रविवार, 28 फ़रवरी 2021

BHAGAVAD GITA 2:27

🙏

जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च। 

        तस्मादपरिहार्येर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि।।२७।।🙏 

 जातस्य - वाले की; हि-निश्चय ही; ध्रुव:-तथ्य है; मृत्यु:-मृत्यु; जन्म -जन्म;मृतस्य -मृत प्राणी का; च -भी; तस्मात्-अतः; अपरिहार्ये -जिससे बचा न सके,उसका; अर्थे -के विषय में; न -नहीं; त्वम् -तुम; शोचितुम -शोक करने लिए; अर्हसि-योग्य हो। 

जिसने जन्म लिया है उसकी मृत्यु निश्चित है और मृत्यु के पश्चात पुनर्जन्म भी निश्चित है। अतः अपने अपरिहार्य कर्तव्यपालन में तुम्हें शोक नहीं  चाहिए।

तत्पर्य :- मनुष्य को  कर्मों के अनुसार जन्म ग्रहण करना होता है और एक कर्म -अवधि समाप्त होने पर उसे मरना होता है,जिससे वह दूसरा जन्म ले सके। इस प्रकार मुक्ति प्राप्त किये बिना मृत्यु का यह चक्र चलता रहता है। जन्म मरण के इस चक्र से वृथा हत्या,वध  युद्ध का समर्थन नहीं होता किन्तु मानव समाज में शांति तथा व्यवस्था बनाये रखने के लिए हिंसा तथा युद्ध अपरिहार्य है। 

कुरुक्षेत्र का युद्ध भगवान् की इच्छा होने कारण अपरिहार्य था और सत्य के लिए युद्ध करना क्षत्रिय का धर्म है। अतः  कर्तव्य का पालन करते हुए वह स्वजनों की मृत्यु भयभीत या शोकाकुल क्यों था ?यह विधि (कानून )को भंग नहीं करना चाहता था क्योंकि ऐसा करने पर  उसे उन पापकर्मों के फल भोगने पड़ेंगे जिनसे वह अत्यंत भयभीत था। अपने कर्तव्य का पालन करते हुए वह स्वजनों की मृत्यु को रोक नहीं सकता था और यदि वह  कर्तव्य -पथ  चुनाव करे,तो उसे नीचे गिरना होगा।

क्रमशः !!!   

 


 

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शनिवार, 27 फ़रवरी 2021

BHAGAVAD GITA 2:26

अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम। 

तथापि त्वं महाबाहो नैनं शोचितुमर्हसि।।२६।।  

अथ:-यदि,फिर भी, च-भी; एनम -इस आत्मा को; नित्य -जातम-उत्पन्न होने वाला; नित्यम-सदैव के लिए; वा-अथवा; मन्यसे-तुम ऐसा सोचते हो; मृतम-मृत;तथा अपि-फिर भी; त्वम्- तुम भी;महा -बाहो-हे शूरवीर; न -कभी नहीं; एनम-आत्मा के विषय में; शोचितुम -शोक करने के लिए; अर्हसि-योग्य हो। 

किन्तु यदि तुम यह सोचते हो कि आत्मा (अथवा जीवन का लक्षण )सदा जन्म लेता तथा सदा मरता है तो भी हे महाबाहु !तुम्हारे शोक करने का कोई कारण नहीं है। 

तत्पर्य :- सदा से दार्शनिकों का एक ऐसा वर्ग चला आ रहा है,जो बौद्धों के ही समान यह नहीं मानता कि शरीर के परे भी आत्मा का स्वतंत्र अस्तित्व है। ऐसा प्रतीत होता है कि जब भगवान् कृष्ण ने भगवदगीता का उपदेश दिया तो ऐसे दार्शनिक विद्दमान थे और लोकायतिक तथा वैभाषिक नाम से जाने जाते थे। ऐसे दार्शनिकों का मत है कि जीवन के लक्षण भौतिक संयोग की एक परिपक्वावस्था में ही घटित होते हैं। आधुनिक भौतिक विज्ञानी तथा भौतिक वादी दार्शनिक भी ऐसा ही सोचते हैं। उनके अनुसार शरीर भौतिक तत्वों का संयोग है और एक अवस्था ऐसी आती है जब भौतिक तथा रासायनिक तत्वों के संयोग से जीवन के लक्षण विकसित हो उठते हैं। नृतत्व विज्ञान इसी दर्शन पर आधारित है। सम्प्रति अनेक छद्म धर्म-जिनका अमेरिका में प्रचार हो रहा है -इसी दर्शन का पालन करते हैं और साथ ही शून्यवादी अभक्त बौद्धों का अनुसरण करते हैं। 

