गुरुवार, 27 मई 2021

BHAGAVAD GITA 3:27

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प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः। 

अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते।।२७।।

प्रकृतेः-प्रकृति का; क्रियमाणानि -किये जाकर; गुणैः - गुणों के द्वारा; कर्माणि -कर्म; सर्वशः-सभी प्रकार के; अहङ्कार -विमूढ़ -अहंकार से मोहित; आत्मा -आत्मा; करता -करने वाला; अहम् -मैं हूँ; इति -इस प्रकार; मन्यते -सोचता है। 

जीवात्मा अहंकार के प्रभाव से मोहग्रस्त होकर अपने आपको समस्त कर्मों का कर्ता  मान बैठता है, जब कि वास्तव में प्रकृति के तीनों गुणों द्वारा संपन्न किये जाते हैं। 

तात्पर्य :-दो व्यक्ति जिनमे से एक कृष्णभावनाभावित है और दूसरा भौतिक चेतना वाला है,सामान स्तर पर कार्य करते हुए समान पद पर प्रतीत हो सकते हैं,किन्तु अनके पदों में आकाश -पाताल का अंतर रहता है। भौतिक चेतना वाला व्यक्ति अहंकार के कारण आश्वस्त रहता है कि वही सभी वस्तुओं का कर्ता है। वह यह नहीं जानता  कि शरीर की रचना प्रकृति द्वारा हुई है, जो परमेश्वर की अध्यक्षता में कार्य करती है। भौतिकवादी व्यक्ति यह नहीं जानता अंततोगत्वा कि वह कृष्ण के अधीन है। अहंकारवश ऐसा व्यक्ति हर कार्य को स्वतंत्र रूप से करने का  श्रेय लेंना चाहता है और यही है उसके अज्ञान का लक्षण।

उसे यह ज्ञात नहीं है कि उसके इस स्थूल तथा सूक्ष्म शरीर की रचना प्रकृति द्वारा भगवान् की अध्यक्षता में की गयी है, अतः उसके सारे शारीरिक तथा मानसिक कार्य कृष्णभावनामृत में रहकर कृष्ण की सेवा में तत्पर होने चाहिए। अज्ञानी व्यक्ति यह भूल जाता है कि भगवान् हृषिकेश कहलाते हैं अर्थात वे शरीर के इन्द्रियों के स्वामी हैं। इन्द्रियतृप्ति के लिए इन्द्रियों का निरंतर उपयोग करते रहने से वह अहंकार के कारण वस्तुतः मोहग्रस्त रहता है, जिससे वह कृष्ण के साथ अपने शाश्वत सम्बन्ध को भूल जाता है।

क्रमशः !!! 🙏🙏

      

बुधवार, 26 मई 2021

BHAGAVAD GITA 3:26

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 न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानाम कर्मसङ्गिनाम। 

जोषयेत्सकर्माणि विद्वान्युक्तः समचरन।। २६।। 

न -नहीं; बुद्धि-भेदम -बुद्धि का विचलन; जनयेत- उत्पन्न करें; अज्ञानम -मूर्खों का; कर्म-सङ्गिनाम -सकाम कर्मों में आसक्त; जोषयेत -नियोजित करें; सर्व -सारे; कर्माणि -कर्म; विद्वान् -विद्वान् व्यक्ति; युक्त: -लगा हुआ; तत्पर; समाचरन-अभ्यास करता हुआ। 

विद्वान् व्यक्ति को चाहिए कि वह सकाम कर्मों में आसक्त अज्ञानी पुरुषों को कर्म करने से रोके नहीं ताकि उनके मन विचलित न हों। अपितु भक्तिभाव से कर्म करते हुए वह उन्हें सभी प्रकार के कार्यों में लगाये। (जिससे कृष्णभावनामृत का क्रमिक विकास हो) 

