शनिवार, 10 अप्रैल 2021

BHAGAVAD GITA 2:64

 🙏🙏

रागद्वेषविमुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन। 

आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति।।६४।।  

राग -आसक्ति; द्वेष -तथा वैराग्य से; विमुक्तैः - मुक्त रहने वाले से; तू-लेकिन; विषयान-इन्द्रियविषयों को; इन्द्रियैः-इन्द्रियों के द्वारा; चरन - भोगता हुआ; आत्म-वश्यैः -अपने वश में; विधेय-आत्मा-नियमित स्वाधीनता पालक; प्रसादम -भगवत्कृपा को; अधिगच्छति-प्राप्त करता है।

किन्तु समस्त राग तथा द्वेष से मुक्त एवं अपनी इन्द्रियों को संयम द्वारा वश में करने में समर्थ व्यक्ति भगवान् की पूर्ण कृपा प्राप्त करता है। 

तात्पर्य :- यह पहले  बताया जा चुका है कि कृत्रिम विधि से इन्द्रियों पर वाह्य रूप से नियंत्रण किया जा सकता है, किन्तु जब तक इन्द्रियां भगवान् की दिव्य  सेवा में नहीं लगायी जाती, तब तक नीचे गिरने की सम्भावना बनी रहती हैं। यद्द्पि पूर्णतया कृष्णभावनाभावित व्यक्ति ऊपर से विषय-स्तर पर क्यों  न दिखे, किन्तु कृष्णभावनाभावित होने से वह विषय - कर्मों में आसक्त नहीं होता। उसका एक मात्र उद्देश्य  कृष्ण  को प्रसन्न करना रहता है, अन्य कुछ नहीं। अतः वह समस्त आसक्ति  विरक्ति से मुक्त होता है। कृष्ण की इच्छा होने पर भक्त सामान्यतया अवांछित कार्य भी कर सकता है, किन्तु यदि कृष्ण की इच्छा नहीं है तो वह उस कार्य को नहीं करेगा, जिससे वह सामान्य रूप से  अपने लिए करता हो। अतः कर्म करना या करना उसके वश में रहता है क्योंकि वह केवल कृष्ण के निर्देश के अनुसार ही कार्य करता है। यही चेतना भगवान् की अहैतुकी कृपा है, जिसकी प्राप्ति भक्त को इन्द्रियों में आसक्त होते हुए भी हो सकती है।

क्रमशः !!!       

शुक्रवार, 9 अप्रैल 2021

BHAGAVAD GITA 2:63

 क्रोधाद्भवति सम्मोहः ससम्मोहात्स्मृतिविभ्र्मः।

स्मृतिभ्रंशाद भुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यन्ति।।६२।।

क्रोधात -क्रोध से; भवति -होता है; सम्मोह -पूर्ण मोह; सम्मोहात-मोह से;स्मृति -स्मरणशक्ति का; बिभ्रमः  -मोह; स्मृति-भ्रंशात- स्मृति के मोह से; बुद्धिनाशः -बुद्धि का विनाश; बुद्धि-नाशात-तथा बुद्धि नाश से;प्रणश्यन्ति -अधः पतन होता है। 

क्रोध से पूर्ण मोह उत्पन्न होता है और मोह से स्मरणशक्ति का विभ्रम हो जाता है। जब स्मरणशक्ति भ्रमित हो जाती  है,तो बुद्धि नष्ट हो जाती है,और बुद्धि नष्ट होने पर मनुष्य भव -कूप में पुनः गिर जाता है। 

तात्पर्य :-श्रील रूप गोस्वामी ने हमें यह आदेश दिया है -

                            प्रापञ्चिकतया बुद्ध्या हरिसंम्बन्धिवस्तुनः।

    मुमुक्षुभिःपरित्यागो वैराग्यं फल्गु कथ्यते।  (भक्तिरसामृत  सिंधु  १.२.२५८ )

