Bhagavad Gita is the life management book and self motivational book. many peoples change there life by reading this book, this is not a religious book anybody, any religion can read for better future. many peoples got success his business from this energetic book, I'm writing a shloka a day so if anybody don't have enough time to read so you can read a shloka a day, Thanks.
BHAGAVAD GITA IN HINDI
बुधवार, 28 अप्रैल 2021
BHAGAVAD GITA 3:5
मंगलवार, 27 अप्रैल 2021
BHAGAVAD GITA 3:4
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न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्य पुरुषोश्रुते।
न च संन्यसनादेव सिद्धिं समगच्छति।।४।।
न -नहीं; कर्मणाम -नियत कर्मों के;अनारम्भात-न करने से; नैष्कर्म्यम - कर्म बन्धन से मुक्ति को; पुरुषः -मनुष्य ; अश्रुते -प्राप्त करता है;न -नहीं; च -भी; सन्न्यसनात - त्याग से; एव -केवल; सिद्धिम -सफलता; समधिगच्छति -प्राप्त करता है।
न तो कर्म से विमुख होकर कोई कर्मफल से छुटकारा पा सकता है और न केवल संन्यास से सिद्धि प्राप्त की जा सकती है।
तात्पर्य :- भौतिकतावादी मनुष्यों के हृदयों को विमल करने के लिए जिन कर्मों का विधान किया गया है उनके द्वारा शुद्ध हुआ मनुष्य ही संन्यास ग्रहण कर सकता है। शुद्धि के बिना अनायास संन्यास ग्रहण करने से सफलता नहीं मिल पाती। ज्ञानयोगियों के अनुसार संन्यास ग्रहण करने अथवा सकाम कर्म से विरत होने से ही मनुष्य नारायण के समान हो जाता है। किन्तु भगवान कृष्ण इस मत का अनुमोदन नहीं करते। ह्रदय की शुद्धि के बिना संन्यास सामाजिक व्यवस्था में उत्पात उत्पन्न करता है। दूसरी ओर यदि कोई नियत कर्मों को न करके भी भगवान की दिव्य सेवा करता है तो वह उस मार्ग में जो कुछ भी उन्नति करता है उसे भगवान स्वीकार कर लेते हैं (बुद्धियोग)। स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात। ऐसे सिद्धान्त की रंचमात्र सम्पन्नता भी महान कठिनाइयों को पार करने में सहायक होती है।🙏🙏
क्रमशः !!!
सोमवार, 26 अप्रैल 2021
BHAGAVAD GITA 3:3
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श्रीभगवानुवाच
लोकेस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ।
ज्ञानयोगें संख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम।।३।।
श्री -भगवान् उवाच -श्रीभगवान ने कहा; लोके -संसार में; अस्मिन -इस; द्वि -विधा -दो प्रकार की; निष्ठा -श्रद्धा; पुरा -पहले; प्रोक्ता -कही गयी; मया -मेरे द्वारा; अनघ -हे निष्पाप; ज्ञान-योगेन -भक्तियोग के द्वारा; योगिनाम -भक्तों का।
श्री भगवान् ने कहा -हे निष्पाप अर्जुन ! मैं पहले ही बता चूका हूँ कि आत्म -साक्षात्कार प्रयत्न करने वाले दो प्रकार के पुरुष होते हैं। कुछ इसे ज्ञानयोग द्वारा समझने का प्रयत्न करते हैं,तो कुछ भक्ति -मय सेवा द्वारा।