तात्पर्य :-वेदैश्च सर्वैरहम वैद्यः -यह सिद्धांत सम्पूर्ण वैदिक अनुष्ठानों की पराकाष्ठा है। सारे अनुष्ठान,सारे यज्ञ -कृत्य तथा वेदों में भौतिक कार्यों के निर्देश हैं,  उन सबों समेत सारी वस्तुएं कृष्ण को जानने के निमित हैं, जो हमारे जीवन के चरम लक्ष्य हैं। लेकिन चूँकि बद्धजीव इन्द्रियतृप्ति के अतिरिक्त और कुछ नहीं जानते,अतः वे वेदों का अध्ययन इसी दृष्टि से करते हैं। किन्तु सकाम कर्मों तथा वैदिक अनुष्ठानों द्वारा नियमित इन्द्रियतृप्ति के माध्यम से मनुष्य धीरे -धीरे कृष्णभावनामृत को प्राप्त होता है,अतः कृष्णभावनामृत में स्वरूपसिद्ध जीव को चाहिए कि अन्यों को अपना कार्य करने या समझने में वाधा न पहुँचाये,अपितु उन्हें यह प्रदर्शित करें कि किस प्रकार सारे कर्मफल को कृष्ण की सेवा में समर्पित किया जा सकता है। कृष्णभावनाभावित विद्वान् व्यक्ति इस तरह कार्य कर सकता है कि इन्द्रियतृप्ति के लिए कर्म करने वाले अज्ञानी पुरुष यह सीख लें कि किस तरह कार्य करना चाहिए और आचरण करना चाहिए। यद्धपि अज्ञानी पुरुष को उसके कार्यों में छेड़ना ठीक नहीं होता,परन्तु यदि वह रंचभर भी कृष्णभावनाभावित है तो यह वैदिक विधियों की परवाह न करते हुए सीधे भगवान् की सेवा में लग सकता है। ऐसे भाग्यशाली व्यक्ति को वैदिक अनुष्ठान करने की आवश्यकता नहीं रहती, क्योंकि प्रत्यक्ष कृष्णभावनामृत के द्वारा उसे वे सारे फल प्राप्त हो जाते हैं,जो उसे अपने कर्तव्यों के पालन करने से प्राप्त होते हैं। 

क्रमशः !!!🙏🙏           

मंगलवार, 25 मई 2021

BHAGAVAD GITA 3:25

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सक्ताः कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत। 

कुर्याद्विद्वांस्तथासक्तश्रिच्कीर्षर्लोकसंग्रहम।।२५।।

सक्ताः-आसक्त; कर्मणि -नियत कर्मों में; अविद्वांसः -अज्ञानी; यथा - जिस तरह; कुर्वन्ति -करते हैं; भारत- हे भरतवंशी; कुर्यात -करना चाहिए; विद्वान् -विद्वान् ; तथा-उसी तरह; असक्त -अनासक्त; चिकीर्षुः -चाहते हुए भी,इच्छुक; लोकसंग्रहम -सामान्य जन। 

जिस प्रकार अज्ञानी -जन फल की आसक्ति से कार्य करते हैं,उसी तरह विद्वान् जनों को चाहिए कि वे लोगों को उचित पथ पर ले जाने के लिए अनासक्त रहकर कार्य करें। 

तात्पर्य :-एक कृष्णभावनाभावित मनुष्य तथा एक कृष्णभवनाहीन व्यक्ति में केवल इच्छाओं का भेद होता है। कृष्णभावनाभावित व्यक्ति कभी ऐसा कोई कार्य नहीं करता, जो कृष्णभावनामृत के विकास में सहायक न हो। यहाँ तक कि वह उस अज्ञानी पुरुष की तरह कर्म कर सकता है,जो भौतिक कार्यों में अत्यधिक आसक्त रहता है। किन्तु इनमे से एक ऐसे कार्य अपनी इन्द्रियतृप्ति के लिए करता है, जबकि दूसरा कृष्ण की तुष्टि के लिए। अतः कृष्णभावनाभावित व्यक्ति को चाहिए कि वह लोगों को यह प्रदर्शित करे कि किस तरह कर्मफलों को कृष्णभावनामृत कार्य में नियोजित किया जाता है। 

क्रमशः !!!🙏🙏       

रविवार, 23 मई 2021

BHAGAVAD GITA 3:24

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उत्सीदेयूरिमे लोका न कुर्या कर्म चेदहम। 

सङ्गरस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमाः प्रजाः।।२४।।

उत्सीदेयुः -नष्ट हो जॉय; इमे -ये सब; लोकाः -लोक; न -नहीं; कुर्याम -करूँ; कर्म - नियत कार्य; चेत -यदि; अहम् -मैं; सङ्करस्य -अवांछित संतति का; च- तथा;  कर्ता-स्रष्टा; स्याम-होऊँगा; उपहन्याम -विनष्ट करूँगा; इमाः -इन सब; प्रजाः -जीवों को। 

यदि मैं नियतकर्म न करुँ तो ये सारे लोग नष्ट हो जायँ। तब मैं अवांछित जनसमुदाय (वर्णसंकर ) को उत्पन्न करने का कारण हो जाऊँगा और इस तरह सम्पूर्ण प्राणियों की शान्ति का विनाशक बनुँगा। 

