बुधवार, 24 फ़रवरी 2021

BHAGAVAD GITA 2:23

  नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः। 

न चैनं क्लेदयन्त्यापो  शोषयति मारुतः।। 

न -कभी नहीं; एनम -इस आत्मा को; छिन्दन्ति -खंड -खंड कर सकते हैं; शस्त्राणि -हथियार; न-कभी नहीं;एनम -इस आत्मा को; दहति-जला सकता है; पावकः -अग्नि; न -कभी नहीं; च-भी; एनम -इस आत्मा को; क्लेदयन्ती -भिगो सकता है; आप:-जल; न -कभी नहीं; शोषयति -सूखा  सकता है;मारुतः -वायु। 

यह आत्मा न तो कभी किसी शस्त्र द्वारा खण्ड-खण्ड किया जा सकता है,न अग्नि द्वारा जलाया जा सकता है,न जल द्वारा भिगोया या वायु द्वारा सुखाया जा सकता है। 

तात्पर्य :- सारे हथियार -तलवार,आग्नेयास्त्र,वर्षा के अस्त्र,चक्रवात आदि आत्मा को मारने में असमर्थ हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि आधुनिक आग्नेयास्त्रों के अतिरिक्त मिट्टी,जल,वायु,आकाश आदि के भी अनेक प्रकार के हथियार होते थे। यहाँ कि आधुनिक युग के नाभिकीय हथियारों की गणना भी आग्नेयास्त्रों में की जाती है,किन्तु  पूर्वकाल में विभिन्न पार्थिव तत्वों से बने हुए हथियार होते थे। आग्नेयास्त्रों का सामना जल के (वरुण) हथियारों से किया जाता था,जो आधुनिक विज्ञान के लिए अज्ञात है। आधुनिक विज्ञान को चक्रवात हथियारों का भी पता नहीं है। जो भी हो,आत्मा न तो कभी खण्ड -खण्ड किया  सकता है ,न किन्ही वैज्ञानिक हथियारों से उसका संहार किया सकता है, चाहे उनकी संख्या कितनी ही क्यों न हो। 

मायावादी इसकी व्याख्या नहीं कर सकते कि जीव किस प्रकार अपने अज्ञान के कारण उत्पन्न हुआ है और तत्पश्चात माया की शक्ति से आवृत हो गया। न ही आदि परमात्मा से जीवों को विलग कर पाना सम्भव था,प्रत्युत सारे जीव परमात्मा से विलग हुए अंश हैं। चूँकि  सनातन अणु -आत्मा हैं,अतः माया द्वारा आवृत होने की उनकी प्रवृति स्वाभाविक है और  तरह वे भगवान् की संगति से पृथक हो जाते हैं, जिस प्रकार अग्नि के स्फुलिंग अग्नि से विलग होते ही बुझ जाते हैं,यद्दपि इन दोनों गुण समान होते हैं। वाराह पुराण में जीवों को परमात्मा का भिन्न अंश कहा गया है। भगदगीता के अनुसार भी वे शाश्वत रूप से ऐसे ही हैं। अतः मोह से मुक्त होकर भी जीव पृथक अस्तित्व रखता है, जैसा कि कृष्ण द्वारा अर्जुन को  दिये  गये  उपदेशों से स्पष्ट है  अर्जुन कृष्ण के उपदेश के कारण मुक्त तो हो गया,किन्तु कभी भी कृष्ण  से एकाकार  नहीं हुआ। 

क्रमशः 🙏🙏                                         

BHAGAVAD GITA 2:22

 वासांसि जीर्णानि यथा विहाय

             नवानी गृह्णति नरोपराणि। 

तथा शरीराणि विहाय जीर्णा 

               न्यन्यानि संयाति नवानि देहि।।२२।।

वासांसि -वस्त्रों को;जीर्णानि -पुराने तथा फटे; यथा -जिस प्रकार; विहाय -त्याग कर; नवानि-नए वस्त्र; गृह्णति-ग्रहण करता है;नरः -मनुष्य; अपराणि -अन्य; तथा -उसी प्रकार;शरीराणि-शरीरों को; विहाय-त्याग कर; जीर्णानि -वृद्ध तथा व्यर्थ; अन्यानि-भिन्न; संयाति-स्वीकार करता है; नवानि-नये; देही-देहधारी आत्मा। 

