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मयि सर्वाणि कर्माणि संन्यस्याधातमच्चेतमा।
निराशीरनिंर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः।।३०।।
मयि-मुझमे; सर्वाणि -सब तरह से; कर्माणि -कर्मों को; सन्यस्थ -पूर्णतया त्याग करके; अध्यात्म -पूर्ण आत्मज्ञान से युक्त; चेतसा -चेतना से; निराशी -लाभ की आशा से रहित, निष्काम; निर्ममः -स्वामित्व की भावना से रहित, ममता त्यागी; भूत्वा -होकर; युध्यस्व -लड़ो; विगत -ज्वरः -आलस्यरहित।
अतः हे अर्जुन ! अपने सारे कार्यों को मुझमे समर्पित करके मेरे पूर्ण ज्ञान से युक्त होकर,लाभ की आकांक्षा से रहित, स्वामित्व के किसी दावे के बिना आलस्य से रहित होकर युद्ध करो।
तात्पर्य :-यह श्लोक भगवदगीता के प्रयोजन को स्पष्टतया इंगित करने वाला है। भगवान् की शिक्षा है कि स्वधर्म पालन के लिए सैन्य अनुशासन के सदृश्य पूर्णतया कृष्णभावनाभावित होना आवश्यक है। ऐसे आदेश से कुछ कठिनाइयां उपस्थित हो सकती हैं, फिर भी कृष्ण के आश्रित होकर स्वधर्म का पालन करना ही चाहिए,क्योंकि यह जीव की स्वाभाविक स्थिति है। जीव भगवान् के सहयोग के बिना सुखी नहीं हो सकता क्योंकि जीव की नित्य स्वाभाविक स्थिति ऐसी है कि भगवान् की इच्छाओं के अधीन रहा जाय। अतः श्रीकृष्ण ने अर्जुन को युद्ध करने का इस तरह आदेश दिया मानो भगवान् उसके सेनानायक हों। परमेश्वर की इच्छा के लिए मनुष्य को सर्वस्व की बलि करनी होती है और साथ ही स्वामित्व जताये बिना स्वधर्म का पालन करना होता है। अर्जुन को भगवान् के आदेश का मात्र पालन करना था। परमेश्वर समस्त आत्माओं के आत्मा हैं, अतः जो पूर्णतया परमेश्वर पर आश्रित रहता है या दूसरे शब्दों में,जो पूर्णतया कृष्णभावनाभावित है वह अध्यात्मचेतस कहलाता है। निराशीः का अर्थ है स्वामी के आदेशानुसार कार्य करना किन्तु फल की आशा न करना। कोषाध्यक्ष अपने स्वामी के लिए लाखों रूपये गिन सकता है,किन्तु इसमें से वह अपने लिए एक पैसा भी नहीं चाहता। इसी प्रकार मनुष्य को यह समझना चाहिए कि इस संसार में किसी व्यक्ति का कुछ भी नहीं है,सारी वस्तुएं परमेश्वर की हैं। मयि -अर्थात मुझमे वास्तविक तात्पर्य यही है। और जब मनुष्य इस प्रकार से कृष्णभावनामृत में कार्य करता है तो वह किसी वस्तु पर अपने स्वामित्व का दावा नहीं करता। यह भावनामृत निर्मम अर्थात "मेरा कुछ नहीं है " कहलाता है। यदि ऐसे कठोर आदेश को, जो शारीरिक सम्बन्ध में तथाकथित बंधुत्व भावना से रहित है, पूरा करने में कुछ झिझक हो तो उसे दूर कर देना चाहिए। इस प्रकार मनुष्य विगतज्वर अर्थात ज्वर तथा आलस्य से रहित हो सकता है। अपने गुण तथा स्थिति के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को विशेष प्रकार का कार्य करना होता है और ऐसे कर्तब्यों का पालन कृष्णभावनाभावित होकर किया जा सकता है। इससे मुक्ति का मार्ग प्रशस्त हो जायेगा।
क्रमशः !!!🙏🙏
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प्रकृतेर्गुणसम्मूढाः सज्जन्ते गुणकर्मसु।
तानकृतस्रविदो मन्दांकृतसवित्र विचालयेत।।२९।।
प्रकृते -प्रकृति के; गुण-गुणों से; सम्मूढा -भौतिक पहचान से बेवकूफ बने हुए; सज्जन्ते -लग जाते हैं; गुण -कर्मसु -भौतिक कार्यों में; तान -उन; अकृतस्त्र-विदः -अल्पज्ञानी पुरुष; मन्दान -आत्म -साक्षात्कार समझने में आलसियों को; कृतस्र -वित् -ज्ञानी; न -नहीं; विचालयेत -विचलित करने का प्रयत्न करना चाहिए।
