Bhagavad Gita is the life management book and self motivational book. many peoples change there life by reading this book, this is not a religious book anybody, any religion can read for better future. many peoples got success his business from this energetic book, I'm writing a shloka a day so if anybody don't have enough time to read so you can read a shloka a day, Thanks.
BHAGAVAD GITA IN HINDI
रविवार, 25 अप्रैल 2021
BHAGAVAD GITA 3:2
I'm a husband, fathers of two kids, would like to help people anywhere and believe to spiritualty.
शनिवार, 24 अप्रैल 2021
BHAGAVAD GITA 3:1
अध्याय -३
कर्मयोग
अर्जुन उवाच
🙏🙏
ज्यायसी चेतकर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन।
तत्किं कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव।।१।।
अर्जुनः उवाच -अर्जुन ने कहा; ज्यायसी -श्रेष्ठ; चेत-यदि कर्मणः -सकाम कर्म की अपेक्षा; ते-तुम्हारे द्वारा; मता-मानी जाती है;बुद्धिः-बुद्धि; जनार्दन -हे कृष्ण;तत -अतः; किम -क्यों,फिर; कर्मणि -कर्म में; घोरे-भयंकर,हिंसात्मक; माम -मुझको;नियोजयसि -नियुक्त करते हो; केशव -हे कृष्ण।
अर्जुन ने कहा - जनार्दन,हे केशव ! यदि आप बुद्धि को सकाम कर्म से श्रेष्ठ समझते हैं तो फिर आप मुझे इस घोर युद्ध में क्यों लगाना चाहते हैं ?
तात्पर्य :-श्री भगवान् कृष्ण ने पिछले अध्याय में अपने घनिष्ठ मित्र अर्जुन को संसार के शोक -सागर से उबारने के उद्देश्य से आत्मा के स्वरूप का विशद वर्णन किया है और आत्म -साक्षात्कार के जिस मार्ग की संस्तुति की है वह है-बुद्धियोग या कृष्णभावनामृत। कभी -कभी कृष्णभावनामृत को भूल से जड़ता समझ लिया जाता है और ऐसी भ्रांत धारणा वाला मनुष्य भगवान् कृष्ण नाम जप द्वारा पूर्णतया कृष्णभावनाभावित होने के लिए प्रायः एकान्त स्थान में चला जाता है। किन्तु कृष्णभावनामृत -दर्शन में प्रशिक्षित हुए बिना एकान्त स्थान में कृष्ण नाम जप करना ठीक नहीं। इससे अबोध जनता से केवल सस्ती प्रशंसा प्राप्त हो सकेगी। अर्जुन को भी कृष्णभावनामृत या बुद्धियोग ऐसा लगा मानो वह सक्रिय जीवन से सन्यास लेकर एकांत स्थान में तपस्या का अभ्यास हो। दूसरे शब्दों में,वह कृष्णभावनामृत को बहाना बनाकर चातुरीपूर्वक युद्ध से जी छुड़ाना चाहता था। किन्तु एकनिष्ठ शिष्य होने के नाते उसने यह बात अपने गुरु के समक्ष रखी और कृष्ण से सर्वोत्तम कार्य -विधि के विषय में प्रश्न किया। उत्तर में भगवान् ने तृतीय अध्याय में कर्मयोग अर्थात कृष्णभावनाभावित कर्म की विस्तृत व्याख्या की।
क्रमशः- !!!🙏🙏
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गुरुवार, 22 अप्रैल 2021
