गुरुवार, 14 जनवरी 2021

BHAGVAd GITA

योत्स्यमानानवेक्षेहं य एतेत्र समागताः। 

धार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धेर्युद्धे प्रियचिकीर्षवः।।२३।। 

योत्स्यमानान -युद्ध करने वालों को; अवेक्षे - देखूं; अहम् - मैं; ये -जो; एते -वे;अत्र -यहाँ,समागताः- एकत्र; धार्तराष्टस्य -धृतराष्ट्र के पुत्र की;दुर्बुद्धे-दुर्बुद्धि; युद्धे:-युद्ध में, प्रिय-मंगल, भला; चिकीर्षवः -चाहने वाले। 

मुझे उन लोगों को देखने दीजिये,जो यहाँ पर धृतराष्ट्र के दुर्बुद्धि पुत्र (दुर्योधन) को  प्रसन्न करने की इच्छा से लड़ने के लिए आये  हुए हैं। 

अर्थात :-यह सर्वविदित था कि दुर्योधन अपने पिता धृतराष्ट्र की सांठ गाँठ से पापपूर्ण योजनाए बनाकर पांडवों के राज्य को हड़पना चाहता था। अतः जिन समस्त लोगों ने दुर्योधन का पक्ष ग्रहण किया था वे उसी के सामानधर्मा रहे होंगें। अर्जुन युद्ध प्रारम्भ होने के पूर्व यह तो जान लेना चाहता था कि कौन -कौन से लोग आये हुए हैं। किन्तु उन के समक्ष समझौता का प्रस्ताव रखने की उसकी कोई योजना नहीं थी। यह भी तथ्य था कि वह उनकी शक्ति का, जिसका उसे सामना करना था,अनुमान लगाने की दृष्टि से उन्हें देखना चाह रहा था,यद्द्पि उसे अपनी विजय का विश्वास था क्योंकि कृष्ण उसकी बगल में विराजमान थे। 

क्रमशः-!!!!!  

 



बुधवार, 13 जनवरी 2021

BHAGVAD GITA

 अर्जुन उवाच 

सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेच्युत। 

यावदेत्तातृक्षेहं योद्धुकामानवस्थितान।। २१।। 

कैर्मया योद्धव्यमस्मिन्रणसमुद्द्मे।।२२।। 

अर्जुनः उवाच-अर्जुन ने कहा; सेनयो -सेनाओं के; उभयो:-दोनों; मध्ये-बीच में; रथम-रथ को स्थापय -कृपया खड़ा करें; में -मेरे; अच्युत -हे अच्युत; यावत् - जब तक; एतान-इन सब;निरीक्षे- देख सकूँ; अहम्-मैं; योद्धु कामान-युद्ध की इच्छा रखने वालों को; अवस्थितान -युद्धभूमि में एकत्र; कैः -किन -किन से; मया -मेरे द्वारा; सह-एक साथ;योद्धव्यम-युद्ध किया जाना है; अस्मिन- इस; रण-संघर्ष के; समुद्द्मे -उद्द्म या प्रयास में। 

अर्जुन ने कहा- अच्युत ! कृपा करके  मेरा रथ दोनों सेनाओं के बीच ले चलें जिससे मैं यहाँ उपस्थित युद्ध की अभिलाषा रखने वालों को और शस्त्रों की इस महान परीक्षा में, जिनसे मुझे संघर्ष करना है, उन्हें देख सकूँ। 

