शनिवार, 20 फ़रवरी 2021

BHAGAVAD GITA 2:19

🙏🙏 य एनं वेति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम। 

उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते।।१९।।

यः-जो; एनम -इसको; वेत्ति-जानता है; हन्तारम-मारने वाला; यः -जो; च -भी; एनम-इसे; मन्यते -मानता है; हतम -मरा हुआ; उभौ -दोनों; तौ -वे; न -कभी नहीं; विजानीत-जानते है; न -कभी नहीं; अयम-यह; हन्ति -मारता है; न -नहीं; हन्यते -मारा जाता है। 

जो इस जीवात्मा को मारने वाला समझता है तथा जो इसे मरा हुआ समझता है; वे जो अज्ञानी हैं, क्योंकि आत्मा न तो मारता है और न मारा जाता है। 

तात्पर्य :- जब देहधारी जीव को किसी घातक हथियार से आघात पहुँचाया जाता है तो यह समझ लेना चाहिए कि शरीर के भीतर का जीवात्मा मरा नहीं। आत्मा इतना सूक्ष्म है कि इसे किसी तरह के भौतिक हथियार से मार पाना असम्भव है, जैसा की अगले श्लोकों से स्पष्ट हो जायेगा। न ही जीवात्मा अपने आध्यात्मिक स्वरूप के कारण वध्य है। जिसे मारा जाता है या जिसे मरा हुआ समझा जाता है वह केवल शरीर होता है। किन्तु इसका तात्पर्य शरीर का वध को प्रोत्साहित करना नहीं। वैदिक आदेश है -मा हिंस्यात सर्वा भूतानि -किसी भी जीव की हिंसा न करो। न ही 'जीवात्मा का अवध्य है' का अर्थ यह है कि पशु -हिंसा को प्रोत्साहन दिया जाय। किसी भी जीव के शरीर की अनाधिकार हत्या करना निंद्य है और राज्य तथा भगवदविधान के द्वारा दंडनीय है। किन्तु अर्जुन को तो धर्म के नियमानुसार मारने के लिए नियुक्त किया जा रहा था, किसी पागलपनवश नहीं। 🙏🙏

क्रमशः !!!   

  

शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2021

BHAGAVAD GITA 2:18

अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः 

अनाशिनो प्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत।।१८।।

अन्त-वंत -नाशवान; इमे -ये सब; देहा -भौतिक शरीर; नित्यस्य -नित्य स्वरुप; उक्ताः -कहे जाते हैं; शरीरिणः-देहधारी जीव का; अनाशिनः -कभी नाश न होने वाला;अप्रमेयस्य -न मापा जा सकने योग्य; तस्मात् -अतः; युध्यस्य-युद्ध करो; भारत हे भरतवंशी। 

अविनाशी, अप्रमेय तथा शाश्वत जीव के भौतिक शरीर का अन्त अवस्यम्भावी है। अतः हे भरतवंशी !युद्ध करो। 

तात्पर्य :- भौतिक शरीर स्वभाव से नाशवान है। यह तत्क्षण नष्ट हो सकता है और सौ वर्ष बाद भी। यह केवल समय की बात है। इसे अनन्त काल तक बनाये रखने की कोई सम्भावना नहीं है। किन्तु आत्मा इतना सूक्ष्म है कि इसे शत्रु देख भी नहीं सकता,मारना तो दूर रहा। जैसा कि पिछले श्लोक में कहा गया है,यह इतना सूक्ष्म है कि कोई इसके मापने की बात सोच भी नहीं सकता। अतः दोनों ही दृष्टि से शोक का कोई कारण नहीं है क्योंकि जीव जिस रूप में है, न तो उसे मारा जा सकता है,न ही शरीर को कुछ समय तक या स्थायी रूप से बचाया जा सकता है। पूर्ण आत्मा के सूक्ष्म कण अपने कर्म के अनुसार ही यह शरीर धारण करते हैं,अतः धार्मिक नियमों का पालन करना चाहिए। वेदांत -सूत्र में जीव को प्रकाश बताया गया है क्योंकि वह परम प्रकाश का अंश है। जिस प्रकार सूर्य का प्रकाश  सारे ब्रह्माण्ड का पोषण करता है उसी प्रकार आत्मा के प्रकाश से इस भौतिक देह का पोषण होता है। जैसे ही आत्मा इस भौतिक शरीर से बाहर निकल जाता है,शरीर सड़ने लगता है,अतः आत्मा ही शरीर का पोषक है। शरीर अपने आप में महत्वहीन है। इसलिए अर्जुन को उपदेश दिया गया कि वह युद्ध करे और भौतिक शरीरिक कारणों से धर्म की बलि न  होने दे। 

