बुधवार, 3 फ़रवरी 2021

BHAGAVAD GITA 2:2

श्रीभगवानुवाच 

 कुतस्त्वा कश्मलविदं विषमे समुपस्थितम।

अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुनः।।२।।

श्री भगवानुवाच :-भगवान् ने कहा; कुतः:-कहाँ से;त्वा:-तुमको; कश्मलम:-गंदगी,अज्ञान; इदम:-यह शोक; विषमे:-इस विषम अवसर पर; समुपस्थितम:-प्राप्त हुआ; अनार्य:-वे लोग जो जीवन के मूल्य को नहीं समझते; जुष्टम :- आचरित; अस्वर्ग्यम :-उच्च लोकों को न ले जाने वाला; अकीर्ति:-अपयश का; करम :-कारण; अर्जुन :-हे अर्जुन। 

श्री भगवान् ने कहा - हे अर्जुन ! तुम्हारे मन में यह कल्मष आया कैसे ? यह उस मनुष्य के लिए तनिक भी अनुकूल नहीं है, जो जीवन के मूल्य  जानता हो। इससे उच्च  लोक नहीं अपितु अपयश की प्राप्ति होगी। 

तात्पर्य :-श्रीकृष्ण तथा भगवान् अभिन्न हैं इसीलिए श्रीकृष्ण को सम्पूर्ण गीता में भगवान् ही कहा गया है। भगवान् परम सत्य की पराकाष्ठा हैं। सत्य का बोध ज्ञान की तीन अवस्थाओं में होता है  -ब्रह्म या निर्विशेष सर्वव्यापी चेतना, परमात्मा या भगवान् का अन्तर्यामी रूप जो समस्त जीवों  ह्रदय में है तथा भगवान् या श्रीभगवान कृष्ण परम सत्य की धारणा  इस प्रकार बताई गई है।  श्रीमद्भागवद (१.२.११ ) 

वदन्ति ततत्वमिदस्तत्वं यज्ज्ञानमद्वयम। 

                            ब्रह्मेति परमात्मेति भागनिति शब्दधते।। 

" परम सत्य का ज्ञाता परम सत्य का अनुभव ज्ञान की तीन अवस्थाओं में करता है,और ये ब्रह्म,परमात्मा तथा भगवान् के रूप में व्यक्त की जाती है। "

इन तीनों दिव्य पक्षों को सूर्य के दृष्टांत द्वारा समझाया जा सकता है क्योंकि उसके भी तीन भिन्न भिन्न पक्ष होते हैं -यथा,धूप, ( प्रकाश ),सूर्य की सतह तथा सूर्य लोक स्वयं। जो सूर्य के प्रकाश का अध्यन करता है वह नौसिखिया है। जो सूर्य की सतह को समझता है वह कुछ आगे बढ़ा हुआ होता है और जो सूर्यलोक में प्रवेश कर सकता है वह उत्तम ज्ञानी है। जो नौसिखिया सूर्य प्रकाश-उसकी विश्व व्याप्ति तथा उसकी निर्विशेष प्रकृति के अखंड तेज -के ज्ञान से ही तुष्ट हो जाता है वह उस व्यक्ति के समान है जो परम सत्य के ब्रह्म रूप को ही समझ सकता है।  

जो व्यक्ति कुछ अधिक जानकार है वह सूर्य के गोले के विषय में जान सकता है जिसकी तुलना परम सत्य के परमात्मा स्वरुप से की जाती है। जो व्यक्ति सूर्यलोक के अंतर में प्रवेश कर सकता है उसकी तुलना उससे की जाती है जो परम सत्य के साक्षात रूपरूप की अनुभूति प्राप्त करता है। अतः जिन भक्तों ने परम सत्य के भगवान् स्वरूप का साक्षात्कार किया है वो सर्वोच्च अध्यात्मवादी है, यद्धपि परम सत्य के अध्यन में रत सारे विद्यार्थी एक ही विषय के अध्यन में लगे हुए हैं। सूर्य का प्रकाश,सूर्य का गोला तथा सूर्यलोक की भीतरी बातें -इन तीनों अवस्थाओं के अद्ध्येता एक ही श्रेणी के नहीं होते। 