यदि अर्जुन को आत्मा के अस्तित्व में विश्वास नहीं था, जैसा कि वैभाषिक दर्शन में होता है तो भी उसके शोक करने का कोई कारण न था। कोई भी मानव थोड़े से रसायनो की क्षति के लिए शोक नहीं करता तथा अपना कर्तब्यपालन नहीं त्याग देता है। दूसरीओर, आधुनिक विज्ञान तथा वैज्ञानिक युद्ध में शत्रु पर विजय प्राप्त करने के लिए न जाने कितने टन रसायन फूँक देते हैं। वैभाषिक दर्शन के अनुसार आत्मा शरीर के क्षय होते ही लुप्त हो जाता है।

 अतः प्रत्येक दशा अर्जुन इस वैदिक मान्यता को स्वीकार करता कि अणु आत्मा का अस्तित्व को स्वीकार करता,उसके लिए शोक करने का कोई कारण नहीं था इस सिद्धांत के अनुसार चूँकि पदार्थ से प्रत्येक क्षण असंख्य जीव उत्पन्न होते हैं और नष्ट होते रहते हैं,अतः ऐसी घटनाओं के लिए शोक करने की कोई आवश्यकता नहीं है। यदि आत्मा का पुनर्जन्म नहीं होता तो अर्जुन को अपने पितामह तथा गुरु के वध करने के पापफलों से डरने का कोई कारण न था। किन्तु साथ ही कृष्ण ने अर्जुन को व्यंग्यपूर्वक महाबाहु कहकर सम्बोधित  किया क्योंकि उसे वैभाषिक सिद्धांत स्वीकार नहीं था,जो वैदिक ज्ञान के प्रतिकूल है। क्षत्रिय होने के नाते अर्जुन का सम्बन्ध वैदिक संस्कृति से था और वैदिक सिद्धांतों का पालन करते रहना ही उसके लिए शोभनीय था। 

क्रमशः !!!   

शुक्रवार, 26 फ़रवरी 2021

BHAGAVAD GITA 2:25

🙏🙏अव्यक्तो यमचिन्त्यो यमविकार्यो यमुच्यते। 

तस्मादेवं विदित्वैन नानुशोचितुमर्हसि।।२५।।🙏🙏


  अव्यक्त -अदृश्य; अयम-यह आत्मा; अचिन्त्य:-अकल्पनीय; अयम-यह आत्मा; अविकार्य-अपरिवर्तित; अयम-यह आत्मा; उच्यते-कहलाता है;तस्मात्-अतः;एवम -इस प्रकार; विदित्वा-अच्छी तरह जानकर; एनम-इस आत्मा के विषय में;न-नहीं; अनुशोचितम-शोक करने के लिए; अर्हसि-योग्य हो। 

यह आत्मा अव्यक्त,अकल्पनीय तथा अपरिवर्तनीय कहा जाता है। यह जानकार तुम्हें शरीर के लिए शोक नहीं करना चाहिए। 