जिस प्रकार मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्याग कर नये वस्त्र धारण करता है,उसी प्रकार आत्मा पुराने तथा व्यर्थ के शरीर को त्याग कर नवीन भौतिक शरीर धारण करता है 

तात्पर्य :- अणु -आत्मा द्वारा शरीर का परिवर्तन एक स्वीकृत तथ्य है। आधुनिक विज्ञानीजन तक,जो आत्मा के अस्तित्व पर विश्वास नहीं करते,पर साथ ही ह्रदय से शक्ति-साधन की व्याख्या भी नहीं कर पात,अतः उन परिवर्तनों को स्वीकार  बाध्य हैं, जो बाल्यकाल से कौमार्यावस्था और फिर तरुणावस्था तथा वृद्धावस्था में होते रहते हैं। वृद्धावस्था से यही परिवर्तन दूसरे शरीर में स्थानान्तरित हो जाता है। इसकी  व्याख्या एक पिछले श्लोक में २.१ ३ की जा चुकी है। 

अणु -आत्मा का दूसरे शरीर में स्थानांतरण परमात्मा की कृपा से सम्भव हो पाता  है। परमात्मा अणु -आत्मा की इच्छाओं की पूर्ति उसी तरह करते हैं,जिस प्रकार एक मित्र दूसरे की इच्छापूर्ति करता है मुण्डक तथा श्वेताश्वतर उपनिषदों में आत्मा तथा परमात्मा की उपमा दो मित्र पक्षियों से दी गयी है,जो एक ही वृक्ष पर वैठे हैं। इनमे से एक पक्षी (अणु -आत्मा)वृक्ष के फल को खा रहा है और दूसरा पक्षी (कृष्ण )अपने मित्र को देख रहा है। यद्दपि दोनों पक्षी सामान गुण वाले हैं किन्तु इनमे से एक भौतिक वृक्ष के फलों पर मोहित है,किन्तु दूसरा अपने मित्र  कार्यकलापों का साक्षी मात्र है। कृष्ण साक्षी पक्षी है,और अर्जुन फल भोक्ता पक्षी। यद्दपि दोनों मित्र (सखा ) हैं, किन्तु फिर भी एक स्वामी है और दूसरा सेवक है। अणु -आत्मा द्वारा इस सम्बन्ध की विस्मृति ही उसके एक वृक्ष से दूसरे पर जाने या एक शरीर से दूसरे में जाने का कारण है। जीव आत्मा प्रकृत शरीर रुपी वृक्ष पर अत्यधिक संघर्षशील है,किन्तु ज्योंही वह दूसरे पक्षी को परम गुरु के रूप में स्वीकार करता है -जिस प्रकार अर्जुन कृष्ण का उपदेश ग्रहण करने के लिए स्वेच्छा से उनकी शरण में जाता है -त्योंही परतंत्र पक्षी तुरंत सारे शोकों से विमुक्त हो जाता है। मुण्डक उपनिषद के (३.१.२ )तथा श्वेताश्वतर -उपनिषद (४.७ )समान रूप से इसकी पुष्टि करते हैं -