BHAGAVAD GITA 2:72
🙏🙏
ऐषा ब्राह्मी स्थिति:पार्थ विमुह्यति।
स्थित्वास्यामन्तकालेपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति।।७२।।
ऐषा -यह; ब्राह्मी -आद्यात्मिक; स्थितिः -स्थिति; पार्थ -हे पृथापुत्र; न -कभी नहीं; एनाम -इसको; प्रायः-प्राप्त करके;विमुह्यति-मोहित होता है; स्थित्वा-स्थित होकर;अस्याम -इसमें; अन्तकाले-जीवन के अंतिम समय में;अपि -भी; ब्रह्म-निर्वाणम-भगवद्धाम को; ऋच्छति-प्राप्त होता है।
यह आध्यत्मिक तथा ईश्वरीय जीवन का पथ है,जिसे प्राप्त करके मनुष्य मोहित नहीं होता। यदि कोई जीवन के अंतिम समय में भी इस तरह स्थित हो,तो वह भगवद्धाम में प्रवेश कर सकता है।
तात्पर्य :-मनुष्य कृष्णभावनामृत या दिव्य जीवन को एक क्षण में प्राप्त कर सकता है और हो सकता है कि उसे लाखों जन्मो के बाद भी न प्राप्त हो। यह तो सत्य को समझने और स्वीकार करने की बात है। खटवांग महाराज ने अपनी मृत्यु के कुछ मिनट पूर्व कृष्ण शरणागत होकर ऐसी जीवन अवस्था प्राप्त कर ली। निर्वाण अर्थ है -भौतिकवादी शैली का अंत। बौद्ध दर्शन के अनुसार इस भौतिक जीवन के पूरा होने पर केवल शून्य शेष रहता है,किन्तु भगवदगीता की शिक्षा इसमें भिन्न है। वास्तविक जीवन का शुभारम्भ इस भौतिक जीवन के पूरा होने पर होता है। स्थूल भौतिकवादी के लिए यह जानना पर्याप्त होगा कि इस भौतिक जीवन का अन्त निश्चित है,किन्तु आध्यात्मिक दृष्टि से उन्नत व्यक्तियों के लिए इस जीवन के बाद अन्य जीवन प्रारम्भ होता है। इस जीवन का अन्त होने से पूर्व यदि कोई कृष्णभावनाभावित हो जाय तो उसे तुरन्त ब्रह्म -निर्वाण अवस्था प्राप्त हो जाती है। भगवद्धाम तथा भगवद्भक्ति के बीच कोई अन्तर नहीं है। चूँकि दोनों परम पद हैं, अतः भगवान् की दिव्य प्रेमाभक्ति में व्यस्त रहने का अर्थ है -भगवद्धाम को प्राप्त करना। भौतिक जगत में इन्द्रियतृप्ति विषयक कार्य होते हैं और आध्यत्मिक जगत में कृष्णभावनामृत विषयक। इसी जीवन में ही कृष्णभावनामृत की प्राप्ति तत्काल ब्रह्मप्राप्ति जैसी है और जो कृष्णभावनामृत में स्थित होता है,वह निश्चित रूप से पहले ही भगवद्धाम में प्रवेश कर चुका होता है।
ब्रह्म और भौतिक पदार्थ एक दूसरे से सर्वथा विपरीत हैं। अतः ब्राह्मी -स्थिति का अर्थ है , "भौतिक कार्यों के पद पर होना" भगवदगीता में भगवद्भक्ति को मुक्त अवस्था माना गया है (स गुणान्समतीत्यैतान ब्रह्मभूयाय कल्पते ) अतः ब्राह्मी -स्थिति भौतिक स्थिति से मुक्ति है।
श्रील भक्ति विनोद ठाकुर ने भगवदगीता के इस द्वितीय अध्याय को सम्पूर्ण ग्रन्थ के प्रतिपाद्द विषय रूप में संक्षिप्त किया है। भगवदगीता के प्रतिपाद्द हैं -कर्मयोग,ज्ञानयोग,तथा भक्तियोग। इस द्वितीय अध्याय में कर्मयोग तथा ज्ञानयोग की स्पष्ट व्याख्या हुई है एवं भक्तियोग की भी झाँकी दे दी गई है।