तात्पर्य :-द्वितीय अध्याय के उन्तालीसवें श्लोक में भगवान् ने दो प्रकार की पद्धतियों का उल्लेख किया है -सांख्ययोग तथा कर्मयोग या बुद्धियोग। इस श्लोक में इनकी और अधिक स्पष्ट विवेचना की गयी है। सांख्ययोग अथवा आत्मा तथा पदार्थ की प्रकृति का वैश्लेषिक अध्ययन उन लोगों के लिए है,जो व्यावहारिक ज्ञान तथा दर्शन द्वारा वस्तुओं का चिंतन एवं मनन करना चाहते हैं। दूसरे प्रकार के लोग कृष्णभावनामृत में कार्य करते हैं जैसा के द्वितीय अध्याय के इकसठवें श्लोक में बताया गया है। उन्तालीसवें श्लोक में भी भगवान् ने बताया है कि बुद्धियोग या कृष्णभावनामृत के सिद्धांतों पर चलते हुए मनुष्य कर्म के बंधनों से छूट सकता है तथा इस पद्धति में कोई में कोई दोष नहीं है। इकसठवें श्लोक में इसी सिद्धांत को और अधिक स्पष्ट किया गया है -कि बुद्धियोग पूर्णतया परब्रह्म (विशेषतया कृष्ण ) पर आश्रित है और इस प्रकार समस्त इन्द्रियों को सरलता से वश में किया है। अतः दोनों प्रकार के योग धर्म तथा दर्शन के रूप में अन्योन्याश्रित हैं। दर्शनविहीन धर्म मात्र भावुकता या कभी -कभी धर्मान्धता है और धर्मविहीन दर्शन मानसिक उहापोह है। अंतिम लक्ष्य तो श्रीकृष्ण हैं क्योंकि जो दार्शनिकजन परम सत्य की खोज करते रहते हैं,वे अंततः कृष्णभावनामृत को प्राप्त होते हैं। इसका भी उल्लेख भगवदगीता में मिलता है। सम्पूर्ण पद्धति का उद्देश्य परमात्मा के सम्बन्ध में अपनी वास्तविक स्थिति को समझ लेना है। इसकी अप्रत्यक्ष पद्धति दार्शनिक चिंतन है,जिसके द्वारा क्रम से कृष्णभावनामृत तक पहुंचा जा सकता है। प्रत्यक्ष पद्धति में कृष्णभावनामृत में ही प्रत्येक वस्तु से अपना सम्बन्ध जोड़ना होता है। इन दोनों में से कृष्णभावनामृत का मार्ग श्रेष्ठ है क्योंकि इसमें दार्शनिक पद्धति द्वारा इन्द्रियों को विमल नहीं करना होता। कृष्णभावनामृत स्वयं ही शुद्ध करने वाली प्रक्रिया है और भक्ति की प्रत्यक्ष विधि सरल तथा दिव्य होती है।
क्रमशः !!!🙏🙏
रविवार, 25 अप्रैल 2021
BHAGAVAD GITA 3:2
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व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव में।
तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोहमाप्नुयाम।।२।।
व्यामिश्रेण -अनेकार्थक; इव -मानो; वाक्येन - शब्दों में; बुद्धिम-बुद्धि; मोहयसि -मोह रहे हो; इव -मानो; में -मेरी; ततः-अतः; एकम -एकमात्र; वद-कहिये; निश्चित्य -निश्चय करके; येन -जिससे; श्रेयः -वास्तविक लाभ; अहम् -मैं; आप्नुयाम -पा सकूँ।
आपके व्यामिश्रित (अनेकार्थक ) उपदेशों से मेरी बुद्धि मोहित हो गयी है। अतः कृपा करके निश्चयपूर्वक मुझे बताएं कि इनमे से मेरे लिए सर्वाधिक श्रेयकर क्या होगा ?
