Bhagavad Gita is the life management book and self motivational book. many peoples change there life by reading this book, this is not a religious book anybody, any religion can read for better future. many peoples got success his business from this energetic book, I'm writing a shloka a day so if anybody don't have enough time to read so you can read a shloka a day, Thanks.
BHAGAVAD GITA IN HINDI
शुक्रवार, 26 मार्च 2021
BHAGAVAD GITA 2:54
I'm a husband, fathers of two kids, would like to help people anywhere and believe to spiritualty.
गुरुवार, 25 मार्च 2021
BHAGAVAD GITA 2:53
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श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला।
समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि।।५३।।
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श्रुति -वैदिक ज्ञान के; विप्रतिपन्ना -कर्मफलों से प्रभावित हुए बिना; ते -तुम्हारा; यदा -जब; स्थास्यति -स्थिर हो जायेगा; निश्चला -एकनिष्ठ; समाधौ -दिव्य चेतना या कृष्णभावनामृत में; अचला -स्थिर; बुद्धि-बुद्धि; तदा -तब; योगम -आत्म-साक्षात्कार; अवाप्स्यसि -तुम प्राप्त करोगे।
जब तुम्हारा मन वेदों की अलंकारमयी भाषा से विचलित न हो और वह आत्म -साक्षात्कार की समाधि में स्थिर हो जाय,तब तुम्हे दिब्य चेतना प्राप्त हो जाएगी।
तात्पर्य :- "कोई समाधि में है"इस कथन का अर्थ यह होता है कि वह पूर्णतया कृष्ष्णभावनाभावित है अर्थात उसने पूर्ण समाधि में ब्रह्म,परमात्मा तथा भगवान् को प्राप्त कर लिया है। आत्म-साक्षात्कार की सर्वोच्च सिद्धि यह जान लेना है कि मनुष्य कृष्ण का शाश्वत दास है और उसका एकमात्र कर्तव्य कृष्णभावनामृत में अपने सारे कर्म करना है। कृष्णभावनाभावित व्यक्ति या भगवान् के एकनिष्ट भक्त को न तो वेदों की अलंकारमयी वाणी से विचलित होना चाहिए न ही स्वर्ग जाने के उद्देश्य से सकाम कर्मों में प्रवृत होना चाहिए। कृष्णभावनामृत में मनुष्य कृष्ण के सानिध्य में रहता है और कृष्ण से प्राप्त सारे आदेश उस दिव्य अवस्था में समझे जा सकते हैं। ऐसे कार्यों के परिणामस्वरूप निश्चयात्मक ज्ञान की प्राप्ति निश्चित है। उसे कृष्ण या उनके प्रतिनिधि गुरु की आज्ञाओं का पालन मात्र करना होगा।
क्रमशः !!!🙏🙏
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बुधवार, 24 मार्च 2021
BHAGAVAD GITA 2:52
🙏🙏
यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति।
तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च।।५२।।
यदा -जब; ते -तुम्हारा; मोह -मोह के; कलिलम -घने जंगल को; बुद्धि -बुद्धिमय,दिव्य सेवा; व्यतितरिष्यति -पार कर जाती है; तदा -उस समय; गन्ता असि -तुम जाओगे; निर्वेदम -विरक्ति को; श्रोतव्यस्य -सुनने योग्य के प्रति; श्रुतस्य -सुने हुए का;च -भी।
जब तुम्हारी बुद्धि मोह रुपी सघन वन को पार कर जायेगी तो तुम सुने हुए तथा सुनने योग्य सब के प्रति अन्यमनस्क हो जाओगे।
