🙏🙏
भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम।
व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते।।४४।।
भोग -भौतिक भोग; ऐश्वर्य -तथा ऐश्वर्य के प्रति; प्रसक्तानां-अशक्तों के लिए; तया -ऐसी वस्तुओं से; अपहृत -चेतसाम-मोहग्रसित चित्त वाले;व्यवसाय -अत्मिका -दृढ निश्चय वाली; बुद्धिः-भगवान की भक्ति; समाधौ-नियंत्रित मन में; न -कभी नहीं; विधीयते-घटित होती है।
जो लोग इन्द्रियभोग तथा भौतिक ऐश्वर्य के प्रति अत्यधिक आसक्त होने से ऐसी वस्तुओं से मोहग्रस्त हो जाते हैं,उनके मनों में भगवान् के प्रति दृढ़ निश्चय नहीं होता।
तात्पर्य :-समाधि का अर्थ है "स्थिर मन "वैदिक शब्दकोश निरूक्ति के अनुसार -सम्यग आधियति स्मिन्नात्मतयाथात्म्यम -जब मन आत्मा को समझने में स्थिर रहता है तो उसे समाधि । जो लोग इन्द्रियभोग में रुचि रखते हैं अथवा जो ऐसी क्षणिक वस्तुओं से मोहग्रस्त हैं उनके लिए समाधि कभी भी सम्भव नहीं है। माया के चक्कर में पड़कर वे न्यूनाधिक पतन को प्राप्त होते हैं।
क्रमशः !!! 🙏🙏
🙏🙏
यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चितः।
वेदवादरताः पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः।।४२।।
कामात्मानः स्वर्गपरा जन्मकर्मफ़लपर्दाम।
क्रियाविशेषबहुलां भोगैश्वर्यगतिं प्रति।।४३।।
यामिमां -ये सब; पुष्पितां -दिखावटी; वाचम -शब्द; प्रवदन्ति-कहते हैं; अविपश्चितः-अल्पज्ञ व्यक्ति;वेद -वाद-रताः-वेदों के अनुयायी; पार्थ -हे पार्थ; न-कभी नहीं; अन्यतः - अन्य कुछ; अस्ति है; इति -इस प्रकार; वादिनः -बोलने वाले;काम -आत्मनः -इन्द्रितृप्ति के इच्छुक;स्वर्ग-परा -स्वर्गप्राप्ति के इच्छुक; जन्म -कर्म-फल-पर्दाम -उत्तम जन्म तथा अन्य सकाम कर्म फल प्रदान करने वाला; क्रिया-विशेष -भड़कीले उत्सव; बहुलाम-विविध; भोग -इन्द्रियतृप्ति; ऐश्वर्य -तथा ऐश्वर्य; गतिम् -प्रगति; प्रति -की ओर।
अल्पज्ञानी मनुष्य वेदों के उन अलंकारिक शब्दों के प्रति अत्यधिक आसक्त रहते हैं,जो स्वर्ग की प्राप्ति,अच्छे जन्म,शक्ति इत्यादि के लिए विविध सकाम कर्म करने की संस्तुति करते हैं। इन्द्रियतृप्ति तथा ऐश्वर्यमय जीवन की अभिलाषा के कारण वे कहते हैं कि इससे बढ़कर और कुछ नहीं है।
