शुक्रवार, 11 जून 2021

BHAGAVAD GITA 3:35

🙏🙏 

श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परमधर्मात्स्वनुष्ठितात। 

स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः।।३५।।

श्रेयान - अधिक श्रेयस्कर; स्व-धर्म:-अपने नियत कर्म; विगुणः-दोषयुक्त भी; परधर्मात -अन्यों के लिए उल्लिखित कार्यों की अपेक्षा; सु-अनुष्ठितात-भलीभाँति सम्पन्न; स्व-धर्में -अपने नियतकर्मों में; निधनम -विनाश,मृत्यु; श्रेयः -श्रेष्ठतर;पर-धर्म -अन्यों के लिए नियतकर्म; भय -आवह:-खतरनाक,डरावना। 

अपने नियतकर्मों को दोषपूर्ण ढंग से संपन्न करना भी अन्य के कर्मों को भलीभाँति करने से श्रेयस्कर है। स्वीय कर्मों को करते हुए मरना पराये कर्मों में प्रवृत होने की अपेक्षा श्रेष्ठतर है, क्योंकि अन्य किसी के मार्ग का अनुसरण भयावह होता है। 

तात्पर्य :-अतः मनुष्य को चाहिए कि वह अन्यों के लिए नियतकर्मों की अपेक्षा अपने नियतकर्मो को कृष्णभावनामृत में करे। भौतिक दृष्टि से नियतकर्म मनुष्य की मनोवैज्ञानिक दशा के अनुसार भौतिक प्रकृति के गुणों के अधीन आदिष्ट कर्म है। आध्यात्मिक कर्म गुरु द्वारा कृष्ण की दिव्य सेवा के लिए आदेशित होते हैं। किन्तु चाहे भौतिक कर्म हों या आध्यात्मिक कर्म, मनुष्य को मृत्युपर्यन्त अपने नियत कर्मों में दृढ़ रहना चाहिए। अन्य के निर्धारित कर्मों का अनुकरण नहीं करना चाहिए। आध्यात्मिक तथा भौतिक स्तरों पर ये कर्म भिन्न-भिन्न हो सकते हैं, किन्तु कर्ता के लिए किसी प्रमाणिक निर्देशन के पालन का सिद्धांत उत्तम होगा। जब मनुष्य प्रकृति  गुणों के वशीभूत हो तो उसे उस विशेष अवस्था के लिए नियमों का पालन करना चाहिए,उसे अन्यों का अनुकरण नहीं करना चाहिए। उदाहरणरार्थ,सतोगुणी ब्राह्मण कभी हिंसक नहीं होता, किन्तु रजोगुणी क्षत्रिय को हिंसक होने की अनुमति है। इस तरह क्षत्रिय के लिए हिंसा के नियमों  का पालन करते हुए विनष्ट होना जितना श्रेयस्कर है उतना अहिंसा के नियमों का पालन करने वाले ब्राह्मण का अनुकरण नहीं। हर व्यक्ति को एकाएक नहीं, अपितु क्रमशः अपने ह्रदय को स्वच्छ बनाना चाहिए। किन्तु जब मनुष्य प्रकृति के गुणों को लांघकर कृष्णभावनामृत में पूर्णतया लीन हो जाता है,तो वह प्रामाणिक गुरु के निर्देशन में सब कुछ कर सकता है। कृष्णभावनामृत की पूर्ण स्थति में एक क्षत्रिय ब्राह्मण की तरह और एक ब्राह्मण क्षत्रिय की तरह कर्म कर सकता है। दिव्य अवस्था में भौतिक जगत का भेदभाव नहीं रह जाता उदाहरणार्थ विश्वामित्र मूलतः क्षत्रिय थे, किन्तु बाद में वे ब्राह्मण हो गये। इसी  प्रकार परशुराम पहले ब्राह्मण थे,  किन्तु  बाद में क्षत्रिय बन गये। ब्रह्म में स्थित होने के कारण ही वे ऐसा कर सके, किन्तु जब तक कोई भौतिक स्तर पर रहता है, उसे प्रकृति के गुणों के अनुसार अपने कर्म करने चाहिए। साथ ही उसे कृष्णभावनामृत का पूरा बोध होना चाहिए।

क्रमशः !!!🙏🙏                                                                                                                                             

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