तात्पर्य :- भगवद्भक्तों के जीवन में अनेक उदाहरण प्राप्त हैं जिन्हे भगवद्भक्ति के कारण वैदिक कर्मकाण्ड से विरक्ती हो गई। जब मनुष्य श्रीकृष्ण को तथा उनके साथ अपने सम्बन्ध को वास्तविक रूप में समझ लेता है तो वह सकाम कर्मों के अनुष्ठानों के प्रति पूर्णतया अन्यमनस्क हो जाता है,भले ही वह अनुभवी ब्राह्मण क्यों न हो। भक्त परम्परा के महान भक्त तथा आचार्य श्री माधवेन्द्रपुरी का कहना है -
संध्यावंदन भद्रमस्तु भवतो भोः स्नान तुभ्यं नमो।
भो देवा पितरश्च तर्पणविधौ नाहं क्षमः क्षम्यताम।।
यत्र क्वापि निषद्द यादवकुलोत्तमस्य कंसद्विषः।
स्मारं स्मारमघम हरामि तदलं मन्ये किमन्येन में।।
"हे मेरी त्रिकाल प्रार्थनाओं,तुम्हारी जय हो। हे स्नान,तुम्हें प्रणाम है। हे देवपतृगण अब मैं आप लोगों के लिए तर्पण करने में असमर्थ हूँ। अब तो जहाँ भी बैठता हूँ,यादव कुलवंशी,कंस के हन्ता श्रीकृष्ण का ही स्मरण करता हूँ और इस तरह मैं अपने पापमय बन्धन से मुक्त हो सकता हूँ। मैं सोचता हूँ कि यही मेरे लिए पर्याप्त है। "
वैदिक रस्में तथा अनुष्ठान यथा त्रिकाल संध्या,प्रातःकालीन स्नान, पितृ तर्पण आदि नवदीक्षितों के लिए अनिवार्य हैं। किन्तु जब कोई पूर्णतया कृष्णभावनाभावित हो और कृष्ण की दिव्य प्रेमाभक्ति में लगा हो, तो वह इन विधि -विधानों के प्रति उदासीन हो जाता है, क्योंकि उसे पहले ही सिद्धि प्राप्त हो चुकी होती है। यदि कोई परमेश्वर कृष्ण की सेवा करके ज्ञान को प्राप्त होता है तो उसे शास्त्रों में वर्णित विभिन्न प्रकार की तपस्याएं तथा यज्ञ करने की आवश्यकता नहीं रह जाती। इसी प्रकार जो यह नहीं समझता कि वेदों का उद्देश्य कृष्ण तक पहुंचना है और अपने आप को अनुष्ठानादि में व्यस्त रखता है,वह केवल अपना समय नष्ट करता है। कृष्णभावनाभावित व्यक्ति शब्द -ब्रह्म की सीमा या वेदों तथा उपनिषदों की परिधि को भी लाँघ जाते हैं।
क्रमशः !!! 🙏🙏
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मंगलवार, 23 मार्च 2021
BHAGAVAD GITA 2:51
🙏🙏
कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणि।
जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः पदं गछन्त्यनामयम।।५१।।
कर्म -जम -सकाम कर्मों के कारण; बुद्धि -युक्ता -भक्ति में लगे; हि -निश्चय ही; फलम -फल; त्यक्ता -त्याग कर; मनीषिणः- बड़े -बड़े ऋषि मुनि या भक्त गण; जन्म -बन्ध -जन्म तथा मृत्यु के बन्धन से; विनिर्मुक्ताः -मुक्त; पदम्-पद पर ; गच्छन्ति -पहुंचते हैं; अनायम -बिना कष्ट के।
इस तरह भगवद्भक्ति में लगे रहकर बड़े -बड़े ऋषि मुनि अथवा भक्तगण अपने आपको इस भौतिक संसार में कर्म के फलों से मुक्त कर लेते हैं। इस प्रकार वे जन्म मृत्यु के चक्र से छूट जाते हैं और भगवान् के पास जाकर उस अवस्था को प्राप्त करते हैं,जो समस्त दुःखों से परे है।
तात्पर्य :- मुक्त जीवों का सम्बन्ध उस स्थान से होता है जहाँ भौतिक कष्ट नहीं होते हैं। भागवत में (१०.१४.५८ )में कहा गया है -
समाश्रिता ये पादपल्ल्वप्लवं महत्पदं पुण्ययशो मुरारेः।
भवाम्बुधिरवत्सपदं परं पदं पदं पदं यदविपदां न तेषांम।।
