मंगलवार, 13 जुलाई 2021

BHAGAVAD GITA 3:42

 🙏🙏इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः। 

मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः।।४२।।🙏🙏

इन्द्रियाणि -इन्द्रियों को; पराणी -श्रेष्ठ; आहुः -कहा जाता है; इन्द्रियेभ्यः--इन्द्रियों से बढ़कर; परम -श्रेष्ठ; मनः -मन; मनसः -मन की अपेक्षा; तु -भी; परा -श्रेष्ठ; बुद्धि -बुद्धि; यः -जो; बुद्धेः -बुद्धि से भी; परतः -श्रेष्ठ; तु -किन्तु; सः -वह। 

कर्मेन्द्रियाँ जड़ पदार्थ की अपेक्षा श्रेष्ठ हैं, मन इन्द्रियों से बढ़कर है, बुद्धि मन से भी उच्च है और वह (आत्मा )बुद्धि से भी बढ़कर है। 

तात्पर्य :-इन्द्रियां काम के कार्यकलापों के विभिन्न द्वार हैं। काम का निवास शरीर में है,किन्तु उसे इन्द्रिय रूपी झरोखे प्राप्त हैं। अतः कुल मिलाकर इन्द्रियां शरीर से श्रेष्ठ हैं। श्रेष्ठ चेतना या कृष्णभावनामृत होने पर ये द्वार काम में नहीं आते। कृष्णभावनामृत में आत्मा भगवान् के साथ सीधा सम्बन्ध स्थापित करता है, अतः यहाँ पर वर्णित शारीरिक कार्यों की श्रेष्ठता परमात्मा में आकर समाप्त हो जाती है। शारीरिक कर्म का अर्थ है -इन्द्रियों  के कार्य और इन इन्द्रियों के अवरोध का अर्थ है -सारे शारीरिक कर्मों का अवरोध। लेकिन चूंकि मन सक्रिय रहता है, अतः शरीर के मौन तथा स्थिर रहने पर मन कार्य करता है -यथा स्वप्न के समय मन कार्यशील रहता है। किन्तु मन के ऊपर भी बुद्धि की संकल्पशक्ति होती है और बुद्धि के ऊपर भी स्वयं आत्मा है। अतः यदि आत्मा प्रत्यक्ष रूप में परमात्मा में रत रहे तो अन्य सारे अधीनस्थ -यथा-बुद्धि, मन तथा इन्द्रियां -स्वतः रत हो जायेंगे। कठोपनिषद में एक ऐसा ही अंश है जिसमे कहा गया है कि इन्द्रिय-विषय इन्द्रियों से श्रेष्ठ है और मन इन्द्रिय -विषयों से श्रेष्ठ है। अतः यदि मन भगवान् की सेवा में निरंतर लगा रहता है तो इन इन्द्रियों के अन्यत्र रत होने की सम्भावना नहीं रह जाती। इस मनोवृति की विवेचना की जा चुकी है। परं दृष्टा निवर्तते -यदि मन भगवान् की दिव्य सेवा में लगा रहे तो तुच्छ विषयों में उसके लग पाने की सम्भावना नहीं रह जाती। कठोपनिषद में आत्मा को महान कहा गया है। अतः आत्मा इन्द्रिय-विषयों, मन तथा बुद्धि -इन सबके ऊपर है। अतः  सारी समस्या का हल  यह है कि आत्मा के स्वरुप को प्रत्यक्ष समझा जाय। 

मनुष्य को चाहिए कि बुद्धि के द्वारा आत्मा की स्वाभाविक स्थिति को ढूंढे और मन को निरंतर कृष्णभावनामृत में लगाये रखे। इससे सारी समस्या हल हो जाती है। सामान्यतः नवदीक्षित अध्यात्मवादी को इन्द्रिय-विषयों से दूर रहने की सलाह दी जाती है। किन्तु इसके साथ-साथ मनुष्य को अपनी बुद्धि का उपयोग करके मन को सशक्त बनाना होता है। यदि कोई बुद्धिपूर्वक अपने मन भगवान के शरणागत होकर कृष्णभावनामृत में लगा  रहता है,तो मन स्वतः सशक्त हो जाता है और यद्धपि इन्द्रियां सर्प के समान अत्यंत बलिष्ठ होती हैं, किन्तु  ऐसा करने पर वे दन्त विहीन सापों के समान अशक्त हो जाएँगी। यद्धपि आत्मा बुद्धि,मन तथा इन्द्रियों का भी स्वामी है तो भी जब तक इसे कृष्ण की संगति द्वारा कृष्णभावनामृत में सुदृढ़ नहीं कर लिया जाता, तब तक चलायमान मन के कारण नीचे गिरने की पूरी-पूरी सम्भावना बनी रहती है। 