तात्पर्य :- साधारणतः सब लोग अत्यंत बुद्धिमान नहीं होते और वे अज्ञान के कारण वेदों के कर्मकाण्ड भाग में बताये गए सकाम कर्मों के प्रति अत्यधिक आसक्त रहते हैं। वे स्वर्ग में जीवन का आनंद उठाने के लिए इन्द्रियतृप्ति कराने वाले प्रस्तावों से अधिक और कुछ नहीं चाहते,जहाँ मदिरा तथा तरुणियाँ उपलब्ध हैं और भौतिक ऐश्वर्य सर्व सामान्य है। वेदों में स्वर्ग लोक पहुँचने के लिए अनेक यज्ञों की संस्तुति है.जिनमे ज्योतिष्टोम यज्ञ प्रमुख है। वास्तव में वेदों में कहा गया है कि जो स्वर्ग जाना चाहता है उसे ये यज्ञ संपन्न करने चाहिए और अल्पज्ञानी पुरुष सोचते हैं कि वैदिक ज्ञान का सारा अभिप्राय इतना ही है। जिस प्रकार मुर्ख लोग विषैले वृक्षों के फूलों के प्रति बिना यह जाने कि इस आकर्षण का फल क्या होगा,आसक्त रहते हैं उसी प्रकार अज्ञानी व्यक्ति स्वर्गिक ऐश्वर्य तथा तज्जनित इन्द्रियभोग के प्रति आकृष्ट रहते हैं।
वेदों के कर्मकाण्ड भाग में कहा गया है -अपाम सोममृता अभूम तथा अक्षय्यं ह वै चातुर्मासस्ययाजिनः सुकृतं भवति। दूसरे शब्दों में,जो लोग चातुर्मास तप करते हैं वे अमर तथा सदा सुखी रहने के लिए सोम -रस पीने के अधिकारी हो जाते हैं। यहाँ तक कि इस पृथ्वी में भी कुछ लोग सोम -रस पीने के लिए अत्यंत इच्छुक रहते हैं जिससे वे बलवान बने और इन्द्रियतृप्ति का सुख पाने में समर्थ हों। ऐसे लोगों को भवबंधन से मुक्ति में कोई श्रद्धा नहीं होती और वे वैदिक यज्ञों की तड़क-भड़क में विशेष आसक्त रहते हैं। वे सामान्यतया विषयी होते हैं और जीवन में आनन्द के अतिरिक्त और कुछ नहीं चाहते। कहा जाता है कि स्वर्ग में नन्दन-कानन नामक अनेक उद्यान हैं,जिनमे दैवी सुंदरी स्त्रियों का संग तथा प्रचुर मात्रा में सोम -रस उपलब्ध रहता है। ऐसा शारीरिक सुख निस्सन्देह विषयी है,अतः ये वे लोग हैं,जो भौतिक जगत के स्वामी बनकर ऐसे भौतिक अस्थायी सुख के प्रति आसक्त हैं।
क्रमशः-!!! 🙏🙏
🙏🙏
व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन।
बहुशाखा ह्यनन्ता बुद्ध्योव्यवसायिनाम
व्यवसाय -आत्मिका-कृष्णभावनामृत में स्थित; बुद्धि -बुद्धि; एक एकमात्र; इह -इस संसार में; कुरुनन्दन -हे कुरुओं के प्रिय पुत्र; बहु -शाखा -अनेक शाखाओं में विभक्त; हि -निस्संदेह;अनन्ता-असीम;च -भी;बुद्धय-बुद्धि; अव्यवसायिनाम-जो कृष्णभावनामृत में नहीं हैं उनकी।
जो इस मार्ग पर चलते हैं वे प्र्योजन में दृढ़ रहते हैं और उनका लक्ष भी एक होता है। हे कुरुनन्दन ! जो दृढ़ प्रतिज्ञ नहीं हैं उनकी बुद्धि अनेक शाखाओं में विभक्त रहती है।
तात्पर्य :-यह दृढ़ श्रद्धा कि कृष्णभावनामृत द्वारा मनुष्य जीवन को सर्वोच्च सिद्धि प्राप्त कर सकेगा,व्यवसायात्मिक्ता बुद्धि कहलाती है। चैतन्य -चरितामृत में (मध्य २२.६२ )कहा गया है
श्रद्धा -शब्दे -विश्वास कहे सुदृढ़ निश्चय।
कृष्णे भक्ति कैले सर्वकर्म कृत है।।