"जिसने उन भगवान् के चरणकमलरूपी नाव को ग्रहण कर लिया है,जो दृश्य जगत के आश्रय हैं और मुकुंद के नाम से विख्यात हैं अर्थात मुक्ति के दाता हैं ,उसके लिए यह भवसागर गोखुर में समाये जल के समान है। उसका लक्ष्य परं पदं है अर्थात वह स्थान जहाँ भौतिक कष्ट नहीं है या कि वैकुण्ठ है; वह स्थान नहीं जहाँ पद -पद पर संकट हो। "
अज्ञानवश मनुष्य यह नहीं समझ पाता कि यह भौतिक जगत ऐसा दुखमय स्थान है जहाँ पद -पद पर संकट है। केवल अज्ञानवश अल्पज्ञानि पुरुष यह सोचकर कि कर्मों से वे सुखी रह सकेंगे सकाम कर्म करते हुए स्थिति को सहन करते हैं। उन्हे यह ज्ञात नहीं कि इस संसार में कहीं भी कोई भी सरीर दुःखों से रहित नहीं है। संसार में सर्वत्र जीवन के दुःख -जन्म ,मृत्यु ,जरा तथा व्याधि -विद्यमान हैं। किन्तु जो अपने वास्तविक स्वरुप को समझ लेता है और इस प्रकार भगवान की स्थिति को समझ लेता है,वही भगवान् की प्रेमा -भक्ति में लगता है -फलस्वरूप वह वैकुण्ठलोक जाने का अधिकारी बन जाता है जहाँ न तो भौतिक कष्टमय जीवन है न ही काल का प्रभाव तथा मृत्यु है। अपने स्वरूप को जानने का अर्थ है भगवान् की अलौकिक स्थति को भी जान लेना। जो भ्र्मवश यह सोचता है कि जीव की स्थति तथा भगवान् की स्थति एकसमान है उसे समझों कि वह अन्धकार में है और स्वयं भगबद्भक्ति करने में असमर्थ है। वह अपने आप को प्रभु मान लेता है और इस तरह जन्म मृत्यु की पुनरावर्ती का पथ चुन लेता है। किन्तु जो यह समझते हुए कि उसकी स्थति सेवक की है अपने को भगवान् की सेवा में लगा देता है वह तुरंत ही वैकुण्ठ लोक जाने का अधिकारी बन जाता है। भगवान की सेवा कर्मयोग या बुद्धियोग कहलाती है,जिसे स्पष्ट शब्दों में भगवद्भक्ति कहते हैं।
क्रमशः !!! 🙏🙏
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सोमवार, 22 मार्च 2021
BHAGVAD GITA 2:50
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बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते।
तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम।।५०।।
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बुद्धियुक्तः-भक्ति में लगा रहने वाला; जहाति -मुक्त हो सकता है; इह-इस जीवन में;उभे-दोनों; सुकृत-दुस्कृते-अच्छे तथा बुरे फल; तस्मात्-अतः; योगाय -भक्ति के लिए; युज्यस्व -इस तरह लग जाओ; योगः -कृष्णभावनामृत; कर्मसु -समस्त कार्यों में; कौशलम-कुशलता,कला।
भक्ति में संलग्न मनुष्य इस जीवन में ही अच्छे तथा बुरे कार्यों से अपने को मुक्त कर लेता है। अतः योग के लिए प्रयत्न करो क्योंकि सारा कार्य -कौशल यही है।
तात्पर्य :- जीवात्मा अनादि काल से अपने अच्छे तथा बुरे कर्मों के फलों को संचित करता रहा है। फलतः वह निरन्तर अपने स्वरूप सेअनभिज्ञ बना रहा है। इस अज्ञान को भगवदगीता के उपदेश से दूर किया जा सकता है। यह हमें पूर्ण रूप में भगवान् श्रीकृष्ण की शरण में जाने तथा जन्म -जन्मान्तर कर्म -फल की श्रृंखला का शिकार बनने से मुक्त होने का उपदेश देती है, अतः अर्जुन को कृष्णभावनामृत में कार्य करने के लिए कहा गया है। क्योंकि कर्म फल के शुद्ध होने की यही प्रक्रिया है।
क्रमशः !!!