क्रमशः !!!!   🙏🙏      

सोमवार, 21 जून 2021

BHAGAVAD GITA 3:41

तस्मात्वमिन्द्रियाणयादो  नियम्य भरतर्षभ। 

पाप्मानं प्रजहि ह्योनं ज्ञानविज्ञाननाशनम।।

तस्मात्-अतः; त्वम -तुम; इन्द्रियाणि -इन्द्रियों को; आदौ-प्रारम्भ में; नियम्य -नियमित करके; भरत-ऋषभ-हे भरतवंशियों में श्रेष्ठ; पाप्मानम-पाप के महान प्रतीक को; प्रजहि -दमन करो; हि-निशाय ही; एनम -इस; ज्ञान-ज्ञान; विज्ञान-तथा शुद्ध आत्मा के वैज्ञानिक ज्ञान का; नाशनम -संहर्ता,विनाश करने वाला। 

इसलिए हे भरतवंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन ! प्रारम्भ में ही इन्द्रियों को वश में करके इस पाप के महान प्रतीक (काम ) का दमन करो ज्ञान तथा आत्म-साक्षात्कार के इस विनाशकर्ता का वध करो। 

तात्पर्य :-भगवान् ने अर्जुन को प्रारम्भ से ही इन्द्रिय-संयम करने का उपदेश दिया जिससे वह सबसे पापी शत्रु काम का दमन कर सके,जो आत्म -साक्षात्कार तथा आत्मज्ञान की उत्कंठा को विनष्ट करने वाला है। ज्ञान का अर्थ है आत्म तथा अनात्म के भेद का बोध अर्थात यह ज्ञान कि आत्मा शरीर नहीं है। विज्ञान से आत्मा की स्वाभाविक स्थिति तथा परमात्मा के साथ उसके सम्बन्ध का विशिष्ट ज्ञान सूचित होता है। श्रीमदभागवत में (२.९.३१ ) इसकी विवेचना इस प्रकार हुई है -

ज्ञानं परमगुह्यं में यद्विज्ञानसमन्वितम। 

सरहस्यम तदङ्गं च गृहाण गदितं माया।। 

"आत्मा तथा परमात्मा का ज्ञान अत्यंत गुह्य एवं रहस्यमय है,किन्तु जब स्वयं भगवान् द्वारा इसके विविध पक्षों की विवेचना की जाती है तो ऐसा ज्ञान तथा विज्ञान समझा जा सकता है।" भगवतगीता हमें आत्मा का सामान्य तथा विशिष्ट ज्ञान (ज्ञान तथा विज्ञान) प्रदान करती है। जीव भगवान् के भिन्न अंश हैं,अतः वे भगवान् की सेवा के लिए हैं। यह चेतना कृष्णभावनामृत कहलाती है। अतः मनुष्य को जीवन के प्रारम्भ से इस कृष्णभावनामृत को सीखना होता है,जिससे वह पूर्णतया कृष्णभावनाभावित होकर तदनुसार कर्म करे। 