तात्पर्य :-पिछले अध्याय में,भगवदगीता के उपक्रम के रूप सांख्ययोग,बुद्धियोग,बुद्धि द्वारा इन्द्रियनिग्रह,निष्काम कर्मयोग तथा नवदीक्षित की स्थिति जैसे विभिन्न मार्गों का वर्णन किया गया है। किन्तु उसमे तारतम्य नहीं था। कर्म करने तथा समझने के लिए मार्ग की अधिक व्यवस्थित रूपरेखा की आवश्यकता होगी। अतः अर्जुन इन भ्रामक विषयों को स्पष्ट कर लेना चाहता था, जिससे सामान्य मनुष्य बिना किसी भ्रम के उन्हें स्वीकार कर सके। यद्द्पि श्रीकृष्ण वाक्चातुरी से अर्जुन को चकराना नहीं चाहते थे,किन्तु अर्जुन यह नहीं समझ सका कि कृष्णभावनामृत क्या है -जड़ता है या सक्रिय सेवा। दूसरे शब्दों में,अपने प्रश्नों से वह उन समस्त शिष्यों के लिए जो भगवदगीता के रहस्य को समझना चाहते हैं,कृष्णभावनामृत का मार्ग प्रशस्त कर रहा है।
क्रमशः !!!🙏🙏
शनिवार, 24 अप्रैल 2021
BHAGAVAD GITA 3:1
अध्याय -३
कर्मयोग
अर्जुन उवाच
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ज्यायसी चेतकर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन।
तत्किं कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव।।१।।
अर्जुनः उवाच -अर्जुन ने कहा; ज्यायसी -श्रेष्ठ; चेत-यदि कर्मणः -सकाम कर्म की अपेक्षा; ते-तुम्हारे द्वारा; मता-मानी जाती है;बुद्धिः-बुद्धि; जनार्दन -हे कृष्ण;तत -अतः; किम -क्यों,फिर; कर्मणि -कर्म में; घोरे-भयंकर,हिंसात्मक; माम -मुझको;नियोजयसि -नियुक्त करते हो; केशव -हे कृष्ण।
अर्जुन ने कहा - जनार्दन,हे केशव ! यदि आप बुद्धि को सकाम कर्म से श्रेष्ठ समझते हैं तो फिर आप मुझे इस घोर युद्ध में क्यों लगाना चाहते हैं ?
तात्पर्य :-श्री भगवान् कृष्ण ने पिछले अध्याय में अपने घनिष्ठ मित्र अर्जुन को संसार के शोक -सागर से उबारने के उद्देश्य से आत्मा के स्वरूप का विशद वर्णन किया है और आत्म -साक्षात्कार के जिस मार्ग की संस्तुति की है वह है-बुद्धियोग या कृष्णभावनामृत। कभी -कभी कृष्णभावनामृत को भूल से जड़ता समझ लिया जाता है और ऐसी भ्रांत धारणा वाला मनुष्य भगवान् कृष्ण नाम जप द्वारा पूर्णतया कृष्णभावनाभावित होने के लिए प्रायः एकान्त स्थान में चला जाता है। किन्तु कृष्णभावनामृत -दर्शन में प्रशिक्षित हुए बिना एकान्त स्थान में कृष्ण नाम जप करना ठीक नहीं। इससे अबोध जनता से केवल सस्ती प्रशंसा प्राप्त हो सकेगी। अर्जुन को भी कृष्णभावनामृत या बुद्धियोग ऐसा लगा मानो वह सक्रिय जीवन से सन्यास लेकर एकांत स्थान में तपस्या का अभ्यास हो। दूसरे शब्दों में,वह कृष्णभावनामृत को बहाना बनाकर चातुरीपूर्वक युद्ध से जी छुड़ाना चाहता था। किन्तु एकनिष्ठ शिष्य होने के नाते उसने यह बात अपने गुरु के समक्ष रखी और कृष्ण से सर्वोत्तम कार्य -विधि के विषय में प्रश्न किया। उत्तर में भगवान् ने तृतीय अध्याय में कर्मयोग अर्थात कृष्णभावनाभावित कर्म की विस्तृत व्याख्या की।