समाने वृक्षे पुरुषों निमग्नोनीशया शोचति मुह्यमानः। 

जुष्टं यदा पश्यत्यन्यमीशमस्य महिमानमिति वीतशोकः।।  

"यद्दपि दोनों पक्षी एक ही वृक्ष पर बैठे हैं, किन्तु फल खाने वाला पक्षी वृक्ष के फल के भोक्ता रूप में चिंता तथा विषाद में निमग्न है। यदि किसी तरह वह अपने मित्र भगवान् की ओर उन्मुख होता है और उनकी महिमा को जान लेता है तो वह कष्ट भोगने वाला पक्षी तुरंत समस्त चिंताओं से मुक्त हो जाता है। "अब अर्जुन ने अपना मुख अपने शाश्वत मित्र कृष्ण कीओर फेरा है और उनसे भगवतगीता समझ रहा है। इस प्रकार वह कृष्ण से श्रवण करके भगवान् की परम महिमा को समझ कर शोक से मुक्त हो सकता है। 

यहाँ भगवान् ने अर्जुन को उपदेश दिया है कि वह अपने पितामह तथा गुरु के देहान्तरण पर शोक प्रकट न करें अपितु उसे इस धर्मयुद्ध में उनके शरीरों का वध करने में प्रसन्न होना चाहिए,जिससे वे सब विभिन्न शारीरिक कर्म -फलों से तुरंत मुक्त हो जाँय। बलिबेदी पर या धर्मयुद्ध में प्राणों को अर्पित करने वाला व्यक्ति तुरंत शारीरिक पापों से मुक्त हो जाता है और उच्च लोक को प्राप्त होता है। अतः अर्जुन का शोक करना युक्तिसंगत नहीं है। 

क्रमशः !!!


                                                                     

सोमवार, 22 फ़रवरी 2021

BHAGAVAD GITA 2:21

 🙏🙏

वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम। 

कथं स पुरुषः पार्थ कं घातयति हन्ति कम।।२१।।

🙏🙏 

वेद -जानता है;अविनाशिनं -अविनाशी को;नित्यं -शाश्वत; यः -जो; एनम -इस (आत्मा );अजम -अजन्मा; अव्ययं -निर्विकार; कथम -कैसे; सः -वह; पुरुषः -पुरुष; पार्थ -हे पार्थ(अर्जुन ); कम -किसको; घातयति -मरवाता है; हन्ति -मारता है; कम -किसको। 

हे पार्थ ! जो व्यक्ति यह जानता है की आत्मा अविनाशी,अजन्मा,शाश्वत तथा अव्यय है ,वह भला किसी को कैसे मार सकता है या मरवा सकता है ? 

तात्पर्य :- प्रत्येक वस्तु की समुचित उपयोगिता होती है और जो ज्ञानी होता है वह जानता है कि किसी वस्तु का कहाँ और कैसे प्रयोग किया जाय। इसी प्रकार हिंसा की भी अपनी उपयोगिता है और इसका उपयोग इसे जानने वाले पर निर्भर करता है। यद्दपि हत्या करने वाले व्यक्ति को न्यायसंहिता के अनुसार प्राणदण्ड दिया जाता है,किन्तु न्यायाधीश को दोषी नहीं ठहराया जा सकता,क्योंकि वह न्यायसंहिता के अनुसार ही दूसरे व्यक्ति पर हिंसा किये जाने का आदेश देता है। मनुष्यों के विधि-ग्रन्थ मनुसंहिता में इसका समर्थन किया गया है कि हत्यारे को प्राणदंड देना चाहिए जिससे उसे अगले जीवन में अपना पापकर्म भोगना न पड़े। अतः राजा द्वारा हत्यारे को फाँसी का दंड एक प्रकार से लाभप्रद है। 

 इसी प्रकार जब कृष्ण युद्ध करने का आदेश देते हैं तो यह समझना चाहिए कि यह हिंसा परम न्याय के लिए है और इस तरह अर्जुन को इस आदेश का पालन यह समझ कर करना चाहिए कि कृष्ण के लिए किया गया युद्ध हिंसा नहीं है क्योंकि मनुष्य या दूसरे शब्दों में आत्मा को मारा नहीं जा सकता। अतः न्याय के हेतु तथाकथित हिंसा की अनुमति है। शल्यक्रिया का प्रयोजन रोगी को मारना नहीं अपतु उसको स्वस्थ बनाना है। अतः कृष्ण  आदेश पर अर्जुन द्वारा किये जाने वाला युद्ध पुरे ज्ञान के साथ हो रहा है,उससे पापफल की संभावना नहीं है। 🙏🙏

क्रमशः !!!