काम-ईश्वर प्रेम का विकृत प्रतिबिम्ब है और प्रत्येक जीव के लिए स्वाभाविक है। किन्तु यदि किसी को प्रारम्भ से ही कृष्णभावनामृत की शिक्षा दी जाय तो प्राकृतिक ईश्वर-प्रेम काम के रूप में विकृत नहीं हो सकता। एक बार ईश्वर-प्रेम के काम रूप में विकृत हो जाने पर इसके मौलिक स्वरूप को पुनः प्राप्त कर पाना दुःसाध्य हो जाता है। फिर भी,कृष्णभावनामृत इतना शक्तिशाली होता है कि विलम्ब से प्रारम्भ करने वाला भी भक्ति के विधि-विधानों का पालन करके ईश्वरप्रेमी बन सकता है। अतः जीवन की किसी भी अवस्था में, या जब भी इसकी अनिवार्यता समझी जाए,मनुष्य कृष्णभावनामृत या भगवद्भक्ति के द्वारा इन्द्रियों को वश में करना प्रारम्भ कर सकता है और काम को भगवत्प्रेम में बदल सकता है,जो मानव जीवन की पूर्णता की चरम अवस्था है। 

क्रमशः !!! 🙏🙏  

रविवार, 20 जून 2021

BHAGAVAD GITA 3:40

🙏🙏

इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्च्ते। 

एतैर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम।।४०।।

इन्द्रियाणि -इन्द्रियाँ; मनः -मन; बुद्धिः -बुद्धि; अस्य -इस काम का; अधिष्ठानम -निवासस्थान

उच्चते -कहा जाता है; एतै -इन सबों से; विमोहयति -मोहग्रस्त करता है; एषः-यह काम; ज्ञानम-ज्ञान को; आवृत्य-ढक कर; देहिनम-शरीरधारी को। 

इन्द्रियाँ,मन तथा बुद्धि इस काम के निवासस्थान हैं। इनके द्वारा यह काम जीवात्मा के वास्तविक ज्ञान को ढक कर उसे मोहित कर लेता है। 

तात्पर्य :-चूँकि शत्रु ने बद्धजीव के शरीर के विभिन्न सामरिक स्थानों पर अपना अधिकार कर लिया है, अतः भगवान् कृष्ण उन स्थानों का संकेत कर रहे हैं जिससे शत्रु को जीतने वाला यह जान ले कि शत्रु कहाँ पर है। मन समस्त इन्द्रियों के कार्यकलापों का केंद्र बिंदु है,अतः जब हम इन्द्रिय-विषयों के सम्बन्ध में सुनते हैं तो मन इन्द्रियतृप्ति के समस्त भावों का आगार बन जाता है। इस तरह मन तथा इन्द्रियां काम की शरणस्थली बन जाते हैं। इसके बाद बुद्धि ऐसी कामपूर्ण रुचियों की राजधानी बन जाती है। बुद्धि आत्मा की निकट पड़ोसिन है। काममय बुद्धि से आत्मा प्रभावित होता है जिससे उसमे अहंकार उत्पन्न होता है और वह पदार्थ से तथा इस प्रकार मन तथा इन्द्रियों से अपना तादात्म्य कर लेता है। आत्मा को भौतिक इन्द्रियों का भोग करने की लत पद जाती है,जिसे वह वास्तविक सुख मान बैठता है।श्रीमदभागवत में ( १०.८४. १३ ) आत्मा के इस मिथ्या स्वरूप की अत्युत्तम विवेचना की गई है -

यस्यात्मबुद्धिः कुणपे त्रिधातुके स्वधीः कलत्रादिषु भौम इज्यधीः।

यतीर्थबुद्धिः सलिले न करहिचिज्जनेष्वभिज्ञेषु  स एव  गोखरः।।

"जो मनुष्य इस त्रिधातु निर्मित शरीर को आत्मस्वरूप जा बैठता है,जो देह के विकारों को स्वजन समझता है,जो जन्मभूमि को पूज्य मानता है और जो तीर्थस्थलों की यात्रा दिव्यज्ञान वाले पुरुष से भेंट करने के लिए नहीं,अपितु स्नान करने के लिए करता है,उस गधा या बैल के समान समझना चाहिए। "

क्रमशः !!!🙏🙏   

      

शनिवार, 19 जून 2021

BHAGAVAD GITA 3:39

🙏🙏

आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा। 

कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च।।

आवृतं -ढका हुआ; ज्ञानम -शुद्ध चेतना; एतेन -इससे; ज्ञानिनः-ज्ञाता का; नित्य -वैरिणा -नित्य शत्रु द्वारा; काम-रूपेण -काम के रूप में; कौन्तेय-हे कुन्तीपुत्र; दुष्पूरेण -कभी भी तुष्ट न होने वाली; अनलेन -अग्नि द्वारा; च -भी।

