Bhagavad Gita is the life management book and self motivational book. many peoples change there life by reading this book, this is not a religious book anybody, any religion can read for better future. many peoples got success his business from this energetic book, I'm writing a shloka a day so if anybody don't have enough time to read so you can read a shloka a day, Thanks.
BHAGAVAD GITA IN HINDI
रविवार, 20 जून 2021
BHAGAVAD GITA 3:40
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शनिवार, 19 जून 2021
BHAGAVAD GITA 3:39
🙏🙏
आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा।
कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च।।
आवृतं -ढका हुआ; ज्ञानम -शुद्ध चेतना; एतेन -इससे; ज्ञानिनः-ज्ञाता का; नित्य -वैरिणा -नित्य शत्रु द्वारा; काम-रूपेण -काम के रूप में; कौन्तेय-हे कुन्तीपुत्र; दुष्पूरेण -कभी भी तुष्ट न होने वाली; अनलेन -अग्नि द्वारा; च -भी।
इस प्रकार ज्ञानमय जीवात्मा की शुद्ध चेतना उसके काम रूपी नित्य शत्रु से ढकी रहती है, जो कभी भी तुष्ट नहीं होता और अग्नि के समान जलता रहता है।
तात्पर्य :-मनुस्मृति में कहा गया है कि कितना भी विषय -भोग क्यों न किया जाय काम की तृप्ति नहीं होती,जिस प्रकार कि निरन्तर ईंधन डालने अग्नि कभी नहीं बुझती। भौतिक जगत में समस्त कार्यकलापों का केन्द्रबिन्दु मैथुन ( कामसुख ) है, अतः इस जगत को मैथुन्य -आगार या विषयी-जीवन की हथकडियाँ कहा गया है। एक समान्य बन्दीगृह में अपराधियों को छड़ों के भीतर रखा जाता है इसी प्रकार जो अपराधी भगवान् के नियमों की अवज्ञा करते है, वे मैथुन जीवन द्वारा बंदी बनाये जाते है। इन्द्रियतृप्ति के आधार पर भौतिक सभ्यता की प्रगति का अर्थ है, इस जगत में जीवात्मा की बन्धन अवधि को बढ़ाना। अतः यह काम अज्ञान का प्रतीक है जिसके द्वारा जीवात्मा को इस संसार मे रखा जाता है। इन्द्रियतृप्ति का भोग करते समय हो सकता है कि कुछ प्रसन्नता की अनुभूति हो,किन्तु यह प्रसन्नता की अनुभूत्ति ही इन्द्रियभोक्ता का चरम शत्रु है।
क्रमशः !!!🙏🙏
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शुक्रवार, 18 जून 2021
BHAGAVAD GITA 3:38
🙏🙏 धूमेनाव्रियते वर्यह्निःथादर्शो मलेन च।
यथोल्बेनाव्रतो गर्भस्तथा तेनेदमावर्तम।।३८।।
धूमेन -धुएँ से; आव्रियते- ढक जाती है; वह्निः-अग्नि; यथा -जिस प्रकार;आदर्श -शीशा,दर्पण; मलेन-धूल से; च-भी; यथा-जिस प्रकार; उल्बेन-गर्भाशय द्वारा; आवृतः -ढका रहता है; गर्भः -भ्रूण,गर्भ; तथा-उसी प्रकार; तेन -काम से; इदम-यह; आवृतम -ढका है।
जिस प्रकार अग्नि धुएँ से,दर्पण धूल से अथवा भ्रूण गर्भाशय से आवृत रहता है, उसी प्रकार जीवात्मा इस काम की विभिन्न मात्राओं से आवृत रहता है।
