मंगलवार, 9 फ़रवरी 2021

BHAGAVAD GITA 2:8

 न हि प्रपश्यामि मामानुद्दाद -

         यच्छोकमुच्छोषणमिन्द्रियाणाम। 

अवाप्य भूमावसपत्नमृद्धं 

         राज्यं सुराणामपि चाधिपत्यम।।८।। 

 ना.-नहीं; हि:-निश्चय ही; प्रपश्यामि:-देखता हूँ; मम:-मेरा; अपनुद्यात:-दूर कर सके; यत:-जो; शोकम:-शोक; उच्छोषणम:-सूखने वाला; इन्द्रियाणां:- इन्द्रयों का; अवाप्य:-प्राप्त करके; भूमौ:-पृथ्वी पर; असपत्नम:-शत्रु बिहीन; ऋद्धम:-समृद्ध; राज्यम:-राज्य; सुराणाम:- देवताओं का; अपि:-.चाहे; च.-भी; आधिपत्यम:-सर्वोच्चता। 

मुझे ऐसा कोई साधन नहीं दिखता जो मेरी इन्द्रयों को सूखने वाले इस शोक को दूर कर सके। स्वर्ग पर देवताओं के आधिपत्य की तरह इस धनधान्य संपन्न सारी  पृथ्वी पर निष्कंटक राज्य प्राप्त करके मैं भी इस शोक को दूर नहीं कर सकूंगा। 

तात्पर्य :- यद्दपि अर्जुन धर्म तथा सदाचार के नियमों पर आधारित अनेक तर्क प्रस्तुत करता है,किन्तु ऐसा प्रतीत होता है की वह अपने गुरु भगवान् श्रीकृष्ण की सहायता के बिना अपनी असली तपस्या को हल नहीं कर पा रहा। वह समझ गया था की उसका तथाकथित ज्ञान उसकी उन समस्याओं को दूर करने में व्यर्थ है जो उसके सारे अस्तित्व (शरीर )को सुखाये दे रही थीं। उसे इन उलझनों को भगवान् कृष्ण जैसे आधात्मिक गुरु की सहायता के बिना हल कर पाना असम्भव लग रहा था। शैक्षिक ज्ञान,विद्वता,उच्च पद-ये सब जीवन की समस्याओं को हल करने में व्यर्थ हैं। यदि कोई इसमें सहायता कर सकता है,तो वह एकमात्र गुरु। अतः निष्कर्ष यह निकला कि गुरु जो शत  प्रतिशत कृष्णभावनाभावित होता है,वही एकमात्र प्रमाणिक गुरु है और वही जीवन की समस्याओं को हल कर सकता है। भगवान चैतन्य ने कहा है कि जो कृष्णभावनामृत के विज्ञान में दक्ष हो,कृष्णतत्ववेता हो,चाहे वह जिस किसी जाती का हो,वही वास्तविक गुरु है -

किबा बिप्र, किबा न्यासी ,शूद्र केने नय। 

येई कृष्ण तत्ववेता ,सेई  गुरु हय।। 

"कोई व्यक्ति चाहे वह विप्र (वैदिक ज्ञान में दक्ष )हो,निम्न जाति मे जन्मा शूद्र हो या सन्यासी,यदि वह कृष्ण के विज्ञान में दक्ष (कृष्णतत्ववेता ) है तो वह यथार्थ प्रमाणिक गुरु है। "(चैतन्य चरिमामृत,मध्य ८.१२८ )अतः कृष्णतत्ववेता हुए बिना कोई भी प्रमाणिक गुरु नहीं हो सकता। वैदिक साहित्य में भी कहा गया है -

षट्कर्मणिपुणों विप्रो मन्त्रतन्त्रविशारदः।  

अवैष्णवो गुरुर्न स्याद वैष्णवः ऋवपचौ  गुरुः।। 

"विद्वान ब्राह्मण,भले ही वह सम्पूर्ण वैदिक ज्ञान में पारंगत क्यों न हो,यदि वह वैष्णव नहीं है या कृष्ण भावनामृत में दक्ष नहीं है तो गुरु बनाने का पात्र नहीं है। किन्तु शूद्र,यदि वह वैष्णव या कृष्ण भक्त है तो गुरु बन सकता है। "(पद्मपुराण )