संस्कृत शब्द भगवान् की व्याख्या व्यासदेव के पिता पराशर मुनि ने की है। समस्त धन,शक्ति,यश,सौन्दर्य,ज्ञान तथा त्याग से युक्त परम पुरुष भगवान् कहलाता है। ऐसे अनेक व्यक्ति हैं जो अत्यंत धनी  हैं,अत्यंत शक्तिमान हैं,अत्यंत सुन्दर हैं और अत्यंत विख्यात,विद्वान तथा विरक्त भी हैं, किन्तु कोई साधिकार यह नहीं कह सकता कि उसके पास सारा धन शक्ति आदि है। एकमात्र कृष्ण ही ऐसा दावा कर सकते हैं क्योंकि वे भगवान् हैं। ब्रह्मा,शिव या नारायण सहित कोई भी भी जीव कृष्ण के समान पूर्ण ऐश्वर्यवान नहीं है। अतः ब्रह्म संहिता में स्वयं ब्रह्मा जी का निर्णय है कि श्री कृष्ण स्वयं भगवान् हैं। न तो कोई तुल्य है,न उन बढ़कर है। वे आदि स्वामी या भगवान् हैं,गोविन्द रूप में जाने जाते हैं और समस्त कारणों के परम कारण हैं। 

ईश्वर:परमः कृष्ण: सच्चिदानंद विग्रह:

अनादिरादिगोविन्द:सर्वकारणकारणम 

"ऐसे अनेक पुरुष हैं जो भगवान् के गुणों से युक्त हैं,किन्तु कृष्ण परम हैं क्योंकि उनसे बढ़कर कोई नहीं हैं। वे परम पुरुष हैं उनका शरीर सच्चिदानंदमय है। वे आदि भगवान् गोविन्द हैं और समस्त कारणों के कारण हैं भगवत में भी भगवान् के नाना अवतारों की सूचि है,किन्तु कृष्ण को आदि भगवान् बताया गया है,जिनसे अनेकानेक अवतार तथा ईश्वर विस्तार करते हैं। 

एते चांसकला:पुंस: कृष्णस्तु भगवान् स्वयं। 

इंद्रारिव्याकुलम लोकं मृडयन्ति युगे युगे।।  

"यहाँ पर वर्णित सारे अवतारों की सूचियां या तो भगवान् की अंशकलाओं अथवा पूर्ण कलाओं की हैं,किन्तु कृष्ण तो स्वयं भगवान् हैं अतः कृष्ण आदि भगवान,  परम सत्य,परमात्मा तथा निर्विशेष ब्रह्म दोनों के उद्द्गम हैं। 

भगवान् की उपस्थिति में अर्जुन द्वारा स्वजनों के लिए शोक करना सर्वथा अशोभनीय है,अतः कृष्ण ने कुतः शब्द से अपना आश्चर्य व्यक्त किया है। आर्य जैसी सभ्य जाती के किसी व्यक्ति से ऐसी मलिनता की उम्मीद नहीं की जाती। आर्य शब्द उन व्यक्तियों पर लागू होता है जो जीवन के मूल्य को जानते हैं और  सभ्यता आत्म -साक्षात्कार पर निर्भर करती है। देहात्मबुद्धि से प्रेरित मनुष्यों को यह ज्ञान नहीं रहता कि जीवन का उद्देश्य परम सत्य,विष्णु या  साक्षात्कार है। वे  भौतिक जगत के ब्रह्म स्वरूप से मोहित हो जाते हैं,अतः वे यह नहीं समझ पाते कि मुक्ति क्या है। जिन पुरुषों को भौतिक बंधन से मुक्ति का कोई ज्ञान  नहीं होता वेअनार्य कहलाते हैं। यद्द्पि अर्जुन क्षत्रिय था,किन्तु युद्ध से विचलित होकर वह अपने कर्तव्य से गुमराह हो रहा था। उसकी यह कायरता अनार्यों के लिए ही शोभा देने वाली हो सकती है। कर्तव्य पथ से इस प्रकार का विचलन न तो आध्यत्मिक जीवन में प्रगति करने में सहयक बनता है न ही इससे इस संसार में ख्याति प्राप्त की जा सकती है। भगवान् कृष्ण ने अर्जुन द्वारा अपने स्वजनों पर इस प्रकार  की करुणा  का अनुमोदन नहीं किया। 

