बुधवार, 10 मार्च 2021

BHAGAVAD GITA 2:37

 🙏🙏

हतो वा प्राप्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम। 

तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चिचः।।३७।। 

हतः -मारा जा कर; वा -या तो; प्राप्यसि -प्राप्त करोगे; स्वर्गम-स्वर्गलोक को; जित्वा-विजयी होकर;वा-अथवा; भोक्ष्यसे-भोगोगे; महीम-पृथ्वी को;तस्मात्-अतः; उत्तिष्ठ-उठो; कौन्तेय-हे कुन्तीपुत्र; युद्धाय-लड़ने के लिए; कृत-दृढ़; निश्चय-संकल्प से। 

हे कुन्तीपुत्र ! तुम यदि युद्ध में मारे जाओगे तो स्वर्ग प्राप्त करोगे या यदि या यदि जीत जाओगे तो पृथ्वी के साम्राज्य का भोग करोगे। अतः दृढ़ संकल्प करके खड़े होओ और युद्ध करो। 

तात्पर्य:- यद्दपि अर्जुन के पक्ष में विजय निश्चित नहीं थी फिर भी उसे युद्ध करना था,क्योंकि यदि वह युद्ध में मारा भी गया तो वह स्वर्गलोक को जायेगा। 

क्रमशः!!! 

मंगलवार, 9 मार्च 2021

BHAGAVAD GITA 2:36

अवाच्च्यवादांश्च बहून्वदिष्यन्ति तवाहिताः। 

निन्दन्तस्तव सामर्थ्य ततो दुःखतरं नु किम।।३६।।

अवाच्च्य :-कटु; वादान-मिथ्या शब्द; च-भी; बहून-अनेक; वदिष्यन्ति -कहेंगे; तव -तुम्हारी; सामर्थ्यं- सामर्थ्य को;ततः-उसकी अपेक्षा; दुःख-तरम -अधिक दुखदायी; नु -निस्संदेह; किम -और क्या है। 

तुम्हारे शत्रु अनेक प्रकार के कटु शब्दों से तुम्हारा वर्णन करेंगे और तुम्हारी सामर्थ्य का उपहास करेंगे। तुम्हारे लिए इससे दुखदायी और क्या हो सकता है। 

तात्पर्य:- प्रारम्भ में ही भगवान् कृष्ण को अर्जुन के अयाचित दयाभाव पर आश्चर्य हुआ था और उन्होंने इस दयाभाव को अनार्योचित बताया था। अब उन्होंने विस्तार से अर्जुन के तथाकथित दयाभाव के बिरुद्ध कहे गए अपने वचनों को सिद्ध कर दिया है। 

क्रमशः !!!   

   

सोमवार, 8 मार्च 2021

BHAGAVAD GITA 2:35

🙏

भयाद्रणादुपरतं मंस्यन्ते त्वाम महारथाः। 

येषां च त्वं बहुमतो भूत्वा यास्यसि लाघवम।।

भयात -भय से; रणात-युद्धभूमि से; उपरतम-विमुख; मंस्यन्ते-मानेंगे; त्वाम-तुमको; महारथा-बड़े -बड़े योद्धा; येषां -जिनके लिए; च -भी; त्वम् -तुम; बहुमतः-अत्यंत सम्मानित; भूत्वा -होकर; यास्यसि-जाओगे; लाघवम-तुच्छता को। 

जिन -जिन महान योद्धाओं ने तुम्हारे नाम तथा यश को सम्मान दिया है वे सोचेंगे कि तुमने डर के मारे युद्धभूमि छोड़ दी है और इस तरह वे तुम्हें तुच्छ मानेंगे। 

तात्पर्य :-भगवान् कृष्ण अर्जुन को अपना निर्णय सुना रहे हैं, "तुम यह मत सोचो कि दुर्योधन,कर्ण तथा अन्य समकालीन महारथी यह सोचेंगे कि तुमने अपने भाइयों तथा पितामह पर दया करके युद्धभूमि छोड़ी है। इस प्रकार उनकी दृष्टि में तुम्हारे प्रति जो सम्मान है वह धूल में मिल जाएगा। "🙏🙏

क्रमशः- !!