श्रद्धा का अर्थ है किसी अलौकिक वस्तु में अटूट विश्वास। जब कोई कृष्णभावनामृत के कार्यों में लगा होता है तो उसे परिवार,मानवता या राष्ट्रीयता से बँधकर कार्य करने की आवश्यकता नहीं होती। पूर्व में किये गये शुभ -अशुभ कर्मों के फल ही उसे सकाम कर्मों में लगाते हैं जब कोई कृष्णभावनामृत में संलग्न हो तो उसे अपने कार्यों के शुभ फल के लिए प्रयत्नशील नहीं रहना चाहिए। जब कोई कृष्णभावनामृत में लीन होता है तो उसके सारे कार्य आध्यात्मिक धरातल पर होते हैं क्योंकि उनमे अच्छे तथा बुरे को द्वैत नहीं रह जाता। कृष्णभावनामृत की सर्वोच्च सिद्धि देहात्मबुद्धि का त्याग है। कृष्णभावनामृत की प्रगति के साथ क्रमशः यह अवस्था स्वतः प्राप्त हो जाती है।
कृष्णभावनाभावित व्यक्ति का दृढ़ निश्चय ज्ञान पर आधारित है। वासुदेवः सर्वम इति स महात्मा सुदुर्लभः-कृष्णभावनाभावित व्यक्ति अत्यंत दुर्लभ जीव है जो भलीभांति जानता है कि वासुदेव या कृष्ण समस्त प्रकट कारणों के मूल कारण हैं। जिस प्रकार वृक्ष की जड़ सींचने पर स्वतः ही पत्तियों तथा टहनियों में जल पहुंच जाता है उसी तरह कृष्णाभावनाभावित होने पर मनुष्य प्रत्येक प्राणी की अर्थात अपनी,परिवार की,समाज की,मानवता की सर्वोच्च सेवा कर सकता है। यदि मनुष्य के कर्मों से कृष्ण प्रसन्न हो जाएँ तो प्रत्येक व्यक्ति संतुष्ट होगा।
किन्तु कृष्णभावनामृत में सेवा गुरु के समर्थ निर्देशन में ही ठीक से हो पाती है क्योंकि गुरु कृष्ण का प्रामाणिक प्रतिनिधि होता है जो शिष्य के स्वभाव से परिचित होता है और उसे कृष्णभावनामृत की दिशा में कार्य करने के लिए मार्ग दिखा सकता है। अतः कृष्णभावनामृत में दक्ष होने के लिए मनुष्य को दृढ़ता से कर्म करना होगा और कृष्ण के प्रतिनिधि की आज्ञा का पालन करना होगा। उसे गुरु के उपदेशों को जीवन का लक्ष्य मान लेना होगा। श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर ने गुरु की प्रसिद्ध प्रार्थना में उपदेश दिया है -
यस्य प्रसादाद भगवत्प्रसादो यस्याप्रसादनन्न गतिः कुतोपि।
ध्यायांस्तुवंसत्स्य यशस्त्रिसन्ध्यं वनडे गुरोः श्रीचरणारविन्दम।।
"गुरु की तुष्टि से भगवान् भी प्रसन्न होते हैं। गुरु को प्रसन्न किये बिना कृष्णभावनामृत के स्तर तक पँहुच पाने की कोई संभावना नहीं रहती। अतः मुझे उनका चिंतन करना चाहिए और दिन में तीन बार उनकी कृपा की याचना करनी चाहिए और अपने गुरु को सादर नमस्कार करना चाहिए। "
किन्तु यह सम्पूर्ण पद्धति देहात्मबुद्धि से परे सैद्धांतिक रूप से नहीं वरन व्यवहारिक रूप से पूर्ण आत्मज्ञान पर निर्भर करती है,जब सकाम कर्मों से इन्द्रियतृप्ति की कोई सम्भावना नहीं रहती। जिसका मन दृढ़ नहीं वही विभिन्न सकाम कर्मों की ओर आकर्षित होता है।
क्रमशः !!!🙏🙏