कृष्णभावनामृत  विकास  से मनुष्य जान सकता है कि प्रत्येक  उपयोग भगवान् की सेवा के लिए किया जा सकता है। जो कृष्णभावनामृत के ज्ञान से रहित हैं,वे कृत्रिम ढंग से भौतिक विषयों से वचने का प्रयास करते हैं,फलतः वे भवबंधन से मोक्ष की कामना करते हुए भी वैराग्य की चरम अवस्था को प्राप्त नहीं कर पाते।  तथाकथित वैराग्य फल्गु अर्थात गौण कहलाता है। .इसके विपरीत कृष्णभावनाभावित व्यक्ति जानता है कि प्रत्येक वस्तु का उपयोग भगवान् की सेवा में किसप्रकार किया जाय फलतः वह भौतिक चेतना का शिकार नहीं होता। उदाहरणार्थ,निर्विशेषवादी के अनुसार भगवान् निराकार होने के कारण भोजन नहीं कर सकते, अतः वह अच्छे खाद्दों से बचता रहता है, किन्तु भक्त  जानता है कि कृष्ण परम भोक्ता है और भक्तिपूर्वक उन  पर जो भी भेंट चढाई जाती है, उसे वे खाते है।  अतः भगवान को अच्छा भोजन चढ़ाने के बाद भक्त प्रसाद ग्रहण करता है। इस प्रकार हर वस्तु प्राणवान हो जाती है और अधः पतन का कोई संकट नहीं रहता। भक्त कृष्णभावनामृत में रहकर प्रसाद ग्रहण करता है जबकि अभक्त इसे पदार्थ के  के रूप में तिरस्कार कर देता है। अतः निर्विशेषवादी अपने  कृत्रिम त्याग के कारण जीवन को भोग  नहीं  पाता और यही  कारण है कि मन के थोड़े से विचलन से वह भव -कूप में पुनः आ गिरता है। कहा जाता है कि मुक्ति के स्तर तक पहुँच जाने पर भी ऐसा जीव  नीचे गिर जाता  है, क्योंकि उसे भक्ति का कोई आश्रय नहीं मिलता। 

  क्रमशः !!!

गुरुवार, 8 अप्रैल 2021

BHAGAVAD GITA 2:62

🙏🙏

 ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते। 

सङ्गात्सन्नजायते  कामः कामातक्रोधोभिजायते।।६२।।

 ध्यायतः-चिन्तन करते हुए ; विषयान -इन्द्रिय विषयों को; पुंसः मनुष्य की; सङ्गात-आसक्ति से; संञ्जायते-विकसित होती है; कामः -इच्छा; कामात-काम से; क्रोधः -क्रोध; अभिजायते -प्रकट होता है। 

इन्द्रियविषयों का चिंतन करते हुए मनुष्य की उनमे आसक्ति उत्पन्न हो जाती है और ऐसी आसक्ति से काम उत्पन्न होता है और फिर काम से क्रोध प्रकट होता है। 