क्रमशः !!!   

गुरुवार, 18 फ़रवरी 2021

BHAGAVAD GITA 2:17

 अविनाशी तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम। 

विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चितकर्तुमर्हति।।१७।।

अविनाशी -नाशरहित; तु -लेकिन; तत -उसे; विद्धि -जानो; येन -जिससे; सर्वम -सम्पूर्ण,शरीर; इदम -यह; ततम -परिव्याप्त; विनाशम -नाश; अव्ययस्य -अविनाशी का; अस्य -इस; न कश्चित् -कोई भी नहीं; कर्तुम -करने के लिए; अर्हति -समर्थ है। 

जो सारे शरीर में व्याप्त है उसे ही तुम अविनाशी समझो।इस अव्यय आत्मा को नष्ट करने में कोई भी समर्थ  नहीं है। 

तात्पर्य :- इस श्लोक में सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त आत्मा की प्रकृति का अधिक स्पष्ट वर्णन हुआ है। सभी लोग समझते हैं कि जो सारे शरीर में व्याप्त है वह चेतना है। प्रत्येक व्यक्ति को शरीर में किसी अंश या पुरे भाग में सुख दुःख का अनुभव होता है। किन्तु चेतना की यह व्याप्ति किसी शरीर तक ही सीमित रहती है। एक शरीर से सुख या दुःख का बोध दूसरे शरीर को नहीं हो पाता। फलतः प्रत्येक शरीर में व्यष्टि आत्मा है और इस आत्मा की उपस्थिति का लक्षण व्यष्टि चेतना द्वारा परिलक्षित होता है। इस आत्मा बाल के अग्रभाग के दस हजारवें भाग के तुल्य बताया जाता है। श्वेतश्वतर उपनिषद में (५.९ )इसकी पुष्टि हुई है -

बालग्रशतभागस्य  शतधा  कल्पितस्य च। 

भागो  जीवः स विज्ञेय : स  चानन्त्याय  कल्पते।। 

"यदि बाल के अग्रभाग  को एक सौ भागों में बिभाजित किया जाय और फिर इनमे से प्रत्येक भाग को एक सौ भागों में विभाजित किया जाय तो इस तरह के प्रत्येक भाग की माप आत्मा का परिमाप है। इसी प्रकार यही कथन निम्नलिखित श्लोक में मिलता है -

केशारग्रशतभागस्य  शतांशः सादृश्यात्मकः।

जीवः सूक्ष्मस्वरुपोयं  संख्यातीतो  हि  चित्कणः।। 

 "आत्मा के परमाणुओं के अनंत कण हैं जो माप में बाल के अगले भाग (नोक) के दस हजारवें भाग के बराबर है। "