संसार  की समस्याओं -जन्म,जरा,व्याधि तथा मृत्यु -की निवृति धन -संचय तथा आर्थिक विकास से सम्भव नहीं है। विश्व के विभिन्न भागों में ऐसे राज्य हैं जो जीवन की सारी  सुबिधाओं से तथा  सम्पत्ति एवं आर्थिक विकास से पूरित हैं,किन्तु फिर भी उनके सांसारिक जीवन की समस्याएं ज्यों की त्यों बनी हुई हैं। वे बिभिन्न साधनों से शांति खोजते हैं,किन्तु वास्तविक सुख उन्हें तभी मिल पाता है जब वे कृष्ण भावनामृत से युक्त कृष्ण के प्रामाणिक प्रतिनिधि के माध्यम से कृष्ण अथवा कृष्ण तत्वपूरक भगवद्गीता तथा श्रीमदभागवत के परामर्श को ग्रहण करते है। 

यदि आर्थिक विकास तथा भौतिक सुख किसी के पारिवारिक,सामाजिक,राष्ट्रीय या अन्तर्राष्ट्रीय अव्यवस्था से उत्पन्न शोकों को दूर कर पाते,तो अर्जुन यह न कहता कि पृथ्वी का अप्रतिम राज्य या स्वर्गलोक में देवताओं की सर्वोच्चता भी उसके शोकों को दूर नहीं कर सकती। इसलिए उसने कृष्ण भावनामृत का ही आश्रय ग्रहण किया और यही शांति और समरसता  का उचित मार्ग है। आर्थिक विकास या विश्व आधिपत्य प्राकृतिक प्रलय द्वारा किसी भी क्षण समाप्त हो सकता है। यहाँ तक कि चंद्रलोक जैसे उच्च लोकों की यात्रा भी,जिसके लिए मनुष्य प्रयत्नशील है,एक झटके में समाप्त हो सकती है,भगवद्गीता इसकी पुष्टि करती  है -क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति -जब पुण्यकर्मों के फल समाप्त हो जाते हैं तो मनुष्य सुख के शिखर से जीवन के निम्नतम स्तर पर गिर जाता है। इस तरह से विश्व के अनेक राजनीतिज्ञों का पतन हुआ है। ऐसा अधः पतन शोक का कारण बनता है। 

अतः यदि हम सदा के लिए शोक का निवारण चाहते हैं तो हमें कृष्ण शरण ग्रहण करनी होगी,जिस तरह अर्जुन ने की। अर्जुन ने कृष्ण से प्रार्थना की कि वे उसकी समस्या का निश्चित समाधान कर दें और यही कृष्ण भावनामृत की विधि है।

क्रमशः !!!  

सोमवार, 8 फ़रवरी 2021

BHAGAVAD GITA 2:7

 कार्पण्यदोषोपहतस्वभाव:

       पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः। 

यत्श्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे 

         शिष्यतेहं शाधि मां त्वां प्रपन्नं।।७।। 

कार्पण्य :-कृपणता; दोष:-दुर्बलता; उपहत:-ग्रस्त; स्व-भावः -गुण.विशेषताएँ; पृच्छामि:-पूछ रहा हूँ; त्वाम:-तुम से; धर्म-धर्म; सम्मूढ:-मोहग्रस्त; चेताः-ह्रदय में; यत:-जो; श्रेय :-कल्याणकारी; स्यात:-हो; निश्चितम :-विश्वासपूर्वक; ब्रूहि :-कहो; तत :-वह;में:-मुझको; शिष्य :-शिष्य; ते :-तुम्हारा; अहम् :-मैं; शाधि :-उपदेश दीजिये; माम :-मुझको; त्वाम् :-तुम्हारा ; प्रपन्नं:-शरणागत। 

