बुधवार, 27 जनवरी 2021

BHAGAVAD GITA-1:41

सङ्करो नरकायैव कुलघ्नानां कुलस्य च। 

पतन्ति पितरों ह्येषां लुप्तपिण्डोदकक्रियाः।।४१।।  

सङ्कर:-ऐसे अवांछित बच्चे; नरकाय:-नारकीय जीवन के लिए; एव :-निस्चय ही; कुलघ्नानाम:-कुल का वध करने वालों के; कुलस्य:-कुल के; च:-भी; पतन्ति:-गिर जाते हैं; पितरः -पितृगण; हि :-निश्चय ही; एषाम:-इनके; लुप्त :-समाप्त; पिण्ड:-पिंड अर्पण की; उदक:-तथा जल की; क्रियाः -क्रिया,कृत्य। 

अवांछित संतानों की वृद्धि से निश्चय ही परिवार के लिए तथा पारिवारिक परम्परा को विनष्ट करने वालों के लिए नारकीय जीवन उत्पन्न होता है। ऐसे पतित कुलों के पुरखे ( पितर लोग )गिर  जाते हैं क्योंकिउन्हें जल तथा पिण्ड दान देने की क्रियाऐं समाप्त हो जाती हैं।

अर्थात :-सकाम कर्म के विधीविधानों के अनुसार कुल के पितरों को समय -समय पर जल तथा पिंड दान दिया जाना चाहिए। यह दान विष्णु पूजा द्वारा किया जाता है क्योंकि विष्णु को अर्पित भोजन के उच्छिस्ट भाग ( प्रसाद )के खाने से सारे पापकर्मों से उद्धार हो जाता है। कभी-कभी पितरगण विविध प्रकार के पापकर्मों से ग्रस्त हो सकते हैं और कभी -कभी उनमे से कुछ को स्थूल शरीर प्राप्त न हो सकने के कारण उन्हें प्रेतों के रूप में सूक्ष्म शरीर धारण करने के लिए बाध्य होना पड़ता है। अतः जब वंशजों द्वारा पितरों को बचा प्रसाद अर्पित किया जाता है तो उनका प्रेतयोनि या अन्य प्रकार के दुखमय जीवन से उद्धार होता है। पितरों को इस तरह की सहायता पहुँचाना कुल परम्परा है और जो लोग भक्ति का जीवन यापन नहीं करते उन्हें ये अनुष्ठान करने होते हैं। केवल भक्ति करने से मनुष्य सैकड़ों क्या हजारों पितरों को ऐसे संकटों से उबार सकता है। 

देवर्षि भूताप्तनृणाम  पितृणां 

                न किंकरो नायमृणी  च राजन। 

सर्वात्मना  य: शरणं  शरण्यं 

                   गतो मुकंदं  परिहत्य कर्तम।। (भागवत ११.५.४१ )

"जो पुरुष अन्य समस्त कर्तव्यों को त्याग कर मुक्ति के दाता मुकुंद के चरण कमलों की शरण ग्रहण करता है और इस पथ पर गंभीरता पूर्वक चलता है वह देवताओं,मुनियों,सामान्य जीवों,स्वजनों,मनुष्यों या पितरों के प्रति अपने कर्तव्य या ऋण से मुक्त हो जाता है। "श्री भगवान् की सेवा करने से ऐसे दायित्व अपने आप दूर हो जाते हैं। 

क्रमशः !!! 

मंगलवार, 26 जनवरी 2021

BHAGVAD GITA-1:40

अधर्माभिभत्कृष्ण प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रिय।



स्त्रीषु दुष्टासु वार्ष्णेय जायते वर्णशंकरः 

अधर्म :-अधर्म; अभिभवात:-प्रमुख होने से; कृष्ण:-हे कृष्ण; प्रदुष्यन्ति:-दूषित हो जाती है; कुल-स्त्रिय:-कुल की स्त्रियां; स्त्रीषु :-स्त्रीत्व के; दुष्टासु:-दूषित होने से; वार्ष्णेय:-हे वृष्णिवंशी:-जायते:-उत्त्पन्न होती है; वर्णशंकर:-अवांछित संतान। 

हे कृष्ण ! जब कुल में अधर्म प्रमुख हो जाता है तो कुल की स्त्रियां दूषित हो जाती हैं और स्त्रीत्व के पतन से हे वृष्णिवंशी ! अवांछित संताने उत्पन्न होती है। 