इस प्रकार श्रीमदभगवदगीता के द्वितीय अध्याय "गीता का सार " का भक्तिवेदांत तात्पर्य पूर्ण हुआ।
क्रमशः !!!🙏🙏
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बुधवार, 21 अप्रैल 2021
BHAGAVAD GITA 2:71
🙏🙏
विहाय कामान्य:सर्वान्पुमांश्चरति निः स्पृहः।
निर्ममो निरहङ्कारः स शान्तिमधिगच्छति।।७१।।
विहाय -छोड़कर;कामान -इन्द्रियतृप्ति की भौतिक इच्छाएं; यः - जो; सर्वान -समस्त; पुमान -पुरुष; चरति-रहता है; निः स्पृहः -इच्छारहित; निर्मममः ममतारहित; निरहङ्कार -अहंकारशून्य;सः -वह; शान्तिम -पूर्ण शांति को; अधिगच्छति -प्राप्त होता है।
जिस व्यक्ति ने इन्द्रियतृप्ति की समस्त इच्छाओं का परित्याग दिया है, जो इच्छाओं से रहित रहता है और जिसने सारी ममता त्याग दी है तथा अहंकार से रहित है, वही वास्तविक शांति को प्राप्त कर सकता है।
तात्पर्य :-निस्पृह होने का अर्थ है -इन्द्रियतृप्ति के लिए कुछ भी इच्छा न करना। दूसरे शब्दों में,कृष्णभावनाभावित होने की इच्छा वास्तव में इच्छाशून्यता या निस्पृहता है। इस शरीर को मिथ्या ही आत्मा माने बिना तथा संसार की किसी वस्तु में कल्पित स्वामित्व रखे बिना श्री कृष्ण के नित्य दास के रूप में अपनी यथार्त स्थिति को जान लेना कृष्णभावनामृत की सिद्ध अवस्था है। जो इस सिद्ध अवस्था में स्थित है वह जानता है कि श्रीकृष्ण ही प्रत्येक वस्तु के स्वामी हैं ,अतः प्रत्येक वस्तु का उपयोग उनकी तुष्टि के लिए किया जाना चाहिए। अर्जुन आत्म-तुष्टि के लिए युद्ध नहीं करना चाहता था ,किन्तु जब वह पूर्ण रूप से कृष्णभावनाभावित हो गया तो उसने युद्ध किया, क्यूंकि कृष्ण चाहते थे कि वह युद्ध करे। उसे अपने लिए युद्ध करने की कोई इच्छा न थी, किन्तु वही अर्जुन कृष्ण के लिए अपनी शक्ति भर लड़ा। वास्तविक इच्छाशून्यता कृष्ण -तुष्टि के लिए इच्छा है, यह इच्छाओं को नष्ट करने का कोई कृत्रिम प्रयास नहीं है। जीव कभी भी इच्छा शून्य या इन्द्रिय शून्य नहीं हो सकता , किन्तु उसे अपनी इच्छाओं की गुणवत्ता बदलनी होती है। भौतिक दृष्टि से इच्छाशून्य व्यक्ति जानता है कि प्रत्येक वस्तु कृष्ण की है (ईशावास्यमिदं सर्वम )अतः वह किसी वस्तु पर अपना स्वामित्व घोषित नहीं करता। यह दिव्य ज्ञान आत्म-साक्षात्कार पर आधारित है-अर्थात इस ज्ञान पर कि प्रत्येक जीव कृष्ण का अंश रूप है और जीव की शाश्वत स्थिति कभी न तो कृष्ण के तुल्य होती है न उनसे बढ़कर। इस प्रकार कृष्णभावनामृत का यह ज्ञान ही वास्तविक शांति का मूल सिद्धांत है।
क्रमशः!!!🙏🙏