रविवार, 21 फ़रवरी 2021

BHAGAVAD GITA 2:20

🙏🙏 न जायते म्रियते वा कदाचि-

      न्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः।

अजो नित्यः शाश्वतोयं पुराणों 

     न हन्यते हन्यमाने शरीरे।।२०।। 🙏🙏

न -कभी नहीं; जायते-जन्मता है; म्रियते :-मरता है; वा -या; कदाचित -कभी भी;(भूत,वर्तमान,या भविस्य) न -कभी नहीं; अयम -यह; भूत्वा -होकर; भविता -होने वाला; वा -अथवा; न -नहीं; भूयः-अथवा,पुनः होने वाला है; अजः-अजन्मा; नित्य -नित्य; शाश्वत -स्थायी; अयम-यह;पुराणः-सबसे प्राचीन; न -नहीं; हन्यते -मारा जाता है; शरीरे-शरीर में। 

आत्मा के लिए किसी भी काल में न तो जन्म है न मृत्यु। वह न तो कभी जन्मा है,न जन्म लेता है और न जन्म लेगा। वह अजन्मा,नित्य,शाश्वत तथा पुरातन है। शरीर के मारे जाने पर वह मारा नहीं जाता। 

तात्पर्य :- गुणात्मक दृष्टि से, परमात्मा का अणु -अंश परम से अभिन्न है। वह शरीर की भांति विकारी नहीं है। कभी -कभी आत्मा को स्थायी या कूटस्थ कहा जाता है। शरीर में छह प्रकार के रूपान्तर होते है। वह माता के गर्भ से जन्म लेता है,कुछ काल तक रहता है,बढ़ता है,कुछ परिणाम उत्पन्न करता है,धीरे -धीरे क्षीण होता है और अन्त में समाप्त हो जाता है। किन्तु आत्मा में ऐसे परिवर्तन नहीं होते। आत्मा अजन्मा है,किन्तु चूँकि वह भौतिक शरीर धारण करता है,अतः शरीर जन्म लेता है। आत्मा न तो जन्म लेता है,न मरता है। जिसका जन्म होता है उसकी मृत्यु भी होती है। और चूँकि आत्मा जन्म नहीं लेता,अतः उसका न तो भूत है,न वर्तमान,न भविष्य। वह नित्य,शाश्वत तथा सनातन है -अर्थात उसके जन्म लेने का कोई इतिहास नहीं है। हम शरीर के प्रभाव में आकर आत्मा के जन्म,मरण आदि का इतिहास खोजते हैं। आत्मा शरीर की तरह कभी भी वृद्ध नहीं है अतः तथाकथित वृद्ध पुरुष भी अपने में बाल्यकाल या युवावस्था जैसी अनुभूति पाता है। शरीर  परिवर्तनों का आत्मा पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। आत्मा वृक्ष या किसी अन्य भौतिक वस्तु की तरह क्षीण नहीं होता। आत्मा की कोई उपसृष्टि नहीं होती। शरीर की उपसृष्टि संतानें हैं और वे भी व्यष्टि आत्माएं हैं और शरीर के कारण वे किसी न किसी की संतानें प्रतीत होते हैं शरीर की वृद्धि आत्मा की उपस्थिति के कारण होती है,किन्तु आत्मा के न तो कोई उपवृद्धि है न ही इसमें कोई परिवर्तन होता है। अतः आत्मा शरीर के छः प्रकार के परिवर्तन से मुक्त है। 