इस प्रकार आत्मा का प्रत्येक कण भौतिक परमाणुओं से भी छोटा है और ऐसे असंख्य कण हैं। यह अत्यंत लघु आत्म -स्फुलिंग भौतिक शरीर का मूल आधार है और इस आत्म स्फुलिंग का प्रभाव सारे शरीर में उसी तरह व्याप्त है जिस प्रकार किसी औषधि का प्रभाव व्याप्त रहता है। आत्मा की यह धारा (विद्धुत धारा)सारे शरीर में चेतना के रूप में अनुभव की जाती है और यही आत्मा का प्रमाण है। सामान्य से सामान्य व्यक्ति भी समझ सकता है कि यह भौतिक शरीर चेतनारहित होने पर मृतक हो जाता है और शरीर में इस चेतना को किसी भी भौतिक उपचार से वापस नहीं लाया जा सकता। अतः यह चेतना भौतिक संयोग के फलस्वरूप नहीं है, अपितु  कारण मुण्डक उपनिषद में (३.१.९ ) सूक्ष्म परमाणविक आत्मा की और अधिक विवेचना हुई है -

एषोणुरात्मा  चेतसा  वेदितव्यो यस्मिन्प्राण पञ्चधा संविवेश। 

प्राणैश्चितं  सर्वमोतं  प्रजानां  यस्मिन  विशुद्धे  विभवत्येष  आत्मा।। 

"आत्मा आकर में अणुतुल्य है जिसे पूर्ण बुद्धि के द्वारा जाना जा सकता है। यह अणु आत्मा पांच प्रकार के प्राणों में तैर रहा है ( प्राण, अपान,व्यान,समान  तथा उदान); यह ह्रदय के भीतर स्थित है और देहधारी जीव के पूरे शरीर में अपने प्रभाव का विस्तार करता है। जब आत्मा को पांच वायुओं के कल्मष से शुद्ध कर लिया जाता है तो इसका आद्यात्मिक प्रभाव प्रकट होता है। "

हठ योग का प्र्योजन विविध आसनो द्वारा उन पांच प्रकार प्राणों को नियंत्रित करना है, जो आत्मा को घेरे हुए हैं। यह योग किसी भौतिक लाभ के लिए नहीं,अपितु भौतिक आकाश के बन्धन से अणु -आत्मा की मुक्ति के लिए किया जाता है। 

इस प्रकार अणु आत्मा को सारे वैदिक साहित्य ने स्वीकारा है और प्रत्येक बुद्धिमान व्यक्ति अपने व्यावहारिक अनुभव से इसका प्रत्यक्ष अनुभव करता है। केवल मुर्ख व्यक्ति ही इस अणु आत्मा को सर्वव्यापी विष्णुतत्व के रूप में सोच सकता है। 

अणु-आत्मा का प्रभाव पुरे शरीर में व्याप्त हो  सकता है। मुण्डक उपनिषद के अनुसार यह अणु -आत्मा प्रत्येक जीव के ह्रदय में स्थित है और चूँकि भौतिक विज्ञानी इस अणु -आत्मा को माप सकने में असमर्थ हैं अतः उनमे से कुछ यह अनुभव करते हैं कि आत्मा है ही नहीं। व्यष्टि आत्मा तो  निस्संदेह परमात्मा के साथ -साथ ह्रदय में है और इसीलिए शारीरिक गतियों की सारी शक्ति शरीर के इसी भाग में उद्भूत है। जो लाल रक्तकण फेफड़ों से ऑक्सीजन ले जाते हैं  वे आत्मा से ही शक्ति  सकते हैं। अतः जब आत्मा इस स्थान से निकल जाता है तो रक्तोपादक संलयन बंद हो जाता है. औषधि विज्ञान लाल रक्तकणों की महत्ता को तो स्वीकार करता है,किन्तु वह यह निश्चित नहीं कर पाता कि शक्ति का स्रोत आत्मा है।  जो भी हो,औषधि विज्ञान यह स्वीकार करता है कि शरीर की सारी शक्ति का उद्गमस्थल ह्रदय है। 

पूर्ण आत्मा के ऐसे अणुकणों की तुलना सूर्य-प्रकाश के कणों से की  जाती है। इस सूर्य -प्रकाश में असंख्य तेजोमय अणु होते हैं। इसी प्रकार परमेश्वर के अंश उनकी किरणों के परमाणु स्फुल्लिंग है और प्रभा या पराशक्ति कहलाते हैं। अतः चाहे कोई वैदिक ज्ञान का अनुगामी हो या आधुनिक विज्ञान का,वह शरीर में आत्मा के अस्तित्व को नकार नहीं सकता। भगवान् ने स्वयं भगवदगीता में आत्मा से इस विज्ञान का विशद वर्णन किया है। 

क्रमशः !!!      

