अर्जुन उवाच
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अथ केन प्रयुक्तोयं पापं चरति पूरुषः
अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः।।३६।।
अर्जुनः उवाच -अर्जुन कहा; अथ -तब; केन -किस के द्वारा; प्रयुक्त-प्रेरित; अयम -यह; पापम-पाप; चरति-करता है; पूरुषः-व्यक्ति; अनिच्छन- न चाहते हुए; अपि-यद्द्पि; वार्ष्णेय -हे वृष्णिवंशी; बलात-बलपूर्वक; इव -मानो;नियोजितः -लगाया गया।
अर्जुन ने कहा -हे वृष्णिवंशी ! मनुष्य न चाहते हुए भी पापकर्मों के लिए प्रेरित क्यों होता है ? ऐसा लगता है कि उसे बलपूर्वक उनमे लगाया जा रहा हो।
तात्पर्य :-जीवात्मा परमेश्वर का अंश होने के कारण मूलतः आध्यात्मिक,शुद्ध एवं समस्त भौतिक कल्मषों से मुक्त रहता है। फलतः स्वभाव से वह भौतिक जगत के पापों में प्रवृत नहीं होता। किन्तु जब वह माया के संसर्ग में आता है,तो वह बिना झिझक के और कभी-कभी इच्छा के विरुद्ध भी अनेक प्रकार से पापकर्म करता है। अतः कृष्ण से अर्जुन का प्रश्न अत्यंत प्रत्याशापूर्ण है कि जीवों की प्रकृति विकृत क्यों हो जाती है। यद्द्पि कभी-कभी जीव कोई पाप नहीं करना चाहता,किन्तु उसे ऐसा करने के लिए बाध्य होना पड़ता है। किन्तु ये पापकर्म अन्तर्यामी परमात्मा द्वारा प्रेरित नहीं होते अपितु अन्य कारण से होते हैं, जैसा कि भगवान अगले श्लोक में बताते हैं।
क्रमशः- 🙏🙏
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श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परमधर्मात्स्वनुष्ठितात।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः।।३५।।
श्रेयान - अधिक श्रेयस्कर; स्व-धर्म:-अपने नियत कर्म; विगुणः-दोषयुक्त भी; परधर्मात -अन्यों के लिए उल्लिखित कार्यों की अपेक्षा; सु-अनुष्ठितात-भलीभाँति सम्पन्न; स्व-धर्में -अपने नियतकर्मों में; निधनम -विनाश,मृत्यु; श्रेयः -श्रेष्ठतर;पर-धर्म -अन्यों के लिए नियतकर्म; भय -आवह:-खतरनाक,डरावना।
अपने नियतकर्मों को दोषपूर्ण ढंग से संपन्न करना भी अन्य के कर्मों को भलीभाँति करने से श्रेयस्कर है। स्वीय कर्मों को करते हुए मरना पराये कर्मों में प्रवृत होने की अपेक्षा श्रेष्ठतर है, क्योंकि अन्य किसी के मार्ग का अनुसरण भयावह होता है।
तात्पर्य :-अतः मनुष्य को चाहिए कि वह अन्यों के लिए नियतकर्मों की अपेक्षा अपने नियतकर्मो को कृष्णभावनामृत में करे। भौतिक दृष्टि से नियतकर्म मनुष्य की मनोवैज्ञानिक दशा के अनुसार भौतिक प्रकृति के गुणों के अधीन आदिष्ट कर्म है। आध्यात्मिक कर्म गुरु द्वारा कृष्ण की दिव्य सेवा के लिए आदेशित होते हैं। किन्तु चाहे भौतिक कर्म हों या आध्यात्मिक कर्म, मनुष्य को मृत्युपर्यन्त अपने नियत कर्मों में दृढ़ रहना चाहिए। अन्य के निर्धारित कर्मों का अनुकरण नहीं करना चाहिए। आध्यात्मिक तथा भौतिक स्तरों पर ये कर्म भिन्न-भिन्न हो सकते हैं, किन्तु कर्ता के लिए किसी प्रमाणिक निर्देशन के पालन का सिद्धांत उत्तम होगा। जब मनुष्य प्रकृति गुणों के वशीभूत