माया के गुणों से मोहग्रस्त होने पर अज्ञानी पुरुष पूर्णतया भौतिक कार्यों में संलग्न रहकर उनमे आसक्त हो जाते हैं। यद्द्पि उनके ये कार्य उनमे ज्ञानाभाव के कारण अधम होते हैं,किन्तु ज्ञानी को चाहिए कि उन्हें विचलित न करे।
तात्पर्य :-अज्ञानी पुरुष स्थूल भौतिक चेतना से और उपाधियों से पूर्ण रहते हैं। यह शरीर प्रकृति की देन है और जो व्यक्ति शारीरिक चेतना में अत्यधिक आसक्त होता है वह मन्द अर्थात आलसी कहा जाता है। अज्ञानी मनुष्य शरीर को आत्मस्वरूप मानते हैं,वे अन्यों के साथ शारीरिक सम्बन्ध को बंधुत्व मानते हैं , जिस देश में यह शरीर प्राप्त हुआ है उसे वे पूज्य मानते हैं और वे धार्मिक अनुष्ठानो की औपचारिकताओं को ही अपना लक्ष्य मानते हैं। ऐसे भौतिकताग्रस्त उपाधिधारी पुरुषों के कुछ प्रकार के कार्यों में सामाजिक सेवा,राष्ट्रीयता तथा परोपकार है। ऐसी उपाधियों के चक्कर में वे सदैव भौतिक क्षेत्र में व्यस्त रहते हैं,उनके लिए आध्यात्मिक बोध मिथ्या है, अतः वे रूचि नहीं लेते। किन्तु जो लोग आध्यात्मिक जीवन में जागरूक हैं, उन्हें चाहिए कि इस तरह भौतिकता में मग्न व्यक्तियों को विचलित न करें। अच्छा तो यही होगा कि वे शांतभाव से अपने आध्यात्मिक कार्यों को करें। ऐसे मोहग्रस्त व्यक्ति अहिंसा जैसे जीवन के मूलभूत नैतिक सिद्धांतो तथा इसी प्रकार कार्यों में लगे हो सकते हैं।
जो लोग अज्ञानी हैं वे कृष्णभावनामृत के कार्यों को समझ नहीं पाते,अतः भगवान् कृष्ण हमें उपदेश देते हैं कि ऐसे लोगों को विचलित न किया जाय और व्यर्थ ही मूल्यवान समय नष्ट न किया जाय। किन्तु भगवद्भक्त भगवान् से भी अधिक दयालु होते हैं, क्योंकि वे भगवान् के अभिप्राय को समझते हैं। फलतः वे सभी प्रकार के संकट झेलते हैं, यहाँ तक कि वे अज्ञानी पुरुषों के पास जा-जा कर उन्हें कृष्णभावनामृत के कार्यों में प्रवृत करने का प्रयास करते हैं,जो मानव के लिए परमावश्यक है।
क्रमशः !!!🙏🙏
🙏🙏तत्ववितु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः।
गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सञ्जते।।२८।।
तत्व-वित् -परम सत्य को जानने वाला; तु-लेकिन;महाबाहो -हे विशाल भुजाओं वाले; गुण -कर्म -भौतिक प्रभाव के अन्तर्गत कर्म के; विभागयोः -भेद के; गुणाः -इन्द्रियां; गुणेषु -इन्द्रियतृप्ति में; वर्तन्ते -तत्पर रहती हैं; इति इस प्रकार; मत्वा -मानकर; न -कभी नहीं;सञ्जते -आसक्त रहता है।
हे महाबाहो ! भक्तिभाव कर्म तथा सकाम कर्म के भेद को भलीभांति जानते हुए जो परम सत्य को जानने वाला है,वह कभी भी अपने आप को इन्द्रियों में तथा इन्द्रियतृप्ति में नहीं लगाता।