कठोपनिषद (१.२.१८ ) के अनुसार -

 न जायते  म्रियते वा  विपश्चिन 

         नायं कुतश्चिन्न बभूव कश्चित। 

अजो नित्यः  शाश्वतो यं  पुराणों 

           न हन्यते  हन्यमाने  शरीरे।।  

इस श्लोक का अर्थ भगवदगीता के श्लोक जैसा ही है,किन्तु इस श्लोक में एक विशिष्ट शब्द विपश्चित का प्रयोग हुआ है जिसका अर्थ है विद्वान या ज्ञानमय। 

आत्मा ज्ञान से या चेतना से सदैव पूर्ण रहता है। अतः चेतना ही आत्मा का लक्षण है। यदि कोई ह्रदयस्थ आत्मा को नहीं खोज पाता तब भी वह आत्मा की उपस्थिति को चेतना की उपस्थिति से जान सकता है। कभी-कभी हम बादलों या अन्य कारणों से सूर्य को नहीं देख पाते,किन्तु सूर्य का प्रकाश सदैव विद्दमान रहता है,अतः हमें विश्वास सो जाता है कि यह दिन का समय है। प्रातःकाल ज्यों ही आकाश में थोड़ा सा सूर्य प्रकाश दिखता है तो हम समझ जाते हैं कि सूर्य आकाश में है। इसी प्रकार चूँकि शरीरों में,चाहे पशु के हों या पुरुषों के,कुछ न कुछ चेतना रहती है,अतः हम आत्मा की उपस्थिति को जान लेते हैं। किन्तु जीव की यह चेतना परमेश्वर की चेतना से भिन्न है क्योंकि परम चेतना तो सर्वज्ञ है -भूत,वर्तमान तथा भविष्य के ज्ञान से पूर्ण। व्यष्टि जीव की चेतना विस्मरणशील है। जब वह अपने वास्तविक स्वरूप को भूल जाता है,तो उसे कृष्ण के उपदेशों से शिक्षा तथा प्रकाश और बोध प्राप्त होता है। किन्तु कृष्ण विस्मरणशील जीव नहीं है। यदि वे ऐसे होते तो उनके द्वारा दिये गये भगवदगीता के उपदेश व्यर्थ होते। 

आत्मा के दो प्रकार होते हैं -एक तो अणु-आत्मा और दूसरा विभु -आत्मा। कठोपनिषद में (१.२.२० )इसकी पुष्टि इस प्रकार हुई है - 

अणोरणियांमहतो महियानं 

          आत्मास्य जाणतोर्निहितो गुहायाम। 

तमक्रतुः पश्यति  वीतशोको 

           धातुः प्रसादान्महिमानमात्मनः।। 

"परमात्मा  तथा अणु-आत्मा दोनों शरीर रुपी उसी वृक्ष में जीव के ह्रदय में विद्द्मान हैं और इनमे से जो समस्त इच्छाओं तथा शोकों से मुक्त हो चुका है वही भगवत्कृपा से आत्मा की महिमा को समझ सकता है। "कृष्ण परमात्मा के भी उदगम हैं जैसा कि अगले अध्यायों में बताया जायेगा और अर्जुन अणु -आत्मा के समान है जो अपने वास्तविक स्वरूप को भूल गया है। अतः उसे कृष्ण द्वारा या उनके प्रामाणिक प्रतिनिधि गुरु द्वारा प्रबुद्ध किये जाने की आवश्यकता है। 🙏🙏

क्रमशः !!! 