हो तो उसे उस विशेष अवस्था के लिए नियमों का पालन करना चाहिए,उसे अन्यों का अनुकरण नहीं करना चाहिए। उदाहरणरार्थ,सतोगुणी ब्राह्मण कभी हिंसक नहीं होता, किन्तु रजोगुणी क्षत्रिय को हिंसक होने की अनुमति है। इस तरह क्षत्रिय के लिए हिंसा के नियमों का पालन करते हुए विनष्ट होना जितना श्रेयस्कर है उतना अहिंसा के नियमों का पालन करने वाले ब्राह्मण का अनुकरण नहीं। हर व्यक्ति को एकाएक नहीं, अपितु क्रमशः अपने ह्रदय को स्वच्छ बनाना चाहिए। किन्तु जब मनुष्य प्रकृति के गुणों को लांघकर कृष्णभावनामृत में पूर्णतया लीन हो जाता है,तो वह प्रामाणिक गुरु के निर्देशन में सब कुछ कर सकता है। कृष्णभावनामृत की पूर्ण स्थति में एक क्षत्रिय ब्राह्मण की तरह और एक ब्राह्मण क्षत्रिय की तरह कर्म कर सकता है। दिव्य अवस्था में भौतिक जगत का भेदभाव नहीं रह जाता उदाहरणार्थ विश्वामित्र मूलतः क्षत्रिय थे, किन्तु बाद में वे ब्राह्मण हो गये। इसी प्रकार परशुराम पहले ब्राह्मण थे, किन्तु बाद में क्षत्रिय बन गये। ब्रह्म में स्थित होने के कारण ही वे ऐसा कर सके, किन्तु जब तक कोई भौतिक स्तर पर रहता है, उसे प्रकृति के गुणों के अनुसार अपने कर्म करने चाहिए। साथ ही उसे कृष्णभावनामृत का पूरा बोध होना चाहिए।
क्रमशः !!!🙏🙏
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इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ।
तयोर्न वशमाग्च्छेतौ ह्यस्य परिपन्थिनौ।।३४।।
इन्द्रियस्थ -इन्द्रिय का; इन्द्रियस्य अर्थे -इन्द्रियविषयों में; राग -आसक्ति; द्वेषो -तथा विरक्ति; व्यवस्थितौ-नियमों के अधीन; तयोः -उनके; न -कभी नहीं; वशम-नियंत्रण में; आगच्छेत -आना चाहिए; तौ -वे दोनों; हि -निश्चय ही; अस्य -उसका; परिपन्थिनौ -अवरोधक।
प्रत्येक इन्द्रिय तथा उसके विषय से सम्बंधित राग-द्वेष को व्यवस्थित करने के नियम होते हैं। मनुष्य को ऐसे राग तथा द्वेष के वशीभूत नहीं होना चाहिए क्योंकि ये आत्म-साक्षात्कार के मार्ग में अवरोधक हैं।
तात्पर्य:- जो लोग कृष्णभावनाभावित हैं, वे स्वभाव से भौतिक इन्द्रियतृप्ति में रत होने में झिझकते हैं। किन्तु जिन लोगों की ऐसी भावना न हो उन्हें शास्त्रों के यम-नियमों का पालन करना चाहिए। अनियंत्रित इन्द्रिय-भोग ही भौतिक बन्धन का कारण है, किन्तु जो शास्त्रों के यम-नियमों का पालन करता है,वह इन्द्रिय विषयों में नहीं फँसता। उदाहरणार्थ,यौन -सुख बद्धजीव के लिए आवश्यक है और विवाह -सम्बन्ध के अन्तर्गत यौन सुख की छूट दी जाती है। शास्त्रीय आदेशों के अनुसार अपनी पत्नी के अतिरिक्त अन्य किसी स्त्री के साथ यौन-सम्बन्ध वर्जित है,अन्य सभी स्त्रियों को अपनी माता मानना चाहिए। किन्तु इन आदेशों के होते हुए भी मनुष्य अन्य स्त्रियों के साथ यौन-सम्बन्ध स्थापित करना चाहता है। इन प्रवृतियों को दमित करना होगा अन्यथा वे आत्म-साक्षात्कार के मार्ग में बाधक होंगी। जब तक यह भौतिक शरीर रहता है तब तक शरीर की आवश्यकताओं को यम-नियमों के अन्तर्गत पूर्ण