अर्थात :-   जीवन में शांति,सुख तथा आध्यत्मिक उन्नति का मुख्य सिद्धांत मानव समाज में अच्छी संतान का होना है। वर्णाश्रम धर्म के नियम इस प्रकार बनाये गये थे कि राज्य तथा जाति की आध्यात्मिक उन्नति के लिए समाज में अच्छी संतान उत्पन्न हो। ऐसी संतान समाज में स्त्री के सतीत्व और उसकी निष्ठा पर निर्भर करती है। जिस प्रकार बालक सरलता से कुमार्गगामी बन जाते हैं उसी प्रकार स्त्रियां भी पतोन्मुखी हो जाती हैं। अतः बालकों  तथा स्त्रियों दोनों को ही समाज के वयोवृद्धों का संरक्षण आवश्यक है। स्त्रियां विभिन्न धार्मिक प्रथाओं में संलग्न रहने पर व्यभिचारिणी नहीं होंगी। 

चाणक्य पंडित के अनुसार सामान्यतया स्त्रियां अधिक बुद्धिमान नहीं होती अतः वे विश्वसनीय नहीं हैं। इसलिए उन्हें विवध कुल परम्पराओं में व्यस्त रहना चाहिए और इस तरह उनके सतीत्व तथा अनुरक्ति से ऐसी संताने जन्मेंगी जो वर्णाश्रम धर्म में भाग लेने योग्य होगी। ऐसे वर्णाश्रम धर्म के विनाश से यह स्ववाभिक है कि स्त्रियां स्वतंत्रतापूर्वक पुरुषों से मिल सकेंगी और व्यभिचार को प्रश्रय मिलेगा जिससे अवांछित संताने उत्पन्न होंगी। निठल्ले लोग भी समाज में व्यभिचार को प्रेरित करते हैं और इस तरह अवांछित बच्चों की बाढ़ आ जाती है जिससे मानव जाति पर युद्ध और महामारी का संकट छा जाता है।  

क्रमशः !!!


 


सोमवार, 25 जनवरी 2021

BHAGVAD GITA- 1:39

🙏 कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्माः सनातनाः । 

धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्नमधर्मो भिभवत्युत।।३९।।🙏

कुल-क्षये:-कुल  होने पर; प्रणश्यन्ति :-विनष्ट हो जाती है; कुल -धर्मा :-पारिवारिक परम्पराएं; सनातनाः-शाश्वत; धर्मे :-धर्म; नष्टे :-नष्ट होने पर; कुलम:-कुल को; कृत्स्नम:-सम्पूर्ण; अधर्मः-अधर्म; अभिभवति:-बदल देता है; उत :-कहा जाता है। 

कुल का नाश होने पर सनातन कुल-परम्परा नष्ट हो जाती है  तरह शेष कुल भी अधर्म में प्रवृत हो जाता है। 

अर्थात :-वर्णाश्रम व्यवस्था में धार्मिक परम्पराओं के अनेक नियम हैं जिनकी सहायता से परिवार के सदस्य ठीक से उन्नति करके आध्यात्मिक मूल्यों की उपलब्धि कर सकते हैं। परिवार में जन्म  लेकर मृत्यु तक के सारे संस्कारों के लिए वयोवृद्ध लोग उत्तरदायी होते हैं। किन्तु इन वयोवृद्धों की मृत्यु के पश्चात संस्कार सम्बन्धी पारिवारिक परम्पराएं रुक जाती हैं,और परिवार के जो तरुण सदस्य बचे रहते हैं वे अधर्ममय व्यसनों में प्रवृत से मुक्ति-लाभ से वंचित रह सकते हैं। अतः किसी भी कारणवश परिवार के वयोवृद्धों का वध नहीं होना चिहिए। 

क्रमशः !!!  