शनिवार, 20 फ़रवरी 2021

BHAGAVAD GITA 2:19

🙏🙏 य एनं वेति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम। 

उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते।।१९।।

यः-जो; एनम -इसको; वेत्ति-जानता है; हन्तारम-मारने वाला; यः -जो; च -भी; एनम-इसे; मन्यते -मानता है; हतम -मरा हुआ; उभौ -दोनों; तौ -वे; न -कभी नहीं; विजानीत-जानते है; न -कभी नहीं; अयम-यह; हन्ति -मारता है; न -नहीं; हन्यते -मारा जाता है। 

जो इस जीवात्मा को मारने वाला समझता है तथा जो इसे मरा हुआ समझता है; वे जो अज्ञानी हैं, क्योंकि आत्मा न तो मारता है और न मारा जाता है। 

तात्पर्य :- जब देहधारी जीव को किसी घातक हथियार से आघात पहुँचाया जाता है तो यह समझ लेना चाहिए कि शरीर के भीतर का जीवात्मा मरा नहीं। आत्मा इतना सूक्ष्म है कि इसे किसी तरह के भौतिक हथियार से मार पाना असम्भव है, जैसा की अगले श्लोकों से स्पष्ट हो जायेगा। न ही जीवात्मा अपने आध्यात्मिक स्वरूप के कारण वध्य है। जिसे मारा जाता है या जिसे मरा हुआ समझा जाता है वह केवल शरीर होता है। किन्तु इसका तात्पर्य शरीर का वध को प्रोत्साहित करना नहीं। वैदिक आदेश है -मा हिंस्यात सर्वा भूतानि -किसी भी जीव की हिंसा न करो। न ही 'जीवात्मा का अवध्य है' का अर्थ यह है कि पशु -हिंसा को प्रोत्साहन दिया जाय। किसी भी जीव के शरीर की अनाधिकार हत्या करना निंद्य है और राज्य तथा भगवदविधान के द्वारा दंडनीय है। किन्तु अर्जुन को तो धर्म के नियमानुसार मारने के लिए नियुक्त किया जा रहा था, किसी पागलपनवश नहीं। 🙏🙏

क्रमशः !!!   

  

शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2021

BHAGAVAD GITA 2:18

अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः 

अनाशिनो प्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत।।१८।।

अन्त-वंत -नाशवान; इमे -ये सब; देहा -भौतिक शरीर; नित्यस्य -नित्य स्वरुप; उक्ताः -कहे जाते हैं; शरीरिणः-देहधारी जीव का; अनाशिनः -कभी नाश न होने वाला;अप्रमेयस्य -न मापा जा सकने योग्य; तस्मात् -अतः; युध्यस्य-युद्ध करो; भारत हे भरतवंशी। 

अविनाशी, अप्रमेय तथा शाश्वत जीव के भौतिक शरीर का अन्त अवस्यम्भावी है। अतः हे भरतवंशी !युद्ध करो। 

तात्पर्य :- भौतिक शरीर स्वभाव से नाशवान है। यह तत्क्षण नष्ट हो सकता है और सौ वर्ष बाद भी। यह केवल समय की बात है। इसे अनन्त काल तक बनाये रखने की कोई सम्भावना नहीं है। किन्तु आत्मा इतना सूक्ष्म है कि इसे शत्रु देख भी नहीं सकता,मारना तो दूर रहा। जैसा कि पिछले श्लोक में कहा गया है,यह इतना सूक्ष्म है कि कोई इसके मापने की बात सोच भी नहीं सकता। अतः दोनों ही दृष्टि से शोक का कोई कारण नहीं है क्योंकि जीव जिस रूप में है, न तो उसे मारा जा सकता है,न ही शरीर को कुछ समय तक या स्थायी रूप से बचाया जा सकता है। पूर्ण आत्मा के सूक्ष्म कण अपने कर्म के अनुसार ही यह शरीर धारण करते हैं,अतः धार्मिक नियमों का पालन करना चाहिए। वेदांत -सूत्र में जीव को प्रकाश बताया गया है क्योंकि वह परम प्रकाश का अंश है। जिस प्रकार सूर्य का प्रकाश  सारे ब्रह्माण्ड का पोषण करता है उसी प्रकार आत्मा के प्रकाश से इस भौतिक देह का पोषण होता है। जैसे ही आत्मा इस भौतिक शरीर से बाहर निकल जाता है,शरीर सड़ने लगता है,अतः आत्मा ही शरीर का पोषक है। शरीर अपने आप में महत्वहीन है। इसलिए अर्जुन को उपदेश दिया गया कि वह युद्ध करे और भौतिक शरीरिक कारणों से धर्म की बलि न  होने दे। 

क्रमशः !!!   