तात्पर्य :-जो मनुष्य कृष्णभावनाभावित नहीं है उसमे इन्द्रियविषयों के चिंतन से भौतिक इच्छाएं उत्पन्न होती हैं। इन्द्रियों को किसी न किसी कार्य में लगा रहना चाहिए और यदि वे भगवान् की दिव्य प्रेमा भक्ति में   नहीं लगी रहेंगी तो वे निश्चय ही भौतिकतावाद में लगना  चाहेंगी। इस भौतिक  जगत में हर एक प्राणी इन्द्रियविषयों के अधीन है,यहाँ तक कि ब्रह्माँ तथा शिवजी भी। तो स्वर्ग के अन्य देवताओं के विषय में क्या कहा जा सकता है  ? इस संसार  के जंजाल से  निकलने का एक मात्र उपाय है -कृष्णभावनाभावित होना। शिव ध्यानमग्न थे,किन्तु पार्वती ने विषयभोग के लिए उन्हें उत्तेजित किया,तो  सहमत हो गए जिसके फलस्वरूप कार्तिकेय का  जन्म हुआ। इसी प्रकार तरुण भगवत्भक्त हरिदास ठाकुर को माया देवी के अवतार ने मोहित करने   का प्रयास किया,किन्तु विशुद्ध कृष्ण भक्ति  के कारण वे इस कसौटी में खरे उतरे। जैसा कि यमुनाचार्य  के उपर्युक्त श्लोक में बताया  जा चुका है,भगवान् का एकनिष्ठ भक्त भगवान् की संगति के आध्यत्मिक सुख का आस्वादन करने के कारण समस्त भौतिक इन्द्रियसुख को त्याग देता है। अतः जो कृष्णभावनाभावित नहीं है,वह कृत्रिम दमन के द्वारा अपनी इन्द्रियों को वश में करने में कितना ही शक्तिशाली क्यों न हो,अंत में अवश्य असफल होगा,क्योंकि विषय सुख का रंचमात्र विचार भी उसे इन्द्रियतृप्ति के लिए उत्तेजित कर देगा।

क्रमशः !!! 

बुधवार, 7 अप्रैल 2021

BHAGAVAD GITA 2:61

 🙏🙏

तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः। 

वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।६१।। 

तानी- उन इन्द्रियों को; सर्वाणि-समस्त; संयम्य-वश करके; युक्त -लगा हुआ; आसीत-स्थित होना चाहिए; मत-पर -मुझमे; वशे -पूर्णतया वश में; हि-निश्चय ही; यस्य-जिसकी; तस्य -उसकी; प्रज्ञा -चेतना; प्रतिष्ठिता -स्थिर। 

 जो इन्द्रियों को पूर्णतया वश में रखते हुए इन्द्रिय -संयमन  करता है और अपनी चेतना को मुझमे स्थिर कर देता है, वह मनुष्य स्थिरबुद्धि कहलाता है। 

तात्पर्य :- इस श्लोक में बताया गया है कि योगसिद्धि की चरम अनुभूति कृष्णभावनामृत ही है। जब तक कोई कृष्णभावनाभावित नहीं होता तब तक इन्द्रियों को वश में करना सम्भव नहीं है। जैसा कि पहले कहा जा चुका है,दुर्वाशा मुनि का झगड़ा  महाराज अम्बरीष से हुआ,क्योकि वे गर्ववश महाराज अम्बरीष  पर क्रुद्ध हो गए,जिससे अपनी इन्द्रियों को रोक नहीं पाए दूसरी ओंर यद्धपि राजा मुनि के समान योगी न था,किन्तु वह कृष्ण का भक्त था और उसने मुनि के सारे अन्याय सह लिये,जिससे वह विजयी हुआ। राजा अपनी इन्द्रियों को वश में कर सका क्योंकि उसमे निम्नलिखित गुण थे,जिनका उल्लेख श्रीमदभागवत में (१. ४. १८. २० )हुआ है -