अब मैं अपनी कृपण -दुर्बलता के कारण अपना कर्तव्य भूल गया हूँ और सारा धैर्य खो चूका हूँ। ऐसी अवस्था में मैं आपसे पूछ रहा हूँ कि जो मेरे लिए श्रेयकर हो उसे निश्चित रूप से बताएं। अब मैं आपका शिष्य हूँ और आपका शरणागत हूँ। कृपया मुझे उपदेश दें। 

तात्पर्य :- यह प्राकृतिक नियम है की भौतिक कार्यकलाप की प्रणाली ही हर एक के लिए चिंता का कारण है। पग -पग पर उलझन मिलती है,अतः प्रमाणिक गुरु के पास जाना आवश्यक है,जो जीवन के उद्देश्य को पूरा करने के लिए समुचित पथ निर्देश दे सके। समग्र वैदिक ग्रन्थ हमें यह उपदेश देते हैं कि जीवन की अनचाही उलझनों से मुक्त होने के लिए प्रमाणिक गुरु के पास जाना चाहिए। ये उलझने उस दावाग्नि के सामान है जो किसी के द्वारा लगाए बिना भभक उठती है। इसी प्रकार विश्व की स्थति ऐसी है कि बिना चाहे जीवन की उलझने स्वतः उत्पन्न हो जाती हैं। कोई नहीं चाहता कि आग लगे,किन्तु फिर भी वह लगती है और हम अत्यधिक व्याकुल हो उठते हैं। अतः वैदिक वाङ्ग्मय उपदेश देता है की जीवन की उलझनों को समझने तथा उनका समाधान करने के लिए हमें परम्परागत गुरु के पास जाना जाना चाहिए। जिस व्यक्ति का प्रमाणिक गुरु होता है वह सब कुछ जानता है। अतः मनुष्य को भौतिक उलझनों में न रहकर गुरु के पास जाना चाहिए। यही इस श्लोक का तात्पर्य है। 

आखिर भौतिक उलझनों में कौन सा व्यक्ति पड़ता है ?वह जो जीवन की समस्याओं को नहीं समझता। बृहदारण्यक उपनिषद (३.८.१० )व्याकुल मनुष्य का वर्णन इस प्रकार हुआ है -यो वा एतदक्षरं गार्ग्यविदितवास्माल्लोकातप्रेति सो कृपणः -"कृपण वह है जो मानव जीवन की समस्याओं को हल नहीं करता और आत्म-साक्षात्कार के विज्ञानं को समझे बिना कुकर -सुकर की भांति इस संसार को त्यागकर चला जाता है। "जीव के लिए यह मनुष्य जीवन अत्यंत मूलयवान निधि है ,जिसका उपयोग वह अपने जीवन की समस्याओं को हल करने में कर सकता है,अतः जो इस अवसर का लाभ नहीं उठाता वह कृपण है।ब्राह्मण इसके बिपरीत होता है जो इस शरीर का उपयोग जीवन की समस्त समस्याओं को हल करने में करता है। य एतदक्षरं गार्गि विडितवास्माल्लोकातप्रेति स ब्राह्मण : देहात्मबुद्धि वश कृपण या कंजूस लोग अपना सारा समय परिवार,समाज, देश आदि के अत्यधिक प्रेम में गवां देते हैं। मनुष्य प्रायः चर्मरोग के आधार पर अपने पारिवारिक जीवन अर्थात पत्नी,बच्चों तथा परिजनों में आसक्त रहता है। कृपण यह सोचता है कि वह अपने परिवार को मृत्यु से बचा सकता है। ऐसी पारिवारिक आसक्ति निम्न पशुओं में भी पायी जाती है क्योंकि वे भी बच्चों की देखभाल करते हैं। बुद्धिमान होने के कारण अर्जुन समझ गया था कि पारिवारिक सदस्यों के प्रति उसका अनुराग तथा मृत्यु से उनकी रक्षा करने की उसकी इच्छा ही उसकी उलझनों का कारण है। 