तात्पर्य :-जीवात्मा के आवरण की तीन कोटियां हैं जिनसे उसकी शुद्ध चेतना धूमिल होती है। यह आवरण काम ही है, जो विभिन्न स्वरूपों में होता है यथा अग्नि में धुआँ, दर्पण पर धूल तथा भ्रूण पर गर्भाशय। जब काम की उपमा धूम्र से दी जाती है तो यह समझना चाहिए कि जीवित स्फुल्लिंग की अग्नि कुछ-कुछ अनुभवगम्य है। दूसरे शब्दों में, जब जीवात्मा अपने कृष्णभावनामृत को कुछ-कुछ प्रकट करता है तो उसकी उपमा धुएँ से आवृत अग्नि से दी जा सकती है। यद्धपि जहाँ कहीं धुआँ होता है वहां अग्नि का होना अनिवार्य है, किन्तु प्रारम्भिक अवस्था में अग्नि की प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति नहीं होती। यह अवस्था कृष्णभावनामृत के सुभारम्भ जैसी है। दर्पण पर धूल का उदहारण मन रुपी दर्पण को अनेकानेक आध्यात्मिक विधियों से स्वच्छ करने की प्रक्रिया के समान है। इसकी सर्वश्रेष्ठ विधि है -भगवान् के पवित्र नाम का संकीर्तन। गर्भाशय द्वारा आवृत भ्रूण दृष्टांत असहाय अवस्था से दिया गया है, क्योंकि गर्भ -स्थित शिशु इधर-उधर हिलने के लिए भी स्वतंत्र नहीं रहता। जीवन की यह अवस्था वृक्षों के समान है। वृक्ष भी जीवात्माएं हैं,किन्तु उनमे काम की प्रबलता को देखते हुए उन्हें ऐसी योनि मिली है कि वे प्रायः चेतनाशून्य होते हैं। धूमिल दर्पण पशु-पक्षियों के समान है और धूम्र से आवृत अग्नि मनुष्य के सामान है। मनुष्य के रूप में जीवात्मा में थोड़ा बहुत कृष्णभावनामृत का उदय होता है और यदि वह और प्रगति करता है तो आध्यात्मिक जीवन की अग्नि मनुष्य जीवन में प्रज्वलित हो सकती है। यदि अग्नि के धुएँ को ठीक से नियंत्रित किया जाय तो अग्नि जल सकती है, अतः यह मनुष्य जीवन जीवात्मा के लिए ऐसा सुअवसर है जिससे वह संसार के बन्धन से छूट सकता है। मनुष्य जीवन में काम रुपी शत्रु को योग्य निर्देशन में कृष्णभावनामृत के अनुशीलन द्वारा जीता जा सकता है।
क्रमशः !!! 🙏🙏
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सोमवार, 14 जून 2021
BHAGAVAD GITA 3:37
श्रीभगवानुवाच
🙏🙏
काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः।
महाशनो महापाप्मा विद्धयेनमिह वैरिणम।।३७।।
श्री-भगवानुवाच -श्रीभगवान ने कहा; कामः विषयवासना; एषः -यह; क्रोधः-क्रोध; एषः-यह; रजः-गुण-रजोगुण से; समुद्भवः -उत्पन्न; महा-अशनः -सर्वभक्षी; महा-पापम्या -महान पापी; विद्धि--जानो; एनम-इसे; इह-इस संसार में; वैरिणम -महान शत्रु।
श्रीभगवान् ने कहा-हे अर्जुन ! इसका कारण रजोगुण के सम्पर्क से उत्पन्न काम है, जो बाद में क्रोध का रूप धारण करता है और जो इस संसार का सर्वभक्षी पापी शत्रु है।
तात्पर्य :-जब जीवात्मा भौतिक सृष्टि के सम्पर्क में आता है तो उसका शाश्वत कृष्ण -प्रेम रजोगुण की संगति से काम में परिणित हो जाता है। अथवा दूसरे शब्दों में,ईश्वर प्रेम का भाव काम में उसी तरह बदल जाता है जिस तरह इमली के संसर्ग से दूध दही में बदल जाता है और जब काम की संतुष्टि नहीं होती तो यह क्रोध में परिणित हो जाता है, क्रोध मोह में और मोह इस संसार में निरन्तर बना रहता है। अतः जीवात्मा का सबसे बड़ा शत्रु काम है और यह काम ही है जो विशुद्ध जीवात्मा को इस संसार ने फँसे रहने के लिए प्रेरित करता है। क्रोध तमोगुण का प्रकाट्य है। वे गुण अपने आपको क्रोध तथा अन्य रूपों में प्रकट करते हैं। अतः यदि रहने तथा कार्य करने की विधियों द्वारा रजोगुण को तमोगुण में न गिरने देकर सतोगुण तक ऊपर उठाया जाय तो मनुष्य को क्रोध में पतित होने से आध्यात्मिक आसक्ति के द्वारा बचाया जा सकता है।