 

बुधवार, 17 फ़रवरी 2021

BHAGAVAD GITA 2:16

 🙏🙏

नासतो विद्दते भावो नभाओ विद्दते सतः। 

उभयोरपि दृष्टोन्तस्त्वनयोस्तत्वदर्शिभिः।।१६।।

न -नहीं; असत:-असत का; विद्दते -है; भावः-चिरस्थायित्व; न -कभी नहीं; अभावः -परिवर्तनशील गुण; विद्द्ते -है; सतः-शाश्वत का; उभयोः -दोनों का; अपि -ही; दृष्ट -देखा गया; अन्तः-निष्कर्ष; तु -निस्संदेह; अनयोः -इनका; तत्व-सत्य के; दर्शभिः-भविष्यद्रष्टा द्वारा। 

तत्वदर्शियों ने यह निष्कर्ष निकाला है कि असत (भौतिक शरीर) का तो कोई चिरस्थायित्व नहीं है,किन्तु सत (आत्मा ) अपरिवर्तित रहता है। उन्होंने इन दोनों की प्रकृति के अध्ययन द्वारा यह निष्कर्ष निकाला है। 

तात्पर्य :- परिवर्तनशील शरीर का कोई स्थायित्व नहीं है। आधुनिक चिकित्सा विज्ञान ने यह भी स्वीकार किया है कि विभिन्न कोशिकाओं की क्रिया -प्रतिक्रिया द्वारा शरीर प्रतिक्षण बदलता रहता है। इस तरह शरीर में वृद्धि तथा वृद्धावस्था आती रहती है। किन्तु शरीर तथा मन में निरंतर परिवर्तन होने पर भी आत्मा स्थायी रहता है। यही पदार्थ तथा आत्मा का अंतर है। स्वभावतः शरीर नित्य परिवर्तनशील है और आत्मा शाश्वत है। तत्वदर्शियों ने,चाहे वे निर्विशेषवादी हो हों या सगुणवादी,इस निष्कर्ष की स्थापना की है। (ज्योतिषिं विष्णुर्भवनानी विष्णु:) सत तथा असत शब्द आत्मा तथा भौतिक पदार्थ के ही द्योतक हैं। सभी तत्वदर्शियों की यही स्थापना है। 

यही से भगवान् द्वारा अज्ञान से मोहग्रस्त जीवों को उपदेश देने का शुभारम्भ होता है अज्ञान को हटाने के लिए आराधक और आराध्य के बीच पुनः शाश्वत सम्बन्ध स्थापित करना होता है और फिर अंश रूप जीवों तथा श्रीभगवान के अन्तर को समझना होता है। वेदान्त -सूत्र तथा श्रीमदभागवत में परमेश्वर को समस्त उदभवों (प्रकाश )का मूल माना गया है। ऐसे उदभवो का अनुभव परा तथा अपरा प्राकृतिक कर्मों द्वारा किया जाता है। जीव का सम्बन्ध परा प्रकृति से है,जैसा कि सातवें अध्याय में स्पष्ट होगा। यद्दपि शक्ति तथा शक्तिमान में कोई अन्तर नहीं है,किन्तु शक्तिमान को परम माना जाता है और शक्ति या प्रकृति को गौण। अतः सारे जीव उसी तरह परमेश्वर के सदैव अधीन रहते हैं जिस तरह सेवक स्वामी के या शिष्य गुरु के अधीन रहता है। अज्ञान अवस्था में ऐसे स्पष्ट ज्ञान को समझ पाना असम्भव है। अतः ऐसे अज्ञान को दूर करने के लिए सदा सर्वदा के लिए जीवों को प्रबुद्ध करने हेतु भगवान् भगवतगीता का उपदेश देते हैं। 🙏🙏

क्रमशः !!!     