क्रमशः !!!                                         

मंगलवार, 2 फ़रवरी 2021

BHAGAVAD GITA 2:1

 अध्याय २ 

गीता सार 

सञ्जय उवाच 

तम तथा कृपयविष्टम्श्रुपूर्णाकुलेक्षणम।  

विषीदन्तमिदम वाक्यमुवाच मधुसूधन:।।१।।   

सञ्जयः उवाच :.-संजय ने कहा; तम :-अर्जुन के प्रति; तथा :-इस प्रकार; कृपया :-करुणा से; आविष्टम :-अभिभूत; अश्रुपूर्णाकुल :-अश्रुओं से पूर्ण; ईक्षणम :-नेत्र ; विषीदन्तम :-शोकयुक्त; इदम:-यह; वाक्यम :-वचन; उवाच :-कहा; मधु -सूधन:-मधुसूदन  का वध करने वाले (कृष्ण) ने।  

संजय ने कहा -करुणा से व्याप्त,शोकयुक्त,अश्रुपूरित नेत्रों वाले अर्जुन को देखकर मधुसूदन कृष्ण ने ये शब्द कहे। 

तात्पर्य :-भौतिक पदार्थों के प्रति करुणा,शोक,तथा अश्रु -ये सब असली आत्मा को न जानने के लक्षण हैं। शाश्वत आत्मा के प्रति करुणा ही आत्म -साक्षात्कार है। इस श्लोक में "मधुसूदन" शब्द  महत्वपूर्ण है। कृष्ण ने मधु नामक असुर का वध किया था और अब अर्जुन चाह रहा है कि कृष्ण उस अज्ञान रूपी असुर का वध करे जिसने उसे  कर्तव्य से विमुख कर रखा है। यह कोई नहीं जानता कि करुणा का प्रयोग कहाँ होना चाहिए। डूबता हुए मनुष्य के वस्त्रों के लिए करुणा मूर्खता होगी।  अज्ञान -सागर में गिरे हुए मनुष्य को केवल उसके बाहरी पहनावे अर्थात स्थूल शरीर की रक्षा करके नहीं बचाया जा सकता। जो इसे नहीं जानता और बाहरी पहनावे के लिए शोक करता है,व शूद्र कहलाता है अर्थात वह वृथा ही शोक करता है। अर्जुन तो क्षत्रिय था,अतः उससे ऐसे आचरण की आशा न थी। किन्तु भगवान् कृष्ण अज्ञानी पुरुष के शोक को विनष्ट कर सकते हैं और इसी उद्देश्य से उन्होने भगवद्गीता का उपदेश दिया। यह अध्याय हमें भौतिक शरीर तथा आत्मा के वैश्लेषिक अध्ययन द्वारा आत्म -साक्षात्कार का उपदेश  देता है,जिसकी व्याख्या परम अधिकारी भगवान कृष्ण द्वारा दी गयी है।  साक्षात्कार तभी सम्भव है,जब मनुष्य निष्काम भाव से कर्म करे और आत्म -बोध को प्राप्त हो। 

क्रमशः !!! 



