले अपनी तुष्टि करते हैं, किन्तु यहाँ तो अपने को तुष्ट न करके कृष्ण को तुष्ट करना है। अतः कृष्ण को तुष्ट किये बिना कोई वर्णाश्रम -धर्म का पालन कर भी नहीं सकता। यहाँ पर परोक्ष रूप से अर्जुन को कृष्ण द्वारा बताई गयी विधि के अनुसार कर्म करने का आदेश है।
क्रमशः !!! 🙏🙏
शुक्रवार, 19 मार्च 2021
BHAGAVAD GITA2:47
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कर्मण्यवादिकारस्ते माँ फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते सङ्गोस्त्वकर्मणि।।४७।।
कर्मणि -कर्म करने में; एव -निश्चय ही; अधिकारः -अधिकार; ते -तुम्हारा; मा -कभी नहीं; फलेषु -(कर्म )फलों में; कदाचन -कदापि;मा -कभी नहीं; कर्म फल -कर्मों का फल; हेतुः -कारण;भूः -होओ; मा -कभी नहीं; ते -तुम्हारी; सङ्ग -आसक्ति;अस्तु -हो; अकर्मणि -कर्म न करने में।
तुम्हें अपना कर्म (कर्तव्य )करने का अधिकार है,किन्तु कर्म के फलों के तुम अधिकारी नहीं हो। तुम न तो कभी अपने आप को अपने कर्मों के फलों का कारण मानों,न ही कर्म न करने में कभी आसक्त होओ।
तात्पर्य :-यहाँ पर तीन विचारणीय बातें हैं -कर्म (स्वधर्म ),विकर्म तथा अकर्म। कर्म ( स्वधर्म )वे कार्य हैं,जिनका आदेश प्रकृति के गुणों के रूप में प्राप्त किया जाता है। अधिकारी की सम्मति के बिना किये गये कर्म विकर्म कहलाते हैं और अकर्म का अर्थ है -अपने कर्मों को न करना। भगवान् ने अर्जुन को उपदेश दिया कि वह निष्क्रिय न हो,अपितु फल के प्रति आसक्त हुए बिना अपना कर्म करे। कर्म फल के प्रति आसक्त रहने वाला भी कर्म का कारण है। इस तरह वह ऐसे कर्मफलों का भोक्ता होता है।
जहाँ तक निर्धारित कर्मों का सम्बन्ध है वे तीन उपश्रेणियों के हो सकते है यथा नित्य कर्म,आपातकालीन कर्म,इच्छित कर्म। नित्यकर्म फल की इच्छा बिना शास्त्रों के निर्देशानुसार सतोगुण में रहकर किये जाते हैं। फल युक्त कर्म बन्धन के कारण बनते हैं,अतः ऐसे कर्म अशुभ हैं। हर व्यक्ति को अपने कर्म पर अधिकार है,उसे फल से अनासक्त होकर कर्म करना चाहिए। ऐसे निष्काम कर्म निस्संदेह मुक्ति पथ की और ले जाने वाले हैं।
अतएव भगवान् ने अर्जुन को फलशक्ति रहित होकर कर्म (स्वधर्म)के रूप में युद्ध करने की आज्ञा दी। उसका युद्ध बिमुख होना आसक्ति का दूसरा पहलू है। ऐसी आसक्ति से कभी मुक्ति पथ की प्राप्ति नहीं हो पाती। आसक्ति चाहे स्वीकारात्मक हो या निषेधात्मक,वह बन्धन का कारण है। अकर्म पापमय है। अतः कर्तव्य के रूप में युद्ध करना ही अर्जुन के लिए मुक्ति का एकमात्र कल्याणकारी मार्ग था।
क्रमशः !!!🙏🙏
गुरुवार, 18 मार्च 2021
BHAGAVAD GITA 2:46
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यावनर्थ उदपाने सर्वतः सम्प्लुतोदके।
तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः।।४६।।
यावान -जितना सारा; अर्थः -प्रयोजन होता है; उड़ -पाने -जलकूप में; सर्वतः -सभी प्रकार से; सम्प्लुत -उदके -विशाल जलाशय में; तावान -उसी तरह; सर्वेषु -समस्त; वेदेषु -वेदों में;ब्राह्मणस्य -परब्रह्म को जानने वाले का;विजानतः -पूर्ण ज्ञानी का।