इस प्रकार ज्ञानमय जीवात्मा की शुद्ध चेतना उसके काम रूपी नित्य शत्रु से ढकी रहती है, जो कभी भी तुष्ट नहीं होता और अग्नि के समान जलता रहता है। 

तात्पर्य :-मनुस्मृति में कहा गया है कि कितना भी विषय -भोग क्यों न किया जाय काम की तृप्ति नहीं होती,जिस प्रकार कि निरन्तर ईंधन डालने अग्नि कभी नहीं बुझती। भौतिक जगत में समस्त कार्यकलापों का केन्द्रबिन्दु मैथुन ( कामसुख ) है, अतः इस जगत को मैथुन्य -आगार या विषयी-जीवन की हथकडियाँ कहा गया है। एक समान्य बन्दीगृह में अपराधियों को छड़ों के भीतर रखा जाता है इसी प्रकार जो अपराधी भगवान् के नियमों की अवज्ञा करते है, वे मैथुन जीवन द्वारा बंदी बनाये जाते है। इन्द्रियतृप्ति के आधार पर भौतिक सभ्यता की प्रगति का अर्थ है, इस जगत में जीवात्मा की बन्धन अवधि को बढ़ाना। अतः यह काम अज्ञान का प्रतीक है जिसके द्वारा जीवात्मा को इस संसार मे रखा जाता है। इन्द्रियतृप्ति का भोग करते समय हो सकता है कि कुछ प्रसन्नता की अनुभूति हो,किन्तु यह प्रसन्नता की अनुभूत्ति ही इन्द्रियभोक्ता का चरम शत्रु है। 

क्रमशः !!!🙏🙏  

शुक्रवार, 18 जून 2021

BHAGAVAD GITA 3:38

🙏🙏 धूमेनाव्रियते वर्यह्निःथादर्शो  मलेन च। 

यथोल्बेनाव्रतो गर्भस्तथा तेनेदमावर्तम।।३८।।

धूमेन -धुएँ से; आव्रियते- ढक जाती है; वह्निः-अग्नि; यथा -जिस प्रकार;आदर्श -शीशा,दर्पण; मलेन-धूल से; च-भी; यथा-जिस प्रकार; उल्बेन-गर्भाशय द्वारा; आवृतः -ढका रहता है; गर्भः -भ्रूण,गर्भ; तथा-उसी प्रकार; तेन -काम से; इदम-यह; आवृतम -ढका है। 

जिस प्रकार अग्नि धुएँ से,दर्पण धूल से अथवा भ्रूण गर्भाशय से आवृत रहता है, उसी प्रकार जीवात्मा इस काम की विभिन्न मात्राओं से आवृत रहता है। 