तात्पर्य :-परम सत्य को जानने वाला भौतिक संगति में अपनी विषम स्थिति को जानता है। वह जानता है कि वह भगवान् कृष्ण का अंश है और उसका स्थान इस भौतिक सृष्टि में नहीं होना चाहिए। वह अपने वास्तविक स्वरुप को भगवान् के अंश के रूप में जानता है जो सत चित आनंद है और उसे यह अनुभूति होती रहती है कि " मैं किसी कारण से देहात्मबुद्धि में फंस चुका हूँ। " अपने अस्तित्व की शुद्ध अवस्था में उसे सारे कार्य भगवान् कृष्ण की सेवा में नियोजित करने चाहिए। फलतः वह अपने आपको कृष्णभावनामृत के कार्यों में लगाता है और भौतिक इन्द्रियों के कार्यों के प्रति स्वभावतः अनासक्त हो जाता है क्यों कि ये परिस्थितिजन्य तथा अस्थायी है। वह जानता है कि उसके जीवन की भौतिक दशा भगवान् के नियंत्रण में हैं, फलतः वह सभी प्रकार के भौतिक बन्धनों से विचलित नहीं होता क्योंकि वह इन्हे भगवत्कृपा मानता है। श्रीमद्भागवत के अनुसार जो व्यक्ति परम सत्य को ब्रह्म,परमात्मा तथा श्री भगवान् -इन तीनों विभिन्न रूपों में जानता है वह तत्ववित्त कहलाता है,क्योंकि वह परमेश्वर के साथ अपने वास्तविक सम्बन्ध के जानना।
क्रमशः !!! 🙏🙏
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प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः।
अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते।।२७।।
प्रकृतेः-प्रकृति का; क्रियमाणानि -किये जाकर; गुणैः - गुणों के द्वारा; कर्माणि -कर्म; सर्वशः-सभी प्रकार के; अहङ्कार -विमूढ़ -अहंकार से मोहित; आत्मा -आत्मा; करता -करने वाला; अहम् -मैं हूँ; इति -इस प्रकार; मन्यते -सोचता है।
जीवात्मा अहंकार के प्रभाव से मोहग्रस्त होकर अपने आपको समस्त कर्मों का कर्ता मान बैठता है, जब कि वास्तव में प्रकृति के तीनों गुणों द्वारा संपन्न किये जाते हैं।
तात्पर्य :-दो व्यक्ति जिनमे से एक कृष्णभावनाभावित है और दूसरा भौतिक चेतना वाला है,सामान स्तर पर कार्य करते हुए समान पद पर प्रतीत हो सकते हैं,किन्तु अनके पदों में आकाश -पाताल का अंतर रहता है। भौतिक चेतना वाला व्यक्ति अहंकार के कारण आश्वस्त रहता है कि वही सभी वस्तुओं का कर्ता है। वह यह नहीं जानता कि शरीर की रचना प्रकृति द्वारा हुई है, जो परमेश्वर की अध्यक्षता में कार्य करती है। भौतिकवादी व्यक्ति यह नहीं जानता अंततोगत्वा कि वह कृष्ण के अधीन है। अहंकारवश ऐसा व्यक्ति हर कार्य को स्वतंत्र रूप से करने का श्रेय लेंना चाहता है और यही है उसके अज्ञान का लक्षण।
उसे यह ज्ञात नहीं है कि उसके इस स्थूल तथा सूक्ष्म शरीर की रचना प्रकृति द्वारा भगवान् की अध्यक्षता में की गयी है, अतः उसके सारे शारीरिक तथा मानसिक कार्य कृष्णभावनामृत में रहकर कृष्ण की सेवा में तत्पर होने चाहिए। अज्ञानी व्यक्ति यह भूल जाता है कि भगवान् हृषिकेश कहलाते हैं अर्थात वे शरीर के इन्द्रियों के स्वामी हैं। इन्द्रियतृप्ति के लिए इन्द्रियों का निरंतर उपयोग करते रहने से वह अहंकार के कारण वस्तुतः मोहग्रस्त रहता है, जिससे वह कृष्ण के साथ अपने शाश्वत सम्बन्ध को भूल जाता है।
क्रमशः !!! 🙏🙏
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न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानाम कर्मसङ्गिनाम।
जोषयेत्सकर्माणि विद्वान्युक्तः समचरन।। २६।।
न -नहीं; बुद्धि-भेदम -बुद्धि का विचलन; जनयेत- उत्पन्न करें; अज्ञानम -मूर्खों का; कर्म-सङ्गिनाम -सकाम कर्मों में आसक्त; जोषयेत -नियोजित करें; सर्व -सारे; कर्माणि -कर्म; विद्वान् -विद्वान् व्यक्ति; युक्त: -लगा हुआ; तत्पर; समाचरन-अभ्यास करता हुआ।
विद्वान् व्यक्ति को चाहिए कि वह सकाम कर्मों में आसक्त अज्ञानी पुरुषों को कर्म करने से रोके नहीं ताकि उनके मन विचलित न हों। अपितु भक्तिभाव से कर्म करते हुए वह उन्हें सभी प्रकार के कार्यों में लगाये। (जिससे कृष्णभावनामृत का क्रमिक विकास हो)