करने की छूट दी जाती है। किन्तु फिर भी हमें ऐसी छूटों के नियंत्रण पर विश्वास नहीं करना चाहिए। मनुष्य को अनासक्त रहकर इन यम-नियमों का पालन करना होता है,क्योंकि नियमों के अन्तर्गत इन्द्रियतृप्ति का अभ्यास भी उसे पथभ्रष्ट कर सकता है, जिस प्रकार कि राजमार्ग तक में दुर्घटना की सम्भावना बनी रहती है। भले ही इन मार्गों की कितनी ही सावधानी से देखभाल क्यों न की जाय, किन्तु इसका कोई आश्वासन नहीं दे सकता कि सबसे सुरक्षित मार्ग पर कोई खतरा नहीं होगा। भौतिक संगति के कारण अत्यंत दीर्घकाल से इन्द्रियसुख की भावना कार्य करती रही है। अतः नियमित इन्द्रिय-भोग के बावजूद भी गुमराह होने की हर सम्भावना बनी रहती है, अतः सभी प्रकार से नियमित इन्द्रिय-भोग के लिए किसी भी आसक्ति से बचना चाहिए। लेकिन कृष्णभावनामृत ऐसा है कि इसके प्रति आसक्ति से या सदैव कृष्ण की प्रेमाभक्ति में कार्य करते रहने से सभी प्रकार के इंद्रिय कार्यों से विरक्ति हो जाती है। अतः मनुष्य को चाहिए कि वह किसी भी अवस्था में कृष्णभावनामृत से विरक्त होने की चेष्टा न करे। समस्त प्रकार की इन्द्रिय -आसक्ति से विरक्ति का उद्देश्य अंततः कृष्णभावनामृत के पद पर आसीन होना है।
क्रमशः !!!🙏🙏
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सदृशं चेष्टते स्वयाः प्रकृतेर्ज्ञानवानपि।
पकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति।।३३।।
सदृशं -अनुसार; चेष्टते -चेष्टा करता है; स्वस्याः -अपने; प्रकृते -गुणों से; ज्ञान -वान -विद्वान्; अपि -यद्द्पि; प्रकृतिम -प्रकृति को; यान्ति-प्राप्त होते हैं; भूतानि -सारे प्राणी; निग्रहः -दमन; किम -क्या; करिष्यति -कर सकता है।
ज्ञानी पुरुष भी अपनी प्रकृति के अनुसार कार्य करता है,क्योंकि सभी प्राणी तीनों गुणों से प्राप्त अपनी प्रकृति का ही अनुसरण करते हैं। भला दमन से क्या हो सकता है ?
तात्पर्य :-कृष्णभावनामृत के दिव्य पद पर स्थित हुए बिना प्रकृति के गुणों के प्रभाव से मुक्त नहीं हुआ जा सकता, जैसा कि स्वयं भगवान् ने सातवें अध्याय में (७.१४ )कहा है। अतः सांसारिक धरातल पर बड़े से बड़े शिक्षित व्यक्ति के लिए केवल सैद्धांतिक ज्ञान से आत्मा को शरीर से पृथक करके माया के बन्धन से निकल पाना असम्भव है। ऐसे अनेक तथाकथित अध्यात्मवादी हैं, जो अपने को विज्ञान में बढ़ा-चढ़ा मानते हैं, किन्तु भीतर-भीतर वे पूर्णतया प्रकृति के गुणों के अधीन रहते हैं, जिन्हे जीत पाना कठिन है। ज्ञान की दृष्टि से कोई कितना ही विद्वान् क्यों न हो,किन्तु भौतिक प्रकृति की दीर्घकालीन संगति के कारण वह बंधन में रहता है। कृष्णभावनामृत उसे भौतिक बन्धन से छूटने में सहायक होता है,भले ही कोई अपने नियतकर्मों के करने में संलग्न क्यों न रहे। अतः पूर्णतया कृष्णभावनाभावित हुए बिना नियतकर्मों का परित्याग नहीं करना चाहिए। किसी को भी सहसा अपने नियतकर्म त्यागकर तथाकथित योगी या कृत्रिम अध्यात्मवादी नहीं बन जाना चाहिए। अच्छा तो यह होगा कि यथास्थिति में रहकर श्रेष्ठ प्रशिक्षण के अन्तर्गत कृष्णभावनामृत प्राप्त करने का प्रयत्न किया जाय। इस प्रकार कृष्ण की माया के बन्धन से मुक्त हुआ जा सकता है।