तात्पर्य :-जीवात्मा के आवरण की तीन कोटियां हैं जिनसे उसकी शुद्ध चेतना धूमिल होती है। यह आवरण काम ही है, जो विभिन्न स्वरूपों में होता है यथा अग्नि में धुआँ, दर्पण पर धूल तथा भ्रूण पर गर्भाशय। जब काम की उपमा धूम्र से दी जाती है तो यह समझना चाहिए कि जीवित स्फुल्लिंग की अग्नि कुछ-कुछ अनुभवगम्य है। दूसरे शब्दों में, जब जीवात्मा अपने कृष्णभावनामृत को कुछ-कुछ प्रकट करता है तो उसकी उपमा धुएँ से आवृत अग्नि से दी जा सकती है। यद्धपि जहाँ कहीं धुआँ होता है वहां अग्नि का होना अनिवार्य है, किन्तु प्रारम्भिक अवस्था में अग्नि की प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति नहीं होती। यह अवस्था कृष्णभावनामृत के सुभारम्भ जैसी है। दर्पण पर धूल का उदहारण मन रुपी दर्पण को अनेकानेक आध्यात्मिक विधियों से स्वच्छ करने की प्रक्रिया के समान है। इसकी सर्वश्रेष्ठ विधि है -भगवान् के पवित्र नाम का संकीर्तन। गर्भाशय द्वारा आवृत भ्रूण  दृष्टांत असहाय अवस्था से दिया गया है, क्योंकि गर्भ -स्थित शिशु इधर-उधर हिलने के लिए भी स्वतंत्र नहीं रहता। जीवन की यह अवस्था वृक्षों के समान है। वृक्ष भी जीवात्माएं हैं,किन्तु उनमे काम की प्रबलता को देखते हुए उन्हें ऐसी योनि मिली है कि वे प्रायः चेतनाशून्य होते हैं। धूमिल दर्पण पशु-पक्षियों के समान है और धूम्र से आवृत अग्नि मनुष्य के सामान है। मनुष्य के रूप में जीवात्मा में थोड़ा बहुत कृष्णभावनामृत का उदय होता है और यदि वह और प्रगति करता है तो आध्यात्मिक जीवन की अग्नि मनुष्य जीवन में प्रज्वलित हो सकती है। यदि अग्नि के धुएँ को ठीक से नियंत्रित किया जाय तो अग्नि जल सकती है, अतः यह मनुष्य जीवन जीवात्मा के लिए ऐसा सुअवसर है जिससे वह संसार के बन्धन से छूट सकता है। मनुष्य जीवन में काम रुपी शत्रु को योग्य निर्देशन में कृष्णभावनामृत के अनुशीलन द्वारा जीता जा सकता है। 

क्रमशः !!! 🙏🙏       

सोमवार, 14 जून 2021

BHAGAVAD GITA 3:37

 श्रीभगवानुवाच 

🙏🙏

काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः। 

महाशनो महापाप्मा विद्धयेनमिह वैरिणम।।३७।।

श्री-भगवानुवाच -श्रीभगवान ने कहा; कामः विषयवासना; एषः -यह; क्रोधः-क्रोध; एषः-यह; रजः-गुण-रजोगुण से; समुद्भवः -उत्पन्न; महा-अशनः -सर्वभक्षी; महा-पापम्या -महान पापी; विद्धि--जानो; एनम-इसे; इह-इस संसार में; वैरिणम -महान शत्रु। 

श्रीभगवान् ने कहा-हे अर्जुन ! इसका कारण रजोगुण के सम्पर्क से उत्पन्न काम है, जो बाद में क्रोध का रूप धारण करता है और जो इस संसार का सर्वभक्षी पापी शत्रु है। 

तात्पर्य :-जब जीवात्मा भौतिक सृष्टि के सम्पर्क में आता है तो उसका शाश्वत कृष्ण -प्रेम रजोगुण की संगति  से काम में परिणित हो जाता है। अथवा दूसरे शब्दों में,ईश्वर प्रेम का भाव काम में उसी तरह बदल जाता है जिस तरह इमली के संसर्ग से दूध दही में बदल जाता है और जब काम की संतुष्टि नहीं होती तो यह क्रोध में परिणित हो जाता है, क्रोध मोह में और मोह इस संसार में निरन्तर बना रहता है। अतः जीवात्मा का सबसे बड़ा शत्रु काम है और यह काम ही है जो विशुद्ध जीवात्मा को इस संसार ने फँसे रहने के लिए प्रेरित करता है। क्रोध तमोगुण का प्रकाट्य है। वे गुण अपने आपको क्रोध तथा अन्य रूपों में प्रकट करते हैं। अतः यदि रहने तथा कार्य करने की विधियों द्वारा रजोगुण को तमोगुण में न गिरने देकर सतोगुण तक ऊपर उठाया जाय तो मनुष्य को क्रोध में पतित होने से आध्यात्मिक आसक्ति के द्वारा बचाया जा सकता है। 

