Bhagavad Gita is the life management book and self motivational book. many peoples change there life by reading this book, this is not a religious book anybody, any religion can read for better future. many peoples got success his business from this energetic book, I'm writing a shloka a day so if anybody don't have enough time to read so you can read a shloka a day, Thanks.
BHAGAVAD GITA IN HINDI
बुधवार, 9 मार्च 2022
पाँच लिंकों का आनन्द: 3327..ज़रा सा हक़ दे गई..
पाँच लिंकों का आनन्द: 3327..ज़रा सा हक़ दे गई..: ।। उषा स्वस्ति।। बम घरों पर गिरें कि सरहद पर रूहे-तामीर ज़ख़्म खाती है खेत अपने जलें या औरों के ज़ीस्त फ़ाक़ों से तिलमिलाती है। इसलिए ऐ शरी...
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रविवार, 15 अगस्त 2021
BHAGAVAD GITA 3:43
🙏🙏
एवं बुद्धेः परं बुद्ध्वा संस्तभ्यात्मानमात्मना।
जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरसादम।।
एवम-इस प्रकार; बुद्धेः -बुद्धि से; परम -श्रेष्ठ ; बुद्ध्वा -जानकार ; संस्तभ्य -स्थिर करके ; आत्मानम -मन को ;आत्मना -सुविचारित बुद्धि द्वारा ; जहि -जीतो ; शत्रुम -शत्रु को ; महा-बाहो -हे महाबाहु ; काम-रूपम -काम के रूप में ; दुरसादम -दुर्जेय।
इस प्रकार हे महाबाहु अर्जुन ! अपने आपको भौतिक इन्द्रियों, मन तथा बुद्धि से परे जान कर और मन को सावधान आद्यात्मिक बुद्धि (कृष्णभावनामृत ) से स्थिर करके आद्यात्मिक शक्ति द्वारा इस काम -रुपी शत्रु को जीतो।
तात्पर्य :-भगवद्गीता का यह तृतीय अध्याय निष्कर्षतः मनुष्य को निर्देश देता है कि वह निर्विशेष शुन्यवाद को चरम मानकर अपने आपको भगवान् का शाश्वत सेवक समझते हुए( कृष्णभावनामृत) में प्रवृत हो। भौतिक जीवन में मनुष्य काम तथा प्रकृति पर प्रभुत्व पाने की इच्छा से प्रभावित होता है। प्रभुत्व तथा इन्द्रियतृप्ति की इच्छाएं बद्धजीव की परम शत्रु हैं , किन्तु कृष्णभावनामृत की शक्ति से मनुष्य इन्द्रियों,मन तथा बुद्धि पर नियंत्रण रख सकता है। इसके लिए मनुष्य को सहसा अपने नियत कर्मो को बंद करने की आवश्यकता नहीं है ,अपितु धीरे-धीरे कृष्णभावनामृत विकसित करके भौतिक इन्द्रियों तथा मन से प्रभावित हुए बिना स्वरूप के प्रति लक्षित स्थिर बुद्धि से दिव्य स्थिति को प्राप्त हुआ जा सकता है। यही इस अध्याय का सारांश है। सांसारिक जीवन की अपरिपक्व अवस्था में दार्शनिक चिंतन तथा योगिक साधनों के अभ्यास से इन्द्रियों को वश में करने के कृत्रिम प्रयासों से आध्यात्मिक जीवन प्राप्त करने में सहायता नहीं मिलती। उसे श्रेष्ठ बुद्धि द्वारा कृष्णभावनामृत में प्रशिक्षित होना चाहिए।
इस प्रकार श्रीमदभगवदगीता के तृतीय अध्याय "कर्मयोग" का भक्तिवेदांत तात्पर्य पूर्ण हुआ।
क्रमशः!!!🙏🙏
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मंगलवार, 13 जुलाई 2021
BHAGAVAD GITA 3:42
🙏🙏इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः।
मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः।।४२।।🙏🙏