अर्थात -यद्यपि श्रीकृष्ण साक्षात श्री भगवान् हैं, किन्तु वे अहैतुकी कृपावश अपने मित्र की सेवा में लगे हुए थे। वे अपने  भक्तों पर स्नेह दिखाने में कभी नहीं चूकते इसलिए अर्जुन ने उन्हें अच्युत कहा है। सारथी रूप में उन्हें अर्जुन  आज्ञा का पालन करना था और उन्होंने इसमें कोई संकोच नहीं किया, अतः उन्हें अच्युत कह कर सम्भोदित किया गया है।  यद्द्पि उन्होंने अपने भक्त का सारथी पद स्वीकार किया था,किन्तु उनकी परम स्थिति अक्षुण बनी रही प्रत्येक परिस्थिति में वे इन्द्रयों के  स्वामी श्री भगवान हृषिकेश हैं। भगवान् तथा  उनके सेवक का सम्बन्ध अत्यंत मधुर एवं दिव्य होता है। सेवक स्वामी की सेवा करने के लिए सदैव उद्द्त रहता है और  भगवान् भी भक्त की कुछ न कुछ सेवा करने की कोशिस में लगे  रहते हैं। वे इसमें विशेष आनंद का अनुभव करते हैं कि वे स्वयं आज्ञादाता बने अपितु उनके शुद्ध भक्त उन्हें आज्ञा दें। चूँकि वे स्वामी हैं,अतः सभी लोग उनके आज्ञापालक हैं और उनके ऊपर उनको आज्ञा देने वाला कोई नहीं है। किन्तु जब वे देखते हैं कि उनका शुद्ध भक्त आज्ञा दे रहा है उन्हें दिव्य आनंद मिलता है यद्द्पि वे समस्त परिस्थितियों में  अच्युत रहने वाले हैं। 

 भगवान् का शुद्ध भक्त होने के कारण  अर्जुन को  बन्धु  -बान्धवों से युद्ध करने की तनिक भी इच्छा न थी,किन्तु दुर्योधन  के द्वारा शांतिपूर्ण समझौता न करके हठधर्मिता पर उतारू होने के कारण उसे युद्धभूमि में आना पड़ा। अतः वह यह जानने के लिए अत्यंत उत्सुक था की युद्धभूमि में कौन -कौन से अग्रणी व्यक्ति उपस्थित हैं। यद्द्पि युद्धभूमि में शांति-प्रयासों  का कोईं प्रश्न नहीं उठता तो भी वह उन्हें फिर से  देखना चाह रहा था कि वे इस अवांछित  युद्ध पर किस हद तक तुले हुए हैं।

क्रमशः !!!           


मंगलवार, 12 जनवरी 2021

BHAGVAD GITA

अथ व्यवस्थितान्दृष्टा धार्तराष्ट्रान्कपिध्वजः। 

         प्रविर्ते शस्त्रसम्पाते धनुर्द्धधम्म पाण्डवः। 

हृषीकेशं तदा वाक्यमिदमाह महीपते।।  २०।। 

अथ :-तत्पश्चात; व्यवस्थितांन -स्थित;  दिर्ष्टा-देखकर; धार्तराष्ट्रान -धृतराष्ट्र  के पुत्रों को; कपि ध्वजः-जिसकी पताका पर हनुमान अंकित हैं; प्रविर्ते -कटिबद्ध; शस्त्र सम्पाते -बाण चलाने के लिए; धनुः-धनुष; उद्यम्य-ग्रहण करके,उठाकर; पाण्डवः -पाण्डुपुत्र अर्जुन ने; हृषीकेशं भगवान् कृष्ण से; तदा -उस समय; वाक्यम-वचन; इदम -ये ; आह -कहे; महीपते -हे राजा। 

उस समय हनुमान से अंकित ध्वजा लगे रथ पर आसीन पाण्डुपुत्र अर्जुन अपना धनुष उठाकर तीर चलाने के लिए उद्यत हुआ। हे राजन !धृतरास्ट्र  के पुत्रों को व्यूह में खड़ा देखकर अर्जुन ने श्रीकृष्ण  ये वचन कहे। 

अर्थात :-युद्ध प्रारम्भ होने ही वाला था। उपर्युक्त कथन से ज्ञांत होता है कि पांडवों की सेना की अप्रत्याशित व्यवस्था से धृतरास्ट्र  के पुत्र बहुत कुछ निरुत्साहित थे क्योंकि युद्ध भूमि में पांडवो का निर्देशन भगवान् कृष्ण के आदेशानुसार हो रहा था। अर्जुन की ध्वजा पर हनुमान का चिन्ह भी विजय का सूचक है क्योंकि हनुमान ने राम रावण युद्ध  में राम की सहायता की थी जिससे राम विजयी हुए थे। इस समय अर्जुन की सहायता के लिए उनके रथ पर राम तथा हनुमान दोनों उपस्थित थे। भगवान् कृष्ण साक्षात राम है और जहाँ भी राम रहते हैं  वहां उनका नित्य सेवक  होता है तथा उनकी नित्यसंगनी,वैभव की देवी सीता उपस्थित रहती हैं। 