क्रमशः!!!🙏🙏
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ये त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति में मतम।
सर्वज्ञानविमूढांस्तान्विद्धि नष्टानचेतसः।।३२।।
ये -जो; तु -किन्तु; एतत -इस; अभ्यसूयंतः ईर्ष्यावश; न -नहीं; अनुतिष्ठन्ति -नियमित रूप से संपन्न करते हैं; में -मेरा; मतम -आदेश; सर्व -ज्ञान -सभी प्रकार के ज्ञान में;विमूढान -पूर्णतया दिग्भ्र्मित; तान -उन्हें; विद्धि -ठीक से जानो; नष्टान -नष्ट हुए; अचेतसः -कृष्णभावनामृत रहित।
किन्तु जो ईर्ष्यावश इन उपदेशों की उपेक्षा करते हैं और इनका पालन नहीं करते उन्हें समस्त ज्ञान से रहित,दिग्भ्र्मित तथा सिद्धि के प्रयासों में नष्ट -भ्र्ष्ट समझना चाहिए।
तात्पर्य :-यहाँ पर कृष्णभावनाभावित न होने के दोष का स्पष्ट कथन है। जिस प्रकार परम अधिशासी की आज्ञा के उल्लंघन के लिए दण्ड होता है,उसी प्रकार भगवान् के आदेश के प्रति अवज्ञा के लिए भी दण्ड है। अवज्ञाकारी व्यक्ति चाहे कितना ही बड़ा क्यों न हो वह शून्यह्रदय होने से आत्मा के प्रति तथा परब्रह्म,परमात्मा एवं श्रीभगवान के प्रति अनभिज्ञ रहता है। अतः ऐसे व्यक्ति से जीवन की सार्थकता की आशा नहीं की जा सकती।
क्रमशः!!!🙏🙏
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ये में मतमिदं नित्यमनुतिष्ठन्ति मानवाः।
श्रद्धावन्तोनसूयन्तो मुच्यन्ते तेपि कर्मभिः।।३१।।
ये -जो; में -मेरे; मतम -आदेशों को; इदम -इन; नित्यम -नित्य कार्य के रूप में; अनुतिष्ठन्ति -नियमित रूप से पालन करते हैं; मानवाः-मानव प्राणी; श्रद्धा-वन्तः -श्रद्धा तथा भक्ति समेत; अनसूयन्तः -बिना ईर्ष्या के; मुच्यन्ते -मुक्त हो जाते हैं; ते -वे; अपि -भी; कर्मभिः सकामकर्मों के नियमरूपी बन्धन से।
जो व्यक्ति मेरे आदर्शों के अनुसार अपना कर्तव्य करते रहते हैं और ईर्ष्या रहित होकर इस उपदेश का श्रद्धापूर्वक पालन करते हैं, वे सकाम कर्मों के बन्धन से मुक्त हो जाते हैं।
तत्पर्य :-श्री भगवान् कृष्ण का उपदेश समस्त वैदिक ज्ञान का सार है,अतः किसी अपवाद के बिना यह शाश्वत सत्य है। जिस प्रकार वेद शाश्वत हैं उसी प्रकार कृष्णभावनामृत का यह सत्य भी शाश्वत है। मनुष्य को चाहिए कि भगवान् से ईर्ष्या किये बिना इस आदेश में दृढ़ विश्वास रखे। ऐसे अनेक दार्शनिक हैं,जो भगवदगीता पर टीका रचते हैं,किन्तु कृष्ण में कोई श्रद्धा नहीं रखते। वे कभी सकाम कर्मों के बन्धन से मुक्त नहीं हो सकते। किन्तु एक सामान्य पुरुष भगवान् के इन आदेशों में दृढ़विश्वास करके कर्म -नियम के बन्धन से मुक्त हो जाता है, भले ही वह इन आदेशों का ठीक से पालन न कर पाए। कृष्णभावनामृत के प्रारम्भ में भले ही कृष्ण के आदेशों का पूर्णतया पालन न हो पाए,किन्तु चूँकि मनुष्य इस नियम से रुष्ट नहीं होता और पराजय तथा निराशा का विचार किये बिना निष्ठापूर्वक कार्य करता है,अतः वह विशुद्ध कृष्णभावनामृत को प्राप्त होता है।