तात्पर्य :- जैसा कि पहले कहा जा चुका है,आत्मा इतना सूक्ष्म है कि इसे सर्वाधिक शक्तिशाली सूक्ष्मदर्शी यंत्र से भी नहीं देखा जा सकता,अतः यह अदृश्य है। जहाँ तक आत्मा के अस्तित्व का सम्बन्ध है,श्रुति के प्रमाण के अतिरिक्त अन्य किसी प्रयोग द्वारा इसके अस्तित्व को सिद्ध नहीं किया जा सकता। हमें इस सत्य को स्वीकार करना पड़ता है क्योंकि अनुभवगम्य सत्य होते हुए भी आत्मा के अस्तित्व को समझने के लिए कोई अन्य साधन नहीं है। हमें अनेक बातें केवल उच्च प्रमाणों के आधार पर माननी पड़ती है। कोई भी अपनी माता के आधार पर अपने पिता के अस्तित्व को अस्वीकार नहीं कर सकता। पिता के स्वरूप को जानने का साधन एकमात्र प्रमाण माता है। इसी प्रकार वेदाध्ययन के अतिरिक्त आत्मा को समझने का अन्य उपाय नहीं है। दूसरे शब्दों में,आत्मा मानवीय व्यावहारिक ज्ञान द्वारा अकल्पनीय है। आत्मा चेतना और चेतन है -वेदों के इस कथन को हमें स्वीकार करना होगा। आत्मा में शरीर जैसे परिवर्तन नहीं होते। मूलतः अविकारी रहते हुए आत्मा अनन्त परमात्मा की तुलना में अणु -रूप है। परमात्मा अनन्त है और अणु -आत्मा अति सूक्ष्म है। अतः अति सूक्ष्म आत्मा अविकारी होने के कारण अनन्त आत्मा भगवान् के तुल्य नहीं हो सकता। यही भाव वेदों में भिन्न -भिन्न प्रकार से आत्मा के स्थायित्व की पुष्टि करने के लिए दुहराया गया है। किसी बात का दुहराना उस तथ्य को बिना किसी त्रुटि के समझने के लिए आवश्यक है। 

क्रमशः !!!   🙏🙏

गुरुवार, 25 फ़रवरी 2021

BHAGAVAD GITA 2:24

 अच्छेद्योयमदहोयमक्लेद्यो शोष्य एव च। 

नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोयं सनातनः।।२४।।

अच्छेद्य:-न टूटने वाला; अयम-यह आत्मा; अदाह्यः -न जलाया जा सकने वाला; अयम -यह आत्मा; अक्लेद्य:-अघुलनशील; अशोष्य-न सुखाया  सकने वाला; एव-निश्चय ही; च -तथा; नित्य:-शाश्वत; सर्व-गत:-सर्वव्यापी; स्थाणु -अपरिवर्तनीय,अविकारी; अचल:-जड़; अयम-यह आत्मा; सनातनः सदैव एक सा। 

यह आत्मा अखंडित तथा अघुलनशील है। इसे न तो जलाया जा सकता है,न ही सुखाया जा सकता है। यह शाश्वत,सर्वव्यापी,अविकारी,स्थिर तथा सदैव एक सा रहने वाला है। 

तात्पर्य :- अणु -आत्मा के इतने सारे गुण यही सिद्ध करते हैं कि आत्मा पूर्ण आत्मा का अणु -अंश है और बिना किसी परिवर्तन के निरन्तर उसी तरह बना रहता है। इस प्रसंग में अद्वैतवाद को व्यवहृत करना कठिन है क्योंकि अणु आत्मा कभी भी परम -आत्मा के साथ मिलकर एक नहीं हो सकता। भौतिक कल्मष से  होकर अणु -आत्मा भगवान् के तेज की किरणों की आध्यात्मिक स्फुलिंग बनकर रहना चाह सकता है,किन्तु बुद्धिमान जीव तो भगवान् की संगति के लिए वैकुण्ठलोक में प्रवेश करता है। 

सर्वगत शब्द महत्वपूर्ण है क्योंकि इसमें कोई संशय नहीं है जीव भगवान् की समग्र सृष्टि में फैले हुए हैं। वे जल,थल,वायु,पृथ्वी के भीतर तथा अग्नि के भीतर भी रहते हैं। जो यह मानते हैं कि वे अग्नि में स्वाहा हो जाते हैं.वह ठीक नहीं है क्योंकि यहाँ कहा गया है कि आत्मा को अग्नि द्वारा जलाया नहीं जा सकता। अतः इसमें संदेह नहीं कि सूर्यलोक में भी उपयुक्त प्राणी निवास करते हैं। यदि सूर्यलोक निर्जन हो तो सर्वगत शब्द निरर्थक हो जाता है। 

क्रमशः !!! 🙏🙏

बुधवार, 24 फ़रवरी 2021

BHAGAVAD GITA 2:23

  नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः। 

न चैनं क्लेदयन्त्यापो  शोषयति मारुतः।। 

न -कभी नहीं; एनम -इस आत्मा को; छिन्दन्ति -खंड -खंड कर सकते हैं; शस्त्राणि -हथियार; न-कभी नहीं;एनम -इस आत्मा को; दहति-जला सकता है; पावकः -अग्नि; न -कभी नहीं; च-भी; एनम -इस आत्मा को; क्लेदयन्ती -भिगो सकता है; आप:-जल; न -कभी नहीं; शोषयति -सूखा  सकता है;मारुतः -वायु। 