यद्द्पि वह समझ रहा था की युद्ध करने का कर्तव्य उसकी प्रतीक्षा कर रहा था,किन्तु कृपण -दुर्बलता के कारण वह अपना कर्तव्य नहीं निभा रहा था। अतः वह परम गुरु भगवान् कृष्ण से कोई निश्चित हल निकालने का अनुरोध कर रहा है। वह कृष्ण का शिष्यत्व ग्रहण करता है। वह मित्रतापूर्ण बातें बंद करना चाहता है। गुरु तथा शिष्य की बातें गंभीर होती है और जब अर्जुन अपने मान्य गुरु के समक्ष गम्भीरतापूर्वक बातें करना चाहता है। इसलिए कृष्ण भगवद्गीता ज्ञान के आदि गुरु हैं और अर्जुन गीता समझने वाला प्रथम शिष्य है। अर्जुन भगवद गीता को किस तरह समझता है वह गीता में वर्णित है। तो भी मूर्ख संसारी विद्वान बतातें है कि किसी को मनुष्य रूप कृष्ण की नहीं बल्कि "अजन्मा कृष्ण "की शरण ग्रहण करनी चाहिए। कृष्ण के अन्तः तथा बाह्य में कोई अंतर नहीं। इस ज्ञान के बिना जो भगवद्गीता समझने का प्रयास करता है,वह सबसे बड़ा मूर्ख है। 

क्रमशः !!!!

रविवार, 7 फ़रवरी 2021

BHAGAVAD GITA 2:6

 🙏🙏न चैतद्विद्मः कतरन्नो गरियो 

            यद्वा जयेम यदि व नो जयेयुः। 

यानेव हत्वा न जिजीविषाम 

          स्टेवस्थिता: प्रमुखे धार्तराष्ट्राः।।६।।🙏🙏


 :-नहीं; च:-भी;  एतत:-यह; विद्मः -हम जानते हैं; करतत:-जो;नः-हमको जयेयुः-वे जीतें; जिजीविषाम:-हम जीना चाहेंगे; ते:-वे सब; अवस्थिताः-खड़े हैं; प्रमुखे:-सामने; धार्तराष्ट्राः धृतराष्ट्र के पुत्र। 

हम यह भी जानते हैं कि हमारे लिए क्या श्रेष्ठ है -उनको जीतना या उनके जीते जाना। यदि हम धृतराष्ट्र के पुत्रों का वध कर देते हैं तो हमें जीवित रहने की आवश्यकता नहीं है। फिर भी वे युद्धभूमि में हमारे समक्ष खड़े हैं। 

तात्पर्य:- अर्जुन की समझ में यह नहीं आ रहा था कि वह क्या करे -युद्ध करे और अनावश्यक रक्तपात का कारण बने,यद्द्पि क्षत्रिय होने के नाते युद्ध करना उसका धर्म है; या फिर वह युद्ध से विमुख होकर भीख मांगकर जीवन-यापन करे। यदि वह शत्रु को जीतता नहीं तो जीविका का एकमात्र साधन भिक्षा ही रह जाता है। फिर जीत भी निश्चित नहीं क्योंकि कोई भी पक्ष विजयी हो सकता है। यदि उसकी विजय हो भी जाय (क्योंकि उसका पक्ष न्याय पर है),तो भी यदि धृतराष्ट्र के पुत्र मरते हैं, तो उनके बिना रह पाना अत्यंत कठिन हो जायेगा। उस दशा में यह उसको दूसरी प्रकार की हार होगी। 

अर्जुन द्वारा व्यक्त इस प्रकार के ये विचार सिद्ध करते है कि वह न केवल भगवान का महान भक्त था,अपितु वह अत्यधिक प्रबुद्ध और अपने मन तथा इन्द्रियों पर पूर्ण नियंत्रण रखने वाला था। राज परिवार में जन्म लेकर भी भिक्षा द्वारा जीवित रहने की इच्छा उसकी विरक्ति का दूसरा लक्षण है। ये सारे गुण तथा अपने आध्यात्मिक गुरु श्रीकृष्ण के उपदेशों में उसकी श्रद्धा,ये सब मिलकर सूचित करते हैं  कि वह सचमुच पुण्यात्मा था। इस तरह यह निष्कर्ष निकला कि अर्जुन मुक्ति के सर्वथा योग्य था। जब तक इन्द्रियां संयमित न हों,ज्ञान के पद तक उठ पाना कठिन है और बिना ज्ञान तथा भक्ति के मुक्ति नहीं होती। अर्जुन अपने भौतिक गुणों के अतिरिक्त इन समस्त दैवी गुणों में भी दक्ष था।

क्रमशः  !!!   