मंगलवार, 16 फ़रवरी 2021

BHAGAVAD GITA 2:15

 🙏🙏यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषषर्भ। 

समदुःखसुखं धीरं सोमृतत्वाय कल्पते।।१५।।🙏🙏

यम -जिस; हि -निश्चित रूप से; न -कभी नहीं; व्यथयन्ति विचलित नहीं करते; एते -ये सब; पुरुषम मनुष्य को; पुरुष -ऋषभ -हे पुरुष श्रेष्ठ; सम -अपरिवर्तनीय; दुःख - दुःख में; सुखम -तथा सुख में; धीरम -धीर पुरुष; सः -वह; अमृतत्वाय -मुक्ति के लिए; कल्पते -योग्य है। 

हे पुरुषश्रेष्ठ  (अर्जुन ) !जो पुरुष सुख तथा दुःख में विचलित नहीं होता और इन दोनों में समभाव रखता है,वह निश्चित रूप से मुक्ति के योग्य है। 

तात्पर्य :-जो व्यक्ति आत्म साक्षात्कार की उच्च अवस्था प्राप्त करने के लिए दृढ़प्रतिज्ञ है और सुख तथा दुःख के प्रहारों को समभाव से सह सकता है वह निश्चय ही मुक्ति के योग्य है। वर्णाश्रम -धर्म में चौथी अवस्था अर्थात संन्यास आश्रम कष्टसाध्य अवस्था है। किन्तु जो अपने जीवन को सचमुच पूर्ण बनाना चाहता है वह समस्त कठिनाइयों के होते हुए भी संन्यास आश्रम अवश्य ग्रहण करता है। ये कठिनाइयां पारिवारिक सम्बन्ध विच्छेद करने तथा पत्नी और संतान से सम्बन्ध तोड़ने के कारण उत्पन्न होती हैं। किन्तु यदि कोई इन कठिनाइयों को सह लेता है तो उसके आत्म साक्षात्कार का पथ निष्कंटक हो जाता है। अतः अर्जुन को क्षत्रिय धर्म निर्वाह में दृढ़ रहने के लिए कहा जा रहा है,भले ही स्वजनों तथा अन्य प्रिय व्यक्तियों के साथ युद्ध करना कितना ही दुष्कर क्यों न हो। भगवान् चैतन्य ने चौबीस वर्ष की अवस्था में ही संन्यास ग्रहण कर लिया था यद्दपि उनपर आश्रित उनकी तरुण पत्नी तथा वृद्धा माँ की देखभाल करने वाला अन्य कोई न था। तो भी उच्चादर्श के लिए उन्होंने संन्यास ग्रहण किया और अपने कर्तव्यपालन में स्थिर बने रहे। भवबंधन से मुक्ति पाने का यही एकमात्र उपाय है। 

क्रमशः !!!

सोमवार, 15 फ़रवरी 2021

BHAGAVAD GITA 2:14

 मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुः खदाः। 

आगमापायिनो नित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत।।१४।।

मात्रा -स्पर्शाः -इन्द्रियविषय; तु -केवल; कौन्तेय -हे कुन्तीपुत्र; शीत -जाड़ा; उष्ण -ग्रीष्म; सुख -सुख; दुःख -दुःख; दाः -देने वाले; आगम -आना; अपायिनः -जाना; अनित्याः -क्षणिक; तान- उनको; तितिक्षस्व -सहन करने का प्रयत्न करो; भारत-हे भरतवंशी। इन्द्रयबोध से 