🙏🙏
नेहाभिक्रमनाशोस्ति प्रत्यवायो न विद्द्ते।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात।।४०।।
न -नहीं; इह -इस योग में; अभिक्रम -प्रयत्न करने में; नाश -हानि; अस्ति -है; प्रत्यवायः-ह्रास;न -कभी नहीं; विद्द्ते-है; सु-अल्पम-थोड़ा;अपि-यद्द्पि; अस्य-इस; धर्मस्य-धर्म का; त्रायते-मुक्त करता है; महतः-महान; भयात-भय से।
इस प्रयास में न तो हानि होती है न ही ह्रास अपितु इस पथ पर की गयी अल्प प्रगति भी महान भय से रक्षा कर सकती है।
तात्पर्य :-कर्म का सर्वोच्च दिव्य गुण है,कृष्णभावनामृत में कर्म या इन्द्रियतृप्ति की आशा न करके कृष्ण के हित में कर्म करना। ऐसे कर्म का लघु आरम्भ होने पर भी कोई बाधा नहीं आती है,न कभी इस आरम्भ का विनाश होता है। भौतिक स्तर पर या प्रारम्भ किये जाने वाले किसी भी कार्य को पूरा करना होता है अन्यथा सारा प्रयास निष्फल हो जाता है। किन्तु कृष्णभावनामृत में प्रारम्भ किया जाने वाला कोई भी कार्य अधूरा रहकर भी स्थायी प्रभाव डालता है। अतः ऐसे कर्म करने वाले को कोई हानि नहीं होती,चाहे यह कर्म क्यों न रह जाय। यदि कृष्णभावनामृत का एक प्रतिशत भी पूरा हुआ तो उसका स्थायी फल होता है,अतः अगली बार दो प्रतिशत से सुभारम्भ होगा,किन्त्तु भौतिक कर्म में जब तक शत प्रतिशत सफलता प्राप्त न हो तब तक कोई लाभ प्राप्त नहीं होता। अजामिल ने कृष्णभावनामृत में अपने कर्तव्य का कुछ ही प्रतिशत पूरा किया था,किन्तु भगवान् की कृपा से उसे शत प्रतिशत लाभ मिला। इस सम्बन्ध में श्रीमदभागवत में (१.५.१७ )एक अत्यंत सुन्दर श्लोक आया है -
त्यक्त्वा स्वधर्म चरणाम्बुजं हरेर्भजन्नम्पक्वोथ पतेततो यदि।
यत्र क्व वाभद्रमभूदमुष्य किं को वार्थ आप्तोभजतां स्वधर्मतः।।
"यदि कोई अपना धर्म छोड़कर कृष्णभावनामृत में काम करता है और फिर काम पूरा न होने के कारण नीचे गिर जाता है तो इसमें उसको क्या हानि ? और यदि कोई अपने भौतिक कार्यों को पूरा करता है तो इसमें उसको क्या लाभ होगा ? अथवा जैसा कि इशाई कहते हैं "यदि कोई अपनी शाश्वत आत्मा को खोकर सम्पूर्ण जगत को पा ले तो मनुष्य को इससे क्या लाभ होगा ?"
भौतिक कार्य तथा उनके फल शरीर के साथ ही समाप्त हो जाते हैं,किन्तु कृष्णभावनामृत में किया गया कार्य मनुष्य को इस शरीर के विनष्ट होने पर भी पुनः कृष्णभावनामृत तक जाता है। कम से कम इतना तो निश्चित है कि अगले जन्म में उसे सुसंस्कृत ब्राह्मण परिवार में या धनीमानी कुल में मनुष्य का शरीर प्राप्त हो सकेगा जिससे उसे भविष्य में ऊपर उठने का अवसर प्राप्त हो सकेगा कृष्णभावनामृत में संपन्न कार्य का यही अनुपम गुण है।
क्रमशः !!!