शनिवार, 6 फ़रवरी 2021

BHAGAVAD GITA 2:5

🙏🙏गुरूनहत्वा  हि महानुभवान 

              श्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके।  

हत्वार्थकामांस्तु गुरुनिहैव 

             भुञ्जीय भोगानरुधिरप्रदिग्धान।।५।।🙏🙏


गुरुन:-गुरुजनों को; अहत्वा:-न मारकर; हि:-निश्चय ही; महानुभवान:-महपुरुषों को; श्रेयः-अच्छा है; भोक्तुम:-भोगना; भैक्ष्यम:-भीख मांगकर; अपि:-भी; इह:-इस जीवन में, लोके:-इस संसार में;हत्वा:-मारकर; अर्थ:-लाभ गुरुन की; कामान:-इच्छा से; तु:-लेकिन; गुरुन:-गुरुजनों को; इह:-इस संसार में; एव:-निश्चय ही; भुञ्जीय:-भोगने के लिए बाध्य; भोगान:-भोग्य वस्तुएं; रुधिर:-रक्त से प्रदिग्धान:-सनी हुई,रंजित।

ऐसे महापुरुषों को जो मेरे गुरु हैं,उन्हें मारकर जीने की अपेक्षा इस संसार में भीख मांगकर खाना अच्छा है। भले ही वे सांसारिक लाभ के इच्छुक हों,किन्तु हैं तो गुरुजन ही ! यदि उनका वध होता है तो हमारे द्वारा भोग्य प्रत्येक वस्तु उनके रक्त से सनी होगी। 

अर्थात :-शास्त्रों के अनुसार ऐसा गुरु जो निद्द कर्म में रत हो और जो विवेकशून्य हो,त्याज्य है। दुर्योधन से आर्थिक सहायता लेने के कारण भीष्म तथा द्रोण उसका पक्ष लेने के लिए बाध्य थे,यद्द्पि केवल आर्थिक लाभ से ऐसा करना उनके लिए उचित न था। ऐसी दशा में वे आचार्यों का सम्मान खो बैठे थे। किन्तु अर्जुन सोचता है की इतने पर भी वे उसके गुरुजन हैं,अतः उनका वध करके भौतिक लाभों का भोग करने का अर्थ होगा -रक्त से सने अवशेषों का भोग। 

क्रमशः !!! 

    

शुक्रवार, 5 फ़रवरी 2021

BHAGAVAD GITA 2:4

 अर्जुन उवाच 

कथं भीष्ममहं संख्ये द्रोण च मधुसूदन। 

इषुभिः प्रतियोत्स्यामि पूजार्हावरिसूदन।।४।।

अर्जुनः उवाच :-अर्जुन ने कहा; कथम:- किस प्रकार; भीष्मम :-भीष्म को; अहम :-मैं; संख्ये :-युद्ध में; द्रोणम:- द्रोण को; च :-भी; मधु-सूदन:-हे मधु के संहारकर्ता; इषुभिः -तीरों से; प्रतियोत्स्यामि:-उलट कर प्रहार करूंगा;  पूजा-अर्हा :-पूजनीय; अरि -सूदन:-हे शत्रुओं के संहारक। 

अर्जुन ने कहा -हे शत्रुहंता ! हे मधुसूदन ! मैं युद्धभूमि में किस तरह भीष्म तथा द्रोण जैसे पूजनीय व्यक्तियों पर उलट कर बाण चलाऊंगा ?