हे कुन्तीपुत्र !सुख तथा दुःख का क्षणिक उदय तथा कालक्रम में उनका अंतर्ध्यान होना सर्दी तथा गर्मी की श्रतुओं के आने जाने के समान है। हे भरतवंशी  !वे इन्द्रियबोध से उत्पन्न होते हैं और मनुष्य को चाहिए कि अविचल भाव से उनको सहन करना सीखे। 

तात्पर्य :- कर्तव्य निर्वाह करते हुए मनुष्य को सुख या दुःख के क्षणिक आने-जाने को सहन करने का अभ्यास करना चाहिए। वैदिक आदेशासनुसार मनुष्य को माघ के मास में प्रातःकाल स्नान करना चाहिए। उस समय अत्यधिक ठण्ड  पड़ती है,किन्तु जो धार्मिक नियमो का पालन करने वाला है,वह स्नान करने में तनिक भी नहीं झिझकता। इसी प्रकार एक गृहणी भीषण से भीषण गर्मी की श्रतु में भोजन पकाने में हिचकती नहीं। जलवायु सम्बन्धी असुविधायें होते हुए भी मनुष्य को अपना कर्तव्य निभाना होता है। इसी प्रकार युद्ध करना क्षत्रिय का धर्म है, अतः उसे अपने किसी भी मित्र या परिजन से युद्ध करना पड़े तो उसे अपने धर्म से विचलित नहीं होना चाहिए। मनुष्य को ज्ञान प्राप्त करने के लिए धर्म के विधि -विधान पालन करने होते हैं क्योंकि ज्ञान तथा भक्ति से ही मनुष्य अपने आप को माया के बंधन से छुड़ा सकता है। 

अर्जुन को जिन दो नामों से सम्बोधित किया गया है,वे भी महत्वपूर्ण है। कौन्तेय कहकर सम्बोधित करने से यह प्रकट होता है कि वह अपनी माता की ओर (मातृकुल)   से सम्बंधित है और भारत कहने से उसके पिता की ओर (पितृकुल )  से सम्बन्ध प्रकट होता है। दोनों ओर से उसको महान विरासत प्राप्त है। महान विरासत प्राप्त होने के फलस्वरूप कर्त्तव्यनिर्वाह का उत्तरदायित्व आ पड़ता है,अतः अर्जुन युद्ध से विमुख नहीं हो सकता।

क्रमशः  !!!

                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                       

    

रविवार, 14 फ़रवरी 2021

BHAGAVAD GITA 2:13

🙏🙏 देहिनोस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा। 

तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति।।१३।🙏🙏

  देहिनः -शरीर धारी की; अस्मिन -इसमें; यथा -जिस प्रकार; देहे -शरीर में; कौमारं -बाल्यावस्था; यौवनम-यौवन,तारुण्य; जरा-वृद्धावस्था; तथा -उसी प्रकार; देह -अंतर -शरीर के स्थानांतरण की; प्राप्ति -उपलब्धि; धीर -धीर व्यक्ति; तत्र -उस विषय में; न -कभी नहीं; मुह्यति -मोह को प्राप्त होता है। 

जिस प्रकार शरीर धारी आत्मा इस (वर्तमान) शरीर में बाल्यावस्था से तरुणावस्था में और फिर वृद्धावस्था में निरन्तर अग्रसर होता रहता है,उसी प्रकार मृत्यु होने पर आत्मा दूसरे में चला जाता है। धीर व्यक्ति ऐसे परिवर्तन से मोह को प्राप्त नहीं होता।   