 

रविवार, 24 जनवरी 2021

BHAGVAD GITA 1:37

 यद्द्प्येते न पश्यन्ति लोभोपहचेतसः।

कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोही च पातकम।।३७।।

कथं न ज्ञेयमस्माभिः पापादस्मान्निवर्तितुं। 

कुलक्षयकृत दोषं प्रपश्यद्भिर्जनार्दन।।३८।। 

यदि :-यदि; अपि:-भी; एते:-ये; न:-नहीं; पश्यन्ति:-देखते हैं; लोभ :-लोभ से; अपहत :-अभिभूत; चेतसः :-चित वाले; कुल-क्षय:-कुल -नाश; कृतम:-किया हुआ; दोषम :-दोष को; मित्र द्रोहे:-मित्रों से विरोध करने में; च :-भी; पातकम:-पाप को;कथम:- क्यों; न:-नहीं; ज्ञेयम:-जानना चाहिए; अस्माभिः :- हमारे द्वारा; पापत :- पापों से; अस्मात:- इन; निवर्तितुम:-बंद करने के लिए; कुल-क्षय:-वंश का नाश; कृतम:-हो जाने पर; दोषम:- अपराध; प्रपश्यद्भि :-देखने वालों के द्वारा; जनार्दन :- हे कृष्ण !

हे जनार्दन ! यद्द्पि लोभ से अभिभूत चित्त वाले लोग अपने परिवार को मारने या अपने मित्रों से द्रोह करने में कोई दोष नहीं देखते,किन्तु हम लोग,जो परिवार के विनष्ट करने में अपराध देख सकते हैं,ऐसे पापकर्मो में क्यों प्रवृत्त हों ?

अर्थात:- क्षत्रिय से यह आशा नहीं की जाती कि वह अपने विपक्षी दल द्वारा युद्ध करने या जुआ खेलने का आमंत्रण दिए जाने पर मना  करे। ऐसी अनिवार्यता में अर्जुन लड़ने से नकार नहीं सकता क्योंकि उसको दुर्योधन के दल ने ललकारा था। इस प्रसंग में अर्जुन ने विचार किया कि हो सकता है कि दूसरा पक्ष इस ललकार के परिणामो के प्रति अनभिज्ञ हों। किन्तु अर्जुन को दुष्परिणाम दिखाई पड़ रहे थे अतः वह इस ललकार को स्वीकार नहीं कर सकता। यदि परिणाम अच्छा हो तो कर्तव्य वस्तुतः पालनीय है, किन्तु यदि परिणाम विपरीत हो तो हम उसके लिए बाध्य नहीं होते। इन पक्ष- विपक्षों पर विचार करके अर्जुन ने युद्ध न करने का निश्चय किया। 

क्रमशः !!!

  


शनिवार, 23 जनवरी 2021

BHAGVAD GITA 1:36

 पापमेवाश्रयेदस्मान्हत्वैतानाततायिनः। 

तस्मान्नाहा वयम हन्तु धार्तराष्ट्रान्सबान्धवान। 

स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव।।३६।।  

पापम :-पाप;  एव:-निस्चय ही; आश्रयेत:-लगेगा; आस्मान:हमको; हत्वा:-मारकर; एतान:-इन सब;आततायिनः-आततायियों को; तस्मात्:-अतः; न:-कभी नहीं; अर्हा:-योग्य; वयम  :-हम; हन्तुम:-मारने लिए; धार्तराष्ट्रान:-धृतरास्ट्र के पुत्रों को; सबान्धवान:-उनके मित्रों सहित; स्वजनम:-कुटुम्बियों को; हि :-निश्चय ही; कथम:- कैसे; हत्वा:-मारकर; सुखिनः-सुखी; स्याम:-हम होंगे; माधवः -हे लक्ष्मीपति कृष्ण। 

यदि हम ऐसे आततायियों का वध करते हैं तो हम पर पाप चढ़ेगा, अतःयह उचित नहीं होगा कि हम धृतरास्ट्र के पुत्रों तथा उनके मित्रों का वध करें। हे लक्ष्मीपति कृष्ण ! इससे हमें क्या लाभ होगा ? और अपने ही कुटम्बियों को मार कर हम किस प्रकार सुखी हो सकते हैं ?