अपने नित्य वर्धमान चिदानन्द के लिए भगवान् ने अपने आपको अनेक रूपों में विस्तारित कर लिया और जीवात्माएं उनके इस चिदानन्द के ही अंश हैं। उनको भी आंशिक स्वतंत्रता प्राप्त है, किन्तु अपनी इस स्वतंत्रता का दुरुप्रयोग करके जब वे सेवा को इन्द्रियसुख में बदल देती हैं तो वे काम की चपेट में आ जाती हैं। भगवान् ने इस सृष्टि की रचना जीवात्माओं के लिए इन कामपूर्ण रूचियों की पूर्ति हेतु सुविधा प्रदान करने के निमित की और जब जीवात्माएं दीर्घकाल तक काम-कर्मों फँसे रहने के कारण पूर्णतया ऊब जाती हैं,तो वे अपना वास्तविक स्वरुप जानने के लिए जिज्ञासा करने लगाती है।
यही जिज्ञासा वेदांत-सूत्र का प्रारम्भ है जिसमे यह कहा गया है -अथातो ब्रह्मजिज्ञासा -मनुष्य को परम तत्व की जिज्ञासा करनी चाहिए। और इस परम तत्व की परिभाषा श्रीमद्भागवत में इस प्रकार दी गयी है -जन्माद्यस्य यतोन्वयदितारतरश्च -सारी वस्तुओं का उद्गम परब्रह्म है। अतः काम का उद्गम भी परब्रह्म से हुआ। अतः यदि काम को भगवत्प्रेम में या कृष्णभावना में परिणित कर दिया जाय,या दूसरे शब्दों में कृष्ण के लिए ही सारी इच्छाएँ हों तो काम तथा क्रोध दोनों ही आध्यात्मिक बन सकेंगे। भगवान् राम के अनन्य सेवक हनुमान ने रावण की स्वर्णपुरी को जलाकर अपना क्रोध प्रकट किया,किन्तु ऐसा करने से वे भगवान् के सबसे बड़े भक्त बन गए। यहाँ पर भी श्रीकृष्ण अर्जुन को प्रेरित करते हैं कि वह शत्रुओं पर अपना क्रोध भगवान् को प्रसन्न करने के लिए दिखाए। अतः काम तथा क्रोध कृष्णभावनामृत में प्रयुक्त होने पर हमारे शत्रु न रहकर मित्र बन जाते हैं।
क्रमशः !!!🙏🙏
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रविवार, 13 जून 2021
BHAGAVAD GITA 3:36
अर्जुन उवाच
🙏🙏
अथ केन प्रयुक्तोयं पापं चरति पूरुषः
अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः।।३६।।
अर्जुनः उवाच -अर्जुन कहा; अथ -तब; केन -किस के द्वारा; प्रयुक्त-प्रेरित; अयम -यह; पापम-पाप; चरति-करता है; पूरुषः-व्यक्ति; अनिच्छन- न चाहते हुए; अपि-यद्द्पि; वार्ष्णेय -हे वृष्णिवंशी; बलात-बलपूर्वक; इव -मानो;नियोजितः -लगाया गया।
अर्जुन ने कहा -हे वृष्णिवंशी ! मनुष्य न चाहते हुए भी पापकर्मों के लिए प्रेरित क्यों होता है ? ऐसा लगता है कि उसे बलपूर्वक उनमे लगाया जा रहा हो।
तात्पर्य :-जीवात्मा परमेश्वर का अंश होने के कारण मूलतः आध्यात्मिक,शुद्ध एवं समस्त भौतिक कल्मषों से मुक्त रहता है। फलतः स्वभाव से वह भौतिक जगत के पापों में प्रवृत नहीं होता। किन्तु जब वह माया के संसर्ग में आता है,तो वह बिना झिझक के और कभी-कभी इच्छा के विरुद्ध भी अनेक प्रकार से पापकर्म करता है। अतः कृष्ण से अर्जुन का प्रश्न अत्यंत प्रत्याशापूर्ण है कि जीवों की प्रकृति विकृत क्यों हो जाती है। यद्द्पि कभी-कभी जीव कोई पाप नहीं करना चाहता,किन्तु उसे ऐसा करने के लिए बाध्य होना पड़ता है। किन्तु ये पापकर्म अन्तर्यामी परमात्मा द्वारा प्रेरित नहीं होते अपितु अन्य कारण से होते हैं, जैसा कि भगवान अगले श्लोक में बताते हैं।