तात्पर्य :- प्रत्येक जीव एक व्यष्टि आत्मा है। वह प्रतिक्षण अपना शरीर बदलता रहता है -कभी बालक रूप में,कभी युवा तथा वृद्ध पुरुष के रूप में। तो भी आत्मा वही रहता है, उसमे कोई परिवर्तन नहीं होता। यह व्यष्टि आत्मा मृत्यु होने पर अंततोगत्वा एक शरीर बदलकर दूसरे शरीर में देहान्तरण कर जाता है और चूँकि अगले जन्म में इसको शरीर मिलना अवस्यम्भावी है-चाहे वह शरीर आध्यात्मिक हो या भौतिक-अतः अर्जुन के लिए न तो भीष्म, न ही द्रोण के लिए शोक करने का कोई कारण था। अपितु उसे प्रसन्न होना चाहिए था कि वे अपने पुराने शरीरों को बदल कर नयें शरीर ग्रहण करेंगे और इस तरह वे नई शक्ति प्राप्त करेंगे। ऐसे शरीर -परिवर्तन से जीवन में किये कर्म के अनुसार नाना प्रकार के सुखोपभोग या कष्टों का लेखा हो जाता है। चूँकि भीष्म व द्रोण साधु पुरुष थे इसलिए अगले जन्म में उन्हें आध्यात्मिक शरीर प्राप्त होंगे; नहीं तो कम से कम उन्हें स्वर्ग में भोग करने के शरीर प्राप्त होंगे ही,अतः दोनों ही दशाओं में शोक का कोई कारण नहीं था। जिस मनुष्य की व्यष्टि आत्मा,परमात्मा तथा भौतिक और आध्यात्मिक प्रवृति का पूर्ण ज्ञान होता है वह धीर कहलाता है। ऐसा ऐसा मनुष्य कभी भी शरीर -परिवर्तन द्वारा ठगा नहीं जाता। 

आत्मा के एकात्मवाद का मायावादी सिद्धांत मान्य नहीं हो सकता क्योंकि आत्मा के इस प्रकार विखंडन से परमेस्वर विखंडनीय या परिवर्तनशील हो जायेगा,जो परमात्मा के अपरिवर्तनीय होने के सिद्धांत के विरुद्ध होगा। गीता में पुष्टि हुई है कि परमात्मा के खण्डों का शाश्वत या सनातन अस्तित्व है,जिन्हें क्षर कहा जाता है अर्थात उनमे भौतिक प्रकृति में गिरने की प्रवृति हो जाती है। ये भिन्न अंश नित्य भिन्न रहते हैं,यहाँ तक की मृत्यु के बाद भी व्यष्टि आत्मा जैसा का तैसा -भिन्न अंश बना रहता है। किन्तु एक बार मुक्त होने पर वह श्री भगवान् के साथ सच्चिदानंद रूप में रहता है। परमात्मा पर प्रतिबिम्ब वाद का सिद्धांत व्यवहृत किया जा सकता है, जो प्रत्येक शरीर में विद्दमान रहता है। वह व्यष्टि जीव से भिन्न होता है। जब आकाश का प्रतिबिम्ब जल में पड़ता है तो प्रतिबिम्ब में सूर्य चंद्र तथा तारे सभी कुछ रहते हैं। तारों की तुलना जीवों से तथा सूर्य या चंद्र की परमेश्वर से की जा सकती है। व्यष्टि अंश आत्मा को अर्जुन के रूप में और परमात्मा को श्री भगवान् के रूप में प्रदर्शित किया जाता है। जैसा की चतुर्थ अध्याय के प्रारम्भ में स्पष्ट है,वे एक ही स्तर पर नहीं होते। यदि अर्जुन कृष्ण के समान स्तर पर हो और कृष्ण अर्जुन से श्रेष्ठतर न हो तो उनमे उपदेशक तथा दूसरे को उपदिष्ट का सम्बन्ध अर्थहीन होगा क्योंकि माया के चुंगुल में  रहकर कोई भी प्रामाणिक उपदेशक नहीं बन सकता। ऐसी परिस्थितियों में यह मान लिया जाता है की भगवान् कृष्ण परमेश्वर हैं, जो पद में माया द्वारा विस्मृत अर्जुन रुपी जीव से श्रेष्ठ है। 

क्रमशः !!!