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सोमवार, 19 अप्रैल 2021
BHAGAVAD GITA 2:70
आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं
समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत।
तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे
स शान्तिमाप्नोति न कामकामी।।७०।।
आपूर्यमाणम-नित्य परिपूर्ण; अचल-प्रतिष्ठं -दृढ़तापूर्वक स्थित; समुद्रम -समुद्र में; आप:-नदियाँ; प्रविशन्ति -प्रवेश करती हैं; यद्वत -जिस प्रकार; तद्वत -उसी प्रकार; कामाः-इच्छाएं; यम-जिसमें; प्रविशन्ति-प्रवेश करती है; सर्वे-सभी; सः -वह व्यक्ति; शान्तिम-शांति; आप्नोति-प्राप्त करता है; न -नहीं; काम -कामी-इच्छाओं को पूरा करने का इच्छुक।
जो पुरुष समुद्र में निरंतर प्रवेश करती रहने वाली नदियों के समान इच्छाओं के निरंतर प्रवाह से विचलित नहीं होता और जो सदैव स्थिर रहता है, वही शांति प्राप्त कर सकता है, वह नहीं जो ऐसी इच्छाओं को तुष्ट करने की चेष्टा करता है।
तात्पर्य :-यद्दपि विशाल सागर में सदैव जल रहता है,किन्तु वर्षा ऋतु में विशेषतया वह अधिकाधिक जल से भरता जाता है तो भी सागर उतने पर ही स्थिर रहता है। न तो वह विक्षुब्ध होता है और न तट की सीमा का उल्लघन करता है। यही स्थिति कृष्णभावनाभावित व्यक्ति की है। जब तक मनुष्य शरीर है,तब तक इन्द्रियतृप्ति के लिए शरीर की मांगे बनी रहेंगी। किन्तु भक्त अपनी पूर्णता के कारण ऐसी इच्छाओं से विचलित नहीं होता। कृष्णभावनाभावित व्यक्ति को किसी वस्तु की आवश्यकता नहीं होती क्योंकि भगवान उसकी सारी आवश्यकताएं पूरी करते रहते हैं। अतः वह सागर के तुल्य होता है -अपने में सदैव पूर्ण। सागर में गिरने वाली नदियों के समान इच्छाएं उसके पास आ सकती हैं,किन्तु कार्य में स्थिर रहता है और इन्द्रियतृप्ति की इच्छा से रंचभर भी विचलित नहीं होता। कृष्णभावनाभावित व्यक्ति का यही प्रमाण है -इच्छाओं के होते हुए भी वह कभी इन्द्रियतृप्ति के लिए उन्मुख नहीं होता। चूँकि वह भगवान् की दिव्य प्रेमाभक्ति में तुष्ट रहता है,अतः वह समुद्र की भांति स्थिर रहकर पूर्ण शांति का आनंद उठा सकता है-किन्तु दूसरे लोग जो मुक्ति की सीमा तक इच्छाओं की पूर्ति करना चाहते हैं,फिर भौतिक सफलताओं का क्या कहना -उन्हें कभी शांति नहीं मिल पाती।कर्मी मुमुक्षु तथा वे योगी -सिद्धि के कामी हैं,ये सभी अपूर्ण इच्छाओं के कारण दुःखी रहते हैं। किन्तु कृष्णभावनाभावित पुरुष भगवत्सेवा में सुखी रहता है और उसकी कोई इच्छा नहीं होती। वस्तुतः वह तो तथाकथित भवबंधन से मोक्ष की भी कामना नहीं करता। कृष्ण के भक्तों की कोई भौतिक इच्छा नहीं रहती,इसलिए वे पूर्ण शांत रहते हैं।
क्रमशः !!!