🙏🙏
एषा तेभिहिता सांख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां शृणु।
बुद्ध्या युक्तो यया पार्थ कर्मबन्धं प्रहास्यसि।। ३९।।
🙏🙏
एषा -यह सब; ते -तेरे लिए; अभिहिता -वर्णन किया गया; सांख्ये -वैश्लेषिक अध्ययन द्वारा; बुद्धि -बुद्धि; योगे -निष्काम कर्म में; तु-लेकिन इमाम -इसे; शृणु -सुनों; बुद्ध्या -बुद्धि से; युक्त -साथ -साथ,सहित; यया -जिससे; पार्थ -हे पृथापुत्र; कर्म -बन्धम-कर्म के बंधन से;प्रहास्यसि -मुक्त हो जाओगे।
यहाँ मैंने वैश्लेषिक अध्ययन (सांख्य )द्वारा इस ज्ञान का वर्णन किया है। अब निष्काम भाव से कर्म करना बता रहा हूँ,उसे सुनो। हे पृथापुत्र ! तुम यदि ऐसे ज्ञान से कर्म करोगे तो तुम कर्मों के बंधन से अपने को मुक्त कर सकते हो।
तात्पर्य :- वैदिक कोश निरुक्ति के अनुसार सांख्य का अर्थ है -विस्तार से वस्तुओं का वर्णन करने वाला तथा सांख्य उस दर्शन के लिए प्रयुक्त मिलता है जो आत्मा की वास्तविक प्रकृति का वर्णन करता है। और योग का अर्थ -इन्द्रियों का निग्रह। अर्जुन का युद्ध न करने का प्रस्ताव इन्द्रियतृप्ति पर आधारित था। वह अपने प्रधान कर्तव्य को भुलाकर युद्ध से दूर रहना चाहता था क्योंकि उसने यह सोचा कि धृतराष्ट्र के पुत्रों अर्थात अपने बन्धु -वान्धवों को परास्त करके राज्यभोग करने की अपेक्षा अपने सम्बन्धियों तथा स्वजनों को न मारकर वह अधिक सुखी रहेगा। दोनों ही प्रकार से मूल सिद्धांत तो इन्द्रियतृप्ति था। उन्हें जीतने से प्राप्त होने वाला सुख तथा स्वजनों को जीवित देखने का सुख ये दोनों इन्द्रियतृप्ति के धरातल पर एक है,क्योंकि इससे बुद्धि तथा कर्तव्य दोनों का अंत हो जाता है।
अतः कृष्ण ने अर्जुन को बताना चाहा कि वह अपने पितामह के शरीर का वध करके उनके आत्मा को नहीं मारेगा। उन्होंने यह बताया कि उनके सहित सरे जीव शाश्वत प्राणी हैं,वे भूतकाल में प्राणी थे,वर्तमान में भी प्राणी रूप में हैं और भविष्य में भी प्राणी बने रहेंगे क्योंकि हम सब शाश्वत आत्मा हैं। हम विभिन्न प्रकार से केवल अपना शारीरिक परिधान (वस्त्र)बदलते रहते हैं और इस भौतिक वस्त्र के बन्धन से मुक्ति के बाद भी हमारी पृथक सत्ता बनी रहती है। भगवान् कृष्ण द्वारा आत्मा तथा शरीर का अत्यंत विशद वैश्लेषिक अध्ययन प्रस्तुत किया गया है और निरुक्ति कोष को शब्दावली में विशद अध्ययन को यहाँ सांख्य कहा गया है। इस सांख्य का नास्तिक -कपिल के सांख्य -दर्शन से कोई सरोकार नहीं है। इस नास्तिक -कपिल -के सांख्य दर्शन से बहुत पहले भगवान् कृष्ण के अवतार भगवान् कपिल ने अपनी माता देवहुति के समक्ष श्रीमदभागवत में वास्तविक सांख्य -दर्शन पर प्रवचन किया था। उन्होने स्पष्ट बताया है कि पुरुष तथा परमेश्वर क्रियाशील है और नवे प्रकृति पर दृष्टिपात करके सृष्टि की उत्पत्ति करते हैं। इसको वेदों ने तथा गीता ने स्वीकार किया है। वेदों में वर्णन मिलता है किभगवान् ने प्रकृति पर दृष्टिपात किया और उसमे आणविक जीवात्माएं प्रविष्ट कर दीं। ये सारे जीव भौतिक -जगत में इन्द्रियतृप्ति के लिए कर्म रहते हैं और माया के वशीभूत होकर अपने को भोक्ता मानते रहते हैं। इस मानसिकता की चरम सीमा भगवान् के साथ सायुज्य प्राप्त करना है। यह माया अथवा इन्द्रियतृप्तिजन्य मोह का अंतिम पाश है और अनेकानेकों जन्मों तक इस तरह इन्द्रियतृप्ति करते हुए कोई महात्मा भगवान् कृष्ण यानि वासुदेव की शरण में जाता है जिससे परम सत्य की खोज पूरी होती है।