एक छोटे से कूप का सारा कार्य एक विशाल जलाशय से तुरंत पूरा हो जाता है। इसी प्रकार वेदों के आंतरिक तात्पर्य जानने वाले को उनके सारे प्रयोजन सिद्ध हो जाते हैं।
तात्पर्य :-वेदों के कर्मकांड विभाग में वर्णित अनुष्ठानों एवं यज्ञों का ध्येय आत्म - साक्षात्कार के क्रमिक विकास को प्रोत्साहित करना है। और आत्म -साक्षात्कार का ध्येय भगवदगीता के पन्द्रहवें अध्याय में (१५.१५ )इस प्रकार स्पष्ट किया गया है -वेद अध्ययन का ध्येय जगत के आदि कारण भगवान् कृष्ण को जानना है।अतः आत्म -साक्षात्कार का अर्थ है -कृष्ण को तथा उनके साथ शाश्वत सम्बन्ध को समझना। कृष्ण के साथ जीवों के सम्बन्ध का भी उल्लेख भगवदगीता के पन्द्रहवें अध्याय में (१५.७ )ही हुआ है। जीवात्माएं भगवान् के अंश स्वरुप हैं, अतः प्रत्येक जीव द्वारा कृष्णभावनामृत को जागृत करना वैदिक ज्ञान की सर्वोच्च पूर्णावस्था है। श्रीमदभागवत में (३.३३.७ )इसकी पुष्टि इस प्रकार हुई है -
अहो बात श्र्वपचोतो गरीयान यज्जिह्वाग्रे वर्तते नाम तुभ्यम।
तेपुस्तपस्ते जुहुवः सस्त्रुरार्या ब्रह्मानुचुर्नाम गृणन्ति ये ते।।
"हे प्रभो ,आपके पवित्र नाम का जाप करने वाला भले ही चांडाल जैसे निम्न परिवार में क्यों न उत्पन्न हुआ हो,किन्तु वह आत्म -साक्षात्कार के सर्वोच्च पद पर स्थित होता है। ऐसा व्यक्ति अवश्य ही वैदिक अनुष्ठानों के अनुसार सारी तपस्याएं संपन्न किये होता है और अनेकानेक बार तीर्थस्थानों में स्नान करके वेदों का अध्ययन किये होता है। ऐसा व्यक्ति आर्यकुल में सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। "
अतः मनुष्य को इतना बुद्धिमान तो होना ही चाहिए कि केवल अनुष्ठानों के प्रति आसक्त न रह कर वेदों के उद्देश्य को समझें और अधिकाधिक इन्द्रियतृप्ति के लिए ही स्वर्गलोक जाने की कामना न करे। इस युग में सामान्य व्यक्ति के लिए न तो वैदिक अनुष्ठानों के समस्त विधि -विधानों का पालन करना सम्भव है और न सारे वेदांत तथा उपनिषदों का सर्वांग अध्ययन कर पाना सहज है। वेदों के उद्देश्य को संपन्न करने के लिए प्रचुर समय,शक्ति ,ज्ञान तथा साधन की आवश्यकता होती है। इस युग में ऐसा कर पाना संभव नहीं है, किन्तु वैदिक संस्कृति का परम लक्ष्य भगवन्नाम कीर्तन द्वारा प्राप्त हो जाता है जिसकी संस्तुति पतितात्माओं के उद्धारक भगवान् चैतन्य द्वारा हुई है। जब चैतन्य से महान वैदिक पंडित प्रकाशानंद सरस्वती ने पूछा कि आप वेदांत दर्शन का अध्ययन न करके एक भावुक की भांति पवित्र नाम का कीर्तन क्यों करते हैं तो उन्होंने उत्तर दिया कि मेरे गुरु ने मुझे बड़ा मूर्ख समझकर भगवान् कृष्ण के नाम का कीर्तन करने की आज्ञा दी। अतः उन्होंने ऐसा ही किया और वे पागल की भांति भावोन्मत हो गये। इस कलियुग में अधिकांश जनता मूर्ख है और वेदांत दर्शन समझ पाने के लिए पर्याप्त शिक्षित नहीं है न.वेदांत दर्शन के परम उद्देश्य की पूर्ति भगवान के पवित्र नाम का कीर्तन करने से हो जाती है। वेदांत वैदिक ज्ञान की पराकाष्ठा है और वेदांत दर्शन के प्रणेता तथा ज्ञाता भगवान् कृष्ण हैं। सबसे बड़ा वेदांती तो वह महात्मा है, जो भगवान् के पवित्र नाम का जप करने में आनन्द लेता है। सम्पूर्ण वैदिक रहस्यवाद का यही चरम उद्देश्य है। 🙏🙏
क्रमशः !!!