तात्पर्य :- वर्णसंकर अवांछित जनसमुदाय है , जो सामान्य समाज की शांति को भंग करता है।  इस सामाजिक अशांति को रोकने के लिए अनेक विधि -विधान है, जिनके द्वारा स्वतः ही जनता आध्यात्मिकता प्रगति के लिए शांत तथा सुव्यवस्थित हो जाती है। जब भगवान कृष्ण अवतरित होते हैं तो स्वाभाविक है कि वे ऐसे महत्वपूर्ण कार्यों की प्रतिष्ठा तथा अनिवार्यता बनाये रखने के लिए इन विधि -विधानों के अनुसार आचरण करते हैं। भगवान् समस्त जीवों के पिता हैं और यदि ये जीव पथभ्र्स्ट हो जायँ तो अप्रत्यक्ष रूप में यह उत्तरदायित्व उन्हीं का है। अतः जब भी विधि-विधानों का अनादर होता है,तो भगवान् स्वयं समाज को सुधारने के लिए अवतरित होते हैं। किन्तु हमें ध्यान देना होगा कि यद्धपि हमें भगवान् के पदचिन्हों का अनुसरण करना है,तो भी हम उनका अनुकरण नहीं कर सकते। अनुसरण और अनुकरण एक से  नहीं होते। हम गोवर्धन पर्वत उठकर भगवान् का अनुकरण नहीं कर सकते,जैसा कि भगवान् ने अपने बाल्यकाल में किया था। ऐसा कर पाना किसी मनुष्य के लिए सम्भव नहीं। हमें उनके उपदेशों का पालन करना चाहिए, किन्तु किसी भी समय हमें उनका अनुकरण नहीं करना है। श्रीमदभागवत  में (१०. ३३. ३० -३१ ) इसकी पुष्टि की गई है -

नैतत्समाचरेज्जातु मनसापि ह्यनीश्वरः।

विनश्यत्याचारन मोढ्यादिथारुद्रोब्धिजं  विषम।।

                               ईश्वराणाम वचः सत्यं तथैवाचरितम  क्वचीत। 

                                    तेषां यात स्ववचोयुक्तं बुद्धिमांस्तत  समाचरेत।।  

"मनुष्य को भगवान् तथा उनके द्वारा शक्तिप्रदत्त सेवकों के उपदेशों का मात्र पालन करना चाहिए। उनके उपदेश हमारे लिए अच्छे हैं और कोई भी बुद्धिमान पुरुष बताई गई विधि से उनको कार्यान्वित करेगा। फिर भी मनुष्य को सावधान रहना चाहिए कि वह उनके कार्यों का अनुकरण करे। उसे शिवजी के अनुकरण में विष का समुद्र नहीं पी लेना चाहिए। "

हमें सदैव ईश्वरों की या सूर्य तथा चन्द्रमा की गतियों को वास्तव में नियंत्रित कर सकने वालों की स्थति को श्रेष्ठ मानना चाहिए। ऐसी शक्ति के बिना कोई भी सर्वशक्तिमान ईश्वरों का अनुकरण नहीं कर सकता। शिवजी ने सागर तक के विष का पान कर लिया,किन्तु यदि कोई सामान्य व्यक्ति विष की एक बूँद भी पीने का यत्न करेगा तो वह मर जायेगा। शिवजी के अनेक छद्मभक्त हैं, जो गांजा तथा ऐसी ही अन्य मादक वस्तुओं का सेवन करते रहते हैं। किन्तु वे यह भूल जाते हैं कि इस प्रकार शिवजी का अनुकरण करके वे अपनी मृत्यु को निकट बुला रहे हैं। इसी प्रकार भगवान् कृष्ण के भी अनेक छद्मभक्त हैं,जो भगवान् की रासलीला या प्रेमनृत्य का अनुकरण करना चाहते हैं,किन्तु यह भूल जाते हैं कि गोवर्धन पर्वत को धारण नहीं कर सकते। अतः सबसे अच्छा तो यही होगा कि लोग शक्तिमान का अनुकरण न करके केवल उनके उपदेशों का पालन करें। न ही बिना योग्यता के किसी को उनका स्थान ग्रहण करने का प्रयत्न करना चाहिए। ऐसे अनेक ईश्वर के "अवतार " हैं जिनमे भगवान् की शक्ति नहीं होती। 

क्रमशः!!!🙏🙏 

   


   

      