अतः अर्जुन  के लिए किसी भी शत्रु से भय का कोई कारण  नहीं था। इससे भी अधिक इन्द्रियों के स्वामी  भगवान् कृष्ण निर्देश  देने के लिए साक्षात उपस्थित थे। इस प्रकार अर्जुन को युद्ध करने  के मामले में सारा सत्यपरामर्श प्राप्त था। ऐसी स्थितियों में,जिनकी व्यवस्था भगवान् ने अपने शाश्वत भक्त के लिए की थी, निश्चित ही विजय के लक्षण स्पष्ट थे।  

क्रमशः !!!!

सोमवार, 11 जनवरी 2021

BHAGVAD GITA

 सः घोषो धार्तराष्ट्राणां हृदयानि व्यदारयत। 

नभश्च पृथिवीं चैव तुमुलोभ्यनुनादायन।। १९।। 

सः -उस; घोष -शब्द ने; धार्तराष्ट्राणां:-ध्रतराष्ट्र के पुत्रों के; हृदयानि :-ह्रदय को  व्यदारयत:-विदीर्ण कर दिया; नभः -आकाश; च-भी; पृथ्वीम- पृथ्वी तल को; च -भी; एव -निश्चय ही; तुमुल -कोलाहलपूर्ण; अभ्यनु-नादायन :-प्रतिध्वनित करता। 

इन विभिन्न शंखों की ध्वनि कोलाहलपूर्ण बन गई जो आकाश तथा पृथ्वी को शब्दायमान करती हुई धृतराष्ट्र के पुत्रों के ह्रदयों को विदीर्ण करने लगी। 

अर्थात :-जब भीष्म तथा दुर्योधन के पक्ष के अन्य वीरों ने अपने -अपने शंख बजाये तो पांडवों के ह्रदय विदीर्ण नहीं हुए। ऐसी घटनाओं का वर्णननहीं मिलता, किन्तु इस विशिस्ट श्लोक में कहा कि पांडव पक्ष के शंखनाद से धृतराष्ट्र के पुत्रों के ह्रदय विदीर्ण हो गये। इसका कारण स्वयं पांडव और भगवान् कृष्ण में उनका विश्वास है। परमेस्वर की शरण ग्रहण करने वाले को किसी प्रकार का भय नहीं रह जाता,चाहे वह कितनी ही बिपत्ति में क्यों न हो। 

क्रमशः !!!!

रविवार, 10 जनवरी 2021

BHAGVAD GITA

 अनन्तविजयं राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः। 

नकुलः सहदेवश्च सुघोषमणिपुष्पकौ।। १६।। 

काश्यश्च परमेष्वासः शिखंडी च महारथः। 

धृष्टधुम्नो विराटश्च सात्यकिश्चापराजितः।। १७।। 

द्रुपदो द्रौपदेयाश्च सर्वशः पृथ्वीपते। 

सौभद्रश्च महाबाहुः शङ्खान्दध्मुः पृथक्पृथक।।१८।। 

अनन्तविजयं -अनंतविजय नाम का शंख ; कुन्तीपुत्रो -कुंती के पुत्र; युधिष्ठिरः युधिष्ठिर नकुलः -नकुल; सहदेवः-सहदेव ने; च -तथा; सुघोषमणिपुष्पकः -सुघोष तथा मणिपुष्पक नामक शंख; काश्य-काशी के राजा ने; च -तथा; परम-इषु -आस:-महान धनुर्धर; शिखंडी -शिखंडी ने; च -भी ; महारथः-हजारों से अकेले लड़ने वाले; धृष्टधुम्न -राजा द्रुपद के पुत्र ने; विराट -विराट देश के राजा;च -भी; सात्यकि -सात्यकि,(युयुधान  श्रीकृष्ण के साथी ) च -तथा; अपराजितः -कभी न जीता जाने वाला (सदा विजयी ) द्रुपदः -द्रुपद,पंचाल के राजा ने; द्रोपदेयाः -द्रोपदी के पुत्रो ने; च-भी;सर्वशः -सभी; पृथ्वीपते -हे राजा; सौभद्रः-सुभद्रा के पुत्र अभिमन्यु ने; च-भी; महबाहुः विशाल भुजाओं वाला; शंखन -शंख; दध्मुः -बजाये; पृथक -पृथक :-अलग-अलग। 