क्रमशः- !!!🙏🙏
गुरुवार, 22 अप्रैल 2021
BHAGAVAD GITA 2:72
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ऐषा ब्राह्मी स्थिति:पार्थ विमुह्यति।
स्थित्वास्यामन्तकालेपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति।।७२।।
ऐषा -यह; ब्राह्मी -आद्यात्मिक; स्थितिः -स्थिति; पार्थ -हे पृथापुत्र; न -कभी नहीं; एनाम -इसको; प्रायः-प्राप्त करके;विमुह्यति-मोहित होता है; स्थित्वा-स्थित होकर;अस्याम -इसमें; अन्तकाले-जीवन के अंतिम समय में;अपि -भी; ब्रह्म-निर्वाणम-भगवद्धाम को; ऋच्छति-प्राप्त होता है।
यह आध्यत्मिक तथा ईश्वरीय जीवन का पथ है,जिसे प्राप्त करके मनुष्य मोहित नहीं होता। यदि कोई जीवन के अंतिम समय में भी इस तरह स्थित हो,तो वह भगवद्धाम में प्रवेश कर सकता है।
तात्पर्य :-मनुष्य कृष्णभावनामृत या दिव्य जीवन को एक क्षण में प्राप्त कर सकता है और हो सकता है कि उसे लाखों जन्मो के बाद भी न प्राप्त हो। यह तो सत्य को समझने और स्वीकार करने की बात है। खटवांग महाराज ने अपनी मृत्यु के कुछ मिनट पूर्व कृष्ण शरणागत होकर ऐसी जीवन अवस्था प्राप्त कर ली। निर्वाण अर्थ है -भौतिकवादी शैली का अंत। बौद्ध दर्शन के अनुसार इस भौतिक जीवन के पूरा होने पर केवल शून्य शेष रहता है,किन्तु भगवदगीता की शिक्षा इसमें भिन्न है। वास्तविक जीवन का शुभारम्भ इस भौतिक जीवन के पूरा होने पर होता है। स्थूल भौतिकवादी के लिए यह जानना पर्याप्त होगा कि इस भौतिक जीवन का अन्त निश्चित है,किन्तु आध्यात्मिक दृष्टि से उन्नत व्यक्तियों के लिए इस जीवन के बाद अन्य जीवन प्रारम्भ होता है। इस जीवन का अन्त होने से पूर्व यदि कोई कृष्णभावनाभावित हो जाय तो उसे तुरन्त ब्रह्म -निर्वाण अवस्था प्राप्त हो जाती है। भगवद्धाम तथा भगवद्भक्ति के बीच कोई अन्तर नहीं है। चूँकि दोनों परम पद हैं, अतः भगवान् की दिव्य प्रेमाभक्ति में व्यस्त रहने का अर्थ है -भगवद्धाम को प्राप्त करना। भौतिक जगत में इन्द्रियतृप्ति विषयक कार्य होते हैं और आध्यत्मिक जगत में कृष्णभावनामृत विषयक। इसी जीवन में ही कृष्णभावनामृत की प्राप्ति तत्काल ब्रह्मप्राप्ति जैसी है और जो कृष्णभावनामृत में स्थित होता है,वह निश्चित रूप से पहले ही भगवद्धाम में प्रवेश कर चुका होता है।
ब्रह्म और भौतिक पदार्थ एक दूसरे से सर्वथा विपरीत हैं। अतः ब्राह्मी -स्थिति का अर्थ है , "भौतिक कार्यों के पद पर होना" भगवदगीता में भगवद्भक्ति को मुक्त अवस्था माना गया है (स गुणान्समतीत्यैतान ब्रह्मभूयाय कल्पते ) अतः ब्राह्मी -स्थिति भौतिक स्थिति से मुक्ति है।