अर्थात :-वैदिक आदेशानुसार आततायी छः प्रकार के होते हैं -१. विष देने वाला, २. घर में अग्नि लगाने वाला, ३. घातक हथियार से आक्रमण करने वाला, ४. धन लूटने वाला, ५. दूसरे की भूमि हड़पने वाला,तथा ६. पराई स्त्री का अपहरण करने वाला। ऐसे आततायियों का तुरंत वध कर देना चाहिए क्योंकि इनके वध से कोई पाप नहीं लगता। आततायियों का इस तरह वध करना किसी सामान्य व्यक्ति को शोभा दे सकता है,किन्तु अर्जुन कोई सामान्य व्यक्ति नहीं है। वह स्वाभाव से साधु है अतः वह उनके साथ साधुवत व्यवहार करना चाहता था। किन्तु इस प्रकार का व्यवहार क्षत्रिय के लिए उपयुक्त नहीं है। यद्द्पि राज्य के प्रशासन के लिए उत्तरदायी व्यक्ति को साधु की प्रकृति का होना चाहिये, किन्तु उसे कायर नहीं होना चाहिए। उदाहरणार्थ ,भगवान् राम इतने साधु थे कि आज भी लोग रामराज्य में रहना चाहते हैं,किन्तु उन्होंने कभी कायरता प्रदर्शित नहीं की। रावण आततायी तह क्योंकि वह राम की पत्नी सीता का अपहरण करके ले गया था,किन्तु राम ने उसे ऐसा पाठ पढ़ाया कि जो विश्व -इतिहास में बेजोड़ है। अर्जुन के प्रसंग में विशिष्ट प्रकार के आततायियों से भेंट होती है -ये हैं उसके निजी पितामह,आचार्य, मित्र, पुत्र,पौत्र इत्यादि। इसलिए अर्जुन ने विचार किया कि उनके प्रति वह सामान्य आततायियों जैसा कटु व्यवहार न करे। इसके अतिरिक्त, साधु पुरुषों को तो क्षमा करने की सलाह दी जाती है। साधु पुरुषों के लिए ऐसे आदेश किसी राजनैतिक आपातकाल से अधिक महत्व रखते हैं। इसलिए अर्जुन ने विचार किया कि राजनितिक कारणों से स्वजनों का वध करने की अपेक्षा धर्म तथा सदाचार की दृष्टि से उन्हें क्षमा कर देना श्रेयकर होगा। अतः क्षणिक शारीरिक सुख के लिए इस तरह वध करना लाभप्रद नहीं होगा। अन्ततः जब सारा राज्य तथा उससे प्राप्त सुख स्थाई नहीं है तो फिर अपने स्वजनों को मारकर वह अपने ही जीवन तथा शास्वत मुक्ति को संकट में क्यों डाले? अर्जुन द्वारा कृष्ण को "माधव"अथवा "लक्ष्मीपति" के रूप में सम्बोधित करना भी सार्थक है। वह लक्ष्मीपति कृष्ण को यह बताना चाह रहा था वे  कि उसे ऐसा काम करने के लिए प्रेरित न करें, जिससे अनिष्ट हो। किन्तु कृष्ण कभी भी किसी का अनिष्ट नहीं चाहते, भक्तों का तो कदापि नहीं। 

क्रमशः !!!💓💔💗❤   

      

    

शुक्रवार, 22 जनवरी 2021

BHAGVAD GITA 1:32

 कि नो राज्येन गोविन्द कि भोगैर्जीवितेन वा। 

येषामर्थे काङ्क्षितम नो राज्यम भोगाः सुखानी च।।३२।।

त इमेवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च। 

आचार्यः पितरः पुत्रास्तथैव च पितामहाः।।३३।। 

मातुला: श्वसुराः पौत्राः श्यालाः सम्बन्धिनस्तथा।

एतान्न हन्तुमिच्छामि घ्रतोपि मधुसूदन।। ३४।।  

अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोः किं नु महीकृते। 

निहत्य धार्तराष्ट्रान्नः का प्रीतिः स्यात्तजनार्दनः।।३५।।

किम: -क्या लाभ;  न:-हमको; राज्येन: -राज्य से; गोविन्द: -हे कृष्ण; किम: -क्या; भोगै: -भोग से; जीवितेन:- जीवित रहने से; वा :-अथवा; येषां :- जिनके; अर्थे :- लिए; काङ्क्षितम:-इच्छित है; नः -हमारे द्वारा; राज्यम:-राज्य; भोगाः :-भौतिक भोग; सुखानी -समस्त सुख; 
च :-भी; ते :-वे ;  इमे :-ये; अवस्थिता: -स्थित; युद्धे :-युद्ध भूमि में; प्राणान:-जीवन को ; त्यक्त्वा:-त्याग कर; धनानि:-धन को; च:-भी; आचार्याः- गुरुजन; पितरः पितृगण; पुत्राः :-पुत्रगण ; तथा :-और; एव:-निश्चय ही; च:- भी; पितामहाः -पितामह; मातुलाः -मामा लोग; 
श्वसुराः-श्वसुर; पौत्राः-पौत्र; श्यालाः-साले; संबन्धिनः- सम्बन्धी; तथा एतान :-ये सब; न:-कभी नहीं; हन्तुम :-मारना; इच्छामि:-चाहता हूँ;  घृत:मारे जाने पर; अपि:-भी; मधुसूदन:-हे मधु असुर के मारने वाले कृष्ण;अपि:-तो भी; त्रैलोक्य :-तीनों लोकों के;राज्यस्य:- राज्य के; हेतोः- विनिमय में; किम नु:-क्या कहा जाय; महीकृते:-पृथ्वी केलिए;निहत्य:-मारकर; धार्तराष्ट्रान :-धृतरास्ट्र के पुत्रों को; नः-हमारी; का :-क्या; प्रीति:-प्रसन्नता; स्यात :-होगी; जनार्दन :-हे जीवों के पालक। 

