BHAGAVAD GITA 3:40
🙏🙏
इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्च्ते।
एतैर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम।।४०।।
इन्द्रियाणि -इन्द्रियाँ; मनः -मन; बुद्धिः -बुद्धि; अस्य -इस काम का; अधिष्ठानम -निवासस्थान
उच्चते -कहा जाता है; एतै -इन सबों से; विमोहयति -मोहग्रस्त करता है; एषः-यह काम; ज्ञानम-ज्ञान को; आवृत्य-ढक कर; देहिनम-शरीरधारी को।
इन्द्रियाँ,मन तथा बुद्धि इस काम के निवासस्थान हैं। इनके द्वारा यह काम जीवात्मा के वास्तविक ज्ञान को ढक कर उसे मोहित कर लेता है।
तात्पर्य :-चूँकि शत्रु ने बद्धजीव के शरीर के विभिन्न सामरिक स्थानों पर अपना अधिकार कर लिया है, अतः भगवान् कृष्ण उन स्थानों का संकेत कर रहे हैं जिससे शत्रु को जीतने वाला यह जान ले कि शत्रु कहाँ पर है। मन समस्त इन्द्रियों के कार्यकलापों का केंद्र बिंदु है,अतः जब हम इन्द्रिय-विषयों के सम्बन्ध में सुनते हैं तो मन इन्द्रियतृप्ति के समस्त भावों का आगार बन जाता है। इस तरह मन तथा इन्द्रियां काम की शरणस्थली बन जाते हैं। इसके बाद बुद्धि ऐसी कामपूर्ण रुचियों की राजधानी बन जाती है। बुद्धि आत्मा की निकट पड़ोसिन है। काममय बुद्धि से आत्मा प्रभावित होता है जिससे उसमे अहंकार उत्पन्न होता है और वह पदार्थ से तथा इस प्रकार मन तथा इन्द्रियों से अपना तादात्म्य कर लेता है। आत्मा को भौतिक इन्द्रियों का भोग करने की लत पद जाती है,जिसे वह वास्तविक सुख मान बैठता है।श्रीमदभागवत में ( १०.८४. १३ ) आत्मा के इस मिथ्या स्वरूप की अत्युत्तम विवेचना की गई है -
यस्यात्मबुद्धिः कुणपे त्रिधातुके स्वधीः कलत्रादिषु भौम इज्यधीः।
यतीर्थबुद्धिः सलिले न करहिचिज्जनेष्वभिज्ञेषु स एव गोखरः।।
"जो मनुष्य इस त्रिधातु निर्मित शरीर को आत्मस्वरूप जा बैठता है,जो देह के विकारों को स्वजन समझता है,जो जन्मभूमि को पूज्य मानता है और जो तीर्थस्थलों की यात्रा दिव्यज्ञान वाले पुरुष से भेंट करने के लिए नहीं,अपितु स्नान करने के लिए करता है,उस गधा या बैल के समान समझना चाहिए। "
क्रमशः !!!🙏🙏
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