गुरुवार, 18 फ़रवरी 2021

BHAGAVAD GITA 2:17

 अविनाशी तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम। 

विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चितकर्तुमर्हति।।१७।।

अविनाशी -नाशरहित; तु -लेकिन; तत -उसे; विद्धि -जानो; येन -जिससे; सर्वम -सम्पूर्ण,शरीर; इदम -यह; ततम -परिव्याप्त; विनाशम -नाश; अव्ययस्य -अविनाशी का; अस्य -इस; न कश्चित् -कोई भी नहीं; कर्तुम -करने के लिए; अर्हति -समर्थ है। 

जो सारे शरीर में व्याप्त है उसे ही तुम अविनाशी समझो।इस अव्यय आत्मा को नष्ट करने में कोई भी समर्थ  नहीं है। 

तात्पर्य :- इस श्लोक में सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त आत्मा की प्रकृति का अधिक स्पष्ट वर्णन हुआ है। सभी लोग समझते हैं कि जो सारे शरीर में व्याप्त है वह चेतना है। प्रत्येक व्यक्ति को शरीर में किसी अंश या पुरे भाग में सुख दुःख का अनुभव होता है। किन्तु चेतना की यह व्याप्ति किसी शरीर तक ही सीमित रहती है। एक शरीर से सुख या दुःख का बोध दूसरे शरीर को नहीं हो पाता। फलतः प्रत्येक शरीर में व्यष्टि आत्मा है और इस आत्मा की उपस्थिति का लक्षण व्यष्टि चेतना द्वारा परिलक्षित होता है। इस आत्मा बाल के अग्रभाग के दस हजारवें भाग के तुल्य बताया जाता है। श्वेतश्वतर उपनिषद में (५.९ )इसकी पुष्टि हुई है -

बालग्रशतभागस्य  शतधा  कल्पितस्य च। 

भागो  जीवः स विज्ञेय : स  चानन्त्याय  कल्पते।। 

"यदि बाल के अग्रभाग  को एक सौ भागों में बिभाजित किया जाय और फिर इनमे से प्रत्येक भाग को एक सौ भागों में विभाजित किया जाय तो इस तरह के प्रत्येक भाग की माप आत्मा का परिमाप है। इसी प्रकार यही कथन निम्नलिखित श्लोक में मिलता है -

केशारग्रशतभागस्य  शतांशः सादृश्यात्मकः।

जीवः सूक्ष्मस्वरुपोयं  संख्यातीतो  हि  चित्कणः।। 

 "आत्मा के परमाणुओं के अनंत कण हैं जो माप में बाल के अगले भाग (नोक) के दस हजारवें भाग के बराबर है। "

इस प्रकार आत्मा का प्रत्येक कण भौतिक परमाणुओं से भी छोटा है और ऐसे असंख्य कण हैं। यह अत्यंत लघु आत्म -स्फुलिंग भौतिक शरीर का मूल आधार है और इस आत्म स्फुलिंग का प्रभाव सारे शरीर में उसी तरह व्याप्त है जिस प्रकार किसी औषधि का प्रभाव व्याप्त रहता है। आत्मा की यह धारा (विद्धुत धारा)सारे शरीर में चेतना के रूप में अनुभव की जाती है और यही आत्मा का प्रमाण है। सामान्य से सामान्य व्यक्ति भी समझ सकता है कि यह भौतिक शरीर चेतनारहित होने पर मृतक हो जाता है और शरीर में इस चेतना को किसी भी भौतिक उपचार से वापस नहीं लाया जा सकता। अतः यह चेतना भौतिक संयोग के फलस्वरूप नहीं है, अपितु  कारण मुण्डक उपनिषद में (३.१.९ ) सूक्ष्म परमाणविक आत्मा की और अधिक विवेचना हुई है -