हे गोविन्द ! हमें राज्य,सुख अथवा इस जीवन से क्या लाभ ! क्योंकि  जिन सारे लोगों के लिए हम उन्हें चाहते हैं वे ही इस युद्ध भूमि में खड़े हैं।  

हे मधुसूदन !जब गुरुजन,पितृगण,पुत्रगण,पितामह,मामा,ससुर,पौत्रगण,साले तथा अन्य सारे सम्बन्धी अपना -अपना धन एवं प्राण देने के लिए तत्पर हैं और मेरे सक्षम खड़े हैं तो फिर मैं इन सबको क्यों मारना चाहूंगा,भले ही वे मुझे क्यों न मार डालें ? हे जीवों के पालक ! मैं इन सबों से लड़ने को तैयार नहीं, भले ही बदले में मुझे तीनों लोक क्यों न मिलते हों,इस पृथ्वी की तो बात छोड़ दें। भला ध्रतराष्ट्र के पुत्रों को मारकर हमें कौन सी प्रसन्नता मिलेगी ?

अर्थात :-

अर्जुन ने भगवान् कृष्ण को गोविन्द कह कर सम्बोधित किया क्योंकि वे गौओं तथा इन्द्रयों के समस्त प्रसन्नता के विषय हैं। इस विशिष्ट शब्द का प्रयोग करके अर्जुन संकेत करता है कि कृष्ण यह समझें कि अर्जुन की इन्द्रयाँ कैसे तृप्त होंगी। किन्तु गोविन्द हमारी इन्द्रयों को तुष्ट करने के लिए नहीं हैं। हाँ यदि हम गोविन्द की इन्द्रयों को तुष्ट करने का प्रयास करते हैं तो हमारी इन्द्रियां स्वतः तुष्ट होती हैं। भौतिक दृष्टि से प्रत्येक व्यक्ति अपनी इन्द्रयों को तुष्ट करना चाहता है और चाहता है की ईश्वर उसके आज्ञापालक की तरह काम करे। किन्तु ईश्वर उनकी तृप्ति वहीँ तक करते हैं जितने के वे पात्र होते हैं -उस हद तक नहीं जितना वे कहते हैं। किन्तु जब कोई इसके विपरीत मार्ग ग्रहण करता है अर्थात जब वह अपनी इन्द्रियों की तृप्ति की चिंता न करके गोविन्द की इद्रियों की तुष्टि करने का प्रयास करता है तो गोविन्द की कृपा से जीव की सारी  इच्छाएं पूर्ण हो जाती हैं। यहाँ पर जाती तथा कुटुम्बियों के प्रति अर्जुन का प्रगाढ़ स्नेह आंशिक रूप से इन सबके प्रति उसकी स्वाभाविक करुणा के कारण हैं। अतः वह युद्ध करने के लिए तैयार नहीं है। 