हे राजन !कुन्तीपुत्र राजा युधिष्ठिर ने अपना अनंतविजय नामक शंख बजाया तथा नकुल और सहदेव ने सुघोष एवं मणिपुष्पक शंख बजाये। महान धनुर्धर काशिराज,परम योद्धा शिखंडी,धृष्टधुम्न ,विराट,अजेय सात्यकि द्रुपद,द्रोपदी के पुत्र,तथा सुभद्रा के महाबाहु पुत्र अदि सबों ने अपने-अपने शंख बजाये। 

अर्थात:-संजय ने राजा धृतराष्ट्र को अत्यंत चतुराई से यह बताया कि पाण्डु के पुत्रों को धोखा देने तथा राज्यसिंहासन पर अपने पुत्रों को आसीन कराने की यह अविवेकपूर्ण नीति सराहनीय नहीं थी। लक्षणों से पहले से ही यह सूचित हो रहा था कि इस महायुद्ध में सारा कुरुवंश मारा जायेगा। भीष्मपितामह से लेकर अभिमन्यु तथा अन्य पौत्रों तक विश्व के अनेक देशों के राजाओं समेत उपस्थित सारे के सारे लोगों का विनाश निश्चित था। यह सारी दुर्घटना राजा धृतराष्ट्र के कारण होने जा रही थी क्योंकि उसने अपने पुत्रों की कुनीति को प्रोत्साहन दिया था। 

क्रमशः !!!!

शनिवार, 9 जनवरी 2021

BHAGVAD GITA

 पाञ्चजन्यं हृषीकेशो देवदत्तं धनञ्जयः। 

पौण्ड्रं दध्मौ महाशंखम भीमकर्मा वृकोदरः।।१५।।  

पाञ्चजन्यं-पांचजन्य नामक ; हृषिकेश -कृष्ण जो भक्तों की इन्द्रियों को निर्देश करते है ने ; देवदत्तं -देवदत्त नामक शंख ; धनञ्जयः -अर्जुन धन को जीतने वाला ने ; पौण्ड्रं -पौण्ड्र नामक शंख ; दध्मौ -बजाया ; महाशंखं -भीषण शंख ;भीमकर्मा -अतिमानवीय कर्म करने वाले ; वृक उदर :-(अतिभोजी )भीम ने। 

भगवान्  कृष्ण ने अपना पाञ्चजन्य  शंख बजाया ,अर्जुन ने देवदत्त शंख तथा अतिभोजी एवं अतिमानवीय कार्य करने वाले भीम ने पौण्ड्र नामक शंख बजाया। 
अर्थात:- यहाँ पर भगवान् कृष्ण को हृषिकेश कहा गया है क्योंकि वे ही समस्त इन्द्रियों के स्वामी है। सारे जीव उनके भिन्नांश है अतः जीवों की इन्द्रियां भी उनकी इन्द्रियों के अंश है। चूँकि निर्विशेषवादी जीवों की इन्द्रियों का कारण बताने में असमर्थ हैं इसलिए वे जीवों को इन्द्रियरहित या निर्विशेष कहने के लिए उत्सुक रहते हैं। भगवान् समस्त जीवों के हृदयों में स्थित होकर उनकी इन्द्रयों का निर्देशन करते हैं। किन्तु वे इस तरह निर्देशन करते हैं की जीव उनकी शरण ग्रहण कर ले और विशुद्ध भक्त की इन्द्रयों का तो वे प्रत्यक्ष निर्देशन करते है। यहाँ कुरुक्षेत्र की युद्धभूमि में भगवान् कृष्ण अर्जुन की दिव्य इन्द्रयों का निर्देशन करते हैं इसलिए उनको हृषिकेश कहा गया है। भगवान् के विविध कार्यों के अनुसार उनके भिन्न -भिन्न नाम हैं। 