अर्जुन ने कृष्ण की शरण ग्रहण करके पहले ही उन्हें गुरु रूप में स्वीकार कर लिया है -शिष्य्तेहं शाधि मां त्वाम प्रपन्नं। फलस्वरूप कृष्ण अब उसे बुद्धियोग या कर्मयोग की कार्यविधि बताएँगे,जो कृष्ण की इन्द्रियतृप्ति के लिए किया गया भक्तियोग है। यह बुद्धियोग अध्याय दस के दशवें श्लोक में वर्णित है जिसमे इसे उन भगवान् के साथ प्रत्यक्ष संपर्क बताया गया है,जो सबके ह्रदय में परमात्मा रूप में विद्द्मान हैं, किन्तु ऐसा संपर्क भक्ति के बिना सम्भव नहीं है। अतः जो भगवान् की भक्ति या दिव्य प्रेमाभक्ति में या कृष्णभावनामृत में स्थित होता है,वही भगवान् की विशिष्ट कृपा से बुद्धियोग की यह अवस्था प्राप्त कर पाता है। अतः भगवान् कहते हैं कि जो लोग दिव्य प्रेमवश भक्ति में निरंतर लगे रहते हैं उन्हें ही वे भक्ति का विशुद्ध ज्ञान प्रदान करते हैं इस प्रकार भक्त सरलता से उनके चिदानन्दमय धाम में पहुँच सकते हैं।
इस प्रकार इस श्लोक में वर्णित बुद्धियोग भगवान् कृष्ण की भक्ति है और यहाँ पर उल्लिखित सांख्य शब्द का नास्तिक -कपिल द्वारा प्रतिपादित अनीश्वरवादी सांख्य-योग से कुछ भी सम्बन्ध नहीं है। अतः किसी को यह भ्रम नहीं होना चाहिए कि यहां पर उल्लिखित सांख्य -योग का अनीश्वरवादी सांख्य से किसी प्रकार का सम्बन्ध है। न ही उस समय उसके दर्शन का कोई प्रभाव था,और न कृष्ण ने ऐसी ईश्वरहीन दार्शनिक कल्पना का उल्लेख करने की चिंता की। वास्तविक सांख्य -दर्शन का वर्णन भगवान् कपिल द्वारा श्रीमदभागवत में हुआ है,किन्तु वर्तमान प्रकरणों में उस सांख्य से भी कोई सरोकार नहीं है। यहाँ सांख्य का अर्थ है शरीर तथा आत्मा का वैश्लेषिक अध्ययन। भगवान् कृष्ण ने आत्मा का वैश्लेषिक वर्णन अर्जुन को बुद्धियोग तथा कर्मयोग तक लाने के लिए किया। अतः भगवान कृष्ण का सांख्य तथा भागवत में भगवान् कपिल द्वारा वर्णित सांख्य एक ही है। ये दोनों भक्तियोग हैं। अतः भगवान् कृष्ण ने कहा है कि केवल अल्पज्ञ ही सांख्य -योग तथा भक्तियोग में भेदभाव मानते हैं।
निस्संदेह अनीश्वरवादी सांख्य -योग का भक्तियोग से कोई सम्बन्ध नहीं है फिर भी बुद्धिहीन व्यक्तियों का दावा है कि भगवतगीता में अनीश्वरवादी सांख्य का ही वर्णन हुआ है।
अतः मनुष्य को यह जान लेना चाहिए कि बुद्धियोग का अर्थ कृष्णभावनामृत में,पूर्ण आनंद तथा भक्ति के ज्ञान में कर्म करना है। जो व्यक्ति भगवान् की तुष्टि के लिए कर्म करता है,चाहे वह कर्म कितना ही कठिन क्यों न हो,वह बुद्धियोग के सिद्धांत के अनुसार कार्य करता है और दिव्य आनन्द का अनुभव करता है। ऐसी दिव्य व्यस्तता के कारण उसे भगवत्कृपा से स्वतः सम्पूर्ण दिव्य ज्ञान प्राप्त हो जाता है और ज्ञान प्राप्त करने के लिए अतिरिक्त श्रम किये बिना ही उसकी पूर्ण मुक्ति हो जाती है। कृष्णभावनाभावित कर्म तथा फल प्राप्ति की इच्छा से किये गये कर्म में,विशेषतया पारिवारिक या भौतिक सुख प्राप्त करने की इन्द्रितृप्ति के लिए किये गये कर्म में,प्रचुर अन्तर होता है। अतः बुद्धियोग हमारे द्वारा संपन्न कार्य का दिव्य गुण है।