तात्पर्य :- भीष्म पितामह तथा द्रोणाचार्य जैसे सम्माननीय व्यक्ति सदैव पूजनीय हैं। यदि वे आक्रमण भी करें तो उन पर उलट कर आक्रमण नहीं करना चाहिए। यह सामान्य शिष्टाचार है कि गुरुजनों से वाग्युद्ध भी न किया जाय। यहाँ तक कि यदि कभी वे रुक्ष व्यवहार करें तो भी उनके साथ रुक्ष व्यवहार न किया जाय। तो फिर भला अर्जुन उन पर बाण कैसे छोड़ सकता था ? क्या कृष्ण कभी अपने पितामह,नाना उग्रसेन या अपने आचार्य सान्दीपनि मुनि पर हाथ चला सकते थे ? अर्जुन ने  कृष्ण के समक्ष ये ही कुछ तर्क प्रस्तुत किये। 

क्रमशः ... 

गुरुवार, 4 फ़रवरी 2021

BHAGAVAD GITA 2:3

 कैलब्यं माँ स्म गमः पार्थ नेतत्वय्युपपद्धति। 

क्षुद्रम ह्रदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप।।३।। 

कैलब्यं :-नपुंसकता; माँ स्म :-मत; गमः-प्राप्त हो; पार्थ :-हे पृथा पुत्र; न:- कभी नहीं; एतत:-यह; त्वयि:-तुमको; उपपद्यते:-शोभा देता है; क्षुद्रम:-तुच्छ; ह्रदय:-ह्रदय की; दौर्बल्यम:-दुर्बलता; त्यक्त्वा :-त्याग कर; उत्तिष्ठ:-खड़ा हो; परन्तप:-हे शत्रुओं का दमन करने वाले।  

  हे पृथापुत्र  ! हीन नपुंसकता को प्राप्त मत होओ। यह तुम्हे शोभा नहीं देती। हे शत्रुओं के दमनकर्ता ! ह्रदय की क्षुद्र दुर्बलता को त्याग कर युद्ध के लिए खड़े होओ।  

तात्पर्य :-अर्जुन को पृथापुत्र के रूप में सम्बोधित किया गया है। पृथा कृष्ण के पिता वासुदेव की बहन थी,अतः कृष्ण के साथ अर्जुन का रक्त का सम्बन्ध था। यदि क्षत्रिय पुत्र लड़ने से मना करता है तो वह नाम का क्षत्रिय है और यदि ब्राह्मण पुत्र अपवित्र कार्य करता है तो वह नाम का ब्राह्मण है। ऐसे क्षत्रिय तथा ब्राह्मण अपने पिता के अयोग्य पुत्र होते हैं,अतः कृष्ण यह नहीं चाहते थे कि अर्जुन अयोग्य क्षत्रिय पुत्र कहलाये। अर्जुन कृष्ण का घनिष्टतम मित्र था और कृष्ण प्रत्यक्ष रूप से उसके रथ का संचालन कर रहे थे, किंतु  इन सब गुणों के होते हुए भी यदि अर्जुन युद्धभूमि को छोड़ता है तो वह अत्यंत निंदनीय कार्य करेगा। 

अतः कृष्ण ने कहा कि ऐसी प्रवृति अर्जुन के व्यक्तित्व को शोभा नहीं देती। अर्जुन यह तर्क कर सकता था कि वह परम पूज्य भीष्म तथा स्वजनों के प्रति उदार दृष्टिकोण के कारण युद्धभूमि छोड़ रहा है,किन्तु कृष्ण ऐसी उदारता को केवल ह्रदय दौर्बल्य मानते हैं। ऐसी झूठी उदारता का अनुमोदन  एक भी शास्त्र नहीं करता। अतः अर्जुन जैसे व्यक्ति को कृष्ण के प्रत्यक्ष निर्देशन में ऐसी उदारता या तथाकथित अहिंसा का परित्याग कर देना चहिये। 

क्रमशः !!! 