उदाहरणार्थ,इनका एक नाम मधुसूदन है क्योंकि उन्होंने मधु नाम के असुर को मारा था ,वे गौवों तथा इन्द्रयों को आनंद देने के कारण गोविन्द कहलाते हैं ,वसुदेव के पुत्र होने के कारण इनका नाम वासुदेव है ,देवकी को माता रूप में स्वीकार करने के कारण इनका नाम देवकीनंदन है ,वृंदावन में यशोदा के साथ बाल -लीलायें करने के कारण ये यशोदानन्दन हैं ,अपने मित्र अर्जुन का सारथी बनने के कारण पार्थसारथी हैं। इसी प्रकार उनका एक नाम हृषिकेश है ,क्योंकि उन्होंने कुरुक्षेत्र के युद्धस्थल में अर्जुन का निर्देशन किया। 

इस श्लोक में अर्जुन को धनञ्जय कहा है क्योंकि जब इनके बड़े भाई को विभिन्न यज्ञ संपन्न करने के लिए धन की आवश्यकता हुई थी तो उसे प्राप्त करने में इन्होने सहायता की थी। इसी प्रकार भीम वृकोदर कहलाते है क्योंकि जैसे वे अधिक खाते हैं उसी प्रकार वे अति मानवीय कार्य करने वाले हैं ,जैसे हिडिम्बासुर का वध। अतः पांडवों के पक्ष में श्रीकृष्ण इत्यादि विभिन्न व्यक्तियों द्वारा विशेष प्रकार के शंखों का बजाया जाना युद्ध करने वाले सैनिकों के लिए अत्यंत प्रेरणाप्रद था। विपक्ष में ऐसा कुछ न था,न तो परम निदेशक भगवान् कृष्ण थे ,न ही भाग्य की देवी श्री थीं। अतः युद्ध में उनकी पराजय पूर्वनिश्चित थी-शंखों की ध्वनि मानो यही सन्देश दे रही थी। 

शुक्रवार, 8 जनवरी 2021

BHAGVAD GITA

ततः श्वेतेह्येरयुक्ते महती स्यन्दने स्थितौ। 

माधवः पाण्डवश्चैव दिव्यौ शंखो प्रदध्मतुः।। १४।।

ततः-तत्पश्चात; श्वेतै:-श्वेत; ह्यै:-घोड़ो से; युक्ते:-युक्त; महति:-विशाल; स्यन्दने:-रथ में; स्थितौ:-आशीन; माधवः-कृष्ण (लक्ष्मीपति) ने;पाण्डवः-पाण्डुपुत्र अर्जुन ने; च:-तथा; एव :- निस्चय ही; दिव्यौ:- दिव्य; शँखो:- शंख; प्रदध्मतुः बजाये। 

  दूसरी ओर से श्वेत घोड़ो द्वारा खींचे जाने वाले विशाल रथ पर आसीन कृष्ण तथा अर्जुन ने अपने -अपने दिव्य शंख बजाये। 

अर्थात:-भीष्मदेव द्वारा बजाये गये शंख की तुलना में कृष्ण तथा अर्जुन के शंखों को दिव्य कहा गया है। दिव्य शंखो की नाद से यह सूचित हो रहा था कि दूसरे पक्ष की विजय की कोई आशा नहीं थी क्योंकि कृष्ण पांडवों के पक्ष में थे। जयस्तु पाण्डुपुत्राणां येषां पक्षे जनार्दनः -जय सदा पाण्डु के पुत्र जैसों की होती है क्योंकि भगवान् कृष्ण उनके साथ  हैं। और जहाँ -जहाँ  भगवान् विद्यमान हैं,वहीँ -वहीँ लक्ष्मी भी विद्यमान रहती है क्यों कि वे अपने पति के विना नहीं रह सकती। अतः जैसा की विष्णु या भगवान् कृष्ण के शंख द्वारा उत्पन्न दिव्य ध्वनि से सूचित हो रहा था ,विजय तथा श्री दोनों ही अर्जुंन की प्रतीक्षा कर रही थीं। इसके अतिरिक्त,जिस रथ में दोनों मित्र आसीन थे वह अर्जुन को अग्नि देवता द्वारा प्रदत्त था और इससे सूचित हो रहा था कि तीनो लोकों में जहाँ कहीं भी यह जायेगा ,वहां विजय निश्चित है। 

क्रमशः !!!!