इन्द्रियाणि -इन्द्रियों को; पराणी -श्रेष्ठ; आहुः -कहा जाता है; इन्द्रियेभ्यः--इन्द्रियों से बढ़कर; परम -श्रेष्ठ; मनः -मन; मनसः -मन की अपेक्षा; तु -भी; परा -श्रेष्ठ; बुद्धि -बुद्धि; यः -जो; बुद्धेः -बुद्धि से भी; परतः -श्रेष्ठ; तु -किन्तु; सः -वह।
कर्मेन्द्रियाँ जड़ पदार्थ की अपेक्षा श्रेष्ठ हैं, मन इन्द्रियों से बढ़कर है, बुद्धि मन से भी उच्च है और वह (आत्मा )बुद्धि से भी बढ़कर है।
तात्पर्य :-इन्द्रियां काम के कार्यकलापों के विभिन्न द्वार हैं। काम का निवास शरीर में है,किन्तु उसे इन्द्रिय रूपी झरोखे प्राप्त हैं। अतः कुल मिलाकर इन्द्रियां शरीर से श्रेष्ठ हैं। श्रेष्ठ चेतना या कृष्णभावनामृत होने पर ये द्वार काम में नहीं आते। कृष्णभावनामृत में आत्मा भगवान् के साथ सीधा सम्बन्ध स्थापित करता है, अतः यहाँ पर वर्णित शारीरिक कार्यों की श्रेष्ठता परमात्मा में आकर समाप्त हो जाती है। शारीरिक कर्म का अर्थ है -इन्द्रियों के कार्य और इन इन्द्रियों के अवरोध का अर्थ है -सारे शारीरिक कर्मों का अवरोध। लेकिन चूंकि मन सक्रिय रहता है, अतः शरीर के मौन तथा स्थिर रहने पर मन कार्य करता है -यथा स्वप्न के समय मन कार्यशील रहता है। किन्तु मन के ऊपर भी बुद्धि की संकल्पशक्ति होती है और बुद्धि के ऊपर भी स्वयं आत्मा है। अतः यदि आत्मा प्रत्यक्ष रूप में परमात्मा में रत रहे तो अन्य सारे अधीनस्थ -यथा-बुद्धि, मन तथा इन्द्रियां -स्वतः रत हो जायेंगे। कठोपनिषद में एक ऐसा ही अंश है जिसमे कहा गया है कि इन्द्रिय-विषय इन्द्रियों से श्रेष्ठ है और मन इन्द्रिय -विषयों से श्रेष्ठ है। अतः यदि मन भगवान् की सेवा में निरंतर लगा रहता है तो इन इन्द्रियों के अन्यत्र रत होने की सम्भावना नहीं रह जाती। इस मनोवृति की विवेचना की जा चुकी है। परं दृष्टा निवर्तते -यदि मन भगवान् की दिव्य सेवा में लगा रहे तो तुच्छ विषयों में उसके लग पाने की सम्भावना नहीं रह जाती। कठोपनिषद में आत्मा को महान कहा गया है। अतः आत्मा इन्द्रिय-विषयों, मन तथा बुद्धि -इन सबके ऊपर है। अतः सारी समस्या का हल यह है कि आत्मा के स्वरुप को प्रत्यक्ष समझा जाय।
मनुष्य को चाहिए कि बुद्धि के द्वारा आत्मा की स्वाभाविक स्थिति को ढूंढे और मन को निरंतर कृष्णभावनामृत में लगाये रखे। इससे सारी समस्या हल हो जाती है। सामान्यतः नवदीक्षित अध्यात्मवादी को इन्द्रिय-विषयों से दूर रहने की सलाह दी जाती है। किन्तु इसके साथ-साथ मनुष्य को अपनी बुद्धि का उपयोग करके मन को सशक्त बनाना होता है। यदि कोई बुद्धिपूर्वक अपने मन भगवान के शरणागत होकर कृष्णभावनामृत में लगा रहता है,तो मन स्वतः सशक्त हो जाता है और यद्धपि इन्द्रियां सर्प के समान अत्यंत बलिष्ठ होती हैं, किन्तु ऐसा करने पर वे दन्त विहीन सापों के समान अशक्त हो जाएँगी। यद्धपि आत्मा बुद्धि,मन तथा इन्द्रियों का भी स्वामी है तो भी जब तक इसे कृष्ण की संगति द्वारा कृष्णभावनामृत में सुदृढ़ नहीं कर लिया जाता, तब तक चलायमान मन के कारण नीचे गिरने की पूरी-पूरी सम्भावना बनी रहती है।
क्रमशः !!!! 🙏🙏