    

रविवार, 7 मार्च 2021

BHAGAVAD GITA 2:34

 🙏

अकीर्ति चापि भूतानि कथयिष्यन्ति तेव्ययाम। 

सम्भावितस्य चाकीर्तिर्मरणादतिरिच्यते।।३४।।

🙏

अकीर्तिम -अपयश; च -भी; अपि -इसके अतिरिक्त; भूतानि -सभी लोग; कथयिष्यन्ति -कहेंगे; ते- तुम्हारे; अव्ययाम -सदा के लिए; सम्भावितस्य -सम्मानित व्यक्ति के लिए; च -भी;अकीर्ति -अपयश,अपकीर्ति;मरणत -मृत्यु से भी; अतिरिच्यते - अधिक होती है। 

लोग सदैव तुम्हारे अपयश का वर्णन करेंगे और सम्मानित व्यक्ति के लिए अपयश तो मृत्यु से भी बढ़कर है। 

तात्पर्य :-अब अर्जुन के मित्र तथा गुरु के रूप में भगवान् कृष्ण अर्जुन को युद्ध विमुख न होने का अंतिम निर्णय देते हैं। वे कहते हैं, "अर्जुन ! यदि तुम युद्ध प्रारम्भ होने से पूर्व ही युद्धभूमि  छोड़ देते हो तो लोग तुम्हें कायर कहेंगे। और यदि तुम सोचते हो कि लोग गाली देते रहें,किन्तु तुम युद्धभूमि से भागकर अपनी जान बचा लोगे तो मेरी सलाह है कि तुम्हें युद्ध में मर जाना ही श्रेयस्कर होगा। तुम जैसे सम्माननीय व्यक्ति के लिए अपकीर्ति मृत्यु से भी बुरी है। अतः तुम्हें प्राणभय से भागना नहीं चाहिए,युद्ध में मर जाना ही श्रेयस्कर होगा। इससे तुम मेरी मित्रता का दुरुप्रयोग करने तथा समाज में अपनी प्रतिष्ठा खोने के अपयश से बच जाओगे।"

अतः अर्जुन के लिए भगवान् का अंतिम निर्णय था की वह संग्राम से पलायन न करे अपितु युद्ध में मरे। 

क्रमशः !!!   

शनिवार, 6 मार्च 2021

BHAGAVAD GITA 2:33

🙏

अथ चेत्वमिमं धर्म्यं सङ्ग्रामं न करिष्यसि। 

ततः स्वधर्म कीर्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि

।।२:३३।।🙏  

अथ -अतः;चेत -यदि;त्वम् -तुम; इमम -इस; धर्म्यम-अपने धर्म को; सङ्ग्रामं -युद्ध को;न -नहीं; करिस्यसि -करोगे; ततः-तब; स्व -धर्मम -आपने धर्म को; कीर्तिम-यश को; च-भी; हित्वा -खोकर;पापम -पापपूर्ण फल को;अवाप्स्यसि-प्राप्त करोगे। 

किन्तु यदि तुम युद्ध करने के स्वधर्म को संपन्न नहीं करते तो तुम्हें निश्चित रूप से अपने कर्तव्य की अपेक्षा करने का पाप लगेगा और तुम योद्धा के रूप में भी अपना यश खो दोगे।

अर्थात:-अर्जुन विख्यात योद्धा था जिसने शिव आदि अनेक देवताओं से युद्ध करके यश अर्जित किया था। शिकारी के वेश में शिवजी से युद्ध करके तथा उन्हें हराकर अर्जुन ने उन्हें प्रसन्न किया था और वर के रूप में पाशुपतास्त्र  प्राप्त किया था सभी लोग जानते थे कि वह महान योद्धा है। स्वयं द्रोणाचार्य उसे आशीष दिया था और एक विशेष अस्त्र प्रदान किया था,जिससे वह अपने गुरु का भी वध कर सकता था। इस प्रकार वह अपने धर्मपिता एवं स्वर्ग के राजा इंद्र समेत अनेक अधिकारियों से अनेक युद्धों के प्रमाणपत्र प्राप्त कर चुका था,किन्तु यदि वह इस समय युद्ध का परित्याग करता है तो वह न केवल क्षत्रिय धर्म की उपेक्षा का दोषी होगा,अपितु उसके यश की भी हानि होगी और वह नरक जाने के लिए अपना मार्ग तैयार कर लेगा। दूसरे शब्दों में,वह युद्ध करने से नहीं,अपितु युद्ध से पलायन करने के कारण नरक का भागी होगा। 

क्रमशः !!!