बुधवार, 3 फ़रवरी 2021

BHAGAVAD GITA 2:2

श्रीभगवानुवाच 

 कुतस्त्वा कश्मलविदं विषमे समुपस्थितम।

अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुनः।।२।।

श्री भगवानुवाच :-भगवान् ने कहा; कुतः:-कहाँ से;त्वा:-तुमको; कश्मलम:-गंदगी,अज्ञान; इदम:-यह शोक; विषमे:-इस विषम अवसर पर; समुपस्थितम:-प्राप्त हुआ; अनार्य:-वे लोग जो जीवन के मूल्य को नहीं समझते; जुष्टम :- आचरित; अस्वर्ग्यम :-उच्च लोकों को न ले जाने वाला; अकीर्ति:-अपयश का; करम :-कारण; अर्जुन :-हे अर्जुन। 

श्री भगवान् ने कहा - हे अर्जुन ! तुम्हारे मन में यह कल्मष आया कैसे ? यह उस मनुष्य के लिए तनिक भी अनुकूल नहीं है, जो जीवन के मूल्य  जानता हो। इससे उच्च  लोक नहीं अपितु अपयश की प्राप्ति होगी। 

तात्पर्य :-श्रीकृष्ण तथा भगवान् अभिन्न हैं इसीलिए श्रीकृष्ण को सम्पूर्ण गीता में भगवान् ही कहा गया है। भगवान् परम सत्य की पराकाष्ठा हैं। सत्य का बोध ज्ञान की तीन अवस्थाओं में होता है  -ब्रह्म या निर्विशेष सर्वव्यापी चेतना, परमात्मा या भगवान् का अन्तर्यामी रूप जो समस्त जीवों  ह्रदय में है तथा भगवान् या श्रीभगवान कृष्ण परम सत्य की धारणा  इस प्रकार बताई गई है।  श्रीमद्भागवद (१.२.११ ) 

वदन्ति ततत्वमिदस्तत्वं यज्ज्ञानमद्वयम। 

                            ब्रह्मेति परमात्मेति भागनिति शब्दधते।। 

" परम सत्य का ज्ञाता परम सत्य का अनुभव ज्ञान की तीन अवस्थाओं में करता है,और ये ब्रह्म,परमात्मा तथा भगवान् के रूप में व्यक्त की जाती है। "

इन तीनों दिव्य पक्षों को सूर्य के दृष्टांत द्वारा समझाया जा सकता है क्योंकि उसके भी तीन भिन्न भिन्न पक्ष होते हैं -यथा,धूप, ( प्रकाश ),सूर्य की सतह तथा सूर्य लोक स्वयं। जो सूर्य के प्रकाश का अध्यन करता है वह नौसिखिया है। जो सूर्य की सतह को समझता है वह कुछ आगे बढ़ा हुआ होता है और जो सूर्यलोक में प्रवेश कर सकता है वह उत्तम ज्ञानी है। जो नौसिखिया सूर्य प्रकाश-उसकी विश्व व्याप्ति तथा उसकी निर्विशेष प्रकृति के अखंड तेज -के ज्ञान से ही तुष्ट हो जाता है वह उस व्यक्ति के समान है जो परम सत्य के ब्रह्म रूप को ही समझ सकता है।  

जो व्यक्ति कुछ अधिक जानकार है वह सूर्य के गोले के विषय में जान सकता है जिसकी तुलना परम सत्य के परमात्मा स्वरुप से की जाती है। जो व्यक्ति सूर्यलोक के अंतर में प्रवेश कर सकता है उसकी तुलना उससे की जाती है जो परम सत्य के साक्षात रूपरूप की अनुभूति प्राप्त करता है। अतः जिन भक्तों ने परम सत्य के भगवान् स्वरूप का साक्षात्कार किया है वो सर्वोच्च अध्यात्मवादी है, यद्धपि परम सत्य के अध्यन में रत सारे विद्यार्थी एक ही विषय के अध्यन में लगे हुए हैं। सूर्य का प्रकाश,सूर्य का गोला तथा सूर्यलोक की भीतरी बातें -इन तीनों अवस्थाओं के अद्ध्येता एक ही श्रेणी के नहीं होते। 