अपने नित्य वर्धमान चिदानन्द के लिए भगवान् ने अपने आपको अनेक रूपों में विस्तारित कर लिया और जीवात्माएं उनके इस चिदानन्द के ही अंश हैं। उनको भी आंशिक स्वतंत्रता प्राप्त है, किन्तु अपनी इस स्वतंत्रता का दुरुप्रयोग करके जब वे सेवा को इन्द्रियसुख में बदल देती हैं तो वे काम की चपेट में आ जाती हैं। भगवान् ने इस सृष्टि की रचना जीवात्माओं के लिए इन कामपूर्ण रूचियों की पूर्ति हेतु सुविधा प्रदान करने के निमित की और जब जीवात्माएं दीर्घकाल तक काम-कर्मों फँसे रहने के कारण पूर्णतया ऊब जाती हैं,तो वे अपना वास्तविक स्वरुप जानने के लिए जिज्ञासा करने लगाती है। 

यही जिज्ञासा वेदांत-सूत्र का प्रारम्भ है जिसमे यह कहा गया है -अथातो ब्रह्मजिज्ञासा -मनुष्य को परम तत्व की जिज्ञासा करनी चाहिए। और इस परम तत्व की परिभाषा श्रीमद्भागवत में इस प्रकार दी गयी है -जन्माद्यस्य यतोन्वयदितारतरश्च  -सारी वस्तुओं का उद्गम परब्रह्म है। अतः काम का उद्गम भी परब्रह्म से हुआ। अतः यदि काम को भगवत्प्रेम में या कृष्णभावना में परिणित कर दिया जाय,या दूसरे शब्दों में कृष्ण के लिए ही सारी इच्छाएँ  हों तो काम तथा क्रोध दोनों ही आध्यात्मिक बन सकेंगे। भगवान् राम के अनन्य सेवक हनुमान ने रावण की स्वर्णपुरी को जलाकर अपना क्रोध प्रकट किया,किन्तु ऐसा करने से वे भगवान् के सबसे बड़े भक्त बन गए। यहाँ पर भी श्रीकृष्ण अर्जुन को प्रेरित  करते हैं कि वह शत्रुओं पर अपना क्रोध भगवान् को प्रसन्न करने के लिए दिखाए। अतः काम तथा क्रोध कृष्णभावनामृत में प्रयुक्त होने पर हमारे शत्रु न रहकर मित्र बन जाते हैं।

क्रमशः !!!🙏🙏      

रविवार, 13 जून 2021

BHAGAVAD GITA 3:36

 अर्जुन उवाच 

🙏🙏

अथ केन प्रयुक्तोयं पापं चरति पूरुषः 

अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः।।३६।।

अर्जुनः उवाच -अर्जुन कहा; अथ -तब; केन -किस के द्वारा; प्रयुक्त-प्रेरित; अयम -यह; पापम-पाप; चरति-करता है; पूरुषः-व्यक्ति; अनिच्छन- न चाहते हुए; अपि-यद्द्पि; वार्ष्णेय -हे वृष्णिवंशी; बलात-बलपूर्वक; इव -मानो;नियोजितः -लगाया गया। 

अर्जुन ने कहा -हे वृष्णिवंशी ! मनुष्य न चाहते हुए भी पापकर्मों के लिए प्रेरित क्यों होता है ? ऐसा लगता है कि उसे बलपूर्वक उनमे लगाया जा रहा हो। 

तात्पर्य :-जीवात्मा परमेश्वर का अंश होने के कारण मूलतः आध्यात्मिक,शुद्ध एवं समस्त भौतिक कल्मषों से मुक्त रहता है। फलतः स्वभाव से वह भौतिक जगत के पापों में प्रवृत नहीं होता। किन्तु जब वह माया के संसर्ग में आता है,तो वह बिना झिझक के और कभी-कभी इच्छा के विरुद्ध भी अनेक प्रकार से पापकर्म करता है। अतः कृष्ण से अर्जुन का प्रश्न अत्यंत प्रत्याशापूर्ण है कि जीवों की प्रकृति विकृत क्यों हो जाती है। यद्द्पि कभी-कभी जीव कोई पाप नहीं करना चाहता,किन्तु उसे ऐसा करने के लिए बाध्य होना पड़ता है। किन्तु ये पापकर्म अन्तर्यामी परमात्मा द्वारा प्रेरित नहीं होते अपितु अन्य कारण से होते हैं, जैसा कि भगवान अगले श्लोक में बताते हैं। 

क्रमशः- 🙏🙏