 

     

शुक्रवार, 5 मार्च 2021

BHAGAVAD GITA 2:32

 🙏

यदृच्छया चोपपन्नम स्वर्गद्वारमपावृतम। 

सुखिनः क्षत्रियाः पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम।।३२।।

🙏

यदृच्छया -अपने आप; च -भी; उप्पन्नम -प्राप्त हुए;स्वर्ग -स्वर्गलोक का; द्वारम-दरवाजा; अपावृतम -खुला हुआ; सुखिनः-अत्यंत सुखी; क्षत्रियाः- राजपरिवार के सदस्य;पार्थ -हे पृथापुत्र; लभन्ते -प्राप्त करते हैं; युद्धम -युद्ध को; ईदृशम-इस तरह। 

हे पार्थ ! वे क्षत्रिय सुखी हैं,जिन्हे ऐसे युद्ध के अवसर अपने आप प्राप्त होते हैं जिससे उनके लिए स्वर्गलोक के द्वार खुल जाते हैं। 

तात्पर्य :- विश्व के परम गुरु भगवान् कृष्ण अर्जुन की इस प्रवृति की भर्त्सना करते हैं जब वह कहता है कि उसे इस युद्ध में कुछ भी तो लाभ नहीं दिख रहा है। इससे नरक में शाश्वत वास करना होगा। अर्जुन द्वारा ऐसे वक्तव्य केवल अज्ञानजन्य थे। वह अपने स्वधर्म के आचरण में अहिंसक बनना चाह रहा था,किन्तु एक क्षत्रिय के लिए युद्धभूमि में स्थित होकर इस प्रकार अहिंसक बनना मूर्खों का दर्शन है। पराशर -स्मृति में व्यासदेव के पिता पराशर ने कहा -

क्षत्रियो हि प्रजारक्षण शस्त्रपाणिः परदण्डयन। 

निर्जित्य परसैन्यादि क्षिति धर्मेण पालयेत।।  

"क्षत्रिय का धर्म है कि वह सभी क्लेशों से नागरिकों की रक्षा करे। इसलिए उसे शांति तथा व्यवस्था बनाये रखने के लिए हिंसा करनी पड़ती है। अतः उसे शत्रु राजाओं के सैनिकों को जीत कर धर्मपूर्वक संसार पर राज्य करना चाहिए। "

यदि सभी पक्षों पर  विचार करें  अर्जुन को युद्ध  विमुख होने का कोई कारण नहीं था। यदि वह शत्रुओं को जीतता है तो राज्यभोग करेगा और यदि वह युद्धभूमि में मरता है तो स्वर्ग को जाएगा जिसके द्वार उसके लिए खुले हुए हैं। युद्ध करने से उसे दोनों ही तरह लाभ होगा। 

क्रमशः!!!  





गुरुवार, 4 मार्च 2021

BHAGAVAD GITA 2:31

 🙏

स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि। 

धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयो न्यतक्षत्रियस्य न विद्दते।।३१।।

🙏

स्व -धर्मम-अपने धर्म को; अपि-भी,च-निस्संदेह; अवेक्ष्य -विचार करके; न -कभी नहीं; विकम्पितुम-संकोच  के लिए; अर्हसि -तुम योग्य हो; धर्म्यात -धर्म के लिए; हि-निस्सन्देह; युद्धात -युद्ध करने की अपेक्षा; श्रेयः -श्रेष्ट साधन; अन्यत -कोई दूसरा; क्षत्रियस्य-क्षत्रिय का; न- नहीं; विद्द्ते-है। 

क्षत्रिय होने के नाते अपने विशिष्ट धर्म का विचार करते हुए तुम्हें जानना चाहिए कि धर्म  के लिए युद्ध करने से बढ़ कर तुम्हारे लिए अन्य कोई कार्य नहीं है। अतः तुम्हें संकोच करने की कोई आवश्यकता नहीं है। 