स वै मनः कृष्णपदारविन्दयोर्वचांसि वैकुंठगुणानुवर्णने। 

करौ हरेर्मन्दिरमार्जनादिषु   श्रुति चक्राच्युतसत्कथोदये।।

मुकुंदलिङ्गालयदार्शने  दृशौ तद्भृत्यगात्रस्पृशेगसंगमम। 

घ्राणं  च तत्पादसरोजसौरभे  श्रीमतुलस्या  रसनां तदर्पाति।। 

पादौ हरेः क्षेत्रपादानुसर्पणे  शिरों हृषीकेशपदाभिवंदने।

कामं च दास्ये न तु  कामकाम्यया यथोत्तमश्लोकजनाश्रया रतिः।। 

"राजा अंबरीष ने अपना मन भगवान् कृष्ण के चरणारविन्दों पर स्थिर कर दिया है अपनी वाणी भगवान् के धाम की चर्चा करने में लगा दी,अपने कानों को भगवान् की लीलाओं के सुनने में,अपने हाथों को भगवान् का मंदिर साफ़ करने में,अपनी आँखों को भगवान् का स्वरुप देखने में,अपने शरीर को भक्त के शरीर का स्पर्श करने में, अपनी नाक को भगवान् के चरणारविन्दों पर भेंट किये  गये फूलों की गन्ध सूंघने में,अपनी जीभ को उन्हें अर्पित तुलसी दलों काआस्वाद करने में,अपने पावों को जहाँ -जहाँ भगवान्  के मंदिर हैं, उन  स्थानों की यात्रा करने में,अपने सिर को भगवान् को नमस्कार करने में तथा अपनी इच्छाओं को भगवान की इच्छाओं को पूरा करने में लगा दिया और इन गुणों के कारण वे भगवान् के मत्पर भक्त बनने के योग्य हो गए। 

इस प्रसंग में मत्पर शब्द अत्यंत सार्थक है। कोई मत्पर किस तरह हो सकता है इसका वर्णन महाराज अंबरीष के जीवन में बताया गया है। मत्पर परम्परा के महान विद्वान् तथा आचार्य श्रील बलदेव विद्याभूषण का  कहना है -मद्भक्ति प्रभावेन सर्वेन्द्रियविजयपूर्विका  स्वात्मदृष्टिः सुलभेति भावः -इन्द्रियों को केवल कृष्ण की भक्ति के बल से वश में किया जा सकता है-कभी-कभी अग्नि का भी उदाहरण दिया जाता है -"जिस प्रकार जलती हुई अग्नि कमरे  की सारी वस्तुएँ जला देती है उसी प्रकार  योगी के ह्रदय में स्थित भगवान् विष्णु सारे मलों को जला देते हैं"। योग -सूत्र भी विष्णु का ध्यान आवश्यक बताता है,शून्य का नहीं। तथाकथित योगी जो विष्णु पद को छोड़कर अन्य किसी वास्तु का ध्यान धरते हैं,वे केवल मृगमरीचिकाओं की खोज में वृथा ही अपना समय गंवाते हैं। हमें कृष्णभावनाभावित होना चाहिए -भगवान् के प्रति अनुरक्त होना चाहिए। असली योग का यही उद्देश्य है।

क्रमशः  🙏🙏        

 

                                                                                                                                                                                                     

सोमवार, 5 अप्रैल 2021

BHAGAVAD GITA 2:60

🙏🙏

ययतो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः। 

इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति परसभं मनः।।६०।।

यतत:-प्रयत्न करते हुये; हि -निश्चय ही; अपि-के बावजूद; कौन्तेय -हे कुन्तीपुत्र; पुरुषस्य - मनुष्य की; विपश्चित -विवेक से युक्त; इन्द्रियाणि-इन्द्रियां; प्रमाथीनि-उत्तेजित; हरन्ति -फेंकती हैं; प्रसभम -बल से; मनः-मन को।

हे अर्जुन ! इन्द्रियां इतनी प्रबल तथा वेगवान हैं कि विवेकी पुरुष के मन को भी बलपूर्वक हर लेती हैं,जो उन्हें वश करने का  प्रयत्न करता है। 

तात्पर्य :-अनेक विद्वान,ऋषि,दार्शनिक तथा अध्यात्मवादी इन्द्रियों को वश में करने का प्रयत्न करते हैं,किन्तु उनमे से बड़े से बड़ा भी कभी -कभी विचलित मन के कारण इन्द्रियभोग का लक्ष्य बन जाता है। यहाँ तक कि विश्वामित्र जैसे महर्षि तथा पूर्ण योगी को मेनका के साथ विषय भोग में प्रवृत होना पड़ा,यद्दपि वे इन्द्रिय निग्रह के लिए कठिन तपस्या तथा योग कर रहे थे। विश्व इतिहास में तरह अनेक दृष्टान्त हैं। अतः पूर्णतया कृष्णभावनाभावित  हुए बिना मन तथा इन्द्रियों को वश में कर  सकना अत्यंत कठिन है। मन को कृष्ण में लगाये बिना मनुष्य ऐसे भौतिक कार्यों को बंद नहीं कर सकता।  परम साधु तथा भक्त यामुनाचार्य ने एक व्यावहारिक उदहारण प्रस्तुत किया है।  कहते हैं -