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सोमवार, 21 जून 2021
BHAGAVAD GITA 3:41
तस्मात्वमिन्द्रियाणयादो नियम्य भरतर्षभ।
पाप्मानं प्रजहि ह्योनं ज्ञानविज्ञाननाशनम।।
तस्मात्-अतः; त्वम -तुम; इन्द्रियाणि -इन्द्रियों को; आदौ-प्रारम्भ में; नियम्य -नियमित करके; भरत-ऋषभ-हे भरतवंशियों में श्रेष्ठ; पाप्मानम-पाप के महान प्रतीक को; प्रजहि -दमन करो; हि-निशाय ही; एनम -इस; ज्ञान-ज्ञान; विज्ञान-तथा शुद्ध आत्मा के वैज्ञानिक ज्ञान का; नाशनम -संहर्ता,विनाश करने वाला।
इसलिए हे भरतवंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन ! प्रारम्भ में ही इन्द्रियों को वश में करके इस पाप के महान प्रतीक (काम ) का दमन करो ज्ञान तथा आत्म-साक्षात्कार के इस विनाशकर्ता का वध करो।
तात्पर्य :-भगवान् ने अर्जुन को प्रारम्भ से ही इन्द्रिय-संयम करने का उपदेश दिया जिससे वह सबसे पापी शत्रु काम का दमन कर सके,जो आत्म -साक्षात्कार तथा आत्मज्ञान की उत्कंठा को विनष्ट करने वाला है। ज्ञान का अर्थ है आत्म तथा अनात्म के भेद का बोध अर्थात यह ज्ञान कि आत्मा शरीर नहीं है। विज्ञान से आत्मा की स्वाभाविक स्थिति तथा परमात्मा के साथ उसके सम्बन्ध का विशिष्ट ज्ञान सूचित होता है। श्रीमदभागवत में (२.९.३१ ) इसकी विवेचना इस प्रकार हुई है -
ज्ञानं परमगुह्यं में यद्विज्ञानसमन्वितम।
सरहस्यम तदङ्गं च गृहाण गदितं माया।।
"आत्मा तथा परमात्मा का ज्ञान अत्यंत गुह्य एवं रहस्यमय है,किन्तु जब स्वयं भगवान् द्वारा इसके विविध पक्षों की विवेचना की जाती है तो ऐसा ज्ञान तथा विज्ञान समझा जा सकता है।" भगवतगीता हमें आत्मा का सामान्य तथा विशिष्ट ज्ञान (ज्ञान तथा विज्ञान) प्रदान करती है। जीव भगवान् के भिन्न अंश हैं,अतः वे भगवान् की सेवा के लिए हैं। यह चेतना कृष्णभावनामृत कहलाती है। अतः मनुष्य को जीवन के प्रारम्भ से इस कृष्णभावनामृत को सीखना होता है,जिससे वह पूर्णतया कृष्णभावनाभावित होकर तदनुसार कर्म करे।
काम-ईश्वर प्रेम का विकृत प्रतिबिम्ब है और प्रत्येक जीव के लिए स्वाभाविक है। किन्तु यदि किसी को प्रारम्भ से ही कृष्णभावनामृत की शिक्षा दी जाय तो प्राकृतिक ईश्वर-प्रेम काम के रूप में विकृत नहीं हो सकता। एक बार ईश्वर-प्रेम के काम रूप में विकृत हो जाने पर इसके मौलिक स्वरूप को पुनः प्राप्त कर पाना दुःसाध्य हो जाता है। फिर भी,कृष्णभावनामृत इतना शक्तिशाली होता है कि विलम्ब से प्रारम्भ करने वाला भी भक्ति के विधि-विधानों का पालन करके ईश्वरप्रेमी बन सकता है। अतः जीवन की किसी भी अवस्था में, या जब भी इसकी अनिवार्यता समझी जाए,मनुष्य कृष्णभावनामृत या भगवद्भक्ति के द्वारा इन्द्रियों को वश में करना प्रारम्भ कर सकता है और काम को भगवत्प्रेम में बदल सकता है,जो मानव जीवन की पूर्णता की चरम अवस्था है।
क्रमशः !!! 🙏🙏
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रविवार, 20 जून 2021
BHAGAVAD GITA 3:40
🙏🙏
इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्च्ते।
एतैर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम।।४०।।