क्रमशः- 🙏🙏
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शुक्रवार, 11 जून 2021
BHAGAVAD GITA 3:35
🙏🙏
श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परमधर्मात्स्वनुष्ठितात।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः।।३५।।
श्रेयान - अधिक श्रेयस्कर; स्व-धर्म:-अपने नियत कर्म; विगुणः-दोषयुक्त भी; परधर्मात -अन्यों के लिए उल्लिखित कार्यों की अपेक्षा; सु-अनुष्ठितात-भलीभाँति सम्पन्न; स्व-धर्में -अपने नियतकर्मों में; निधनम -विनाश,मृत्यु; श्रेयः -श्रेष्ठतर;पर-धर्म -अन्यों के लिए नियतकर्म; भय -आवह:-खतरनाक,डरावना।
अपने नियतकर्मों को दोषपूर्ण ढंग से संपन्न करना भी अन्य के कर्मों को भलीभाँति करने से श्रेयस्कर है। स्वीय कर्मों को करते हुए मरना पराये कर्मों में प्रवृत होने की अपेक्षा श्रेष्ठतर है, क्योंकि अन्य किसी के मार्ग का अनुसरण भयावह होता है।
तात्पर्य :-अतः मनुष्य को चाहिए कि वह अन्यों के लिए नियतकर्मों की अपेक्षा अपने नियतकर्मो को कृष्णभावनामृत में करे। भौतिक दृष्टि से नियतकर्म मनुष्य की मनोवैज्ञानिक दशा के अनुसार भौतिक प्रकृति के गुणों के अधीन आदिष्ट कर्म है। आध्यात्मिक कर्म गुरु द्वारा कृष्ण की दिव्य सेवा के लिए आदेशित होते हैं। किन्तु चाहे भौतिक कर्म हों या आध्यात्मिक कर्म, मनुष्य को मृत्युपर्यन्त अपने नियत कर्मों में दृढ़ रहना चाहिए। अन्य के निर्धारित कर्मों का अनुकरण नहीं करना चाहिए। आध्यात्मिक तथा भौतिक स्तरों पर ये कर्म भिन्न-भिन्न हो सकते हैं, किन्तु कर्ता के लिए किसी प्रमाणिक निर्देशन के पालन का सिद्धांत उत्तम होगा। जब मनुष्य प्रकृति गुणों के वशीभूत हो तो उसे उस विशेष अवस्था के लिए नियमों का पालन करना चाहिए,उसे अन्यों का अनुकरण नहीं करना चाहिए। उदाहरणरार्थ,सतोगुणी ब्राह्मण कभी हिंसक नहीं होता, किन्तु रजोगुणी क्षत्रिय को हिंसक होने की अनुमति है। इस तरह क्षत्रिय के लिए हिंसा के नियमों का पालन करते हुए विनष्ट होना जितना श्रेयस्कर है उतना अहिंसा के नियमों का पालन करने वाले ब्राह्मण का अनुकरण नहीं। हर व्यक्ति को एकाएक नहीं, अपितु क्रमशः अपने ह्रदय को स्वच्छ बनाना चाहिए। किन्तु जब मनुष्य प्रकृति के गुणों को लांघकर कृष्णभावनामृत में पूर्णतया लीन हो जाता है,तो वह प्रामाणिक गुरु के निर्देशन में सब कुछ कर सकता है। कृष्णभावनामृत की पूर्ण स्थति में एक क्षत्रिय ब्राह्मण की तरह और एक ब्राह्मण क्षत्रिय की तरह कर्म कर सकता है। दिव्य अवस्था में भौतिक जगत का भेदभाव नहीं रह जाता उदाहरणार्थ विश्वामित्र मूलतः क्षत्रिय थे, किन्तु बाद में वे ब्राह्मण हो गये। इसी प्रकार परशुराम पहले ब्राह्मण थे, किन्तु बाद में क्षत्रिय बन गये। ब्रह्म में स्थित होने के कारण ही वे ऐसा कर सके, किन्तु जब तक कोई भौतिक स्तर पर रहता है, उसे प्रकृति के गुणों के अनुसार अपने कर्म करने चाहिए। साथ ही उसे कृष्णभावनामृत का पूरा बोध होना चाहिए।