एषोणुरात्मा  चेतसा  वेदितव्यो यस्मिन्प्राण पञ्चधा संविवेश। 

प्राणैश्चितं  सर्वमोतं  प्रजानां  यस्मिन  विशुद्धे  विभवत्येष  आत्मा।। 

"आत्मा आकर में अणुतुल्य है जिसे पूर्ण बुद्धि के द्वारा जाना जा सकता है। यह अणु आत्मा पांच प्रकार के प्राणों में तैर रहा है ( प्राण, अपान,व्यान,समान  तथा उदान); यह ह्रदय के भीतर स्थित है और देहधारी जीव के पूरे शरीर में अपने प्रभाव का विस्तार करता है। जब आत्मा को पांच वायुओं के कल्मष से शुद्ध कर लिया जाता है तो इसका आद्यात्मिक प्रभाव प्रकट होता है। "

हठ योग का प्र्योजन विविध आसनो द्वारा उन पांच प्रकार प्राणों को नियंत्रित करना है, जो आत्मा को घेरे हुए हैं। यह योग किसी भौतिक लाभ के लिए नहीं,अपितु भौतिक आकाश के बन्धन से अणु -आत्मा की मुक्ति के लिए किया जाता है। 

इस प्रकार अणु आत्मा को सारे वैदिक साहित्य ने स्वीकारा है और प्रत्येक बुद्धिमान व्यक्ति अपने व्यावहारिक अनुभव से इसका प्रत्यक्ष अनुभव करता है। केवल मुर्ख व्यक्ति ही इस अणु आत्मा को सर्वव्यापी विष्णुतत्व के रूप में सोच सकता है। 

अणु-आत्मा का प्रभाव पुरे शरीर में व्याप्त हो  सकता है। मुण्डक उपनिषद के अनुसार यह अणु -आत्मा प्रत्येक जीव के ह्रदय में स्थित है और चूँकि भौतिक विज्ञानी इस अणु -आत्मा को माप सकने में असमर्थ हैं अतः उनमे से कुछ यह अनुभव करते हैं कि आत्मा है ही नहीं। व्यष्टि आत्मा तो  निस्संदेह परमात्मा के साथ -साथ ह्रदय में है और इसीलिए शारीरिक गतियों की सारी शक्ति शरीर के इसी भाग में उद्भूत है। जो लाल रक्तकण फेफड़ों से ऑक्सीजन ले जाते हैं  वे आत्मा से ही शक्ति  सकते हैं। अतः जब आत्मा इस स्थान से निकल जाता है तो रक्तोपादक संलयन बंद हो जाता है. औषधि विज्ञान लाल रक्तकणों की महत्ता को तो स्वीकार करता है,किन्तु वह यह निश्चित नहीं कर पाता कि शक्ति का स्रोत आत्मा है।  जो भी हो,औषधि विज्ञान यह स्वीकार करता है कि शरीर की सारी शक्ति का उद्गमस्थल ह्रदय है। 

पूर्ण आत्मा के ऐसे अणुकणों की तुलना सूर्य-प्रकाश के कणों से की  जाती है। इस सूर्य -प्रकाश में असंख्य तेजोमय अणु होते हैं। इसी प्रकार परमेश्वर के अंश उनकी किरणों के परमाणु स्फुल्लिंग है और प्रभा या पराशक्ति कहलाते हैं। अतः चाहे कोई वैदिक ज्ञान का अनुगामी हो या आधुनिक विज्ञान का,वह शरीर में आत्मा के अस्तित्व को नकार नहीं सकता। भगवान् ने स्वयं भगवदगीता में आत्मा से इस विज्ञान का विशद वर्णन किया है। 

क्रमशः !!!