सोमवार, 1 फ़रवरी 2021

BHAGAVAD GITA 1:46

 सञ्जय उवाच 

एवमुक्त्वार्जुनः संख्ये रथोपस्थ उपविशत। 

विसृज्य सशरं चापं शोकसंविग्नमानसः।।४६।। 

सञ्जय उवाच :-संजय ने कहा; एवं इस प्रकार उक्त्वा :-कहकर;अर्जुनः-अर्जुन; संख्ये :-युद्धभूमि में;रथ:-रथ के; उपस्थे :-आसन पर उपविशत :-पुनःबैठ गया; विसृज्य :-एक और रखकर; स -शरम :-बाणो सहित; चापम:-धनुष को; शोक:-शोक से; संविग्न :-संतप्त,उद्विग्न; मानसः -मन  भीतर। 

संजय ने कहा -युद्धभूमि में इस प्रकार कह कर अर्जुन ने अपने धनुष तथा बाण एक ओर रख दिया है और शोक संतप्त चित्त से रथ के आसन पर बैठ गया। 

अर्थात :-अपने शत्रु की स्थिति का अवलोकन करते समय अर्जुन रथ पर खड़ा हो गया था,किन्तु वह शोक से इतना संतप्त हो उठा कि अपना धनुष -बाण एक ओर रख कर रथ के आसन पर पुनः बैठ गया। ऐसा दयालु तथा कोमलहृदय व्यक्ति,जो भगवान् की सेवा में रत हो,आत्मज्ञान प्राप्त करने योग्य है। 

इस प्रकार भगवद्गीता के प्रथम अध्याय  "कुरुक्षेत्र के युद्धस्थल में सैन्यनिरीक्षण" का भक्तिवेदांत तात्पर्य पूर्ण हुआ। 

क्रमशः !!!

रविवार, 31 जनवरी 2021

BHAGAVAD GITA

🙏🙏 यदि मामप्रतीकारमशस्त्रं शस्त्रपाणयः। 

धार्तराष्ट्रा रणे हन्युस्तन्मे क्षेमतरं भवेत।।४५।।🙏🙏 

यदि :-यदि; माम :-मुझको; अप्रतिकारम :-प्रतिरोध न करने के कारण; अशस्त्रं:-बिना हथियार के; शस्त्रपाणय:-शस्त्रधारी;धार्तराष्ट्राः -धृतराष्ट्र के पुत्र; रणे:-युद्धभूमि में; हन्युः -मारे; तत :-वह; में :-मेरे लिए; क्षेम -तरम:-श्रेयस्कर; भवेत :-होगा। 

यदि शस्त्रधारी धृतराष्ट्र पुत्र मुझ निहत्थे तथा रणभूमि में प्रतिरोध न करने वालों को मारें,तो यह मेरे लिए श्रेयस्कर होगा। 

तात्पर्य :-क्षत्रियों के युद्ध -नियमों के अनुसार ऐसी प्रथा है कि निहत्थे तथा विमुख शत्रु पर आक्रमण न किया जाय। किन्तु अर्जुन ने निश्चय किया कि शत्रु भले ही इस विषम अवस्था में उस पर आक्रमण कर दे ,किन्तु वह युद्ध नहीं करेगा।  उसने इस पर विचार नहीं किया कि दूसरा दल युद्ध के लिए कितना उद्दत है। इन सब लक्षणों कारण उसकी दयार्द्रता है जो भगवान् के महान भक्त होने  कारण उत्पन्न हुई 

क्रमशः !!!

शनिवार, 30 जनवरी 2021

BHAGAVAD GITA 1:44

 अहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम। 

यद्राज्यसुखलोभेन हन्तु स्वजनमुद्द्ताः।।४४।।  

अहो:-ओह; बत :-कितना आश्चर्य है यह; महत:-महान; पापम:-पाप कर्म; कर्तुम:-करने के लिए; व्यवसिता:-निश्चय किया है; वयम:-हमने; यत :-क्यों; राज्य -सुख -लोभेन :-राज्य -सुख के लालच में आकर; हन्तुम:-मारने के लिए; स्व-जनम :-अपने सम्बन्धियों को;उद्द्ता:-तत्पर। 

ओह ! कितने आश्चर्य की बात है की हम सब जघन्य पापकर्म करने के लिए उद्दत हो रहे हैं। राज्य सुख भोगने की इच्छा से प्रेरित हो कर हम अपने ही सम्बन्धियों को मारने पर तुले हुए हैं। 

अर्थात :- स्वार्थ के वशीभूत होकर मनुष्य अपने सगे भाई,बाप, या माँ  के वध जैसे पापकर्मों में प्रवृत हो सकता है। विश्व के इतिहास में ऐसे अनेक उदहारण मिलते हैं। किन्तु भगवान् का साधु भक्त होने के कारण अर्जुन सदाचार के प्रति जागरूक है। अतः वह ऐसे कार्यों से बचने का प्रयत्न करता है। 

क्रमशः !!!