यह आत्मा न तो कभी किसी शस्त्र द्वारा खण्ड-खण्ड किया जा सकता है,न अग्नि द्वारा जलाया जा सकता है,न जल द्वारा भिगोया या वायु द्वारा सुखाया जा सकता है। 

तात्पर्य :- सारे हथियार -तलवार,आग्नेयास्त्र,वर्षा के अस्त्र,चक्रवात आदि आत्मा को मारने में असमर्थ हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि आधुनिक आग्नेयास्त्रों के अतिरिक्त मिट्टी,जल,वायु,आकाश आदि के भी अनेक प्रकार के हथियार होते थे। यहाँ कि आधुनिक युग के नाभिकीय हथियारों की गणना भी आग्नेयास्त्रों में की जाती है,किन्तु  पूर्वकाल में विभिन्न पार्थिव तत्वों से बने हुए हथियार होते थे। आग्नेयास्त्रों का सामना जल के (वरुण) हथियारों से किया जाता था,जो आधुनिक विज्ञान के लिए अज्ञात है। आधुनिक विज्ञान को चक्रवात हथियारों का भी पता नहीं है। जो भी हो,आत्मा न तो कभी खण्ड -खण्ड किया  सकता है ,न किन्ही वैज्ञानिक हथियारों से उसका संहार किया सकता है, चाहे उनकी संख्या कितनी ही क्यों न हो। 

मायावादी इसकी व्याख्या नहीं कर सकते कि जीव किस प्रकार अपने अज्ञान के कारण उत्पन्न हुआ है और तत्पश्चात माया की शक्ति से आवृत हो गया। न ही आदि परमात्मा से जीवों को विलग कर पाना सम्भव था,प्रत्युत सारे जीव परमात्मा से विलग हुए अंश हैं। चूँकि  सनातन अणु -आत्मा हैं,अतः माया द्वारा आवृत होने की उनकी प्रवृति स्वाभाविक है और  तरह वे भगवान् की संगति से पृथक हो जाते हैं, जिस प्रकार अग्नि के स्फुलिंग अग्नि से विलग होते ही बुझ जाते हैं,यद्दपि इन दोनों गुण समान होते हैं। वाराह पुराण में जीवों को परमात्मा का भिन्न अंश कहा गया है। भगदगीता के अनुसार भी वे शाश्वत रूप से ऐसे ही हैं। अतः मोह से मुक्त होकर भी जीव पृथक अस्तित्व रखता है, जैसा कि कृष्ण द्वारा अर्जुन को  दिये  गये  उपदेशों से स्पष्ट है  अर्जुन कृष्ण के उपदेश के कारण मुक्त तो हो गया,किन्तु कभी भी कृष्ण  से एकाकार  नहीं हुआ। 

क्रमशः 🙏🙏                                         

BHAGAVAD GITA 2:22

 वासांसि जीर्णानि यथा विहाय

             नवानी गृह्णति नरोपराणि। 

तथा शरीराणि विहाय जीर्णा 

               न्यन्यानि संयाति नवानि देहि।।२२।।

वासांसि -वस्त्रों को;जीर्णानि -पुराने तथा फटे; यथा -जिस प्रकार; विहाय -त्याग कर; नवानि-नए वस्त्र; गृह्णति-ग्रहण करता है;नरः -मनुष्य; अपराणि -अन्य; तथा -उसी प्रकार;शरीराणि-शरीरों को; विहाय-त्याग कर; जीर्णानि -वृद्ध तथा व्यर्थ; अन्यानि-भिन्न; संयाति-स्वीकार करता है; नवानि-नये; देही-देहधारी आत्मा। 

जिस प्रकार मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्याग कर नये वस्त्र धारण करता है,उसी प्रकार आत्मा पुराने तथा व्यर्थ के शरीर को त्याग कर नवीन भौतिक शरीर धारण करता है 