शुक्रवार, 21 मई 2021

BHAGAVAD GITA 3:23

 🙏🙏

यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रितः। 

मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः।।२३।।

यदि -यदि; हि -निश्चय ही; अहम् -मैं; न -नहीं; वर्तेयम -इस प्रकार व्यस्त रहूं; जातु -कभी; कर्मणि-नियतं कर्मों के सम्पादन में; अतन्द्रितः-सावधानी के साथ; मम -मेरा; वर्त्म -पथ ; अनुवर्तन्ते -अनुगमन करेंगे; मनुष्याः -सारे मनुष्य; पार्थ -हे पृथापुत्र;सर्वशः -सभी प्रकार से। 

क्योंकि यदि मैं नियत कर्मों को सावधानीपूर्वक  न करूँ तो हे पार्थ ! यह निश्चित है कि सारे मनुष्य मेरे पथ का ही अनुगमन करेंगे। 

तात्पर्य :-आध्यत्मिक जीवन की उन्नति के लिए एवं सामाजिक शान्ति में संतुलन बनाये रखने के लिए कुछ परम्परागत कुलाचार हैं , जो प्रत्येक सभ्य व्यक्ति के लिए होते हैं। ऐसे विधि -विधान केवल बद्धजीवों के लिए हैं,भगवान् कृष्ण के लिए नहीं,क्योकि वे धर्म की स्थापना के लिए अवतरित हुए थे, अतः उन्होंने निर्दिष्ट नियमों का पालन किया। अन्यथा,सामान्य व्यक्ति भी उन्ही के पदचिन्हों का अनुसरण करते क्योंकि कृष्ण परम प्रमाण हैं। श्रीमद्भगवद्गीता से यह ज्ञात होता है कि श्रीकृष्ण अपने घर में तथा बाहर गृहस्थोचित धर्म का आचरण करते रहें। 

क्रमशः!!!🙏🙏                                                                                                                                                

गुरुवार, 20 मई 2021

Bhagavad Gita 3:22

 🙏🙏

न में पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किञ्चनः।  

नानमाप्तमवाप्तरव्यं वर्त एव च कर्माणि व च।।२२।।

न -नहीं; में -मुझे; पार्थ -हे पृथापुत्र; अस्ति - है; कर्त्व्यम -नियत कार्य; त्रिषु -तीनों; लोकेषु -लोकों में; किञ्चन -कोई; न -कुछ नहीं; अनवाप्तम -इच्छित; अवाप्तव्यम -पाने के लिए; वर्ते -लगा रहता हूँ; एव -निश्चय ही; च -भी; कर्मणि -नियत कर्मों में। 

हे पृथापुत्र !  तीनों लोकों में मेरे लिए कोई भी कर्म नियत नहीं है , न मुझे किसी वास्तु का अभाव है और न आवश्यकता ही है। तो भी मैं नियतकर्म करने में तत्पर रहता हूँ। 

तात्पर्य:- वैदिक साहित्य में भगवान् का वर्णन इस प्रकार हुआ है -

तमिश्राणां परमं महेस्वरं तं देवतानां परमं च दैवतंम। 

पतिं पतीनां परमं प्रस्ताद विदाम देवं भुवनेशमीड्यम।। 

न तस्य कार्यं कर्णम च विद्द्यते न तत्समश्रभ्यदिकश्च  दृश्यते। 

परास्य शक्तिर्विविधैव श्रूयते स्वाभाविकी ज्ञानबलक्रिया च।। 

"परमेस्वर समस्त नियंताओं के नियंता हैं और विभिन्न लोकपालकों  में सबसे महान हैं। सभी उनके अधीन हैं। सारे जीवों को परमेश्वर से ही विशिष्ट शक्ति प्राप्त होती है, जीव स्वयं श्रेष्ठ नहीं है। वे सभी देवताओं द्वारा पूज्य हैं और समस्त संचालकों के भी संचकलक हैं। अतः वे समस्त भौतिक नेताओं तथा नियंताओं से बढ़कर हैं और सबों द्वारा आराध्य हैं। उनसे बढ़कर कोई नहीं है औरवे  ही समस्त कारणों के कारण हैं। "

"उनका शारीरिक स्वरुप सामान्य जीव जैसा नहीं होता। उनके शरीर तथा आत्मा में कोई अन्तर नहीं है। वे परम हैं। उनकी सारी इन्द्रियां दिव्य हैं। उनकी कोई भी इन्द्रिय का अन्य किसी इन्द्रिय का कार्य संपन्न कर सकती है। अतः न तो कोई उनसे बढ़कर है,न ही उनके तुल्य है। उनकी शक्तियां बहुरूपिणी हैं, फलतः  उनके सारे कार्य प्राकृतिक अनुक्रम के अनुसार संपन्न हो जाते हैं। "(श्वेताश्वतर उपनिषद ६.७ -८ ) -