शुक्रवार, 29 जनवरी 2021

BHAGVAD GITA 1:43

 उत्सन्नकुलधर्माणां मनुष्याणां जनार्दनः। 

नरके नियतं वासो भवतीत्यनुश्रुश्रुम।।४३।।  

उत्सन्न:-विनष्ट; कुल-धर्मणाम:-पारिवारिक परम्परा वाले; मनुष्याणां:-मनुष्यों का; जनार्दन:-हे कृष्ण; नरके:-नरक में; नियतं :-सदैव; वास:-निवास; भवति:-होता है; इति :-इस प्रकार; अनुश्रुश्रुम:-गुरु परम्परा से मैंने सुना है। 

हे प्रजापालक कृष्ण ! मैंने गुरु परम्परा से सुना है कि जो लोग कुल-धर्म का विनाश  करते हैं, वे सदैव नरक में वास करते हैं। 

अर्थात :-अर्जुन अपने तर्कों को अपने निजी अनुभव पर न आधारित करके आचार्यों से जो सुन रखा है उस पर आधारित है। वास्तविक ज्ञान प्राप्त करने की यही विधि है। जिस व्यक्ति ने पहले से ज्ञान प्राप्त कर रखा है उस व्यक्ति की सहायता के बिना कोई भी वास्तविक ज्ञान तक नहीं पहुंच सकता। वर्णाश्रम -धर्म की एक पद्धिति के अनुसार मृत्यु के पूर्व मनुष्य को पापकर्मों के लिए प्रायश्चित करना होता है। जो परमात्मा है उसे इस विधि का अवश्य उपयोग करना चाहिये। ऐसा किये बिना मनुष्य निश्चित रूप से नरक भेजा जायेगा जहां उसे अपने पापकर्मों के लिए कष्टमय जीवन बिताना होगा। 

क्रमशः !!! 

गुरुवार, 28 जनवरी 2021

BHAGAVAD GITA 1:42

 दोषैरेतैः कुलघ्नानां वर्णसङ्गरकारकैः। 

उत्साद्यन्ते जातिधर्मा: कुलधर्माश्च शाश्वतः।।४२।। 

दोषैः -ऐसे दोषों से;एतैः-इन सब; कुलघ्नानां :-परिवार नष्ट करने वालों का;वर्णसङ्कर:-अवांछित संतानों के;कारकैः- कारणों से;उत्साद्यन्ते:-नष्ट हो जाते हैं; जाति-धर्माः :-सामुदायिक योजनाएं; कुल-धर्मा:-पारिवारिक परम्पराएं; च :- भी;शाश्वतः -सनातन। 

जो लोग कुल-परम्परा को विनष्ट करते हैं और इस तरह अवांछित संतानों को जन्म देते हैं उनके दुष्कर्मों से समस्त प्रकार की सामुदायिक योजनाएं तथा पारिवारिक कल्याण -कार्य विनष्ट हो जाते हैं। 

अर्थात :-सनातन धर्म या वर्णाश्रम -धर्म  द्वारा निर्धारित मानव समाज के चारों वर्णों के लिए सामुदायिक योजनाएं तथा पारिवारिक कल्याण -कार्य इसलिए नियोजित है कि मनुष्य चरम मोक्ष प्राप्त कर सके। अतः समाज के अनुत्तरदायी नायकों द्वारा सनातन धर्म परम्परा के बिखंडन से उस समाज में अव्यवस्था फैलती है,फलस्वरूप लोग जीवन के उद्देश्य विष्णु को भूल जाते हैं। ऐसे नायक अंधे कहलाते हैं और जो लोग इनका अनुगमन करते हैं वे निश्चय ही कुव्यवस्था की ओर अग्रसर होते हैं। 

कर्मशः !!!