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रविवार, 21 मार्च 2021
BHAGAVAD GITA 2:49
🙏🙏
दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनञ्जय।
बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः।।४९।।
दूरेण -दूर से ही त्याग दो; हि -निश्चय ही; अवरम -गर्हित,निंदनीय; कर्म - कर्म; बुद्धि-योगात -कृष्णभावनामृत के बल पर;धनञ्जय -हे संम्पति को जीतने वाले ; बुद्धौ -ऐसी चेतना में; शरणम-पूर्ण समर्पण,आश्रय;अन्विच्छ -प्रयत्न करो; कृपणाः -कंजूस व्यक्ति; फल -हेतवः -सकाम कर्म की अभिलाषा वाले।
हे धनञ्जय ! भक्ति द्वारा समस्त गर्हित कर्मों से दूर रहो और उसी भाव से भगवान् की शरण ग्रहण करो। जो व्यक्ति अपने सकाम कर्म -फलों को भोगना चाहते हैं,वे कृपण हैं।
तात्पर्य :-जो व्यक्ति भगवान् के दास रूप में अपने स्वरुप को समझ लेता है वह कृष्णभावनामृत में स्थित रहने के अतिरिक्त सारे कर्मों को छोड़ देता है। जीव के लिए ऐसी भक्ति कर्म का सही मार्ग है। केवल कृपण ही अपने सकाम कर्मों का फल भोगना चाहते हैं,किन्तु इससे वे भवबन्धन में और अधिक फंसते जाते हैं। कृष्णभावनामृत के अतिरिक्त जितने भी कर्म संपन्न किये जाते हैं वे गर्हित हैं क्योंकि इससे कर्ता जन्म -मृत्यु के चक्र में लगातार फँसा रहता है। अतः कभी इसकी अकांक्षा नहीं करनी चाहिए कि मैं कर्म का कारण बनूँ । कृपणों को यह ज्ञात नहीं है कि दैववश या कठोर श्रम से अर्जित संम्पति का किस तरह सदुपयोग करें। मनुष्य को सारी शक्ति कृष्णभावनामृत अर्जित करने में लगानी चाहिए। इससे उसका जीवन सफल हो सकेगा। कृपणों की भांति अभागे व्यक्ति अपनी मानवी शक्ति को भगवान् की सेवा में नहीं लगाते।
क्रमशः !!!🙏🙏
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शनिवार, 20 मार्च 2021
BHAGAVAD GITA 2:48
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योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय।
सिद्धयसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्चते।।४८।।
योगस्थः -समभाव होकर; कुरु -करो; सङ्गम -आसक्ति को; त्यक्त्वा -त्यागकर; धनञ्जय -हे अर्जुन; सिद्धि-असिद्धयो -सफलता तथा विफलता में; समः -समभाव;भूत्वा -होकर; समत्वम -समता; योगः -योग; उच्चते -कहा जाता है.
हे अर्जुन ! जय अथवा पराजय की समस्त आसक्ति त्याग कर समभाव से अपना कर्म करो। ऐसी समता योग कहलाती है।
तात्पर्य :- कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि वह योग में स्थित होकर कर्म करे और योग है क्या ? योग का अर्थ है सदैव चंचल रहने वाली इन्द्रियों को वश में रखते हुए परमतत्व में मन को एकाग्र करना। और परमतत्व कौन है ? भगवान् ही परमतत्व है और चूँकि वे स्वयं अर्जुन को युद्ध करने के लिए कह रहे हैं,अतः अर्जुन को युद्ध के फल से कोई सरोकार नहीं है। जय या पराजय कृष्ण के लिए विचारणीय है,अर्जुन को तो बस श्रीकृष्ण के निर्देशानुसार कर्म करना है। कृष्ण के निर्देश का पालन ही वास्तविक योग है और इसका अभ्यास कृष्णभावनामृत नामक विधि द्वारा किया जाता है। एकमात्र कृष्णभावनामृत के माध्यम से ही स्वामित्व भाव का परित्याग किया जा सकता है। इसके लिए उसे कृष्ण का दास या उनके दासों का दास बनना होता है। कृष्णभावनामृत में कर्म करने की यही एक विधि है जिससे योग में स्थित होकर कर्म किया जा सकता है।
अर्जुन क्षत्रिय है,अतः वह वर्णाश्रम -धर्म का अनुयायी है। विष्णु - पुराण में कहा गया है कि वर्णाश्रम -धर्म का एकमात्र उद्देश्य विष्णु को प्रसन्न करना है। सांसारिक नियम है कि लोग पहले अपनी तुष्टि करते हैं, किन्तु यहाँ तो अपने को तुष्ट न करके कृष्ण को तुष्ट करना है। अतः कृष्ण को तुष्ट किये बिना कोई वर्णाश्रम -धर्म का पालन कर भी नहीं सकता। यहाँ पर परोक्ष रूप से अर्जुन को कृष्ण द्वारा बताई गयी विधि के अनुसार कर्म करने का आदेश है।
क्रमशः !!! 🙏🙏
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