क्रमशः !!! 🙏🙏
🙏🙏
सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ।
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि।।३८।।
सुख -सुख; दुःखे-तथा दुःख में; समे -समभाव से; कृत्वा-करके; लाभ -अलाभो -लाभ तथा हानि दोनों; जय -अजयौ-विजय तथा पराजय दोनों;ततः -तत्पश्चात; युद्धाय-युद्ध करने के लिए; युज्यस्व् लगो (लड़ो ); न -कभी नहीं; एवम -इस तरह; पापम-पाप; अवाप्यस्य-प्राप्तसि करोगे।
तुम सुख या दुःख,हानि लाभ,विजय या पराजय का विचार किये बिना युद्ध के लिए युद्ध करो। ऐसा करने पर तुम्हें कोई पाप नहीं लगेगा।
तात्पर्य :- अब भगवान् कृष्ण प्रत्यक्ष रूप से कहते हैं कि अर्जुन को युद्ध करना चाहिए क्योंकि यह उनकी इच्छा है। कृष्णभावनामृत के कार्यों में सुख या दुःख,हानि या लाभ,जय या पराजय कोई महत्व नहीं जाता। दिव्य चेतना तो यही होगी कि हर कार्य कृष्ण के निमित किया जाय,अतः भौतिक कार्यों का कोई बंधन (फल)नहीं होता। जो कोई सतोगुण या रजोगुण के अधीन होकर अपनी इन्द्रियतृप्ति के लिए कर्म करता है उसे अच्छे या बुरे फल प्राप्त होते हैं,किन्तु जो कृष्णभावनामृत के कार्यों में अपने आप को समर्पित कर देता है,वह सामान्य कर्म करने वाले के समान किसी का कृतज्ञ या ऋणी नहीं होता। भागवत में (११.५.४१ )कहा गया है -
देवर्षिभूताप्तनृणां पितृणां न किङ्करो नायमृणी च राजन।
सर्वात्मना यः शरणं शरण्यं गतो मुकुन्दं परिहृत्य कर्तम।।
" जिसने समस्त कार्यों को त्याग कर मुकुंद श्रीकृष्ण की शरण ग्रहण कर ली है वह न तो किसी का ऋणी है और न ही किसी का कृतज्ञ -चाहे वे देवता,साधु,सामान्यजन,अथवा परिजन,मानवजाति या उसके पितर ही क्यों न हों। "इस श्लोक में कृष्ण ने अर्जुन को अप्रत्यक्ष रूप से इसी का संकेत किया है। इसकी व्याख्या अगले श्लोकों में और भी स्पष्टता से की जायेगी।
क्रमशः !!! 🙏🙏
🙏🙏
हतो वा प्राप्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम।
तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चिचः।।३७।।
हतः -मारा जा कर; वा -या तो; प्राप्यसि -प्राप्त करोगे; स्वर्गम-स्वर्गलोक को; जित्वा-विजयी होकर;वा-अथवा; भोक्ष्यसे-भोगोगे; महीम-पृथ्वी को;तस्मात्-अतः; उत्तिष्ठ-उठो; कौन्तेय-हे कुन्तीपुत्र; युद्धाय-लड़ने के लिए; कृत-दृढ़; निश्चय-संकल्प से।
हे कुन्तीपुत्र ! तुम यदि युद्ध में मारे जाओगे तो स्वर्ग प्राप्त करोगे या यदि या यदि जीत जाओगे तो पृथ्वी के साम्राज्य का भोग करोगे। अतः दृढ़ संकल्प करके खड़े होओ और युद्ध करो।
तात्पर्य:- यद्दपि अर्जुन के पक्ष में विजय निश्चित नहीं थी फिर भी उसे युद्ध करना था,क्योंकि यदि वह युद्ध में मारा भी गया तो वह स्वर्गलोक को जायेगा।
क्रमशः!!!