इन्द्रियाणि -इन्द्रियाँ; मनः -मन; बुद्धिः -बुद्धि; अस्य -इस काम का; अधिष्ठानम -निवासस्थान
उच्चते -कहा जाता है; एतै -इन सबों से; विमोहयति -मोहग्रस्त करता है; एषः-यह काम; ज्ञानम-ज्ञान को; आवृत्य-ढक कर; देहिनम-शरीरधारी को।
इन्द्रियाँ,मन तथा बुद्धि इस काम के निवासस्थान हैं। इनके द्वारा यह काम जीवात्मा के वास्तविक ज्ञान को ढक कर उसे मोहित कर लेता है।
तात्पर्य :-चूँकि शत्रु ने बद्धजीव के शरीर के विभिन्न सामरिक स्थानों पर अपना अधिकार कर लिया है, अतः भगवान् कृष्ण उन स्थानों का संकेत कर रहे हैं जिससे शत्रु को जीतने वाला यह जान ले कि शत्रु कहाँ पर है। मन समस्त इन्द्रियों के कार्यकलापों का केंद्र बिंदु है,अतः जब हम इन्द्रिय-विषयों के सम्बन्ध में सुनते हैं तो मन इन्द्रियतृप्ति के समस्त भावों का आगार बन जाता है। इस तरह मन तथा इन्द्रियां काम की शरणस्थली बन जाते हैं। इसके बाद बुद्धि ऐसी कामपूर्ण रुचियों की राजधानी बन जाती है। बुद्धि आत्मा की निकट पड़ोसिन है। काममय बुद्धि से आत्मा प्रभावित होता है जिससे उसमे अहंकार उत्पन्न होता है और वह पदार्थ से तथा इस प्रकार मन तथा इन्द्रियों से अपना तादात्म्य कर लेता है। आत्मा को भौतिक इन्द्रियों का भोग करने की लत पद जाती है,जिसे वह वास्तविक सुख मान बैठता है।श्रीमदभागवत में ( १०.८४. १३ ) आत्मा के इस मिथ्या स्वरूप की अत्युत्तम विवेचना की गई है -
यस्यात्मबुद्धिः कुणपे त्रिधातुके स्वधीः कलत्रादिषु भौम इज्यधीः।
यतीर्थबुद्धिः सलिले न करहिचिज्जनेष्वभिज्ञेषु स एव गोखरः।।
"जो मनुष्य इस त्रिधातु निर्मित शरीर को आत्मस्वरूप जा बैठता है,जो देह के विकारों को स्वजन समझता है,जो जन्मभूमि को पूज्य मानता है और जो तीर्थस्थलों की यात्रा दिव्यज्ञान वाले पुरुष से भेंट करने के लिए नहीं,अपितु स्नान करने के लिए करता है,उस गधा या बैल के समान समझना चाहिए। "
क्रमशः !!!🙏🙏
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शनिवार, 19 जून 2021
BHAGAVAD GITA 3:39
🙏🙏
आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा।
कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च।।
आवृतं -ढका हुआ; ज्ञानम -शुद्ध चेतना; एतेन -इससे; ज्ञानिनः-ज्ञाता का; नित्य -वैरिणा -नित्य शत्रु द्वारा; काम-रूपेण -काम के रूप में; कौन्तेय-हे कुन्तीपुत्र; दुष्पूरेण -कभी भी तुष्ट न होने वाली; अनलेन -अग्नि द्वारा; च -भी।
इस प्रकार ज्ञानमय जीवात्मा की शुद्ध चेतना उसके काम रूपी नित्य शत्रु से ढकी रहती है, जो कभी भी तुष्ट नहीं होता और अग्नि के समान जलता रहता है।
तात्पर्य :-मनुस्मृति में कहा गया है कि कितना भी विषय -भोग क्यों न किया जाय काम की तृप्ति नहीं होती,जिस प्रकार कि निरन्तर ईंधन डालने अग्नि कभी नहीं बुझती। भौतिक जगत में समस्त कार्यकलापों का केन्द्रबिन्दु मैथुन ( कामसुख ) है, अतः इस जगत को मैथुन्य -आगार या विषयी-जीवन की हथकडियाँ कहा गया है। एक समान्य बन्दीगृह में अपराधियों को छड़ों के भीतर रखा जाता है इसी प्रकार जो अपराधी भगवान् के नियमों की अवज्ञा करते है, वे मैथुन जीवन द्वारा बंदी बनाये जाते है। इन्द्रियतृप्ति के आधार पर भौतिक सभ्यता की प्रगति का अर्थ है, इस जगत में जीवात्मा की बन्धन अवधि को बढ़ाना। अतः यह काम अज्ञान का प्रतीक है जिसके द्वारा जीवात्मा को इस संसार मे रखा जाता है। इन्द्रियतृप्ति का भोग करते समय हो सकता है कि कुछ प्रसन्नता की अनुभूति हो,किन्तु यह प्रसन्नता की अनुभूत्ति ही इन्द्रियभोक्ता का चरम शत्रु है।