चूँकि भगवान् में प्रत्येक वस्तु ऐश्वर्य से परिपूर्ण रहती है और पूर्ण सत्य से ओतप्रोत रहती है,अतः उनके लिए कोई कर्तव्य करने की आवश्यकता नहीं रहती। जिसे अपने कर्म का फल पाना है,उसके लिए कुछ न कुछ कर्म नियत रहता है,परन्तु जो तीनो लोकों में कुछ भी प्राप्त करने की इच्छा नहीं रखता,उसके लिए निश्चय ही कोई कर्तव्य नहीं रहता फिर भी क्षत्रियों के नायक के रूप में भगवान् कृष्ण कुरुक्षेत्र की युद्ध भूमि में कार्यरत हैं,क्योंकि क्षत्रियों का धर्म है कि दीन -दुखियों को आश्रय प्रदान करें। यद्द्पि वे शास्त्रों के विधिविधानों से सर्वथा ऊपर हैं,फिर भी वे ऐसा कुछ भी नहीं करते जो शास्त्रों के विरुद्ध हो। 

क्रमशः !!! 🙏🙏     

रविवार, 16 मई 2021

BHAGAVAD GITA 3:21

 🙏🙏

यद्दाचरति श्रेष्ठ्स्तत्तदेवेतरो  जनः। 

स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते।।२१।।

यत यत -जो-जो; आचरति -करता है; श्रेष्ठ-आदरणीय नेता; तत -तथाकेवल वही; एव -निश्चय ही; इतरः -सामान्य; जनः -व्यक्ति; सः -वह; यत -जो कुछ; प्रमाणम-उदहारण,आदर्श; कुरुते -करता है; लोकः-सारा संसार; तत -उसके; अनुवर्तते -पदचिन्हों का अनुसरण करता है। 

महापुरुष जो जो आचरण करता है,सामान्य व्यक्ति उसी का अनुसरण करते है। वह अपने अनुसरणीय कार्यों से जो आदर्श प्रस्तुत करता है,सम्पूर्ण विश्व उसका अनुसरण करता है। 

तात्पर्य :- सामान्य लोगों को सदैव एक ऐसे नेता की आवश्यकता होती है, जो व्यावहारिक आचरण द्वारा जनता को शिक्षा दे सके। यदि नेता स्वयं धूम्रपान करता है तो वह जनता को धूम्रपान बंद करने की शिक्षा नहीं दे सकता। चैतन्य महाप्रभु ने कहा कि शिक्षा देने के पूर्व शिक्षक को ठीक-ठीक आचरण करना चाहिए। जो इस प्रकार शिक्षा देता है वह आचार्य  आदर्श शिक्षक कहलाता है। अतः शिक्षक को चाहिए कि सामान्यजन को शिक्षा देने के लिए स्वयं शास्त्रीय सिद्धांतो का पालन करे। कोई भी शिक्षक प्राचीन प्रमाणिक ग्रंथों के नियमों के विपरीत कोई नियम नहीं बना सकता। मनु संहिता जैसे प्रमाणिक ग्रन्थ मानव समाज के लिए अनुसरणीय आदर्श ग्रन्थ हैं, अतः नेता का उपदेश ऐसे आदर्श शास्त्रों के नियम पर आधारित होना चाहिए। जो व्यक्ति अपनी उन्नति चाहता है उसे महान शिक्षकों द्वारा अभ्यास किये जाने वाले आदर्श नियमों का पालन करना चाहिए। श्रीमद्भागवत भी इसकी पुष्टि करता है कि मनुष्य को महान भक्तों के पदचिन्हों  अनुसरण करना चाहिए और आध्यात्मिक बोध के पथ में प्रगति का यही साधन है। चाहे राजा हो या राज्य का प्रशासनिक अधिकारी,चाहे पिता हो या शिक्षक -ये सब अबोध जनता के स्वाभाविक नेता माने जाते हैं। इन सबका अपने आश्रितों के प्रति महान उत्तरदायित्व रहता है, अतः इन्हे नैतिक तथा आध्यात्मिक संहिता सम्बन्धी आदर्श ग्रंथों से सुपरिचित होना चाहिए। 

क्रमशः !!!🙏🙏