तात्पर्य :-वेदैश्च सर्वैरहम वैद्यः -यह सिद्धांत सम्पूर्ण वैदिक अनुष्ठानों की पराकाष्ठा है। सारे अनुष्ठान,सारे यज्ञ -कृत्य तथा वेदों में भौतिक कार्यों के निर्देश हैं, उन सबों समेत सारी वस्तुएं कृष्ण को जानने के निमित हैं, जो हमारे जीवन के चरम लक्ष्य हैं। लेकिन चूँकि बद्धजीव इन्द्रियतृप्ति के अतिरिक्त और कुछ नहीं जानते,अतः वे वेदों का अध्ययन इसी दृष्टि से करते हैं। किन्तु सकाम कर्मों तथा वैदिक अनुष्ठानों द्वारा नियमित इन्द्रियतृप्ति के माध्यम से मनुष्य धीरे -धीरे कृष्णभावनामृत को प्राप्त होता है,अतः कृष्णभावनामृत में स्वरूपसिद्ध जीव को चाहिए कि अन्यों को अपना कार्य करने या समझने में वाधा न पहुँचाये,अपितु उन्हें यह प्रदर्शित करें कि किस प्रकार सारे कर्मफल को कृष्ण की सेवा में समर्पित किया जा सकता है। कृष्णभावनाभावित विद्वान् व्यक्ति इस तरह कार्य कर सकता है कि इन्द्रियतृप्ति के लिए कर्म करने वाले अज्ञानी पुरुष यह सीख लें कि किस तरह कार्य करना चाहिए और आचरण करना चाहिए। यद्धपि अज्ञानी पुरुष को उसके कार्यों में छेड़ना ठीक नहीं होता,परन्तु यदि वह रंचभर भी कृष्णभावनाभावित है तो यह वैदिक विधियों की परवाह न करते हुए सीधे भगवान् की सेवा में लग सकता है। ऐसे भाग्यशाली व्यक्ति को वैदिक अनुष्ठान करने की आवश्यकता नहीं रहती, क्योंकि प्रत्यक्ष कृष्णभावनामृत के द्वारा उसे वे सारे फल प्राप्त हो जाते हैं,जो उसे अपने कर्तव्यों के पालन करने से प्राप्त होते हैं।
क्रमशः !!!🙏🙏
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सक्ताः कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत।
कुर्याद्विद्वांस्तथासक्तश्रिच्कीर्षर्लोकसंग्रहम।।२५।।
सक्ताः-आसक्त; कर्मणि -नियत कर्मों में; अविद्वांसः -अज्ञानी; यथा - जिस तरह; कुर्वन्ति -करते हैं; भारत- हे भरतवंशी; कुर्यात -करना चाहिए; विद्वान् -विद्वान् ; तथा-उसी तरह; असक्त -अनासक्त; चिकीर्षुः -चाहते हुए भी,इच्छुक; लोकसंग्रहम -सामान्य जन।
जिस प्रकार अज्ञानी -जन फल की आसक्ति से कार्य करते हैं,उसी तरह विद्वान् जनों को चाहिए कि वे लोगों को उचित पथ पर ले जाने के लिए अनासक्त रहकर कार्य करें।
तात्पर्य :-एक कृष्णभावनाभावित मनुष्य तथा एक कृष्णभवनाहीन व्यक्ति में केवल इच्छाओं का भेद होता है। कृष्णभावनाभावित व्यक्ति कभी ऐसा कोई कार्य नहीं करता, जो कृष्णभावनामृत के विकास में सहायक न हो। यहाँ तक कि वह उस अज्ञानी पुरुष की तरह कर्म कर सकता है,जो भौतिक कार्यों में अत्यधिक आसक्त रहता है। किन्तु इनमे से एक ऐसे कार्य अपनी इन्द्रियतृप्ति के लिए करता है, जबकि दूसरा कृष्ण की तुष्टि के लिए। अतः कृष्णभावनाभावित व्यक्ति को चाहिए कि वह लोगों को यह प्रदर्शित करे कि किस तरह कर्मफलों को कृष्णभावनामृत कार्य में नियोजित किया जाता है।
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उत्सीदेयूरिमे लोका न कुर्या कर्म चेदहम।
सङ्गरस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमाः प्रजाः।।२४।।