संस्कृत शब्द भगवान् की व्याख्या व्यासदेव के पिता पराशर मुनि ने की है। समस्त धन,शक्ति,यश,सौन्दर्य,ज्ञान तथा त्याग से युक्त परम पुरुष भगवान् कहलाता है। ऐसे अनेक व्यक्ति हैं जो अत्यंत धनी  हैं,अत्यंत शक्तिमान हैं,अत्यंत सुन्दर हैं और अत्यंत विख्यात,विद्वान तथा विरक्त भी हैं, किन्तु कोई साधिकार यह नहीं कह सकता कि उसके पास सारा धन शक्ति आदि है। एकमात्र कृष्ण ही ऐसा दावा कर सकते हैं क्योंकि वे भगवान् हैं। ब्रह्मा,शिव या नारायण सहित कोई भी भी जीव कृष्ण के समान पूर्ण ऐश्वर्यवान नहीं है। अतः ब्रह्म संहिता में स्वयं ब्रह्मा जी का निर्णय है कि श्री कृष्ण स्वयं भगवान् हैं। न तो कोई तुल्य है,न उन बढ़कर है। वे आदि स्वामी या भगवान् हैं,गोविन्द रूप में जाने जाते हैं और समस्त कारणों के परम कारण हैं। 

ईश्वर:परमः कृष्ण: सच्चिदानंद विग्रह:

अनादिरादिगोविन्द:सर्वकारणकारणम 

"ऐसे अनेक पुरुष हैं जो भगवान् के गुणों से युक्त हैं,किन्तु कृष्ण परम हैं क्योंकि उनसे बढ़कर कोई नहीं हैं। वे परम पुरुष हैं उनका शरीर सच्चिदानंदमय है। वे आदि भगवान् गोविन्द हैं और समस्त कारणों के कारण हैं भगवत में भी भगवान् के नाना अवतारों की सूचि है,किन्तु कृष्ण को आदि भगवान् बताया गया है,जिनसे अनेकानेक अवतार तथा ईश्वर विस्तार करते हैं। 

एते चांसकला:पुंस: कृष्णस्तु भगवान् स्वयं। 

इंद्रारिव्याकुलम लोकं मृडयन्ति युगे युगे।।  

"यहाँ पर वर्णित सारे अवतारों की सूचियां या तो भगवान् की अंशकलाओं अथवा पूर्ण कलाओं की हैं,किन्तु कृष्ण तो स्वयं भगवान् हैं अतः कृष्ण आदि भगवान,  परम सत्य,परमात्मा तथा निर्विशेष ब्रह्म दोनों के उद्द्गम हैं। 

भगवान् की उपस्थिति में अर्जुन द्वारा स्वजनों के लिए शोक करना सर्वथा अशोभनीय है,अतः कृष्ण ने कुतः शब्द से अपना आश्चर्य व्यक्त किया है। आर्य जैसी सभ्य जाती के किसी व्यक्ति से ऐसी मलिनता की उम्मीद नहीं की जाती। आर्य शब्द उन व्यक्तियों पर लागू होता है जो जीवन के मूल्य को जानते हैं और  सभ्यता आत्म -साक्षात्कार पर निर्भर करती है। देहात्मबुद्धि से प्रेरित मनुष्यों को यह ज्ञान नहीं रहता कि जीवन का उद्देश्य परम सत्य,विष्णु या  साक्षात्कार है। वे  भौतिक जगत के ब्रह्म स्वरूप से मोहित हो जाते हैं,अतः वे यह नहीं समझ पाते कि मुक्ति क्या है। जिन पुरुषों को भौतिक बंधन से मुक्ति का कोई ज्ञान  नहीं होता वेअनार्य कहलाते हैं। यद्द्पि अर्जुन क्षत्रिय था,किन्तु युद्ध से विचलित होकर वह अपने कर्तव्य से गुमराह हो रहा था। उसकी यह कायरता अनार्यों के लिए ही शोभा देने वाली हो सकती है। कर्तव्य पथ से इस प्रकार का विचलन न तो आध्यत्मिक जीवन में प्रगति करने में सहयक बनता है न ही इससे इस संसार में ख्याति प्राप्त की जा सकती है। भगवान् कृष्ण ने अर्जुन द्वारा अपने स्वजनों पर इस प्रकार  की करुणा  का अनुमोदन नहीं किया। 

क्रमशः !!!