अर्थात :-सामाजिक व्यवस्था के चार वर्णों में द्वितीय वर्ण उत्तम शासन  के लिए है और क्षत्रिय कहलाता है। क्षत का अर्थ है चोट खाया हुआ। जो क्षति से रक्षा करे वह क्षत्रिय कहलाता है। क्षत्रियों को वन में आखेट करने का प्रशिक्षण दिया जाता। क्षत्रिय जंगल में जाकर शेर को ललकारता और उससे आमने -सामने अपनी तलवार से लड़ता था। शेर की मृत्यु होने पर उसकी राजसी ढंग से अंत्येष्टि की जाती थी। आज भी जयपुर रियासत के क्षत्रिय राजा इस प्रथा का पालन करते हैं। क्षत्रियों को विशेष रूप से ललकारने तथा  शिक्षा दी जाती है क्योंकि कभी-कभी धार्मिक हिंसा अनिवार्य होती है। इसलिए क्षत्रियों को सीधे सन्यासाश्रम ग्रहण का विधान नहीं है। राजनीति में अहिंशा कूटनीतिक चाल हो सकती है,किन्तु यह कभी भी कारण या सिद्धांत नहीं रही। धार्मिक संहिताओं में उल्लेख मिलता है -

आवहेषु मिथोन्योन्यं जिघांसन्तो महीक्षितः। 

युद्धमानाः परं शक्त्या स्वर्ग यान्त्यपराङ्गमुखाः।। 

यज्ञेषु पशवो ब्रह्मन हन्यन्ते सततं द्विजैः। 

संस्कृताः किल  मन्त्रैश्च तेपि स्वर्गमाप्नुवन।।  

"युद्ध में विरोधी ईर्ष्यालु राजा से संघर्ष करते हुए मरने वाले राजा या क्षत्रिय को मृत्यु के अनन्तर वे ही उच्चलोक प्राप्त होते हैं जिनकी प्राप्ति यज्ञाग्नि में मारे गए पशुओं की होती है।"अतः धर्म के लिए युद्ध भूमि में वध करना तथा याज्ञिक अग्नि के लिए पशुओं का वध करना हिंसा कार्य नहीं माना जाता क्योंकि इसमें नहित धर्म के कारण प्रत्येक व्यक्ति को लाभ पहुँचता है और यज्ञ में बलि दिए गए पशु को एक स्वरूप से दूसरे में बिना विकाश  प्रक्रिया के ही तुरंत मनुष्य का शरीर प्राप्त हो जाता है। इसी तरह  युद्धभूमि में मारे गए  क्षत्रिय यज्ञ संपन्न करने वाले ब्राह्मणों को प्राप्त होने वाले स्वर्गलोक में जाते हैं।  

स्वधर्म दो प्रकार का होता है जब। जब तक मनुष्य मुक्त नहीं हो जाता  तब तक मुक्ति प्राप्त करने के लिए धर्म के अनुसार शरीर विशेष कर्तव्य करने होते हैं। जब वह मुक्त हो जाता है तो उसका विशेष कर्तव्य या स्वधर्म आध्यात्मिक हो जाता है और देहात्मबुद्धि में नहीं रहता। जब तक देहात्मबुद्धि है तब तक ब्राह्मणों तथा क्षत्रियों के लिए स्वधर्म पालन अनिवार्य होता है। स्वधर्म का का विधान भगवान् द्वारा होता है,जिसका स्पष्टीकरण चतुर्थ अध्याय में किया जाएगा। शारीरिक स्तर पर स्वधर्म को वर्णाश्रम धर्म अथवा आध्यात्मिक बोध का प्रथम सोपान कहते हैं। वर्णाश्रम धर्म अर्थात प्राप्त शरीर के विशिष्ट गुणों पर आधारित स्वधर्म की अवस्था से मानवीय सभ्यता का शुभारम्भ होता है। वर्णाश्रम -धर्म के अनुसार किसी कार्य-क्षेत्र में स्वधर्म का निर्वाह करने से जीवन के उच्चतर पद को प्राप्त किय जाता है। 

क्रमशः - !!!!