उत्सीदेयुः -नष्ट हो जॉय; इमे -ये सब; लोकाः -लोक; न -नहीं; कुर्याम -करूँ; कर्म - नियत कार्य; चेत -यदि; अहम् -मैं; सङ्करस्य -अवांछित संतति का; च- तथा; कर्ता-स्रष्टा; स्याम-होऊँगा; उपहन्याम -विनष्ट करूँगा; इमाः -इन सब; प्रजाः -जीवों को।
यदि मैं नियतकर्म न करुँ तो ये सारे लोग नष्ट हो जायँ। तब मैं अवांछित जनसमुदाय (वर्णसंकर ) को उत्पन्न करने का कारण हो जाऊँगा और इस तरह सम्पूर्ण प्राणियों की शान्ति का विनाशक बनुँगा।
तात्पर्य :- वर्णसंकर अवांछित जनसमुदाय है , जो सामान्य समाज की शांति को भंग करता है। इस सामाजिक अशांति को रोकने के लिए अनेक विधि -विधान है, जिनके द्वारा स्वतः ही जनता आध्यात्मिकता प्रगति के लिए शांत तथा सुव्यवस्थित हो जाती है। जब भगवान कृष्ण अवतरित होते हैं तो स्वाभाविक है कि वे ऐसे महत्वपूर्ण कार्यों की प्रतिष्ठा तथा अनिवार्यता बनाये रखने के लिए इन विधि -विधानों के अनुसार आचरण करते हैं। भगवान् समस्त जीवों के पिता हैं और यदि ये जीव पथभ्र्स्ट हो जायँ तो अप्रत्यक्ष रूप में यह उत्तरदायित्व उन्हीं का है। अतः जब भी विधि-विधानों का अनादर होता है,तो भगवान् स्वयं समाज को सुधारने के लिए अवतरित होते हैं। किन्तु हमें ध्यान देना होगा कि यद्धपि हमें भगवान् के पदचिन्हों का अनुसरण करना है,तो भी हम उनका अनुकरण नहीं कर सकते। अनुसरण और अनुकरण एक से नहीं होते। हम गोवर्धन पर्वत उठकर भगवान् का अनुकरण नहीं कर सकते,जैसा कि भगवान् ने अपने बाल्यकाल में किया था। ऐसा कर पाना किसी मनुष्य के लिए सम्भव नहीं। हमें उनके उपदेशों का पालन करना चाहिए, किन्तु किसी भी समय हमें उनका अनुकरण नहीं करना है। श्रीमदभागवत में (१०. ३३. ३० -३१ ) इसकी पुष्टि की गई है -
नैतत्समाचरेज्जातु मनसापि ह्यनीश्वरः।
विनश्यत्याचारन मोढ्यादिथारुद्रोब्धिजं विषम।।
ईश्वराणाम वचः सत्यं तथैवाचरितम क्वचीत।
तेषां यात स्ववचोयुक्तं बुद्धिमांस्तत समाचरेत।।
"मनुष्य को भगवान् तथा उनके द्वारा शक्तिप्रदत्त सेवकों के उपदेशों का मात्र पालन करना चाहिए। उनके उपदेश हमारे लिए अच्छे हैं और कोई भी बुद्धिमान पुरुष बताई गई विधि से उनको कार्यान्वित करेगा। फिर भी मनुष्य को सावधान रहना चाहिए कि वह उनके कार्यों का अनुकरण करे। उसे शिवजी के अनुकरण में विष का समुद्र नहीं पी लेना चाहिए। "
हमें सदैव ईश्वरों की या सूर्य तथा चन्द्रमा की गतियों को वास्तव में नियंत्रित कर सकने वालों की स्थति को श्रेष्ठ मानना चाहिए। ऐसी शक्ति के बिना कोई भी सर्वशक्तिमान ईश्वरों का अनुकरण नहीं कर सकता। शिवजी ने सागर तक के विष का पान कर लिया,किन्तु यदि कोई सामान्य व्यक्ति विष की एक बूँद भी पीने का यत्न करेगा तो वह मर जायेगा। शिवजी के अनेक छद्मभक्त हैं, जो गांजा तथा ऐसी ही अन्य मादक वस्तुओं का सेवन करते रहते हैं। किन्तु वे यह भूल जाते हैं कि इस प्रकार शिवजी का अनुकरण करके वे अपनी मृत्यु को निकट बुला रहे हैं। इसी प्रकार भगवान् कृष्ण के भी अनेक छद्मभक्त हैं,जो भगवान् की रासलीला या प्रेमनृत्य का अनुकरण करना चाहते हैं,किन्तु यह भूल जाते हैं कि गोवर्धन पर्वत को धारण नहीं कर सकते। अतः सबसे अच्छा तो यही होगा कि लोग शक्तिमान का अनुकरण न करके केवल उनके उपदेशों का पालन करें। न ही बिना योग्यता के किसी को उनका स्थान ग्रहण करने का प्रयत्न करना चाहिए। ऐसे अनेक ईश्वर के "अवतार " हैं जिनमे भगवान् की शक्ति नहीं होती।
क्रमशः!!!🙏🙏