श्रील भक्ति विनोद ठाकुर ने भगवदगीता के इस द्वितीय अध्याय को सम्पूर्ण ग्रन्थ के प्रतिपाद्द विषय रूप में संक्षिप्त किया है। भगवदगीता के प्रतिपाद्द हैं -कर्मयोग,ज्ञानयोग,तथा भक्तियोग। इस द्वितीय अध्याय में कर्मयोग तथा ज्ञानयोग की स्पष्ट व्याख्या हुई है एवं भक्तियोग की भी झाँकी दे दी गई है।
इस प्रकार श्रीमदभगवदगीता के द्वितीय अध्याय "गीता का सार " का भक्तिवेदांत तात्पर्य पूर्ण हुआ।
क्रमशः !!!🙏🙏
बुधवार, 21 अप्रैल 2021
BHAGAVAD GITA 2:71
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विहाय कामान्य:सर्वान्पुमांश्चरति निः स्पृहः।
निर्ममो निरहङ्कारः स शान्तिमधिगच्छति।।७१।।
विहाय -छोड़कर;कामान -इन्द्रियतृप्ति की भौतिक इच्छाएं; यः - जो; सर्वान -समस्त; पुमान -पुरुष; चरति-रहता है; निः स्पृहः -इच्छारहित; निर्मममः ममतारहित; निरहङ्कार -अहंकारशून्य;सः -वह; शान्तिम -पूर्ण शांति को; अधिगच्छति -प्राप्त होता है।
जिस व्यक्ति ने इन्द्रियतृप्ति की समस्त इच्छाओं का परित्याग दिया है, जो इच्छाओं से रहित रहता है और जिसने सारी ममता त्याग दी है तथा अहंकार से रहित है, वही वास्तविक शांति को प्राप्त कर सकता है।
तात्पर्य :-निस्पृह होने का अर्थ है -इन्द्रियतृप्ति के लिए कुछ भी इच्छा न करना। दूसरे शब्दों में,कृष्णभावनाभावित होने की इच्छा वास्तव में इच्छाशून्यता या निस्पृहता है। इस शरीर को मिथ्या ही आत्मा माने बिना तथा संसार की किसी वस्तु में कल्पित स्वामित्व रखे बिना श्री कृष्ण के नित्य दास के रूप में अपनी यथार्त स्थिति को जान लेना कृष्णभावनामृत की सिद्ध अवस्था है। जो इस सिद्ध अवस्था में स्थित है वह जानता है कि श्रीकृष्ण ही प्रत्येक वस्तु के स्वामी हैं ,अतः प्रत्येक वस्तु का उपयोग उनकी तुष्टि के लिए किया जाना चाहिए। अर्जुन आत्म-तुष्टि के लिए युद्ध नहीं करना चाहता था ,किन्तु जब वह पूर्ण रूप से कृष्णभावनाभावित हो गया तो उसने युद्ध किया, क्यूंकि कृष्ण चाहते थे कि वह युद्ध करे। उसे अपने लिए युद्ध करने की कोई इच्छा न थी, किन्तु वही अर्जुन कृष्ण के लिए अपनी शक्ति भर लड़ा। वास्तविक इच्छाशून्यता कृष्ण -तुष्टि के लिए इच्छा है, यह इच्छाओं को नष्ट करने का कोई कृत्रिम प्रयास नहीं है। जीव कभी भी इच्छा शून्य या इन्द्रिय शून्य नहीं हो सकता , किन्तु उसे अपनी इच्छाओं की गुणवत्ता बदलनी होती है। भौतिक दृष्टि से इच्छाशून्य व्यक्ति जानता है कि प्रत्येक वस्तु कृष्ण की है (ईशावास्यमिदं सर्वम )अतः वह किसी वस्तु पर अपना स्वामित्व घोषित नहीं करता। यह दिव्य ज्ञान आत्म-साक्षात्कार पर आधारित है-अर्थात इस ज्ञान पर कि प्रत्येक जीव कृष्ण का अंश रूप है और जीव की शाश्वत स्थिति कभी न तो कृष्ण के तुल्य होती है न उनसे बढ़कर। इस प्रकार कृष्णभावनामृत का यह ज्ञान ही वास्तविक शांति का मूल सिद्धांत है।
क्रमशः!!!🙏🙏