क्रमशः !!!🙏🙏
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शुक्रवार, 18 जून 2021
BHAGAVAD GITA 3:38
🙏🙏 धूमेनाव्रियते वर्यह्निःथादर्शो मलेन च।
यथोल्बेनाव्रतो गर्भस्तथा तेनेदमावर्तम।।३८।।
धूमेन -धुएँ से; आव्रियते- ढक जाती है; वह्निः-अग्नि; यथा -जिस प्रकार;आदर्श -शीशा,दर्पण; मलेन-धूल से; च-भी; यथा-जिस प्रकार; उल्बेन-गर्भाशय द्वारा; आवृतः -ढका रहता है; गर्भः -भ्रूण,गर्भ; तथा-उसी प्रकार; तेन -काम से; इदम-यह; आवृतम -ढका है।
जिस प्रकार अग्नि धुएँ से,दर्पण धूल से अथवा भ्रूण गर्भाशय से आवृत रहता है, उसी प्रकार जीवात्मा इस काम की विभिन्न मात्राओं से आवृत रहता है।
तात्पर्य :-जीवात्मा के आवरण की तीन कोटियां हैं जिनसे उसकी शुद्ध चेतना धूमिल होती है। यह आवरण काम ही है, जो विभिन्न स्वरूपों में होता है यथा अग्नि में धुआँ, दर्पण पर धूल तथा भ्रूण पर गर्भाशय। जब काम की उपमा धूम्र से दी जाती है तो यह समझना चाहिए कि जीवित स्फुल्लिंग की अग्नि कुछ-कुछ अनुभवगम्य है। दूसरे शब्दों में, जब जीवात्मा अपने कृष्णभावनामृत को कुछ-कुछ प्रकट करता है तो उसकी उपमा धुएँ से आवृत अग्नि से दी जा सकती है। यद्धपि जहाँ कहीं धुआँ होता है वहां अग्नि का होना अनिवार्य है, किन्तु प्रारम्भिक अवस्था में अग्नि की प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति नहीं होती। यह अवस्था कृष्णभावनामृत के सुभारम्भ जैसी है। दर्पण पर धूल का उदहारण मन रुपी दर्पण को अनेकानेक आध्यात्मिक विधियों से स्वच्छ करने की प्रक्रिया के समान है। इसकी सर्वश्रेष्ठ विधि है -भगवान् के पवित्र नाम का संकीर्तन। गर्भाशय द्वारा आवृत भ्रूण दृष्टांत असहाय अवस्था से दिया गया है, क्योंकि गर्भ -स्थित शिशु इधर-उधर हिलने के लिए भी स्वतंत्र नहीं रहता। जीवन की यह अवस्था वृक्षों के समान है। वृक्ष भी जीवात्माएं हैं,किन्तु उनमे काम की प्रबलता को देखते हुए उन्हें ऐसी योनि मिली है कि वे प्रायः चेतनाशून्य होते हैं। धूमिल दर्पण पशु-पक्षियों के समान है और धूम्र से आवृत अग्नि मनुष्य के सामान है। मनुष्य के रूप में जीवात्मा में थोड़ा बहुत कृष्णभावनामृत का उदय होता है और यदि वह और प्रगति करता है तो आध्यात्मिक जीवन की अग्नि मनुष्य जीवन में प्रज्वलित हो सकती है। यदि अग्नि के धुएँ को ठीक से नियंत्रित किया जाय तो अग्नि जल सकती है, अतः यह मनुष्य जीवन जीवात्मा के लिए ऐसा सुअवसर है जिससे वह संसार के बन्धन से छूट सकता है। मनुष्य जीवन में काम रुपी शत्रु को योग्य निर्देशन में कृष्णभावनामृत के अनुशीलन द्वारा जीता जा सकता है।
क्रमशः !!! 🙏🙏
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