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गुरुवार, 15 अप्रैल 2021
BHAGAVAD GITA 2:69
🙏🙏
या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागृति संयमी।
यस्यां जागृति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः।।६९।।
या -जो ; निशा -रात्रि है; सर्व -सम्मत; भूतानाम - जीवों की; तस्याम -उसमें ; जागर्ति -जागता रहता है ; संयमी -आत्मसंयमी व्यक्ति; यस्याम -जिसमें; जागृति -जागते हैं;भूतानि -सभी प्राणी; सा -वह; निशा -रात्रि; पश्यतः -आत्मनिरीक्षण करने वाले; मुनेः मुनि के लिए।
जो सब जीवों के लिए रात्रि है,वह आत्मसंयमी के जागने का समय है और जो समस्त जीवों का जागने के समय है वह आत्मनिरीक्षक मुनि के के लिए रात्रि है।
तात्पर्य :- बुद्धिमान मनुष्यों की दो श्रेणियां हैं। एक श्रेणी के मनुष्य इन्द्रियतृप्ति के लिए भौतिक कार्य करने में निपुण होते हैं और दूसरी श्रेणी के मनुष्य आत्मनिरीक्षक हैं, जो आत्म-साक्षात्कार के अनुशीलन के लिए जागते हैं। विचारवान पुरुषों आत्मनिरीक्षक मुनि के कार्य भौतिकता में लीन पुरषों के लिए रात्रि के समान है। भौतिकवादी व्यक्ति ऐसी रात्रि में अनभिज्ञता के कारण आत्म-साक्षात्कार के प्रति सोये रहते हैं। आत्मनिरीक्षक मुनि भौतिकवादी पुरुषों की रात्रि में जागे रहते हैं। मुनि को आध्यात्मिक अनुशीलन की क्रमिक उन्नति में दिव्य आनन्द अनुभव होता है,किन्तु भौतिकवादी कार्यों में लगा व्यक्ति,आत्म-साक्षात्कार के प्रति सोया रहकर अनेक प्रकार के इन्द्रियसुखों का स्वप्न देखता है उसी सुप्तावस्था में कभी सुख तो कभी दुःख का अनुभव करता है। आत्म-निरीक्षक मनुष्य भौतिक सुख तथा दुःख के प्रति अन्यमनस्क रहता है। वह भौतिक घातों से अविचलित रहकर आत्म -साक्षात्कार के कार्यों में लगा रहता है।
क्रमशः :-!!! 🙏🙏
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मंगलवार, 13 अप्रैल 2021
BHAGAVAD GITA 2:68
🙏🙏
तस्माद्यस्य महाबाहो निगृहीतानि सर्वशः।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।६८।।
तस्मात् -अतः;यस्य -जिसकी; महाबाहो-हे महाबाहु ; निगृहीतानि -इस तरह वशीभूत; सर्वशः-सब प्रकार से; इन्द्रियाणि-इन्द्रियां; इन्द्रिय -अर्थेभ्य-इन्द्रियविषयों से; तस्य -उसकी; प्रज्ञा -बुद्धि; प्रतिष्ठिता -स्थिर।
अतः हे महाबाहु ! जिस प्रकार पुरुष की इन्द्रियां अपने -अपने विषयों से सब प्रकार से वितरित होकर उसके वश में हैं,उसी की बुद्धि निस्संदेह स्थिर है।
तात्पर्य :- कृष्णभावनामृत के द्वारा या सारी इन्द्रियों को भगवान् की दिव्य प्रेमाभक्ति में लगाकर इन्द्रियतृप्ति की बलवती शक्तियों को दमित किया जा सकता है। जिस प्रकार शत्रुओं का दमन श्रेष्ठ सेना द्वारा किया जाता है उसी प्रकार इन्द्रियों का दमन किसी मानवीय प्रयास के द्वारा नहीं,अपितु उन्हें भगवान् की सेवा में लगाए रखकर किया जा सकता है। जो व्यक्ति यह ह्रदयंगम कर लेता है कि कृष्णभावनामृत के द्वारा बुद्धि स्थिर होती है और इस कला का अभ्यास प्रामाणिक गुरु के पथ - प्रदर्शन में करता है,वह साधक अथवा मोक्ष का अधिकारी कहलाता है।
क्रमशः !!! 🙏🙏
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