क्रमशः !!!🙏🙏
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बुधवार, 9 जून 2021
BHAGAVAD GITA 3:34
🙏🙏
इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ।
तयोर्न वशमाग्च्छेतौ ह्यस्य परिपन्थिनौ।।३४।।
इन्द्रियस्थ -इन्द्रिय का; इन्द्रियस्य अर्थे -इन्द्रियविषयों में; राग -आसक्ति; द्वेषो -तथा विरक्ति; व्यवस्थितौ-नियमों के अधीन; तयोः -उनके; न -कभी नहीं; वशम-नियंत्रण में; आगच्छेत -आना चाहिए; तौ -वे दोनों; हि -निश्चय ही; अस्य -उसका; परिपन्थिनौ -अवरोधक।
प्रत्येक इन्द्रिय तथा उसके विषय से सम्बंधित राग-द्वेष को व्यवस्थित करने के नियम होते हैं। मनुष्य को ऐसे राग तथा द्वेष के वशीभूत नहीं होना चाहिए क्योंकि ये आत्म-साक्षात्कार के मार्ग में अवरोधक हैं।
तात्पर्य:- जो लोग कृष्णभावनाभावित हैं, वे स्वभाव से भौतिक इन्द्रियतृप्ति में रत होने में झिझकते हैं। किन्तु जिन लोगों की ऐसी भावना न हो उन्हें शास्त्रों के यम-नियमों का पालन करना चाहिए। अनियंत्रित इन्द्रिय-भोग ही भौतिक बन्धन का कारण है, किन्तु जो शास्त्रों के यम-नियमों का पालन करता है,वह इन्द्रिय विषयों में नहीं फँसता। उदाहरणार्थ,यौन -सुख बद्धजीव के लिए आवश्यक है और विवाह -सम्बन्ध के अन्तर्गत यौन सुख की छूट दी जाती है। शास्त्रीय आदेशों के अनुसार अपनी पत्नी के अतिरिक्त अन्य किसी स्त्री के साथ यौन-सम्बन्ध वर्जित है,अन्य सभी स्त्रियों को अपनी माता मानना चाहिए। किन्तु इन आदेशों के होते हुए भी मनुष्य अन्य स्त्रियों के साथ यौन-सम्बन्ध स्थापित करना चाहता है। इन प्रवृतियों को दमित करना होगा अन्यथा वे आत्म-साक्षात्कार के मार्ग में बाधक होंगी। जब तक यह भौतिक शरीर रहता है तब तक शरीर की आवश्यकताओं को यम-नियमों के अन्तर्गत पूर्ण करने की छूट दी जाती है। किन्तु फिर भी हमें ऐसी छूटों के नियंत्रण पर विश्वास नहीं करना चाहिए। मनुष्य को अनासक्त रहकर इन यम-नियमों का पालन करना होता है,क्योंकि नियमों के अन्तर्गत इन्द्रियतृप्ति का अभ्यास भी उसे पथभ्रष्ट कर सकता है, जिस प्रकार कि राजमार्ग तक में दुर्घटना की सम्भावना बनी रहती है। भले ही इन मार्गों की कितनी ही सावधानी से देखभाल क्यों न की जाय, किन्तु इसका कोई आश्वासन नहीं दे सकता कि सबसे सुरक्षित मार्ग पर कोई खतरा नहीं होगा। भौतिक संगति के कारण अत्यंत दीर्घकाल से इन्द्रियसुख की भावना कार्य करती रही है। अतः नियमित इन्द्रिय-भोग के बावजूद भी गुमराह होने की हर सम्भावना बनी रहती है, अतः सभी प्रकार से नियमित इन्द्रिय-भोग के लिए किसी भी आसक्ति से बचना चाहिए। लेकिन कृष्णभावनामृत ऐसा है कि इसके प्रति आसक्ति से या सदैव कृष्ण की प्रेमाभक्ति में कार्य करते रहने से सभी प्रकार के इंद्रिय कार्यों से विरक्ति हो जाती है। अतः मनुष्य को चाहिए कि वह किसी भी अवस्था में कृष्णभावनामृत से विरक्त होने की चेष्टा न करे। समस्त प्रकार की इन्द्रिय -आसक्ति से विरक्ति का उद्देश्य अंततः कृष्णभावनामृत के पद पर आसीन होना है।
क्रमशः !!!🙏🙏
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