हर व्यक्ति अपने बैभव का प्रदर्शन अपने मित्रों तथा परिजनों के समक्ष करना चाहता है,किन्तु अर्जुन को भय है कि उसके सारे मित्र तथा परिजन युद्धभूमि में मारे जायेंगे  और वह विजय के पश्चात उनके साथ अपने बैभव का उपयोग नहीं कर सकेगा। भौतिक जीवन का यह सामान्य लेखा जोखा है। किन्तु  आध्यात्मिक जीवन इससे सर्वदा भिन्न होता है। चूंकि भक्त भगवान् की इच्छाओं की पूर्ति करना चाहता है अतः भगवद इच्छा होने पर वह भगवान् की सेवा के लिए ऐश्वर्य स्वीकार कर सकता है, किन्तु यदि भगवद इच्छा न हो तो वह एक पैसा भी ग्रहण नहीं कर सकता अर्जुन अपने सम्बन्धियों को मारना नहीं चाह रहा था और यदि उनको  मारने की  आवश्यकता हो तो अर्जुन की इच्छा थी की कृष्ण स्वयं उनका वध करे। इस समय उसे यह पता नहीं है की कृष्ण उन सबों को युद्धभूमि में आने से पूर्व ही मार चुके हैं और उसे निमित मात्र बनना है। इसका विवरण अगले अध्यायों में होगा। .भगवान् का असली भक्त होने के कारण अर्जुन अपने अत्याचारी बंधु-बांधवों से प्रतिशोध नहीं लेना चाहते, किन्तु भगवान् दुष्टों द्वारा भक्त के उत्पीड़न को सहन नहीं कर पाते। भगवान् किसी व्यक्ति को अपनी इच्छा से क्षमा कर सकते हैं, किन्तु यदि कोई उनके भक्तों को हानि पहुंचाता है तो वे उसे क्षमा नहीं कर सकते। इसलिए भगवान् इन दुराचारियों को वध करने के लिए उद्धत थे यद्धपि अर्जुन उन्हें क्षमा करना चाहता था। 

क्रमशः !!!!     🙏🙏🙏                                                       

  

गुरुवार, 21 जनवरी 2021

BHAGVAD GITA 1:31

 न च श्रेयोनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे। 

न काङ्गे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानी च।। ३१।।

🙏🙏

न :-न तो; च -भी; श्रेय:-कल्याण; अनुपश्यामि :-पहले से देख रहा हूँ; हत्वा :-मार कर; स्वजनम:-अपने सम्बन्धियों को; आहवे:-युद्ध में ; न :-न तो; काङ्गे :-आकांक्षा करता हूँ; विजयम:-विजय;कृष्ण :-हे कृष्ण; न :-न तो; च :-भी; राज्यम :-राज्य; सुखानी :-उसका सुख; च :- भी। 

हे कृष्ण ! इस युद्ध में अपने ही स्वजनों का वध करने से न तो मुझे कोई अच्छाई दिखती है और न,मैं उससे किसी प्रकार की विजय,राज्य या सुख की इच्छा रखता हूँ।

अर्थात :- यह जाने बिना कि मनुष्य का स्वार्थ विष्णु या कृष्ण में है, सारे बद्धजीव शारीरिक सम्बन्धों के प्रति यह सोचकर आकर्षित होते हैं की वे ऐसी परिस्थितियों में प्रसन्न होंगे। ऐसी देहात्मबुद्धि के कारण वे भौतिक सुख के कारणों को भी भूल जाते हैं। अर्जुन तो क्षत्रिय का नैतिक धर्म भी भूल गया था। कहा जाता है कि दो प्रकार के मनुष्य परम शक्तिशाली तथा जाज्वल्यमान सूर्यमण्डल में प्रवेश करने के योग्य होते हैं। ये हैं -एक तो क्षत्रिय जो कृष्ण की आज्ञा से युद्ध में मरता है तथा दूसरा सन्यासी जो आध्यात्मिक अनुशीलन में लगा रहता है। अर्जुन अपने शत्रुओं को भी मारने से विमुख हो रहा है,अपने सम्बन्धियों  की तो बात छोड़ दें। वह सोचता है कि स्वजनों को मारने से उसे जीवन में सुख नहीं मिल सकेगा। अतः वह लड़ने के लिए इच्छुक नहीं है,जिस प्रकार की भूख न लगने पर कोई भोजन बनाने को तैयार नहीं होता। उसने तो वन जाने का निश्चय लिया है,जहाँ वह एकांत में निराशपूर्ण जीवन काट सके। किन्तु क्षत्रिय होने के नाते उसे अपने जीवन निर्वाह के लिए राज्य चाहिए क्योंकि क्षत्रिय कोई अन्य कार्य नहीं कर सकता। किन्तु अर्जुन के पास राज्य कहाँ है ? उसके लिए तो राज्य प्राप्त करने का एकमात्र अवसर है के अपने बंधु-बांधवों से लड़कर अपने पिता के राज्य का उत्तराधिकार प्राप्त करे, जिसे वह करना नहीं चाह रहा है। इसलिए वह अपने को जंगल में एकांतवास करके निराशा का एकांत जीवन बिताने योग्य समझता है। 

क्रमशः !!!