तात्पर्य :- अणु -आत्मा द्वारा शरीर का परिवर्तन एक स्वीकृत तथ्य है। आधुनिक विज्ञानीजन तक,जो आत्मा के अस्तित्व पर विश्वास नहीं करते,पर साथ ही ह्रदय से शक्ति-साधन की व्याख्या भी नहीं कर पात,अतः उन परिवर्तनों को स्वीकार  बाध्य हैं, जो बाल्यकाल से कौमार्यावस्था और फिर तरुणावस्था तथा वृद्धावस्था में होते रहते हैं। वृद्धावस्था से यही परिवर्तन दूसरे शरीर में स्थानान्तरित हो जाता है। इसकी  व्याख्या एक पिछले श्लोक में २.१ ३ की जा चुकी है। 

अणु -आत्मा का दूसरे शरीर में स्थानांतरण परमात्मा की कृपा से सम्भव हो पाता  है। परमात्मा अणु -आत्मा की इच्छाओं की पूर्ति उसी तरह करते हैं,जिस प्रकार एक मित्र दूसरे की इच्छापूर्ति करता है मुण्डक तथा श्वेताश्वतर उपनिषदों में आत्मा तथा परमात्मा की उपमा दो मित्र पक्षियों से दी गयी है,जो एक ही वृक्ष पर वैठे हैं। इनमे से एक पक्षी (अणु -आत्मा)वृक्ष के फल को खा रहा है और दूसरा पक्षी (कृष्ण )अपने मित्र को देख रहा है। यद्दपि दोनों पक्षी सामान गुण वाले हैं किन्तु इनमे से एक भौतिक वृक्ष के फलों पर मोहित है,किन्तु दूसरा अपने मित्र  कार्यकलापों का साक्षी मात्र है। कृष्ण साक्षी पक्षी है,और अर्जुन फल भोक्ता पक्षी। यद्दपि दोनों मित्र (सखा ) हैं, किन्तु फिर भी एक स्वामी है और दूसरा सेवक है। अणु -आत्मा द्वारा इस सम्बन्ध की विस्मृति ही उसके एक वृक्ष से दूसरे पर जाने या एक शरीर से दूसरे में जाने का कारण है। जीव आत्मा प्रकृत शरीर रुपी वृक्ष पर अत्यधिक संघर्षशील है,किन्तु ज्योंही वह दूसरे पक्षी को परम गुरु के रूप में स्वीकार करता है -जिस प्रकार अर्जुन कृष्ण का उपदेश ग्रहण करने के लिए स्वेच्छा से उनकी शरण में जाता है -त्योंही परतंत्र पक्षी तुरंत सारे शोकों से विमुक्त हो जाता है। मुण्डक उपनिषद के (३.१.२ )तथा श्वेताश्वतर -उपनिषद (४.७ )समान रूप से इसकी पुष्टि करते हैं -

समाने वृक्षे पुरुषों निमग्नोनीशया शोचति मुह्यमानः। 

जुष्टं यदा पश्यत्यन्यमीशमस्य महिमानमिति वीतशोकः।।  

"यद्दपि दोनों पक्षी एक ही वृक्ष पर बैठे हैं, किन्तु फल खाने वाला पक्षी वृक्ष के फल के भोक्ता रूप में चिंता तथा विषाद में निमग्न है। यदि किसी तरह वह अपने मित्र भगवान् की ओर उन्मुख होता है और उनकी महिमा को जान लेता है तो वह कष्ट भोगने वाला पक्षी तुरंत समस्त चिंताओं से मुक्त हो जाता है। "अब अर्जुन ने अपना मुख अपने शाश्वत मित्र कृष्ण कीओर फेरा है और उनसे भगवतगीता समझ रहा है। इस प्रकार वह कृष्ण से श्रवण करके भगवान् की परम महिमा को समझ कर शोक से मुक्त हो सकता है। 

यहाँ भगवान् ने अर्जुन को उपदेश दिया है कि वह अपने पितामह तथा गुरु के देहान्तरण पर शोक प्रकट न करें अपितु उसे इस धर्मयुद्ध में उनके शरीरों का वध करने में प्रसन्न होना चाहिए,जिससे वे सब विभिन्न शारीरिक कर्म -फलों से तुरंत मुक्त हो जाँय। बलिबेदी पर या धर्मयुद्ध में प्राणों को अर्पित करने वाला व्यक्ति तुरंत शारीरिक पापों से मुक्त हो जाता है और उच्च लोक को प्राप्त होता है। अतः अर्जुन का शोक करना युक्तिसंगत नहीं है। 

क्रमशः !!!