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इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ।
तयोर्न वशमाग्च्छेतौ ह्यस्य परिपन्थिनौ।।३४।।
इन्द्रियस्थ -इन्द्रिय का; इन्द्रियस्य अर्थे -इन्द्रियविषयों में; राग -आसक्ति; द्वेषो -तथा विरक्ति; व्यवस्थितौ-नियमों के अधीन; तयोः -उनके; न -कभी नहीं; वशम-नियंत्रण में; आगच्छेत -आना चाहिए; तौ -वे दोनों; हि -निश्चय ही; अस्य -उसका; परिपन्थिनौ -अवरोधक।
प्रत्येक इन्द्रिय तथा उसके विषय से सम्बंधित राग-द्वेष को व्यवस्थित करने के नियम होते हैं। मनुष्य को ऐसे राग तथा द्वेष के वशीभूत नहीं होना चाहिए क्योंकि ये आत्म-साक्षात्कार के मार्ग में अवरोधक हैं।
तात्पर्य:- जो लोग कृष्णभावनाभावित हैं, वे स्वभाव से भौतिक इन्द्रियतृप्ति में रत होने में झिझकते हैं। किन्तु जिन लोगों की ऐसी भावना न हो उन्हें शास्त्रों के यम-नियमों का पालन करना चाहिए। अनियंत्रित इन्द्रिय-भोग ही भौतिक बन्धन का कारण है, किन्तु जो शास्त्रों के यम-नियमों का पालन करता है,वह इन्द्रिय विषयों में नहीं फँसता। उदाहरणार्थ,यौन -सुख बद्धजीव के लिए आवश्यक है और विवाह -सम्बन्ध के अन्तर्गत यौन सुख की छूट दी जाती है। शास्त्रीय आदेशों के अनुसार अपनी पत्नी के अतिरिक्त अन्य किसी स्त्री के साथ यौन-सम्बन्ध वर्जित है,अन्य सभी स्त्रियों को अपनी माता मानना चाहिए। किन्तु इन आदेशों के होते हुए भी मनुष्य अन्य स्त्रियों के साथ यौन-सम्बन्ध स्थापित करना चाहता है। इन प्रवृतियों को दमित करना होगा अन्यथा वे आत्म-साक्षात्कार के मार्ग में बाधक होंगी। जब तक यह भौतिक शरीर रहता है तब तक शरीर की आवश्यकताओं को यम-नियमों के अन्तर्गत पूर्ण करने की छूट दी जाती है। किन्तु फिर भी हमें ऐसी छूटों के नियंत्रण पर विश्वास नहीं करना चाहिए। मनुष्य को अनासक्त रहकर इन यम-नियमों का पालन करना होता है,क्योंकि नियमों के अन्तर्गत इन्द्रियतृप्ति का अभ्यास भी उसे पथभ्रष्ट कर सकता है, जिस प्रकार कि राजमार्ग तक में दुर्घटना की सम्भावना बनी रहती है। भले ही इन मार्गों की कितनी ही सावधानी से देखभाल क्यों न की जाय, किन्तु इसका कोई आश्वासन नहीं दे सकता कि सबसे सुरक्षित मार्ग पर कोई खतरा नहीं होगा। भौतिक संगति के कारण अत्यंत दीर्घकाल से इन्द्रियसुख की भावना कार्य करती रही है। अतः नियमित इन्द्रिय-भोग के बावजूद भी गुमराह होने की हर सम्भावना बनी रहती है, अतः सभी प्रकार से नियमित इन्द्रिय-भोग के लिए किसी भी आसक्ति से बचना चाहिए। लेकिन कृष्णभावनामृत ऐसा है कि इसके प्रति आसक्ति से या सदैव कृष्ण की प्रेमाभक्ति में कार्य करते रहने से सभी प्रकार के इंद्रिय कार्यों से विरक्ति हो जाती है। अतः मनुष्य को चाहिए कि वह किसी भी अवस्था में कृष्णभावनामृत से विरक्त होने की चेष्टा न करे। समस्त प्रकार की इन्द्रिय -आसक्ति से विरक्ति का उद्देश्य अंततः कृष्णभावनामृत के पद पर आसीन होना है।
क्रमशः !!!🙏🙏
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