यदविधि  मम चेतः कृष्णपदारविन्दे 

              नवनवरसधामान्युद्यतं रन्तुमासीत। 

तदवधि बत नारीसंगमे स्मर्यमाने 

            भवति मुखविकारः सुष्ठु निष्ठीवनं च।।

"जब से मेरा मन भगवान् कृष्ण  के चरणारविन्दों की सेवा में लग गया है और जब से मैं नित्य नव दिव्य रस का अनुभव  करता हूँ,तब से स्त्री प्रसंग का विचार आते ही मेरा मन उधर से फिर जाता है और मैं ऐसे विचार का थू -थू करता हूँ।"

कृष्णभावनामृत इतनी दिव्य सुन्दर वस्तु है कि इसके प्रभाव से भौतिक भोग स्वतः नीरस हो जाता है। यह वैसा ही है जैसे कोई भूखा मनुष्य प्रचुर मात्रा में पुष्टिदायक भोजन करके अपनी भूख मिटा ले। महाराज अंबरीष भी परम योगी दुर्वासा मुनि पर इसलिए विजय पा सके क्योंकि उनका मन निरन्तर कृष्णभावनामृत में लगा रहता था। (स वै मनः कृष्णपदारविन्दयोः वचांसि बैकुंठगुणानुवर्णने) 

क्रमशः !!! 🙏🙏


     

   

  

  


शुक्रवार, 2 अप्रैल 2021

BHAGAVAD GITA 2:59

🙏🙏


 

विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः।



रसवर्ज रसोप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते।।५९।।



विषया -इन्द्रिय भोग की वस्तुएँ;विनिवर्तन्ते -दूर रहने के लिए अभ्यास की जाती है; निराहारस्य -निषेधात्मक प्रतिबंधों से; देहिनः -देहवान जीव के लिए;रास -वर्जम-स्वाद का त्याग करता है; रस:-भोगेच्छा; अपि -यद्धपि है; अस्य -उसका; परम -अत्यन्त उत्कृष्ट वस्तुएँ; दृष्टा -अनुभव होने पर;निवर्तते -वह समाप्त हो जाता है। 

देहधारी जीव इन्द्रिय भोग से भले ही निवृत हो जाये पर उसमे इन्द्रिय भोगों की इच्छा बनी रहती है। लेकिन उत्तम रस के अनुभव होने से ऐसे कार्यों को बंद करने पर वह भक्ति में स्थिर हो जाता है। 

तात्पर्य :-जब कोई अध्यात्म को प्राप्त न हो तब तक इन्द्रियभोग से वितरित होना असम्भव है। विधि -विधानों द्वारा इन्द्रियभोग को संयमित करने की विधि वैसी ही है जैसे किसी रोगी के किसी भोज्य पदार्थ खाने पर प्रतिबंध लगाना। किन्तु इससे रोगी की न तो भोजन के प्रति रूचि समाप्त होती है और न वह ऐसा प्रतिबन्ध लगाया जाना चाहता है। इसी प्रकार अल्पज्ञानी व्यक्तियों के लिए इन्द्रियसंयमन के लिए अष्टांग योग जैसी विधि की संस्तुति की जाती है जिसमे यम,नियम,आसन,प्राणायाम,प्रत्याहार,धारणा,ध्यान आदि सम्मिलित हैं। किन्तु जिसने कृष्णभावनामृत के पथ पर प्रगति के क्रम में परमेश्वर कृष्ण के सौन्दर्य का रसास्वादन  कर लिया है, उसे जड़ भौतिक वस्तुओं में कोई रूचि नहीं रह जाती। ऐसे प्रतिबन्ध अल्पज्ञानी नवदीक्षितों के लिए हैं। ऐसे प्रतिबन्ध तभी ठीक हैं,जब तक कृष्णभावनामृत में रूचि जागृत नहीं जाती जब वास्तव में रूचि जग जाती है,तो मनुष्य में स्वतः ऐसी वस्तुओं के प्रति अरुचि उत्पन्न हो जाती है। 