क्रमशः !!!🙏🙏
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मयि सर्वाणि कर्माणि संन्यस्याधातमच्चेतमा।
निराशीरनिंर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः।।३०।।
मयि-मुझमे; सर्वाणि -सब तरह से; कर्माणि -कर्मों को; सन्यस्थ -पूर्णतया त्याग करके; अध्यात्म -पूर्ण आत्मज्ञान से युक्त; चेतसा -चेतना से; निराशी -लाभ की आशा से रहित, निष्काम; निर्ममः -स्वामित्व की भावना से रहित, ममता त्यागी; भूत्वा -होकर; युध्यस्व -लड़ो; विगत -ज्वरः -आलस्यरहित।
अतः हे अर्जुन ! अपने सारे कार्यों को मुझमे समर्पित करके मेरे पूर्ण ज्ञान से युक्त होकर,लाभ की आकांक्षा से रहित, स्वामित्व के किसी दावे के बिना आलस्य से रहित होकर युद्ध करो।
तात्पर्य :-यह श्लोक भगवदगीता के प्रयोजन को स्पष्टतया इंगित करने वाला है। भगवान् की शिक्षा है कि स्वधर्म पालन के लिए सैन्य अनुशासन के सदृश्य पूर्णतया कृष्णभावनाभावित होना आवश्यक है। ऐसे आदेश से कुछ कठिनाइयां उपस्थित हो सकती हैं, फिर भी कृष्ण के आश्रित होकर स्वधर्म का पालन करना ही चाहिए,क्योंकि यह जीव की स्वाभाविक स्थिति है। जीव भगवान् के सहयोग के बिना सुखी नहीं हो सकता क्योंकि जीव की नित्य स्वाभाविक स्थिति ऐसी है कि भगवान् की इच्छाओं के अधीन रहा जाय। अतः श्रीकृष्ण ने अर्जुन को युद्ध करने का इस तरह आदेश दिया मानो भगवान् उसके सेनानायक हों। परमेश्वर की इच्छा के लिए मनुष्य को सर्वस्व की बलि करनी होती है और साथ ही स्वामित्व जताये बिना स्वधर्म का पालन करना होता है। अर्जुन को भगवान् के आदेश का मात्र पालन करना था। परमेश्वर समस्त आत्माओं के आत्मा हैं, अतः जो पूर्णतया परमेश्वर पर आश्रित रहता है या दूसरे शब्दों में,जो पूर्णतया कृष्णभावनाभावित है वह अध्यात्मचेतस कहलाता है। निराशीः का अर्थ है स्वामी के आदेशानुसार कार्य करना किन्तु फल की आशा न करना। कोषाध्यक्ष अपने स्वामी के लिए लाखों रूपये गिन सकता है,किन्तु इसमें से वह अपने लिए एक पैसा भी नहीं चाहता। इसी प्रकार मनुष्य को यह समझना चाहिए कि इस संसार में किसी व्यक्ति का कुछ भी नहीं है,सारी वस्तुएं परमेश्वर की हैं। मयि -अर्थात मुझमे वास्तविक तात्पर्य यही है। और जब मनुष्य इस प्रकार से कृष्णभावनामृत में कार्य करता है तो वह किसी वस्तु पर अपने स्वामित्व का दावा नहीं करता। यह भावनामृत निर्मम अर्थात "मेरा कुछ नहीं है " कहलाता है। यदि ऐसे कठोर आदेश को, जो शारीरिक सम्बन्ध में तथाकथित बंधुत्व भावना से रहित है, पूरा करने में कुछ झिझक हो तो उसे दूर कर देना चाहिए। इस प्रकार मनुष्य विगतज्वर अर्थात ज्वर तथा आलस्य से रहित हो सकता है। अपने गुण तथा स्थिति के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को विशेष प्रकार का कार्य करना होता है और ऐसे कर्तब्यों का पालन कृष्णभावनाभावित होकर किया जा सकता है। इससे मुक्ति का मार्ग प्रशस्त हो जायेगा।
क्रमशः !!!🙏🙏