बुधवार, 17 मार्च 2021
BHAGAVAD GITA 2:45
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त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन।
निर्द्वन्दों नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान।।४५।।
त्रै -गुण्य -प्राकृतिक तीनो गुणों से सम्बन्धित; विषयाः -विषयों में; वेदाः- वैदिक साहित्य; निस्त्रै-गुण्यः -प्रकृति के तीनो गुणों से परे ; भव -होओ; अर्जुन-हे अर्जुन;निर्द्वन्द -द्वैतभाव से मुक्त; नित्य-सत्त्व-स्थः -नित्य शुद्धसत्व में स्थित ; निर्योग -क्षेमः -लाभ तथा रक्षा के भाव से युक्त ; आत्म-वान -आत्मा में स्थित।
वेदों में मुख्यतया तीनों का वर्णन वर्णन हुआ है। हे अर्जुन ! इन तीनों गुणों से ऊपर उठो। समस्त द्वैतों और लाभ तथा सुरक्षा सारी चिंताओं से मुक्त होकर आत्मपरायण बनों।
तात्पर्य :-सारे भौतिक कार्यों में प्रकृति के तीनों गुणों की क्रियायें तथा प्रतिकिर्याएँ निहित होती हैं। इनका उद्देश्य -कर्म फल होता है, जो भौतिक जगत में बन्धन का कारण है। वेदों में मुख्यतया सकाम कर्मों का वर्णन है जिससे सामान्य जन क्रमशः इन्द्रियतृप्ति के क्षेत्र से उठकर आध्यात्मिक धरातल तक पहुँच सकें। कृष्ण अपने शिष्य तथा मित्र के रूप में अर्जुन को सलाह देते हैं कि वह वेदांत दर्शन के आध्यात्मिक पद तक ऊपर उठें जिसका प्रारम्भ ब्रह्म -जिज्ञासा अथवा परम आध्यात्मिकता पर प्रश्नों से होता है। इस भौतिक जगत के सारे प्राणी अपने अस्तित्व के लिए कठिन संघर्ष करते रहते हैं। उनके लिए भगवान् ने इस भौतिक जगत की सृष्टि करने के पश्चात वैदिक ज्ञान प्रदान किया जो जीवन यापन तथा भवबन्धन से छूटने का उपदेश देता है। जब इन्द्रियतृप्ति के कार्य तथा कर्मकांड समाप्त हो जाते हैं तो उपनिषदों के रूप में भगवत साक्षात्कार का अवसर प्रदान किया जाता है। ये उपनिषद विभिन्न वेदों के अंश हैं उसी प्रकार जैसे भगवदगीता पंचम वेद महाभारत का एक अंग है। उपनिषदों से आध्यात्मिक जीवन का सुभारम्भ होता है।
जब तक भौतिक शरीर का अस्तित्व है तब तक भौतिक गुणों की क्रियायेँ -प्रतिक्रियाएं होती रहती हैं। मनुष्य को चाहिए कि सुख दुःख या शीत -ग्रीष्म जैसी द्वैतताओं को सहन करना सीखे और इस प्रकार हानि तथा लाभ की चिंता से मुक्त हो जाय। जब मनुष्य कृष्ण की इच्छा पर पूर्णतया आश्रित रहता है तो यह दिव्य अवस्था प्राप्त होती है।
क्रमश !!!
मंगलवार, 16 मार्च 2021
BHAGAVAD GITA 2:44
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भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम।
व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते।।४४।।
भोग -भौतिक भोग; ऐश्वर्य -तथा ऐश्वर्य के प्रति; प्रसक्तानां-अशक्तों के लिए; तया -ऐसी वस्तुओं से; अपहृत -चेतसाम-मोहग्रसित चित्त वाले;व्यवसाय -अत्मिका -दृढ निश्चय वाली; बुद्धिः-भगवान की भक्ति; समाधौ-नियंत्रित मन में; न -कभी नहीं; विधीयते-घटित होती है।
जो लोग इन्द्रियभोग तथा भौतिक ऐश्वर्य के प्रति अत्यधिक आसक्त होने से ऐसी वस्तुओं से मोहग्रस्त हो जाते हैं,उनके मनों में भगवान् के प्रति दृढ़ निश्चय नहीं होता।
तात्पर्य :-समाधि का अर्थ है "स्थिर मन "वैदिक शब्दकोश निरूक्ति के अनुसार -सम्यग आधियति स्मिन्नात्मतयाथात्म्यम -जब मन आत्मा को समझने में स्थिर रहता है तो उसे समाधि । जो लोग इन्द्रियभोग में रुचि रखते हैं अथवा जो ऐसी क्षणिक वस्तुओं से मोहग्रस्त हैं उनके लिए समाधि कभी भी सम्भव नहीं है। माया के चक्कर में पड़कर वे न्यूनाधिक पतन को प्राप्त होते हैं।
क्रमशः !!! 🙏🙏