क्रमशः !!! 🙏🙏  

  

मंगलवार, 30 मार्च 2021

BHAGAVAD GITA 2:58

🙏🙏 

यदा संहरते चायं कूर्मोङ्गनीव सर्वशः 

इन्द्रियाणिन्द्रीयार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।५८।।

यदा -जब संहरते -समेत लेता है; च -भी; अयम-यह; कुर्मः -कछुआ; इव -सदृश; सर्वशः -एकसाथ; इन्द्रियाणि -इन्द्रियां; इन्द्रिय -अर्थेभ्य:-इन्द्रिय विषयों से; तस्य-उसकी; प्रज्ञा -चेतना; प्रतिष्ठिता-स्थिर। 

जिस प्रकार कछुआ अपने अंगों को संकुचित करके खोल के भीतर कर लेता है,उसी तरह मनुष्य अपनी इन्द्रियों को इन्द्रिय विषयों से खींच लेता है,वह पूर्ण चेतना में दृढ़तापूर्वक स्थिर होता है। 

तात्पर्य :-किसी योगी,भक्त या आत्मसिद्ध व्यक्ति की कसौटी यह है कि वह अपनी योजना के अनुसार इन्द्रियों को वश में कर सके,किन्तु अधिकांश व्यक्ति अपनी इन्द्रयों के दास बने रहते हैं और इन्द्रियों के ही कहने पर चलते हैं। यह है उत्तर इस प्रश्न का कि योगी किस प्रकार स्थिर होता है। इन्द्रियों की तुलना विषैले सर्पों से की गयी है। वे अत्यंत स्वंत्रता पूर्वक तथा बिना किसी नियंत्रण के कर्म करना चाहती है। योगी या भक्त को इन सर्पों को वश में करने के लिए,एक सपेरे की भांति अत्यंत प्रबल होना चाहिए। वह उन्हें कभी भी कार्य करने की छूट नहीं देता। शास्त्रों में अनेक आदेश हैं,उनमे से कुछ करो तथा कुछ न करो से सम्बद्ध हैं। जब तक कोई इन,करो या न करो का पालन नहीं कर पाता और इन्द्रिय भोग पर संयम नहीं बरतता है तब तक उसका कृष्णभावनामृत में स्थिर हो पाना असम्भव है। यहाँ पर सर्वश्रेष्ठ उदहारण कछुवे का है। वह किसी भी समय अपने अंग समेट सकता है और पुनः विशिष्ट  उद्देश्यों से प्रकट कर सकता है। इसी प्रकार कृष्णभावनाभावित व्यक्तियों की इन्द्रियां भी केवल भगवान् की विशिष्ट सेवाओं के लिए काम आती हैं अन्यथा उनका संकोच कर लिया जाता है। अर्जुन को उपदेश दिया जा रहा है कि वह अपनी इन्द्रियों को आत्मतुष्टि न करके भगवान् के सेवा में लगाये। अपनी इन्द्रियों को सदैव भगवान् की सेवा में लगाये रखना कूर्म द्वारा प्रस्तुत दृष्टांत के अनुरूप है। जो अपनी इन्द्रियों को समेटे रखता है। 

क्रमशः !!!🙏🙏